दास्ताँ ए दर्द ! 1 रिश्तों के बंधन, कुछ चाहे, कुछ अनचाहे ! कुछ गठरी में बंधे स्मृतियों के बोझ से तो कुछ खुलकर बिखर जाने से महकी सुगंध से ! क्या नाम दिया जा सकता है रिश्तों को ? उड़ती सुगंधित बयार ? सूर्य से आलोकित देदीप्यमान प्रकाश स्तंभ ? टूटे बंजारे की दूर तक चलती पगडंडी या ---पता नहीं, और क्या ? लेकिन वे होते हैं मन की भीतरी दीवार के भीतर सहेजकर रखी कुनमुनी धूप से जिन्हें मन में बर्फ़ जमने पर अदृश्य खिड़की की झिर्री से मन-आँगन को गर्माहट मिल सकती है सुन्न पड़े हुए मन के हाथ-पाँव क्षण भर में

Full Novel

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दास्ताँ ए दर्द ! - 1

दास्ताँ ए दर्द ! 1 रिश्तों के बंधन, कुछ चाहे, कुछ अनचाहे ! कुछ गठरी में स्मृतियों के बोझ से तो कुछ खुलकर बिखर जाने से महकी सुगंध से ! क्या नाम दिया जा सकता है रिश्तों को ? उड़ती सुगंधित बयार ? सूर्य से आलोकित देदीप्यमान प्रकाश स्तंभ ? टूटे बंजारे की दूर तक चलती पगडंडी या ---पता नहीं, और क्या ? लेकिन वे होते हैं मन की भीतरी दीवार के भीतर सहेजकर रखी कुनमुनी धूप से जिन्हें मन में बर्फ़ जमने पर अदृश्य खिड़की की झिर्री से मन-आँगन को गर्माहट मिल सकती है सुन्न पड़े हुए मन के हाथ-पाँव क्षण भर में ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 2

दास्ताँ ए दर्द ! 2 रवि पंडित जी ! ओह ! अचानक कितना कुछ पीछे गया हुआ में भर जाता है | रीता व देव की देखा-देखी रवि पंडित जी भी उसे दीदी कहने लगे थे | यानि वहाँ वह सबकी दीदी ही थी, एक ऎसी दीदी जो वैसे तो हर जात-बिरादरी से अलग थी लेकिन वैसे ब्राह्मण थी, पंडिताइन ! अब उसका क्या किया जाए जब ऊपर से ही उसने ब्राह्मण-कुल में जन्म लिया था | रवि भी कुछ वर्ष पूर्व भारत से आकर वहाँ बस गए थे, पता नहीं उनकी ज्योतिष विद्या में कितना दम था पर वे पंडिताई तो करते ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 3

दास्ताँ ए दर्द ! 3 वह दिन प्रज्ञा के लिए यादगार बन गया था | वह अकेली की सड़कों पर घूम रही थी, किसी भी दुकान में घुसकर 'विंडो-शॉपिंग' करने में उसे बड़ा मज़ा आ रहा था | वह एक आर्टिफ़िशियल ज्वेलरी की दुकान में घुस गई थी और वहाँ की सरदार मालकिन से बातें करने लगी थी जिसका पति टैक्सी चलाता था और वह स्वयं एक दुकान की मालकिन थी | "कुछ ले लो बहन जी ----" काफ़ी शुद्ध हिंदी बोलती थीं वो, बता दिया उन्होंने, दिल्ली में जन्मी, बड़ी हुई थीं |शादी के बाद यहाँ आई थीं, पच्चीस बरस से ज़्यादा ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 4

दास्ताँ ए दर्द ! 4 कुछ देर बाद रवि भी मंदिर पहुँच गए और भजनों के सम्मिलित में अपना स्वर मिलाने की चेष्टा करने लगे | बेसुरे थे वो किन्तु तबले व हारमोनियम के मद्धम सुरों ने उन्हें अपने सुर में ढालने की चेष्टा की, भजन-मंडली के चयनित भजन सबको आते थे सो रवि के साथ तबले की थाप पर सबने उनका साथ दिया | सबका एक ही मक़सद था, आनंदानुभूति ! वो हो रही थी और क्या चाहिए? शायद उस दिन थोड़े समय में ही रवि का 'व्यापार' भी बहुत अच्छा हुआ था, उनके चेहरे पर लिखा था | होता ही है भई, आदमी ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 5

दास्ताँ ए दर्द ! 5 उस दिन प्रज्ञा वास्तव में बहुत थक गई थी, बाद में रूप से भी उन महाराज के वचनों व वहाँ की परिस्थिति ने उसमें अजीब सी थकान भर दी थी ! अगले दिन उसने सारी कहानी रीता को बताई ; "दीदी ! अपने सर्वाइवल के लिए न जाने आदमी क्या-क्या नाटक करता है ---!!" उसने व्यंग्य से कहा | यह कहते हुए उसने एक लंबी साँस खींची थी | " सर्वाइवल नहीं केवल ----" वह कोई कठोर बात बोलने जा रही थी, रीता का उतरा चेहरा देखकर चुप रह गई | चतुरानन्द का काइयाँ चेहरा व दृष्टि ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 6

दास्ताँ ए दर्द ! 6 लंदन के जिस शहर में रीता रहती थी उसका नाम था 'लैमिंगटन '! प्रज्ञा इस बार भी आई तो अपने किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में थी पर जब आई ही थी तो थोड़ी छुट्टियाँ बढ़ाकर ही लाई थी जिससे दोस्तों के पास, अघिकतर रीता के पास रहकर कुछ दिन एन्जॉय कर सके, बीते दिनों की पुरवाई को छू सके | प्रज्ञा कई दोस्तों के पास कुछ दिन रहना चाहती थी इस बार, जिनसे पिछली बार मिल भी नहीं पाई थी किन्तु रीता और देव ने उसे कहीं जाने ही नहीं दिया | या तो अपने घर पर उसके मित्रों को आमंत्रित कर लेते या समय होता तो उसे ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 7

दास्ताँ ए दर्द ! 7 इस बार प्रज्ञा अप्रेल माह के अंत में इंग्लैण्ड पहुँची थी, उसे हुआ लंबे, नंगे पेड़ों को देखकर जो रीता ने बताया था, जिन्होंने हाल ही में अपने वस्त्र उतार फेंके थे, बिलकुल निर्वस्त्र हो गए थे लेकिन बगीचे में अनेक जातियों के रंग-बिरंगे फूल मुस्कुरा रहे थे | बगीचे को घेरती हुई एक फैंसिंग बनाई गई थी जिसके पीछे लंबे-लंबे पेड़ थे | इतनी दूरी से वह केवल उन वस्त्रविहीन पेड़ों को देख पा रही थी, इससे अधिक कुछ नहीं |इस बार वह तीन माह यहाँ रही और इन तीन महीनों में उसने लंदन के कई रंग देखे, कई लोगों से उसका परिचय हुआ | एक ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 8

दास्ताँ ए दर्द ! 8 दीक्षा उसे शहर की एक लायब्रेरी में ले गईं थीं जहाँ उसकी एक कैनेडियन स्त्री सोफ़ी से हुई जो वहाँ की 'हैड लायब्रेरियन 'थी | बाद में जब भी अनुकूलता होती वह अपने आप लायब्रेरी में जाने लगी, उसकी वहाँ और भी स्टाफ़ के कई लोगों से दोस्ती हो गई थी | " सी, इज़ इट यू ?"मैकी जैक भी लायब्रेरी में काम करती थी | उसके हाथ में एक हिंदी की पत्रिका थी जिस पर प्रज्ञा की तस्वीर थी | "ओ ! यस ---वेयर डिड यू फ़ाइन्ड?"प्रज्ञा को अपनी पत्रिका वहाँ देखकर खुशी होनी स्वाभाविक थी | "इन द मैगज़ीन सैक्शन ----" मैकी , सोफ़ी या वहाँ ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 9

दास्ताँ ए दर्द ! 9 दीक्षा की कार के रुकने की धीमी सी आवाज़ सुनाई दी शोर-शराबा , आवाज़ न होने से गाड़ी के हल्के से रुकने की आवाज़ दिन में भी वातावरण में सुनाई दे गई थी | "दीदी ! दीक्षा आ गई हैं, आपको चेंज करना है क्या ?" रीता उस समय किचन में थी, कार की आवाज़ से उसने कमरे में आकर खिड़की से दूर से ही देखा | "नहीं, ठीक तो है, चेंज की ज़रुरत नहीं लगती | तुम कहो तो ----भाई, आखिर तुम्हारे सम्मान की बात है " प्रज्ञा ने रीता से पूछा | "हाँ, मुझे भी ठीक लग रहा है | चलिए, ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 10

दास्ताँ ए दर्द ! 10 खाना-पीना समाप्त हुआ, सब अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले | कुछ स्त्रियाँ अपनी से आईं थीं, अधिकांश को वही गाड़ी छोड़ने जा रही थी जो उन्हें लेकर आई थी | प्रज्ञा ने भी सबको धन्यवाद दिया और वापिस आने के लिए दीक्षा बहन की गाड़ी में बैठ गई | आई तो थी यहाँ कुछ जानने, समझने, कुछ बदलाव के लिए पर जो बदलाव उसे मिला उसमें वह और अधिक असहज हो गई | एक मानसिक गहराती बदली उसके मन में डेरा डालकर उमड़ घुमड़ करने लगी | "क्या बात है, आप यहाँ आकर बहुत चुप हो गईं ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 11

दास्ताँ ए दर्द ! 11 प्रज्ञा के भारत वापिस लौटने के अब कुछ दिन ही शेष रहे समय बीतता जा रहा था और उसके मन में सतवंत कौर यानि सत्ती के प्रति और भी अधिक उत्सुकता बढ़ती जा रही थी | देव और रीता दोनों ही सप्ताह के पाँच दिन अपने -अपने काम में व्यस्त रहते थे | सत्ती को घर पर लाने के लिए समय निकालना था |शनिवार को यूँ तो रीता व देव मॉल जाकर सप्ताह भर का राशन-पानी, घर का ज़रूरी सामान इक्क्ठा लाकर रख देते लेकिन उस दिन रीता ने कुछ ऐसा माहौल बनाया कि बच्चे देव के साथ बाज़ार चले जाएंगे और इस शर्त ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 12

दास्ताँ ए दर्द ! 12 आज सत्ती काफ़ी सहज लग रही थी, उस दिन के मुकाबले | जाने क्या कारण था ? शायद वह रीता से काफ़ी खुली हुई थी, रीता ने कभी उसके तंग समय में उसकी बहुत सहायता की थी | यूँ, देखा जाए तो उसका समय आज भी लगभग वैसा ही था किन्तु किसी बात को बार-बार आख़िर कितनी बार दोहराया जा सकता है !कोई किसीकी कितनी सहायता कर सकता है ?किसी भी रूप में सही | चाय पीते समय भी एक सहमी हुई शांति पूरे वातावरण में पसरी रही, किसीको भी समझ नहीं आ रहा था बात कहाँ ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 13

दास्ताँ ए दर्द ! 13 ज़ेड जैसे एक अलग सी लड़की थी, कुछ न कुछ ऊट - करती ही रहती |कभी बेकार ही रीता के घर की ओर देखकर मुस्कुराकर असमंजस में डाल देती तो कभी अजीब से चेहरे बनाकर कुछ गाली सी देती रहती | प्रज्ञा ने महसूस किया उसका व्यवहार नॉर्मल तो नहीं ही था | जैसे किसी से बदला लेने की उलझन में सदा उसके दिमाग़ की चूलें ढीली होतीं तो कभी बेबात ही जैसे ज़रूरत से अधिक कस जातीं | जब भी प्रज्ञा की दृष्टि उस पर पड़ती, वह असहज हो उठती | उसने रीता से कई बार इस ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 14

दास्ताँ ए दर्द ! 14 इस बार प्रज्ञा अपने मन पर एक ऐसा बोझ लेकर लौटी उतारना उसके लिए बेहद ज़रूरी था | वह दिन-रात असहज रहने लगी थी | एक ऎसी बीमारी से ग्रसित सी जिसका कोई अता-पता न था फिर भी भीतर से वह उसे खाए जा रही थी | सत्ती कभी भी उसे झंझोड़ देती और वह चौंककर, धड़कते हुए हृदय से उसके साथ हो लेती | सत्ती रातों को उसे जगाकर जैसे झंझोड़ डालती और जैसे उससे पूछती --बस, हो गया शौक पूरा ? जीवन में अनजाने, अनचाहे ऐसे मोड़ आ जाते हैं जो मनुष्य को सहज तो ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 15

दास्ताँ ए दर्द ! 15 सत्ती के मायके के लोग वैसे ही निम्न मध्यम वर्ग के थे उनसे जितनी सहायता हुई उन्होंने की |उनकी भी सीमाएँ थीं | बिंदर की दोस्ती पीने-पिलाने के चक्कर में सत्ती के गाँव वाले बल्ली से हो गई |उसे यह तो पता नहीं था कि बल्ली उसके तयेरे भाईयों का पक्का दोस्त है और उनका रोज़ का ही उठना-बैठना, पीना-पिलाना है | बस, जाल में फँसता ही तो चला गया और बल्ली से उसकी ऎसी दोस्ती हुई कि वह अपनी सारी सलाहें उससे ही लेने लगा | वह घर से रात-रात भर ग़ायब रहने लगा | बल्ली तो जाने कबसे सत्ती ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 16

दास्ताँ ए दर्द ! 16 हीथ्रो, बहुत बड़ा, लोगों से भरचक हवाईअड्डा ! और कोई पल होता सत्ती न जाने कितनी ख़ुश होती, उछल-कूद मचाती ! सत्ती क्या कोई भी युवा लड़की आश्चर्य व उल्लास से भरी अपने चारों ओर के नज़ारों को देखती, स्फुरित होती | बस, एक बार रेल में बैठी थी सत्ती, जब स्वर्ण मंदिर के दर्शन करने अपने परिवार के साथ गई थी | पूरे रास्ते रेल की छुकर-छुकर के साथ टप्पे गाती रही थी, चौदह बरस की सत्ती ! कैसे ताल दे रही थी छुकर-छुकर करती गाड़ी ! अक्सर उसके टप्पों की कोमल आवाज़ से झूमकर सीटी ...और पढ़े

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दास्ताँ ए दर्द ! - 17 - अंतिम भाग

दास्ताँ ए दर्द ! 17 प्रज्ञा को बहुत समय लगा सत्ती के ऊपर कुछ लिखने में वह जैसे ही उसकी किसी स्मृति को लिखना शुरू करती, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा निकल जाती और दृष्टि धुंधला जाती| इतना भी कठोर हो सकता है विधाता अपने बच्चों के लिए ? फिर अगर सत्ती कठोर हो गई थी तो क्या बड़ी बात थी ? जब उसने सत्ती को देखा था, वह चिड़चिड़ी हो चुकी थी | सहित-धवल वस्त्रों में सुसज्जित सत्ती के चेहरे पर वैसे तो मायूसी पसरी रहती पर चेहरे का निष्कपट भाव लुभा लेता | पता नहीं लोग उसकी इस मूरत को क्यों ...और पढ़े

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दास्तान-ए -दर्द

डॉ. प्रणव भारती ----------------------------------------- दास्तान-ए-दर्द शीर्षक में छिपी चार उपन्यासिकाएँ अपने भीतर एक पूरा का पूरा समुद्र उठाए घूमती | इस दर्द के सैलाब में विभिन्न विषय हैं जो वैसे तो अलग हैं किन्तु किसी न किसी प्रकार से एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि लगता है एक डोर से बंधे हुए हैं |आदमी के शरीर के सभी अंग उसके शरीर से जुड़े रहते हैं लेकिन उनका काम अलग अलग होता है | ऐसे ही मस्तिष्क की शिराओं में कौनसी संवेदना कब भीतर के भाव कुरेदने लगे,लेखक नहीं जानता | वह उसके लिए कोई 'प्री-प्लानिंग' नहीं करता है ...और पढ़े

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