हाँ नहीं तो -3
94 -- कविता
आजकल आप
कुछ भी लिखो,
कविता बन जाती है|
हाथ में कलम लेते ही,
नेता या सरकार की छवि,
कागज पर बन आती है|
मंहगाई, घोटाले, विपक्ष,
आम आदमी जैसे शब्द,
कविता को खूब भाते हैं|
तभी तो कोई भी लिखे,
हर कविता में,
बिन बुलाये महमानों की
तरह चले आते हैं|
इन कविताओं की भाषा,
इतनी तरल और सरल होती है,
कि जरूरत ही नहीं पड़ती,
दुभाषिए की|
हत्या, गबन, बलात्कार
आदि शब्द,
शोभा बढाते हैं,
हाशिये की||
95 -- गोताखोर
नदी में आई
भीषण बाढ में,
सब कुछ बह गया,
कई गोताखोर
काम आ गये|
पर वहाँ भी,
जूताखोर
कमा गए||
96 - कठमुल्ला
धर्म के नाम पर,
जो करता हो,
सबसे ज्यादा
हल्ला-गुल्ला|
समझ लीजिये
वही है,
सबसे बड़ा कठमुल्ला||
97 - रिश्वत
कोई घूस कहता है,
कोई नज़राना|
कोई रिश्वत कहता है,
कोई शुकराना|
लॉच तो है,
भारतीय होने का,
हरजाना||
98 - पेट की खातिर
हर किसी को मेरी बात
गांठ में
बांध लेनी चाहिए
कि
जब भी अपने से बड़े से
कुछ भी मांगने जाएँ
पेट की खातिर|
तो ध्यान रखें,
ये होते हैं बड़े शातिर|
इसलिए, उनके लिए
पहले खुद की
गांठ ढीली करें,
और कुछ न कुछ
जरूर ले जाएँ,
भेंट की खातिर||
99 - धांधली
एक बात साफ है,
पाकिस्तानी खिलाड़ी,
अंपायर और हुक्मरान,
करते हैं धांधली|
आउट होता है सोएब,
भुगतता है कांबली|
कसाब को फसा दिया,
बच गया हेडली|
धीरे धीरे यह पैंतरेबाजी,
सब को समझ में आ गई,
इसलिए सबने इस बात की,
गांठ बांध ली|
अमरीका भी,
इससे अछूता नहीं रहा,
यही कारण है कि उसने भी,
पाकिस्तान के खिलाफ,
कमान साध ली||
100 - उबाऊ
पार्टी का पोस्टर,
जितना भड़काऊ था|
नेताजी का भाषण,
उतना ही उबाऊ था|
पर उपस्थित श्रोताओं की,
यह खास खूबी रही|
नेताजी को,
अहसास भी न होने दिया,
कि जनता उनसे ऊबी रही|
बल्कि,
ऐसे दर्शाया जैसे,
जनता उनके भाषण में,
सांगोपांग डूबी रही||
101 - चोला
आजकल भगवाधारी,
रहते हैं सानंद|
इनके तो नामों से ही,
टपकता रहता है आनंद|
ब्रह्मानन्द, नित्यानन्द,
रामानन्द, परमानंद|
चेली की चोली देख,
जब भी इनका मन डोला|
चेलों सहित उतारने लगते हैं,
ये भगवा चोला||
102 - अंगूर खट्टे
वर्षों तक हम विपक्ष में थे,
क्योंकि हम उल्लू के पट्ठे थे,
इसलिए अंगूर भी खट्टे थे|
अब हम समझदार हो गए हैं,
इसलिए सरकार हो गए हैं||
सारे के सारे चट्टे-बट्टे,
हो गए हैं इकट्ठे|
अब तो वो अंगूर भी,
मीठे लगने लगे हैं,
जो विपक्ष में रहते हुये,
लगा करते थे खट्टे||
103 - चस्का
कोई भी काम न हो,
जिसके वश का,
उसी को लगता है,
राजनीति का चस्का|
और एक बार लग गया तो,
छूटता ही नहीं,
चाहे इसके लिए
किसी को भी, कितना भी
लगाना पड़े मस्का||
104 - पूंजी
पातिव्रत धर्म का,
पूर्णतः पालन करती है,
पूंजी|
इतना कि,
और कर न सके दूजी|
पूंजी चूजी होती है,
हर ऐरे-गैरे को,
हाथ भी नहीं लगाने देती|
इसीलिए तो होती है,
पूंजीपतियों की चहेती||
105 - सुझाव
सौ में से तीन पाने वाले की,
कठपुतली बनना,
सौ में से अड़तालीस,
पाने वाले की मजबूरी है|
अतः सरकार बनाने वाले,
कानून में फेर-बादल जरूरी है|
कानून बने,
जो पार्टी सबसे ज्यादा सीटें,
जीत कर लाये|
उसी की,
ताजपोशी की जाए||
दूसरे नंबर की पार्टी,
विपक्ष की कुर्सी सम्हाले|
बाकी सब दूर से तमाशा देखें,
गले में रामनामी डाले||
इससे कुछ हो न हो,
खत्म हो जाएंगी,
चलने नहीं दूंगा, खींच लूँगा,
गिरा दूंगा जैसी हरकतें घिनौनी|
छुटभैये बाज़ आएंगे,
न खेल पाएंगे आँखमिचौनी|
देश मजबूत होगा|
महफूज होगा||
106 - चोर की दाढ़ी में
किसी की सचाई,
जैसे कि भ्रष्ट, असभ्य,
घोटालेबाज आदि आदि
बयान करने पर,
यदि कोई जरा भी भिनका|
तो समझ लीजिए,
कि होता है,
चोर की दाढ़ी में तिनका||
107 -- बालि का बकरा
मंत्रीजी ने चाँद देखा,
अंदर गए और,
चाँद के साथ मनाई ईद|
इस घटना के होंगे,
कई चश्मदीद|
पर कोई आगे आएगा,
इसकी नहीं कोई उम्मीद|
पानी में रह कर मगर-मच्छ से,
बैर कौन ले?
सब जानते हैं,
जो भी आगे आयेगा|
उसी को बनाया,
बलि का बकरा जाएगा||
108 - प्रजातांत्रिक ढांचा
हम कितने आदर्शवादी हैं?
कि खुद के ही कारनामों पर,
खुद ही दे लेते शाबाशी हैं|
गुरु अफजल और कसाबों
जैसे कसाइयों को बना लेते,
मोहरा सियासी हैं|
भूल जाते हैं छब्बीस-ग्यारह,
जैसे तमाचे को|
और कोसने लगते हैं,
प्रजातांत्रिक ढांचे को|
109 - अन्नदाता (किसान)
तेरा नाम?
अन्नदाता|
तेरा काम?
अन्नदाता|
क्या चाहिए?
रोटी!
अन्नदाता|
109 -- लूट-पाट
आगजनी, बलात्कार,
हत्या और लूटपाट|
के चल रहे मुक़द्दमे,
उन पर सात या आठ|
फिर भी बने बैठे हैं,
वे,
राजनीति में लाट|
बैठें रहेंगे जब तक वे चाहेंगे,
या फिर जब तक,
देश को न जाएँ चाट||
110 - स्याही
यदि पुत गई,
कुकर्मों की काली स्याही|
तो फिर है समस्या,
समस्या ही|
इंसानी अदालत से,
पा भी ली यदि रिहाई|
ऊपर की अदालत में,
कैसे छिपाओगे स्याही?
111 - लेन-देन
ओह!
येन केन
प्रकारेण
खत्म
हुआ,
लेन-देन||
112 - डकार
उनका पेट,
पहले भी नहीं भरता था,
जब वे हुआ, सरकार किए|
और जनता की,
गाढ़ी कमाई के,
अरबों डकार लिए|
उनका पेट,
अब भी नहीं भरता है,
जब से वे मेहमान,
कारागार के हुये|
अरसा गुजर चुका है,
डकार लिए हुये||
113 - मिट्टी का तेल
मैंने कहा लड़की वाले गरीब हैं,
या कह सकते हैं,
इन तिलों में तेल नहीं है|
वे बोले,
गरीब हैं तो अपने घर के,
लड़की की शादी करना,
कोई हंसी खेल नहीं है|
उनका दावा है,
कि वे पत्थर से भी,
तेल निकाल सकते है|
पाढ़े को दुह सकते हैं,
मुर्गे से,
अंडा निकाल सकते हैं|
तिल से तेल न निकला तो,
मिट्टी का तो फिर भी,
निकाल ही सकते हैं,
डाल सकते हैं||
114 - चाणक्य नीति
(1)चाणक्य नीति कहती है,
सबब बन सकता है,
आपकी हार का,
दुश्मन को कमजोर आंकना|
और आपको पड़ सकती है,
बेवजह धूल फाँकना|
याद रखो बैरी को,
इस हद तक सहमा देता है,
उसकी आँखों में,
आँख डाल कर झांकना|
कि थोड़ी देर में ही,
बिना हील-हुज्जत के,
शुरू कर देता है वह काँखना||
(2)
चाणक्य नीति सत्तापक्ष को भी,
सीख देती है कि,
जब विपक्षी तगड़ा हो,
और बात को,
हद से ज्यादा खींचे|
तो सत्ता पक्ष को चाहिए कि,
रह जाये आँखें मींचे|
विपक्ष आप पर कितने भी,
आरोप लगाए, दाँत भींचे|
गांधी के तीन बंदरों की तरह,
आप भी बन जाएँ,
अंधे, बहरे और गूंगे,
और उनके शांत होने तक,
बैठे रहें सिर झुकाये नीचे|
हाँ यह जरूर ध्यान रखें कि,
विपक्ष यदि बिलकुल ही,
पड़ जाये सत्ता पक्ष के पीछे|
तो उसे थोड़ी सी ढील अवश्य दें,
कि विपक्ष भी अपने थोड़े से,
अरमान सींचे||
454 - शोषित
गरीब और भी,
गरीब होता जा रहा है,
क्योंकि शोषित है|
अमीर के दोनों हाथों मे लड्डू हैं,
क्योंकि वह,
लक्ष्मीजी का कृपा पात्र,
हुक्मरानों द्वारा पोषित है|
गरीब अपनी गरीबी में,
मस्त, तोषित है|
अमीर अमीरी के,
बोझ तले दवा हुआ,
डरा, सहमा रहता है,
अतः आधी की आधी की आधी,
करता आय घोषित है||
115 - छूमंतर
अनशन के लिए टीम अन्ना ने,
इसलिए चुना था,
जंतर-मंतर|
कि देखें,
क्या वे चला पाते हैं,
जनता या सरकार पर मंतर?
थोड़े ही दिनों में समझ गए,
इन तिलों में तेल नहीं है,
और जनता में भी मेल नहीं है|
सरकार बनाना आसान है,
पर सरकार से पंगा लेना,
हंसी-खेल नहीं है|
ऐसे तो लोकपाल लाने में,
लग जाएँगे मन्वंतर|
इसलिए राजनीति में आकर,
सरकार बनाएँगे|
लोकपाल के लिए आवाज
उठाने वालों को,
इसी तरह रुलाएंगे|
कि हो जाएंगे,
जंतर-मंतर से छूमंतर||
116 – बयानबाजी -1
आजकल नेताओं का,
खास शगल हो गया है,
बयानबाजी|
वे हमेशा प्रयासरत रहते हैं कि,
देखें कौन मार पाता है बाजी?
उनकी बात का न ठौर होता है,
न ठिकाना|
उनके ज़्यादातर बोल बचन,
होते हैं बचकाना|
उनके बोल बचनों के पीछे,
एक ही मकसद होता है,
अपनी करतूतों की तरफ से,
जनता का ध्यान भटकाना|
उन्हें खुद ही पता नहीं चलता,
वे क्या बोल रहे है?
वे समाज में कैसा,
जहर घोल रहे हैं?
हर भाषण को पहले,
एक आई ए एस,
अधिकारी लिखता है|
फिर पाँचवीं पास नेता,
तय करता है कि भाषण,
कैसा दिखाता है|
बाई द वे
नेता दो-चार कमियाँ तो,
निकाल ही लेता है,
और सभा में बोलता है,
थोड़ा बहुत
अपनी तरफ से जोड़ कर|
पाँसा यदि उल्टा पड़ जाए तो,
यह कह कर
पल्ला झाड़ लेता है कि,
उसे पेश किया गया
तोड़मरोड़ कर|
चूंकि उन्हें खुद ही
पता नहीं होता है,
वे क्या कह रहे हैं?
इसलिए खुद की
प्रमाणित गलती,
दूसरे की बताने लगते है,
खुद जिसकी
वे बजह रहे हैं|
वे
अच्छी तरह जानते हैं,
तथाकथित प्रजातन्त्र का,
तथाकथित चौथा स्तम्भ,
चार दिन चिल्लाएगा|
गरम तवे पर रोटियाँ पकाएगा|
और फिर बर्फ की तरह,
सकारण, अकारण ठंडा पड़ जाएगा|
और इस ठंडेपन को नेताजी,
जनता के सामने आकर,
फिर से गरमाएंगे|
फिर से कुछ
उलटा सीधा बोल कर,
जनता को स्तंभित,
और चौथे स्तम्भ को भरमाएंगे|
भाषण के नए शिगूफ़े में,
अपनी तरफ से कुछ जोड़ेंगे|
चल गया तो तीर,
नहीं तो इस तुक्के पर,
जानकार फिर से सिर जोड़ेंगे,
अपना सिर फोड़ेंगे||
117 - ले दे के
आप किसी भी,
सरकारी दफ्तर में जाएंगे,
तो यह आभास जरूर पाएंगे,
मानो दफ्तर की दरो-दीवार पर,
चारों तरफ लिखा है|
कि यहाँ का हर कर्मचारी,
और अधिकारी बिका है|
आजमाना हो तो,
बिना जेब ढीली किए,
हरिश्चंद्र बनकर देखें|
जवाब मिलेगा,
मुझे क्या और कोई काम नहीं,
बस आपका ही काम रह गया है,
करने को ले दे के||
थोड़ी ही देर में,
आपको
समझ में आ जाएगा कि,
जब काम बनता हो,
थोड़ा कुछ ले दे के|
तो फिर जरूरत ही क्या है,
किसी के सामने पढ़ने की,
अलिफ, बे, पे, टे?
118 - वैश्विक मंदी
मंहगाई बढ़ने का मूल कारण,
सरकार और पूँजीपतियों के,
बीच की जुगलबंदी|
जिस पर पर्दा डालती रहती है,
सरकार यह कह कर कि,
चहुं ओर पसरी है,
वैश्विक मंदी|
और जब इस पर्दे की पोल,
सामाजिक जाल स्थलों पर,
जनता खोलने लगती है,
तो सरकार लगा देती है,
जाल स्थलों पर पाबंदी||
119 - इमदाद
सरकार और गरीब के बीच,
बिचौलियों की
है इतनी तादाद |
कि गरीब तक,
पहुँच ही नहीं पाती है,
सरकारी इमदाद ||
120 - दूध के धुले
दूधों नहाओ, पूतों फलो का,
आशीर्वाद पाकर नेताजी,
दूधों नहाने पर तुले हैं|
जिससे वे जनता से कह सकें,
कि वे तो दूध के धुले हैं|
121 - बोली
सत्ता के गलियारों में,
लगती सबकी बोली|
क्योंकि भारत में,
पाँच कोस पर पानी बदले,
आठ कोस पर बोली||
122 -- निज
साधने को स्वार्थ निज,
नीलाम कर सारे खनिज,
मनीरोगियों ने देश को,
कर डाला है अपाहिज|
देशद्रोहियों पर तो,
गिरने से भी डरती है,
फ़ालिज||
123 - उठापटक
मन की न होने पर,
सरकार में सामिल घटक|
जैसे ही सरकार को,
आँख दिखा कर कहता है,
कि सरकार दूंगा पटक|
देखते ही बनती है,
सरकार की उठा-पटक||
124 - ता-ता-थईया
दुनियाँ के बाज़ार में,
खड़ा मैं,
और मेरा मन,
दग्ध भी है, स्तब्ध भी|
कि यहाँ हर चीज
बिकाऊ ही नहीं,
है आसानी से उपलब्ध भी|
यहाँ रंग-रूप, नीति-रीति,
सभी कुछ तो क्रीत है|
अगर कुछ भी यहाँ गुम है,
गधे के सिर सींग की तरह,
तो वह आपस की प्रीत है|
आज रुपईया ही है भैया,
रुपईया ही बापू
और है मैया |
जिसकी भी जेब में है रुपईया,
वह सदी के महानायक से भी,
बिकवा सकता है सेवइयाँ |
यहाँ तक कि,
खुद की बहू के साथ भी,
करवा सकता है ता-ता-थईया |
अच्छा एक बात और,
जो मैंने इसमें देखी|
रुपईया घमंडी भी है,
इसलिए
बघारता रहता है शेख़ी|
उसे पता है
कोई भी मानव,
नहीं कर सकता है,
उसकी अनदेखी|
इसकी एक और अदा है,
यह कभी इस हाथ में है,
तो दूसरे हाथ दूसरे पल है|
क्योंकि चंचला का यह बेटा,
अत्यधिक
चंचल और चपल है|
पता नहीं बुजुर्ग
क्यों कहा करते थे,
कि रुपया हाथ का मैल है|
मुझे तो लगता है यह कुछ,
खास किस्म के लोगों की
रख़ैल है|
यदि रुपया हाथ का मैल होता,
तो हाथों हाथ लिए जाने पर,
हाथों को
मैला होते देखा तो नहीं|
रुपया कितना भी
गंदा, मुड़ा-तुड़ा,
कटा-फटा या फिर नकली हो,
आज तक किसी ने,
फेंका तो नहीं|
हाँ मैल से रुपये का,
इतना संबंध तो अवश्य है|
कि यह पैदा कर देता,
मन में मैल और दिलों में,
वैमनस्य है|
आप चाह कर भी रुपये से,
दूर नहीं रह सकते|
आप कितने भी,
बली और कर्मठ हों,
अपने भुजबल के मद में,
चूर नहीं रह सकते हैं|
शायद दो वक्त की रोटी देदे,
आपकी कर्मपरायणता,
और आपका भुजबल|
पर स्विश बैंक में खाते,
खुलवा सकता है
केवल छल-बल|
यदि आप चाहते हैं,
आपके पास
रुपयों के ढेर हों|
तो सुनिश्चित करें
आपके द्वारा,
घपले हों,
घोटाले हों,
अंधेर हों||
125 - यह मुंह और...
दिग्गी राजा की तरह,
बयानबाजी करने का,
मेरे मन में भी आता है खयाल|
पर यह सोच कर चुप रह जाता हूँ,
कि यह मुंह और मसूर की दाल?
126 - समर्थन
जब कोई भी
राजनीतिक दल,
आपके पास आए,
और कहे,
कृपया हमें ही अपना,
समर्थन दें|
हैं आप भी समझदार,
और समर्थ, न दें|
127 - छछूंदर के सिर...
सिर्फ राजनेताओं के लिए ही है,
देश का धन हथेली का मैल|
जिसे रगड़ कर धो डालना है,
उनके बाएँ हाथ का खेल|
क्योंकि उनके हाथ,
कानून की तरह लंबे हैं,
पर आप राजनेता नहीं,
गंगू तेली हैं,
राजा भोज और गंगू तेली,
का कैसा मेल?
मुगालते में ही जीना चाहते हैं,
तो प्रयास कर लें,
देश को धोने का,
लोग यही कहेंगे,
छछूंदर के सिर में
चमेली का तेल||
128 - मैंने क्या ठेका लिया है?
संसद में प्रश्नकाल के दौरान,
विपक्ष द्वारा यह पूछे जाने पर,
कि सरकार जवाब दे कि उसने,
किस किस को अवैध ठेका दिया है?
सरकार की तरफ से जवाब आया,
सरकार ने क्या हर प्रश्न का,
जवाब देने का ठेका लिया है?
129 - पक्षाघात
जिस रफ्तार से उजागर हो रहे हैं,
घोटाले, घपले और पक्षपात|
आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वाश है,
देश को होने वाला है,
शीघ्र ही पक्षाघात|
देश पहुँच गया है,
दिवालिया होने की कगार पर|
अब तो भरोसा भी नहीं रह गया है,
वसुधैव कुटुंबकम के उद्गार पर|
उपरोक्त महामारियों से लड़ने का बीड़ा,
एक सत्तर साल के सैनिक ने उठा कर,
यकीन दिलाया था यलगार पर|
पर उसे क्या पता था,
उसकी टोली की नींव,
रखी हुई थी दरार पर|
दरार और चौड़ी हुई,
खुलकर सामने आने लगे,
टोली की मंशा और मंसूबे,
जो आधारित थे जुगाड़ पर||
130 - बयाना
चुनावी सभा से जब कुछ लोग,
नेताजी के भाषण से पहले ही,
जाने लगे|
तो नेताजी गुमास्तों पर,
बलबलाने लगे|
एवं श्रोता एकत्रित करने पर,
खर्चे पैसों का रौब दिखाने लगे|
गुमास्ते ने सफाई दी,
सर आप अपना भाषण शुरू कीजिये,
और उन लोगों को जाने दीजिये|
जरूरी है उनका यहाँ से जाना|
क्योंकि उन्होने लिया है,
दूसरी पार्टी वालों से भी बयाना|
दो ट्रक और मँगवाए हैं|
गरीबों की बस्ती में भी,
पैसे भिजवाए हैं||
131 - देश का भविष्य
मैं,
जितना भी सोचता हूँ,
उतना ही फसता जाता हूँ,
विवर्त में, आवर्त में|
मिथ्या विचारों की पर्त में|
कि क्यों बच्चे,
अर्थात देश का भविष्य,
हर दो-चार महीने में,
गिर जाते हैं गर्त में?
132 - बारंबारता
अपने पोते को
खिझाने के नज़रिये से,
मैंने उसकी सारी
चाकलेट्स छिपा दीं,
हड़प कर|
चार वर्षीय मेरा पोता
बोला,
अकड़ कर तड़प कर|
मेरे साथ घोटाला-घोटाला,
मत खेलो दादाजान|
मुझे मानना पड़ा,
सुनत सुनत अभ्यासवश ,
जड्मत होत सुजान||
133 - दौरा
मंत्रीजी के हर दौरे के दौरान,
उस दौर के बेहतरीन अदद,
पेश किए जाते रहे|
सरकारी पैसे से,
तरह तरह के,
ऐश किए जाते रहे|
इस बार का दौरा,
जो अभी अभी साबित हुआ|
उनका अंतिम दौरा,
साबित हुआ|
मंत्रीजी मर गए,
पर सुजाक न था|
दिल का दौरा था,
कोई मज़ाक न था||
134 - समर्थन मूल्य
जो सरकार,
गठबंधन सरकार होती है|
उसे घटकों से,
समर्थन की,
दरकार होती है|
देखा जाए तो वास्तव में,
घटकों को ठेके की,
और,
सरकार को टेके की
जरूरत,
हर बार होती है|
बिना पूछे सरकार यदि
गेहूं का समर्थन मूल्य,
देती है बढ़ा|
तो फौरन ही
नाराज़ हो जाता है,
कोई न कोई धड़ा|
और इसका खामियाजा,
भुगतना पड़ता है
देश की जनता को,
धड़ों को मिलने लगता है,
समर्थन मूल्य बड़ा||
135 - विस्फोटक
पुलिस ने गिरफ्तार किया,
एक ऐसा इंसान|
जो ले जा रहा था मन भर
आर डी एक्स
यानि कि विस्फोटक सामान|
पता चला नेताजी के लिए था,
क्योंकि उन्हें देना था,
चुनावी सभा में,
विस्फोटक बयान||
136 - श्रद्धा
नेताजी
गजब के श्रद्धालु हैं,
महिलाओं के प्रति,
देखते ही बनती है
उनकी श्रद्धा|
लेकिन तभी तक
जब तक,
सामने हो कोई वृद्धा|
पर वे
हो उठते हैं फूहड़|
यदि सामने
आ जाए,
कोई अल्हड़||
137 - शिष्ट मण्डल
आज जो जितना
ज्यादा अशिष्ट है|
राजनीति में उसका स्थान,
उतना ही विशिष्ट है|
शांति शिखर वार्ताओं में भी,
जो शिष्ट मण्डल भेजा जाता|
उसके किसी भी सदस्य को,
शिष्टता का
ककहरा भी नहीं आता|
शिष्टता से
चाहे हो या न हो
उनका कोई नाता|
फिर भी ऐसों की ही
मंडली को,
शिष्टमण्डल कहा जाता||
138 – मुआवजा
संसद और सांसदों को
आतंकियों से बचाने में,
शहीद हुये जांबाज़ों की
बेवाओं को,
दिया गया
सरकारी मुआवजा|
सांसद समझते हैं है,
पहुंचाएगा राहत
जैसे,
गर्मियों में रूहआफजा||
139 - जांच
राजनीति में तो जिनके
खुद के भी,
घर होते हैं काँच के|
वे भी अवसर पाकर
हामिल हो उठते हैं,
विपक्षी की जांच के|
और शुरू हो जाती है
राजनीति,
जोड़-तोड़ होने लगते हैं,
तीन-पाँच के|
इस्तीफे भी,
थोक में मांगे जाने लगते हैं,
सदन में नाच-नाच के|
अच्छा, प्रतिवादी भी,
कच्ची गोलियां
नहीं खेला होता है,
वह भी बेशर्मी का
लवादा ओढ़ कर,
चुनिन्दा वक्तव्य देने लगता है’
यह सब विरोधियों की चालें हैं
लाने को,
मेरी अस्मिता पर आंच के|
इसीलिए मेरे जैसे
ईमानदार पर भी,
आरोप
लगाए जा रहे हैं लांच के|
मैं तैयार हूँ किसी भी
पड़ताल के लिए,
मेरे पास पुख्ता सबूत हैं,
मेरे झूठ के, साँच के||
140 - चांदी
सब जानते हैं, हड़ताल,
समय व पैसे की बरबादी है|
फिर भी नेता जनता को उकसाते हैं,
जब देखो तब हड़ताल करवाते हैं,
क्योंकि बेचारी जनता तो,
उनकी जरखरीद बाँदी है|
नेताओं को पता है,
हड़तालों से ही उनकी चांदी है||
141 - सनक
आज हर हिंदोस्तानी की,
एक ही सनक है|
कि कैसे रातों-रात वह,
बन पाता धनिक है?
इसके लिए वह किसी भी हद तक,
गिरने को तैयार है,
जिसके लिए उसे हिचक न तनिक है|
यहाँ तक कि बन सकता है,
अपनी और अपने देश की,
अस्मत का वणिक है|
बाबजूद इसके कि जानता है,
धन, चलता-पुर्जा होता है,
कब हाथ से फिसल जाए,
इसकी लगती न भनक है|
और यह भी कि,
इसकी दोस्ती होती क्षणिक है||
142 - प्रकांड
अब तक इतने,
कांड हो गए|
कि उनके करने वाले,
प्रकांड हो गए|
अब कांड करना उनके लिए,
बाएँ हाथ का खेल हो गया|
और अब तो उनका
उनके विरोधियों से
मेल हो गया||
143 - सफ़ेद-पोश
पुस्तकालय में
ढेर लगे थे,
तरह-तरह के,
शब्द-कोशों के|
पर किसी में भी
नहीं मिले,
पर्याय सफ़ेद-पोशों के||
144 - चमत्कार
भारत था,
चमत्कारों का देश,
सत्कारों का देश|
भारत होने लगा है,
चाटुकारों का देश,
बलात्कारों का देश||
145 - चौंचले
इंसान ही करता है,
तरह तरह के चौंचले|
उसका पक्का उसूल होता है,
इस हाथ दे, उस हाथ ले|
पक्षी नहीं करते
इस तरह के ढकोसले|
वे तो बेचारे जानते हैं,
सिर्फ देना ही देना,
इस चौंच दे,
उस चौंच ले||
146 - चट्ट
लाखों करोड़ों चट्ट कर लिए,
चौपायों का चारा गट्ट कर लिए,
नहीं छोड़े कफन भी
पट्ट कर लिए,
अब देश बेचेंगे हट्ठ कर लिए,
मरने से डरते हैं
भट्ट कर लिए,
अब नहीं बचेंगे,
बहुत नट्ट कर लिए||
147 - केजरीवाल बम
बंद कर रहे खोलना, खाते सारे बेंक,
फार्म अधूरा न चले, रहे न खाना ब्लेंक|
रहे न खाना ब्लेंक, आप समझें मजबूरी,
दस्तखत केजरीवाल के, अब हो गया जरूरी|
एहतियातन कर रहे हैं, ताम-झाम तमाम,
जिससे फिर न कर सके, आई ए सी बदनाम|
जब से केजरीवालजी, लगे खोलने भद्द,
अमरीका भी कर रहा, रक्षा सौदे रद्द|
आई ए सी की मुहर लगी, ही चल पाएगी अर्जी,
वरना कूड़ेदान में डालें, मान मसौदा फर्जी||
148 - क्रिया करम
कफन, कोयला, सूचना, चारा अरु आवास,
मज़लूमों की बेच बैशाखी, मन में हुआ उजास|
मन में हुआ उजास, जान है बहुत देश में,
जितना इसे निचोड़ो, निकले उतना ही रस इसमें|
आज घोषणा करता हूँ मैं, अपने इस कार्यक्रम में,
श्रद्धा से हम श्राद्ध करेंगे, आना क्रिया करम में|
इसीलिए हे मतदाता, बस और एक बार जिताओ,
कसर नहीं छोड़ेंगे हम, बच सके तो देश बचाओ||
149 - कनिष्ठ
ताल ठोकते संसद में, जो गुणवान विशिष्ट,
करते रंगीं शाम हैं, बन कर मित्र घनिष्ठ|
बन कर मित्र घनिष्ठ, जाम से जाम लड़ाते,
सरकारी खर्चों पर मिलकर, जमकर मौज उड़ाते|
तेरी भी चुप मेरी भी चुप, है सिद्धान्त अनोखा,
मृगमरीचिका सी हिकमत, बस है आँखों का धोखा|
खा-खा कसम कहा करते हैं, पी कर पैग गरिष्ठ,
आप हमारे वरिष्ठ है, मैं तव भ्रात कनिष्ठ||
150 - मुक़ाबला
दोनों हाथों लूट रहे हैं, जिनकी है सरकार,
मलते हाथ, खीझते चेहरे, मचा रहे तकरार|
मचा रहे तकरार, नहीं हम संसद चलने देंगे,
बहुत हुआ छाती पर अपनी, मूंग न दलने देंगे|
निर्लज्जों की तरह खा रहे, समझ लिया क्या खोखा?
हम भी खा कर दिखला देंगे, बस मिल जाए मौका|
जान लीजिये पाँच बरस में, घूरे के भी दिन फिरते हैं,
जिस दिन आया चांस हमारा, देखो हम कितना गिरते हैं||
151 - घरघराकर
जैसे ही मंत्रीजी ने हरी झंडी दी,
रेल चल पड़ी घरघराकर|
अब ये भी क्या हर किसी को,
बताने की बात है,
घर-घर आकर?
हर कोई जानता है कि,
मंत्रिजी तो
देश भी हैं चला रहे,
जुगाड़ कर कराकर||
152 - कसाब की फांसी
हिंदुस्तान में
हर छोटी-बड़ी घटना पर,
सिर्फ सियासत होती है|
सरकार में बैठा
हर नेता
एक राजा होता है,
जिसकी
कोई न कोई रियासत होती है|
सत्तापरिवर्तन भी जनता
कर डाले तो भी,
कुर्सी तो उसी तरह के
दूसरे नेता की,
विरासत होती है|
यानि नेता ही प्रमुख होता है
और,
गौड़, कुर्सी व विरासत होती है|
अब इक्कीस नवंबर बारह
का ही दिन ले लें,
जिस दिन कसाई,
माफ करें कसाब को,
दी गई फांसी|
बात थी जरा सी,
पर मुद्दा बन गई सियासी|
चाहे सरकार लगाए,
चाहे जनताजनार्दन खुद,
जहां रोज ही
लगती हो फांसी|
वहाँ
गिनती में ही नहीं आना चाहिए,
एक आतंकवादी की फांसी|
फिर भी आई,
सरकार देने लगी खुद को शाबाशी|
विपक्ष ने निशाना साधा,
गुरु! अफजल की गरदन पर,
कब चलेगी गँड़ासी?
153 - जूतम-पैजार
संसद सदन, सदन लगता है,
जब
शून्यकाल में
देश हित के
प्रश्नों की बौछार होती है|
संसद सदन,
सड़न लगता है,
जब
जूतम-पैजार होती है||
154 - मैं-मैं तू-तू
जैसे ही मंत्रीजी की गाड़ी
गाँव से गुजरी
करते हुये
पूं पूं पूं |
गाँव वालों ने शुरू कर दिया
करना ज़ोर ज़ोर से
चूँ चूँ चूँ |
और यह बात एक कान से
दूसरे कान होते हुये
पहुँच गई
कू-ब-कू|
कि इस बरस
भीषण गर्मी से त्राहिमाम
कर उठेगी
समस्त भू|
पर सरकार
कुंभकर्णी नीद सोई पड़ी है,
नहीं रेंगती उसके कान पर जूं|
अब न जाने कितनों की बलि,
लेकर जाएगी यह
भयंकर लू|
बाद में यही मंत्रीजी
मनाएंगे शोक गाँव आकर
दयनीय शक्ल बना कर
उच्चारित करते हुये,
शोक सूचक शब्द
सू सू सू|
और इतने में ही
अपने कर्तव्य की इति समझ कर
वापिस अपने वातानुकूलित बंगलों में
गुलछर्रे उड़ाएंगे करते हुये
हू हू हू|
आह! यह कैसा लोक तंत्र है,
सरकार है या
बिल्ली का गू,
थू थू थू|
थोड़ी देर के बाद की
चूँ चूँ के बाद
गाँव बाले फिर से
पसीना बहाने लगेंगे,
और अगले आम चुनाव के बाद
फिर से पाएंगे कि उन्होने
फिर से चुन ली है नई सरकार
बिलकुल पहले की ही परछाई
हू-ब-हू||
155 - रहनुमा
वे मक्कार हैं,
वे बदकार हैं,
देश डकार कर भी,
लेते नहीं डकार हैं|
फिर भी
हम उन्हें चुनते हैं,
इस लिए वे हम पर
धिक्कार हैं|
वे पीर हैं, वे जुमाँ हैं,
वे बद-जुबां है,
वे बद-गुमाँ हैं,
वे देश पर
दाग बद-नुमाँ हैं,
फिर भी वे
देश के रहनुमाँ हैं||
156 - अच्छे रिश्ते
एक मुगालता, एक सनक,
“अमन की आस” की खातिर
हमारे जवाँमर्द लड़ाके लड़के,
हैं सीमा पर दिन-रात पिसते |
और उन्हीं की बदौलत,
वार्ताओं के शौकीन
वातानुकूलित कक्षों मेँ बैठ कर
उड़ाते हैं बादाम-पिस्ते |
महीने दो महीने मेँ
दो-चार लड़के
काम आ जाते हैं हँसते-हँसते |
पड़ोसी
कुत्ते की दुम है,
बल्कि यों कहें कि
पागल कटखना कुत्ता है,
यह बात
हमारे रहनुमाँ नहीं समझते |
महीने-दो-महीने पहले के
दिये जख्म भर भी नहीं पाते,
कि फिर फिर
देते रहते हैं नये जख्म रिसते |
हर बार जख्म देकर,
पाकी सियासी,
घिस चुके ग्रामोफोन की
सुई की तरह
एक ही जुमले पर
हैं बार बार आ अटकते|
“पाक चाहता है
भारत से अच्छे रिश्ते|”
अब उन्हें कौन समझाये कि
अच्छे रिश्तों की,
भारत में कमी नहीं है,
एक से बढ़ कर एक जवाँमर्द
मिल जाएंगे,
अगर आओगे,
बंधे हाथों,
दिलों के रस्ते||
157 – नए सिरे से
हमारे बुजुर्गों ने
कितना सही कहा था,
‘शरीफ’ कहलाने भर से,
कुछ भी नहीं होता,
और न ही कुछ हासिल होता,
प्रेम से बात करने से,
किसी सिरफिरे से|’
खास तौर से उनसे जो
पहले से ही हों मरे-गिरे से|
खुद ही देख लें
हमारे रक्षा मंत्री,
पेश आए नहीं,
सिर्फ कहा भर था कि
सख्ती से पेश आएंगे,
वो भी धीरे से|
पाक के बजीरेआजम
असहज हो उठे,
और महसूस करने लगे
घिरे से|
अब उन्होने
एक नया बयान दिया है,
वे भारत से बात करेंगे,
एक नए सिरे से||
158 - बयानबाजी-2
“अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में
तेल की कीमतें बढ़ने से
तेल कंपनियों को हो रहा है
भारी वित्तीय नुकसान|”
यह था,
पेट्रोलियम मंत्री का
हालिया बयान|
इसको लेकर विपक्ष ने
सरकार की नीयत पर ही
लगा दिया सवालिया निशान|
विपक्ष ने हवा में तीर मारा
कि एफ डी आई की बजह से
हो जाएंगे दिवालिया किसान|
विपक्ष इतने पर ही चुप नहीं बैठा,
यहाँ तक कह दिया कि अब
खाने को सरकार के पास
न जी बचा न सी बचा
इसलिए बनने लगी है,
तेलिया-मशान|
यह बात जब एक आम सभा में
विपक्ष के नेता जी बोल रहे थे,
तो उपस्थित जनता खूब हंसी,
नेताजी को लगा
कि तीर निशाने पर बैठा है,
और उन्होने जी लिया जहान|
अब पक्ष-विपक्ष को कौन बताए
कि जनता अब जाग गई है,
अब नहीं रही
पहले जैसी भेड़िया-धसान||
159 – समरथ को नहिं......
“रामचन्द्र कह गए सिया से,
ऐसा कलयुग आएगा,
हंस चुनेगा दाना तिनका,
कौवा मोती खाएगा”,
लिखने की
जिसने भी जुर्रत दिखाई,
या तो वह,
भविष्यदृष्टा रहा होगा
या हातिमताई |
बहुत पहले एक बुजुर्ग ने,
मुझे,
एक पते की बात थी बताई |
कि
खुद की बनाई मिठाई ,
कभी भी,
खुद नहीं खाता हलवाई |
पर उन्हें
गुमान भी नहीं रहा होगा ,
कि उनके इस
अनुभवाधारित बयान की
इतनी बुरी तरह से
हो सकती है जगहँसाई |
कलयुग में एक ऐसा
खास वर्ग
अवतरित होगा करिश्माई |
कि जिसको
दया, धर्म, चरित्र,
लज्जा जैसे शब्द,
छू भी नहीं पाएंगे
और वह
एक नए धर्म का
पालन करेगा
जिसका नाम होगा
“नकटाई”|
इस धर्म के साधक चाहे हों
मवाली, हत्यारे या दंगाई,
चाहे करें काली कमाई
या खुद को छोड़ कर
लागू करवाएँ
आर टी आई, एफ डी आई
या छोड़ दें
किसी के भी ऊपर
सी बी आई |
उनके लिए सब कुछ,
घर की मुर्गी समान होगा,
कि जब चाहा, जैसे चाहा,
तोडी, मोड़ी-मरोड़ी, पकाई खाई |
और यह खास वर्ग
गोस्वामी तुलसीदास जी का
होगा अनन्य भक्त
और अनुयाई |
भले ही वह उनके
सारे प्रवचनों को
ज्यों का त्यों न माने
क्योंकि
उनमें भी मन माफिक
संसोधन करने की
आज़ादी भी
उसने है पाई |
गोसाईं जी ने कहा था-
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
ते नृप नरक अवश अधिकारी|”
यह सीख
नकटाई धर्म साधकों की
रामायण में
जगह ही न पा पाई |
गोसाईं यह भी कह गए -
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई|”
इसमें मामूली सा
संसोधन करके
वे इसका पालन
दृढ़ता से करते हैं,
कि
निज हित सरिस
धर्म नहिं भाई |
गोसाईं की यह बात उनको
आज तक समझ में नहीं आई
कि धोबी के कहने पर
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने थी
सीता माता ठुकराई |
उनका मानना है कि
एक धोबी हो
तो विचार भी किया जाए,
यहाँ तो हर कोई धोबी है,
जिसे दूसरा और कोई काम
तो आता नहीं,
सिवाय करने के लगाई-बुझाई |
इस लिए हार थक कर
पूर्वानुमान के आधार पर
गोसाईं लिख कर गए हैं,
“समरथ को नहिं दोष गोसाईं||”
160 - चूहे बिल्ली का खेल
वे बोले
पैसे पेड़ पर नहीं उगते |
इसलिए जिसने घोटाला किया
वही भुगते |
मैंने कहा
पैसा तो बनाया जा सकता है
खेल-खेल में |
भेल में, रेल में, खेल में, तेल में,
यहाँ तक कि जेल में |
बस दो ही चीजें
चाहिए होतीं हैं इसके लिए,
पहली तो कि आप सरकार हों,
और दूसरी कि,
आप माहिर हों ,
चूहे-बिल्ली के खेल में |
कारण कि
पैसा बनाने का हक
सिर्फ सरकार को ही है,
कोई और बना के देखले,
आँख खुलेगी जेल में ||
161 - भानुमती का कुनबा
सरकार ने
सरकार होने के लिए,
भानुमती की मदद से,
कहीं से ईंट कहीं से रोड़ा,
लेकर,
गठबंधन किया,
कुनबा जोड़ा |
यह जानते हुये कि
बाद में यही कुनबा
बनेगा सरकार की
राह का रोड़ा |
पर मरता क्या न करता
सरकार के पास
और कोई
चारा भी तो न था |
और फिर शुरू में
भानुमती ने
अपनी मंशाओं का
खोला
पिटारा भी तो न था ||
162 - हम भी अगर बुड्ढे होते
हम भी अगर बुड्ढे होते,
नाम हमारा होता विग्गी-डिग्गी
खाने को मिलती मेग्गी,
दुनियाँ कहती
हेप्पी स्वीट ड्रीम्स दिग्गी |
हम भी अगर बुड्ढे होते,
नाम हमारा होता आशाराम
भले जेल में करूँ आराम,
दुनियाँ कहती
चख तो लिए मैंने कच्चे आम |
हम भी अगर बुड्ढे होते,
नाम हमारा होता एनडीटी,
सेवा करते एडीसी
दुनियाँ कहती
हेप्पी मेरिज एट नाइण्टी |
न भी अगर हम बुड्ढे होते
नाम ही होता तेज पाल
खबरी पर फैलाते जाल,
दुनियाँ कहती
वाह पटाया है क्या माल |
नाम-वाम में रखा ही क्या है,
उमर-सुमर हैं सब बेकार
असल चीज, होना दिलदार
दुनियाँ कहती
जय नित्यानन्द, जय दिलदार||
***