हाँ नहीं तो - 4 CHHATRA PAL VERMA द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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हाँ नहीं तो - 4

हाँ नहीं तो – 4

163 - आम चुनाव

हो चुकी है घोषणा

आम चुनाव की|

परखी जायेगी

आपकी काबलियत,

आम चुनाव की|

चुन गया आम,

तो फिर बन जाता खास है|

चख सकोगे, कह सकोगे,

वाह क्या मिठास है?

164 - बन्दर-बाँट

सरकार ने विपक्ष से,

हाथ मिलाकर,

साठगांठ की|

अरबों के घोटालों की,

बन्दर-बाँट की||

165 - बहुरूपिया

अगर आपके पास है,

बहुत सारा रुपया|

तो आप हो सकते हैं,

सिद्ध,

बहुत बड़े बहुरूपिया|

और बहुत सारा रूपया,

कमाने के लिए,

अपनाना पड़ता है,

रास्ता खुफिया||

166 – काग

काग के भाग

कहा कहिये,

हरि हाथ से छीनी

माखन रोटी|

अब भाग से काग

खुला करते,

जब मुर्गी फसे,

कोई छोटी मोटी||

167 - सन्यासी

जो घर-बार छोड़ सके

वही असली सन्यासी है|

जो देश को भी न छोड़े,

वो पक्का सियासी है||

168 - रणनीति

रण भी नीति के

तहत होते थे,

पुराने जमाने में|

आजकल नीति

होती ही नहीं,

अकारण रण होते हैं,

नीतियों के टकराने में||

169 - आम सहमति

देशी, लंगड़ा, हापुस, चौसा,

या फिर केशर, दशहरी,

इससे आगे एक भी नेता

आम की

प्रजातियाँ न गिना सका |

इसलिए कौन से मंगाए जाएँ,

आम सहमति न बना सका||

170 - भंडाफोड

खाद्यान्न के अवैध,

भंडारण के खिलाफ,

न तो कोई मुहिम चलाई गयी,

और न ही कोई भंडाफोड हुआ|

कारण कि उसमे,

करोड़ों का बड़ा तोड़ हुआ||

171 - अर्दली

राजनीति का

असर तो देखिये,

न रौब था, न रुतबा,

वह था मात्र अर्दली|

फिर भी आज कल है

वह सांसद निर्दलीय||

172 - ओसामा की लाश

लोग, ओसामा की लाश की

एक साल बाद भी,

सूरत के पास,

दरिया में खोज करते हैं|

मतलब कि,

लोगों को पता है,

कि ऐसों के मुर्दे को भी,

जलजंतु भी खाते हुए डरते हैं||

173 - धोबी का कुत्ता

छुटभैये नेता,

चाहत में जीने की,

जीवन ठाठ का|

पीते रहते हैं पानी,

घाट-घाट का|

और यही चाहत उन्हें

करके रख देती है

इस लायक

कि

हरेक

रह जाता है

घर का न घाट का||

174 - सुर्खी

बड़े,

यदि छींक भी दें,

तो बन जाती है

अखबार के,

मुखपृष्ठ की सुर्खी|

पड़े,

यदि छपना चाहें,

अखबार के कोने में भी,

तो करवाना पड़ती है,

उनको

अपने घर की कुर्की||

175 - स्मारक

आजकल,

गेरुए वस्त्र धारक,

बन बैठे हैं

धर्म-प्रचारक|

उनके प्रवचन होते हैं,

इतने मारक,

कि भ्रमित हो उठाता है,

बड़े से बड़ा विचारक|

धर्म के ठेके के साथ,

कुछ, दवा भी देते है,

दर्दनिवारक|

इन सब कृत्यों के पीछे,

धनसुख, मनसुख

और तनसुख,

ही होता है

असली कारक|

साथ में अभिलाषा भी,

कि मरणोपरांत ही

कहीं कोई,

भक्त बनवा देगा,

उनका स्मारक||

176 - फिदा

एम॰ एफ़॰ हुसैन,

एम॰ यानि मकबूल हुये,

एफ़॰ मानी फिदा हुये|

पर हिन्दू देवियों को

तिरष्कृत कर,

खुद हुसैन हो पाएँ,

उससे पहले ही,

दुनियाँ से विदा हुये||

177 - छत

आम आदमी

यही तो चाहता है कि,

उसे

दो जून का खाना मिले,

और जून की गरमी से,

बचने के लिए,

सिर पर हो छत |

खास आदमी खुश रहता है,

यदि उसके माथे बना रहे,

तिलक के रूप में रोली अक्षत|

आम हो या खास,

कोई नहीं चाहता,

कि मानवता लहूलुहान हो,

या फिर हो क्षत-विक्षत|

ये तो चंद वे लोग हैं,

जिनको जुनूँ होता है,

फैलाने का वहशत||

178 - कल्पनातीत

कुकर्म करते करते,

व्यतीत होता है,

जिनका अतीत|

उस समय उन्हें

कुछ भी

नहीं होता है प्रतीत|

पर प्रारब्ध से प्राप्त

कष्ट,

होते हैं कल्पनातीत||

179 - श्रद्धांजलि

राष्ट्र पिता की,

जीवन शैली से प्रभावित,

देश की ललनाएं,

दे रहीं हैं

उनको सच्ची श्रद्धांजलि|

शनै शनै वस्त्रों को,

देकर तिलांजलि||

180 - मुनाफे का सौदा

हर ताकतवर मुल्क,

यही तो चाहता है कि,

भारत और पाकिस्तान

के बीच झगड़ा हो|

जिससे रक्षा सौदों में उन्हें,

मुनाफा तगड़ा हो|

चाहे पाकिस्तान भारत को,

पटखनी दे,

या फिर भारत ने हो,

पाकिस्तान को रौंदा|

उनके लिए तो

दोनों दशाओं में है,

मुनाफे का सौदा||

181 - दुर्गे दुर्गे

आश्रम के बाहर

भक्तों के समक्ष

राधे माँ,

लगातार

जप रही थीं,

जय हो दुर्गे

जय हो दुर्गे|

आश्रम के अंदर,

उनके गुर्गे,

फसा रहे थे

मुर्गे||

182 - दवा-दारू

एक शोध में यह बात,

निकल कर सामने आई|

कि भारत की आबादी,

दवा-दारू का सेवन करती है,

तीन-चौथाई|

एक चौथाई एसे हैं,

जो सिर्फ दवाओं पर जीते हैं|

तो एक चौथाई,

दारू पानी की तरह पीते हैं|

शेष पहले दारू

फिर दवा और

फिर,

दवा-दारू का सहारा लेते हैं|

इसके लिए यदि

जरूरत पड़े तो,

ईमान धर्म और गैरत,

यहाँ तक कि

सारा घर बेच देते हैं|

आम चुनाव से ठीक पहले,

सरकार ने घोषणा की है कि,

आयंदा मेडिकल स्टोर का

परमिट उन्ही को देगी|

जिनके यहाँ,

दवा दारू दोनों

साथ साथ मिलेगी||

183 - दुख

दुख,

इंसान मोल लेता है,

खुद||

184 - सुख

सुख

आते हैं देख कर,

इंसान का रुख||

185 - सुख-दुख

जीवन है तो आएंगे,

दोनों ही,

भले ही आयें रुक-रुक|

सुख-दुख||

186 - पदभार

प्रधान मंत्री जैसे

गरिमामयी, महिमामंडित

और बजनदार,

पद की शपथ लेकर

उन्होने,

सम्हाल लिया है

बजीरेआजम का पदभार|

सम्हालते ही नीचे से

जमीन खिसकने लगी,

सह न सकी

उनका पद भार||

187 - यक्ष प्रश्न

मानव चरित्र का क्षय,

मुंह बाए खड़ा है|

कहाँ जाकर रुकेगा,

यक्ष-प्रश्न सा अनुत्तरित,

युगों युगों से पड़ा है||

188 - टेक

धन लोलुप भेड़ियों के झुंड में,

प्रजातन्त्र ,

अकेली भेड़ सा घिर गया है|

आदर्शवाद की टेक पर,

चलते चलते,

कटे पेड़ सा गिर गया है|

मुट्ठी भर सत्पुरुष,

लजा लजा कर सिर धुन रहे हैं|

और अनगिनत कापुरूष राजा,

नित नया जाल बुन रहे हैं|

ये आदि हैं, अनादि हैं,

गद्दार हैं,

इन्हें कपट सुहाता है|

एक अंदर जाता है तो,

बाहर एक और नया,

टपक जाता है|

इससे पहले कि,

ये और कोई नई कसक दें|

मन करता है कसम से,

इनका टेंटुआ मसक दें||

189 - हराम

जीना हराम कर रखा है,

कमरतोड़,

महंगाई ने|

अब तक तो

मर ही गए होते,

अगर साथ

न दिया होता,

हराम की,

कमाई ने||

190 - अपहृत

टी॰वी॰ पर प्रसारित,

समाचार अधिकृत,

कि चंबल के डाकुओं ने ही,

किया है

नेताजी को अपहृत|

सुनकर लोग हुये

डाकुओं से उपकृत||

191 - हामिल

सवा अरब की आबादी में,

यह संभव ही नहीं कि,

पूरी आबादी हो सके,

इस बात की हामिल|

कि,

मंत्रिमंडल में सामिल,

सभी मंत्री हैं काबिल||

192 - किराए की कोख

विज्ञान के बढ़ते चरण,

हमको कहाँ ले जाएँगे?

कल अपनी ही औलाद को,

क्या अपना हम कह पाएंगे?

विज्ञान की इन कामयाबियों पर,

खुशियाँ मनाएँ या कि शोक?

मान्यता दें

हमशकल निर्माण को,

या फिर लगाएँ उन पर रोक?

न पेट बढ़ने की फिकर,

न हाथ-पाँव सर्द हों|

न रात-दिन हों उल्टियाँ,

न जच्चगी पर दर्द हो|

अब चांदी हुई माताओं की,

जो दिखना चाहें

हंसीन और शोख|

विज्ञान ने चिंता हरण की,

दे कर किराए की कोख||

193 - बुक्का फाड़कर

आपरेशन से पहले,

चिकित्सक,

मरीज के रिश्तेदारों से,

लिखवा लेता है रुक्का|

क्योंकि उसे डर होता है,

कि जरूरत पड़ सकती है,

उनको होने की,

हक्का-बक्का भौचक्का|

उनको रोने की,

फाड़कर बुक्का,

मार कर

छाती पर मुक्का||

194 - कफन

पढ़ कर के चार पोथी,

मानव करने लगा है,

बातें थोथी|

वह अपने आप को,

सर्वज्ञ मानने लगा है,

और डूब चुका है,

आपाद अहंकार में|

जब कि,

यह भी नहीं जान पाता,

कि आ चुका है,

उसका कफन बाजार में|

कई बार तो वह अपने ही,

कफन को उलट-पलट कर

देख भी आता है हजार में||

195 - खुली छूट

सियासत को बना लिया है

कुछ लोगों ने

जरिया लूट का|

तब से रियायत को

छुटभैयों ने

दे दिया है दर्जा,

खुली छूट का||

196 - चकबस्त

अपने सिर आई,

दूसरों के सिर डालने के,

एक दूसरे की टांग खींचने,

मीन-मेख निकालने के,

आज-कल, आज-कल कह कर,

बात टालने के,

साँपों को दूध पिलाकर,

आस्तीनों मे नाग पालने के,

और उन्हें जुल्फें समझ कर,

हरदम हाथों से सम्हालने के,

हम अभ्यस्त हो गए हैं|

सरकार के हर काम की,

खिल्ली उड़ाने में,

सरकारी पार्टियों में फोकट की ,

मदिरा चढाने में,

सरकार द्वारा आबंटित

धन पर दाँत गढ़ाने में,

पकड़े जाने पर सबको,

उल्टी पट्टी पढ़ाने में,

वोट पाने के लिए,

क़ौमों को लड़ाने में,

हम व्यस्त हो गए हैं|

जब तब की,

किन्तु, परंतु, ताकि से,

सत्ता बचाए रखने के,

गुणा, जोड़ बाकी से,

हर हफ्ते लाल सावधानी,

जारी होने की झांकी से,

हिंदुस्तान के खिलाफ बढ़ती,

चीन की चालाकी से,

निराशा जगाने वाले,

राष्ट्रीय खेल हाकी से,

हम ध्वस्त हो गए हैं|

नित नए उजागर होते,

घोटालों की मार से,

विपक्ष और सरकार की,

रोज होने वाली तकरार से,

जंतर मंतर से हर चौथे महीने,

अन्ना की हुंकार से,

डालर के मुक़ाबले रुपया

गिरने के आसार से,

आतंकवादियों को भारत को,

सौंपने के पाकिस्तान के इंकार से,

हम पस्त हो गए हैं|

इठला कर किए गए,

माशूका के निहोरों से,

समय समय पर प्राप्त तोहफे,

अपने पराये औरों से,

पुलिस द्वारा ढूंढ निकाले गए,

आतंकवादियों के ठौरों से,

बार बार होने वाले,

नेताओं के दौरों से,

अपने किए गए नए पुराने,

वायदों को निभाने के ज़ोरों से,

हम आश्वस्त हो गए हैं|

असलियत छुपाने के लिए,

ओढ़े गए लवादों से,

चुनाव जीतने के लिए

किए गए लुभावने वायदों से,

भविष्य में होने वाले बताए गए,

संभावित फ़ायदों से,

आय कर में लागू होने वाले,

तरह तरह के कायदों से,

रोज रोज होने वालीं,

मनमोहक कवायदों से,

हम विश्वस्त हो गए||

197 - मंझा

अवसर पाकर गड़ा सके,

जो जितना गहरा पंजा|

उसे ही लोग कहते हैं,

राजनीति का,

खिलाड़ी मंझा||

199 - शैशव

जहां

अभावों में

गुजरता हो शैशव|

व्यर्थ है उस देश का

वैभव||

200 - काली कमाई

काले और सफ़ेद धन में,

भेद करना|

उतना ही कठिन है,

जितना कि पत्थर में,

एक समान छेद करना|

पैसा पैसा होता है,

काला या गोरा नहीं|

सफ़ेद धन वह होता है,

जिसे कमाने में,

खुद मेहनत करनी पड़ी हो,

किसी का निहोरा नहीं|

निहोरे से,

कमाई जाने

वाली कमाई|

ही कहलाती है,

काली कमाई||

201 - गैर कायदा

गैर कायदा,

काम करने का

फायदा|

लागत कम,

और,

मुनाफा ज्यादा||

202 - मंदिर-मस्जिद

हिन्दू कहता चाहे कुछ हो,

मंदिर यहीं बनाएँगे|

मुल्लाओं का कौल यही है,

मस्जिद नहीं गिराएँगे|

लालबुझक्कड बनते हैं,

क्या इतना मुझे बताएँगे?

पूंछा है क्या राम-रहीम से,

वे रहने भी यहाँ पर आएंगे?

क्या इतने पैसे वाले हो,

कि उसको घर दिलवाएँगे?

महंगाई के इस आलम में,

फिर खुद कैसे खाएँगे?

खून खराबे, राग, द्वेष से,

रब्बा को भरमाएंगे?

ढ़ोर गम्मर्रे जिद करते हैं,

उस पर रौब जमाएंगे|

मौला तो रहता उस दिल में,

जिसमें प्रेम भरा होता|

नफरत के कालीनों पर तो,

उसका घाव हरा होता|

क्या तुम ठेकेदार राम के,

या अल्ला के पैरोकार?

लड़ना होगा खुद लड़ लेंगे,

तुमको है क्या सारोकार?

मेरा मंदिर, उसकी मस्जिद,

यह कैसी दाबेदारी?

जीवन की सच्ची दौलत है,

बस उसकी ताबेदारी||

203 -आतंकित

जब सवा अरब,

मुट्ठी भर आतंकियों से,

रहने लगें आतंकित|

समझ लीजिये निश्चय ही वे,

अपनी क्षमताओं पर हैं आशंकित|

क्या मजाल है कि

पाक जैसी खाक,

कश्मीर की तरफ,

आँख उठा कर भी देख ले?

हम अपनी पर उतर आयें तो,

खाक का खाका,

दुनियाँ के मानचित्र से,

उखाड़ कर फेंक दें|

चीन को उसी की

नामचीन दीवाल से लगा दें|

ड्रेगन को ड्रेग

यानि कि,

खदेड़ कर

सीमा से भागा दें|

हाँ आसान नहीं होता

निपटना,

देश के उन चंद जयचंदों से|

जिनके लिए पैसा,

देश व धर्म से बड़ा होता है,

चाहे मिले,

कितने ही निकृष्टतम धंधों से|

इतना ही नहीं,

चाहे वह पैसा,

मासूमों के खून से रंगा हो,

या फिर कफन, कोयला, चारा,

बेच कर ही ठगा हो|

विकलांगों की वैसाखियों,

या शहीदों के भवनों की,

लूट का हो|

या फिर पहले आओ,

पहले पाओ वाली,

छूट का हो|

इन जयचंदों को

देशीय बेंकों पर,

भरोसा ही नहीं है

इसलिए,

विदेशों में जमा करते हैं रकम|

उन्हें पक्का पता है,

मरने के बाद,

वे स्विट्जरलेंड में ही,

लेंगे अगला जनम|

अब इन मूरखों को,

कौन समझाये,

कि शास्त्रों में ऐसा है वर्णित|

अगले जनम में ऐसे लोग,

गंदी नाली में जनमते हैं,

जो इस जनम में,

जयचंदों का काम करके,

मानवता को करते हैं कलंकित||

204 - चर्चे

आजकल बड़े ज़ोरों के हैं चर्चे,

कि चुनाव आयोग के निर्देशानुसार,

जिन भी उम्मीदवारों को भरने हैं पर्चे,

उन्हें स्वयं ही वहन करने होंगे,

चुनाव के सारे खर्चे|

हाँ आरक्षित वर्ग के प्रत्याशियों को,

छूट का प्रावधान है,

पस्तुत करते हैं,

प्रमाणपत्र अगरचे||

205 - धांधली

यदि आपकी कमाई का जरिया है,

चोरी, डकैती, बेईमानी या धांधली|

तो समझ लीजिये कि,

आपने इस जनम में ही,

अगले जनम में भुगतने के लिए,

प्रारब्धों की पोटली है बांधली||

206 - जायका

आजकल जेल ही

हो गई है उनका मायका|

और ये तो होना ही था,

क्योंकि उन पर जरा भी

असर नहीं होता था,

किसी के भी समझाने का,

और समझाने के,

किसी भी उपाय का|

यदि उनसे आप कहेंगे कि

जाएँ और जाकर

दूध ले आएं गाय का|

तो वे ले कर आ जाएंगे,

पकड़ कर

कोई गायक या गायिका|

जब वे सरकार में शामिल थे,

भेजे गए,

बलात्कार पीड़िता की

हालत का,

लेने को जायजा|

लौटे तो पता चला,

वे लेकर,

लौट आए हैं जायका|

शायद ऐसे ही लोगों के लिए,

मुहावरा बना है

कि

“बंदर क्या जाने अदरक स्वाद”

में मैंने मामूली सा,

फेर-बदल किया है,

और वो यह कि,

वे क्या जानें स्वाद,

अदरक की चाय का ?

207 - घूस

माघ हो या पूस,

खूब खाओ घूस,

ठूंस-ठूंस|

वरना,

मंहगाई के इस जमाने में,

खाना पड़ेगी,

घास-फूस||

208 – उत्तर

उत्तर प्रदेश भर में कानून,

दुहाई है, दुहाई है|

वहां की

घोर अव्यवस्था के लिए,

कौन उत्तरदायी है?

उन्होंने

इस प्रश्न के उत्तर में,

उत्तर में,

उंगली उठाई है||

समाप्त