पाप और पुण्य Devendra Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पाप और पुण्य

पाप और पुण्य

जब पांडव अज्ञातवास में रहते हुऐ तैरह वर्ष व्यतीत कर चुके थे और विचार विमर्ष कर रहे थे कि अंतिम चौदहवा वर्ष किधर बिताया जाय । इस पर अर्जुन ने विराट नगर जाने का प्रस्ताव दिया और बताया कि वहाँ के राजा विराट दुर्योधन के बहकावे में नहीं आयेंगे और हमारा अज्ञातवास आराम से पूरा हो जायेगा ।

विराट नगर की ओर प्रस्थान करते हुऐ रास्ते में बातों-बातों में पाप और पुण्य पर बहस हो गई । नकुल एवं सहदेव के अनुसार पाप सिर्फ़ पाप होता है उसे किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता, पाप एक घटना है जिस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि करने वाला कौन है, ठीक इसके विपरीत अर्जुन एवं भीम कह रहे थे कि घटना किस के द्वारा और कहाँ पर की जा रही है, का बहुत फर्क पड़ता है ।

चारों भाईयों को किसी भी परिणाम पर ना पहुँचता देख युधिष्ठिर ने उन्हें रोका और कहा कि एक कहानी सुनो और फिर निश्चय करो, और युधिष्ठिर ने कहना शुरू किया-

एक बार की बात है चँद्रसेन नामक राजा बहुत ही बुद्धिमान और शक्तिशाली था और अपने राज्य के विस्तार कि लिए अति महत्वाकांक्षी था । उसका घनिष्ठ मित्र इन्द्रजीत गुप्त उसका प्रमुख सलाहकार भी था । वह राजा चँद्रसेन के साथ प्रत्येक युद्ध में जाता और वीरता से लड़ता, चँद्रसेन अपनी सम्पूर्ण रणनीति एवं अत्यन्त गोपनीय योजनाऐं उसी के साथ मिलकर बनाता । धीरे-धीरे इन्द्रजीत गुप्त की हैसीयत दरबार में बढ़्ती गई, फिर एक दिन राजा चँद्रसेन ने भी मित्रता को सम्मान देते हुऐ इन्द्रजीत गुप्त को कई रियासतों का राजा घोषित कर दिया ।

अब इन्द्रजीत गुप्त और चँद्रसेन दोनों अपने अलग – अलग राज्यों को सम्भालने लगे । एक समय चँद्रसेन के पास सूचना आई कि धाराअंश की पहाड़ियों में छुपे डाकू अक्सर उसकी राज्यसीमा में घुसकर हमला करदेते हैं और लूटपाट कर वापस पहाड़ियों में छुप जाते हैं । चँद्रसेन ने जब इन्द्रजीत गुप्त से इस सम्बन्ध में बात की तो उसने तुरत ही नई बात बताई कि यदि एक राजा को मुट्ठी भर डाकूओं ने इस धाराअंश की पहाड़ियों के बल पर इतना परेशान कर रखा है तो सोचिये यदि ये पहाड़ियाँ आपके अधिकार में आजायें तो हमारे राज्य को कभी कोई खतरा नहीं होगा । बस फिर क्या था, इन्द्रजीत गुप्त और चँद्रसेन ने धाराअंश की पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमाने के लिये कुछ समय बाद ही योजना अनुसार चढाई करने के लिये कूच कर दिया । लिकिन समय उनके साथ नहीं था, बीच रास्ते में ही उन्हें सूचना मिली कि उनके दोनों राज्यों पर पश्चिम के राजा गौरस्वामी और पाटलिपुत्र के राजा सिन्हास्त्र ने आपस में मिलकर आक्रमण कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप इन्द्रजीत गुप्त और चँद्रसेन को धाराअंश की पहाड़ियों का विचार त्याग अपने-अपने राज्यों को सम्भालने के लिये लौटना पड़ा ।

राजा चँद्रसेन ने तो गौरस्वामी को परास्त कर दिया लेकिन राजा इन्द्रजीत गुप्त की छोटी सी सैना पाटलिपुत्र के राजा सिन्हास्त्र के पराक्रम के सामने टिक ना सकी । इन्द्रजीत गुप्त के मित्र अजेय सिंह ने रातोंरात उसे जंगलों कि रास्ते वहाँ से भगा दिया ।

जंगलों में भटकते-भटकते वह अपने पुराने मित्र पावक सिंह के राज्य में पहुँच गया,जहाँ उसे दरबार में जगह मिली और समय के साथ उनकी दोस्ती भी प्रगाढ़ होती चली गई । एक दिन इन्द्रजीत गुप्त को राजा पावक सिंह अत्यन्त चिंता ग्रस्त दिखाई दिये, उनके पूछने पर राजा पावक सिंह ने बताया कि एक विशाल भूभाग, धाराअंश की पहाड़ियों में छुपे डाकू अक्सर उसकी राज्यसीमा में घुसकर हमला कर देते हैं और लूटपाट कर वापस पहाड़ियों में छुप जाते हैं और मैं कुछ भी नहीं कर पाता । इतना सुनकर इन्द्रजीत गुप्त मुस्कुराये और कहा कि एक समय वो भी उस पर राजा चँद्रसेन के साथ इन पहाड़ियों पर आक्रमण के लिये गया था और किस तरह उसे बीच रास्ते से वापस जाना पड़ा था, लेकिन अब वो ना घबरायें क्योंकि उसने धाराअंश पर हमले से पहले उसके बारे में जो ज्ञान अर्जित किया था वो अब काम आयेगा, इसलिए अब आप निश्चिंत होकर धाराअंश की पहाड़ियों पर विजय के लिये आगे बढें और इसके साथ ही वो राजा चँद्रसेन के साथ अपनी दोस्ती के किस्से भी सुनाने लगा ।

ठीक समय पर पावक सिंह के साथ इन्द्रजीत गुप्त धाराअंश की पहाड़ियों पर आक्रमण के लिये चल दिये लेकिन समय इस बार भी इन्द्रजीत गुप्त के साथ नहीं था । धाराअंश की पहाड़ियों के एक ओर से उन्हें राजा चँद्रसेन दिखाई दिये जो कि धाराअंश की पहाड़ियों पर पहले से ही अधिकार जमाने की महत्वाकांक्षा रखते थे । इन्द्रजीत गुप्त को अपनी किस्मत पर रोना आया लेकिन अगले ही पल संभलकर वो उत्साह के साथ राजा चँद्रसेन के साथ भयंकर युद्ध करने लगा ।

कुछ ही दिनों में राजा चँद्रसेन विजयी हुआ, राजा पावक सिंह तो पुनः अपने राज्य लौटने में कामयाब हो गये किन्तु दुर्भाग्य से इन्द्रजीत गुप्त बंदी बना लिया गया । भरे दरबार में इन्द्रजीत गुप्त को कैदियों की तरह बेड़ियों से बाँधकर लाया गया तो राजा चँद्रसेन ने बोला कि तुम स्वयं ही बताओ कि तुम्हें मित्रता में धोखा देने की क्या सजा मिलनी चाहिये । इस पर कुछदेर तक तो इन्द्रजीत गुप्त खड़ा रहा और फिर चलकर प्रमुख सलाहकार के खाली पड़े आसन पर बैठ गया जिस पर पहले कभी वो खुद बैठा करता था ।यह देख सभी दरबारी समझ गये थे कि अब इन्द्रजीत गुप्त को अवश्य ही मृत्यु की सजा मिलेगी । राजा चँद्रसेन अपने सिंहासन से उठकर इन्द्रजीत गुप्त के पास आये और अपने मित्र को गले से लगा लिया और कहा कि वो अवशय ही परम भाग्यशाली है जिसके पास तुम्हारे जैसा मित्र है ।

कहानी यहाँ समाप्त करने के बाद युधिष्ठिर ने अपने चारों भाईयों से पूछा कि राजा चँद्रसेन ने इन्द्रजीत गुप्त को अपनी मित्रता में विश्वासघात करने और अपने विरुद्ध युद्ध करने की सजा क्यों नहीं दी । इस पर चारों भाई इस बात पर सहमत थे कि निश्चित ही इन्द्रजीत गुप्त सच्चा मित्र था, उसने कभी भी अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ा । पहली स्थिति में युद्ध के लिये इन्द्रजीत गुप्त राजा चँद्रसेन के साथ था और दूसरी स्थिति में युद्ध के लिये वह राजा पावक सिंह के साथ मित्रता का धर्म निभा रहा था । अतः इन्द्रजीत गुप्त को राजा चँद्रसेन द्वारा क्षमा करना ही सही निर्णय था । इन्द्रजीत गुप्त सच में एक अच्छा मित्र था ।

इस विषय पर बात करते-करते युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रोपदी के साथ चलते हुऐ विराट नगर की सीमा के निकट पहुँच गये थे।