पेशवा बाजीराव Rushik Borad द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पेशवा बाजीराव

पेशवा बाजीराव्

मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। शिवाजी के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है।

पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति राजाराम के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन छत्रपति शाहू के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते ( के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र सातारा की अपेक्षा पुणे निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराज के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक नाना फड़नवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को वसई की संधि के अनुसार अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।

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बाजीराव का जन्म ब्राह्मण परिवार में बालाजी विश्वनाथ के पुत्र के रूप में कोकणस्थ प्रान्त में हुआ था, जो छत्रपति शाहू के प्रथम पेशवा थे। २० वर्ष की आयु में उनके पिता की मृत्यु के पश्यात शाहू ने दुसरे अनुभवी और पुराने दावेदारों को छोड़कर बाजीराव को पेशवा के रूप में नियुक्त किया। इस नियुक्ति से ये स्पष्ट हो गया था की शाहू को बाजीराव के बालपन में ही उनकी बुद्धिमत्ता का आभास हो गया था, इसलिए उन्होंने पेशवा पद के लिए बाजीराव की नियुक्ति की। बाजीराव सभी सिपाहीयो के बिच लोकप्रिय थे और आज भी उनका नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।

बाजीराव, वह थे जिन्होंने 41 या उस से भी ज्यादा लड़ाईयां लड़ी थी, और एक भी ना हारने की वजह से विख्यात थे। जनरल मोंटगोमेरी, ब्रिटिश जनरल और बाद में फील्ड मार्शल ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लिखीत रूप में यह स्वीकार भी किया था।

अपने पिता के ही मार्ग पर चलकर, मुघल सम्राटो को समझकर उनकी कमजोरियों को खोजकर उन्हें तोड़ने वाले बाजीराव पहले व्यक्ति थे। सैयद बन्धुओ की शाही दरबार में घुसपैठी या दखल-अंदाजी बंद करवाना भी उनके आक्रमण का एक प्रभावी निर्णय था।

बाद में ग्वालियर के रानोजी शिंदे का साम्राज्य, इंदोर के होल्कर, बारोदा के गायकवाड , और धार के पवार इन सभी का निर्माण बाजीराव द्वारा मराठा साम्राज्य के खंड के रूप में किया गया, क्यूकी वे मुघल साम्राज्य से प्रतीशोध लेकर उनका विनाश कर के उनकी “जागीरदारी” बनाना चाहते थे।

उन्होंने अपना स्तंभ सासवड से और मराठा साम्राज्य की प्रशासनिक राजधानी/पूँजी को 1728 में सातारा से पुणे ले गये। इसी प्रक्रिया के दौरान, उन्होंने एक कसबे को शहर बनाने की भी नीव रखी। उनके प्रमुख, बापुजी श्रीपाट ने सातारा के कई धनवान परिवारों को पूना स्थापित होने के लिए मनाया, जो 18 पेठ में विभाजीत किया गया था।

1732 में महाराजा छत्रसाल की मृत्यु पश्यात, मराठा साम्राज्य मित्र साम्राज्य रूपी था, जबकि बाजीराव को छत्रसाल साम्राज्य का एक तिहाई भाग बुन्देलखण्ड में दिया गया।

एक उत्कृष्ट सेना का सेनापती होने की वजह से उनकी सेना और लोग उन्हें बहोत चाहते थे। वे कई बार हिंदु धर्म की रक्षा करने के लिए मुघलो से लड़े और उन्हें धुल भी चटाई, और हमेशा के लिए मुघलो को उत्तरी भारत पर ध्यान करने पूर्व ही मध्य और पश्चिमी भारत से दूर रखा। और इसी संकेत पर चलते हुए मराठाओ ने सिद्दी (मुघल नौसेनापति), मुघल, पुर्तगाल, निज़ाम, बंगाश इत्यादि को हराया।

देखा जाये तो शिवाजी महाराज के बाद बाजीराव ने ही मराठा साम्राज्य का सबसे बड़ा चित्र साकार/निकाला था, ब्रिटिश पॉवर 19 वी सदी में स्थापित होने से पूर्व तक मराठा साम्राज्य प्रभावशाली रूप से 18 वी सदी तक चलता रहा।

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मस्तानी पेशवा बाजीराओ की दुसरी पत्नी थी, बाजिराव चौथे मराठा छत्रपति शाहूजी राजे भोसले के साम्राज्य में मराठाओ के सेनापति और प्रधान थे। ऐसा कहा जाता है की मस्तानी बहोत बहादुर और सुंदर महिला थी।

इतिहास में बहोत से प्रसिध्द व्यक्ति मस्तानी से जुड़े है, और उनसे जुडी बहोत सी कथाये भी है। मस्तानी बुंदेला के राजपूत नेता महाराजा छत्रसाल की पुत्री थी, जो बुदेलखंड प्रान्त के संस्थापक थे। मस्तानी को जन्म उनकी, फारसी-मुस्लिम पत्नी रूह्यानिबाई ने दिया जो हैदराबाद के निज़ाम के दरबार में नर्तकी थी। अल्लाहाबाद के मुघल प्रमुख मोहम्मद खान बंगाश ने छत्रसाल साम्राज्य पर आक्रमण किया तब छत्रसाल ने एक गुप्त सन्देश भेजा जिसमे उन्होंने बाजीराव प्रथम से सहायता मांगी थी। जिससे उनकी सैन्य शक्ति बढ़ सके। बाजीरावाला तुरंत महाराजा छत्रसाल की सहायता के लिए आगे बढे, और धन्यवाद् के स्वरुप छत्रसाल ने बाजीराव को उपहार स्वरुप अपनी बेटी मस्तानी दी और उनके साम्राज्य का एक तिहाई भाग भी दिया जिसमे झाँसी, सागर और कालपी का भी समावेश था। महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव और मस्तानी के विवाह उपलक्ष में हीरो की खदान भेट स्वरुप दी।

ऐसे कई सारे प्रसंग मस्तानी के जीवन से जुड़े है, छत्रसाल के दुसरे दृष्टिकोण से देखा जाये तो, वो हैदराबाद के निज़ाम की कन्या थी। छत्रसाल ने निज़ाम को 1698 में पराजित किया था, और निजाम की पत्नी ने बुन्देल और उनके बिच अच्छे सम्बन्ध स्थापित होने हेतु उनकी बेटी से विवाह करने की सलाह दी क्यूकी उस समय मध्य भारत में छत्रसाल साम्राज्य सबसे सशक्त और शक्तिशाली साम्राज्य था।

कहानी के तीसरे अध्याय के अनुसार, बाजीराव और छत्रसाल की मित्रता होने के पश्चात, मस्तानी ये छत्रसाल के दरबार की नर्तकी थी। बाजीराव, मस्तानी के प्रेम में पड़ने के बाद उनका मस्तानी से विवाह हुआ। जिसका बाजीराव उच्च दर्जे के ब्राह्मण होने की वजह से पुरे ब्राह्मण समुदाय एवं हिन्दुओ ने विरोध किया।

जहा बाजीराव ने स्वीकार किया था की मस्तानी यह छत्रसाल के फारसी-मुस्लिम पत्नी की बेटी थी। मस्तानी का वैध रूप से विवाह होने के बावजूद अक्सर उसे बाजीराव की रखैल या प्रेमिका कहा जाता था।

मस्तानी एक कुशल घुड़सवार थी, और साथ साथ भाला फेक और तलवारबाजी भी करती थी और एक बुद्धिमान नर्तकी एवम गायिका थी। मस्तानी ने हमेशा सैन्य अभियान में बाजिराओ का साथ दिया। मस्तानी और बाजिराओ की पहली पत्नी काशीबाई ने बाजिराव को एक-एक पुत्र दिया परन्तु काशीबाई का पुत्र जल्दी ही मारा गया और मस्तानी का पुत्र था जिसका नाम शमशेर बहादुर था।

बाजिराओ ने शमशेर को बन्दा की जागीर प्रदान की। शमशेर १७६१ के पानीपत के तीसरे युद्ध में अहमद शाह अब्दली के खिलाफ मराठाओ की तरफ से लड़ा था और ये कहा जाता है की युद्ध के दौरान उसे वीरगति प्राप्त हुई।

बाजिराओ काशीबाई और उनकी माता राधाबाई के मस्तानी के प्रति क्रोध को नज़रंदाज़ कर के अपनी अर्ध-मुस्लिम पत्नी मस्तानी को प्रेम करता गया। राधाबाई की और से रहते हुए बाजिराओ का भाई हमेशा मस्तानी को वनवास भेजने की नाकाम कोशिश करता रहता था। बाजिराओ का पुत्र बालाजी भी मस्तानी को उनके पिता को छोड़ने के लिए मजबूर करता था लेकिन मस्तानी इस सब से असहमत थी। परन्तु बाजिराओ बार बार इसे नज़रंदाज़ करते गये और इसीका फायदा उठाते हुए बालाजी ने मस्तानी को जब बाजिराओ अपने सैन्य अभियान में व्यस्त थे तब कुछ समय के लिए उसे घर में ही कैद कर के रखा।

बाद में कुछ समय पच्छात मस्तानी बाजिराओ के साथ पुणे के शनिवार वाडा के पास राजमहल में रहने लगी। महल के उत्तर पूर्व किनारों पर महल को “मस्तानी महल” और बाहरी द्वार को “मस्तानी दरवाज़ा” का नाम दिया गया। बाजिराओ के परिवार के मस्तानी के साथ दुर्व्यहार के कारण बाद में बाजिराओ ने मस्तानी के लिए 1734 में कोथरुड में एक अलग निवास स्थान बनाया, जो शनिवार वाडा से कुछ ही दुरी पर था। ये स्थान आज भी कर्वे रोड पर “मृत्युंजय मंदिर” के नाम से जाना जाता है। जहा कोथरुड के महल के टुकड़े टुकड़े कर दिए गये थे वो आज भी राजा केलकर संग्रहालय के विशेष विभाग में देखा जा सकता है। परन्तु इस सम्बन्ध में मस्तानी से जुड़े कोई सरकारी कागज़ बाजिराओ के साम्राज्य में दिखाई नहीं देते।

इतिहासकारों का ऐसा मान ना है की राजा केलकर संग्रहालय और वाई संग्रहालय में जो बाजिराओ और मस्तानी की पेंटिंग्स लगी है वो प्रमाणिक या असली नहीं है।