भारत की रणनितिक चुनौतियां
ब्रिक्स सम्मेलन में भारत की तमाम कोशिशों के बावजूद आतंकवाद के मुद्दे पर चीन की असहमति और रूस की अनिच्छा एक बड़ा परिवर्तन का संकेत है। भारत द्वारा बेहद कड़े और स्पष्ट निर्णय लेने का सयम आ गया है। पिछले दस वर्ष भारतीय सामरिक स्थिति (स्ट्रेटेजिक पोजीशन) के लिए बेहद रोचक, चुनौतीपूर्ण और संभावनाओं से भरे रहे हैं। ऐसा आंतरिक और बाहरी दोनों स्तरों पर हुआ है। एक ओर जहां भारत ने दुनियाभर में आइटी (एवं अन्य) से जुड़ी क्षमताओं का लोहा मनवा कर सैकड़ों अरब डॉलर का व्यापार किया है और ब्रांड इंडिया स्थापित की है, वहीं अनेक क्षेत्रों में हमारी औद्योगिक शक्ति उस गति से नहीं बढ़ पायी है, जितना बढ़ती जनसंख्या के उत्पादक नियोजन के लिए जरूरी है।
गंभीर चुनौतियों के बावजूद भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ने बार-बार देश को आगे बढ़ने में, विरोधाभासी स्वरों को सुर देने में और गरीबों को हाशिये पर जाने से रोकने में कुछ सफलता पायी है। आज देश उस मोड़ पर खड़ा है, जहां हमें कुछ ठोस और कड़े निर्णय लेने ही होंगे, यदि हम 2030 और उससे आगे का भारत सशक्त, समृद्ध और सुरक्षित देखना चाहते हैं तो अब सतही तौर पर उतारने का समय आ गया है।
देश दो तरीकों से मजबूत बनता है- आंतरिक खुशहाली और समृद्धि, एवं बाहरी सुरक्षा और सामरिक पहुंच। आंतरिक चुनौतियां हमारी अपनी हैं और हम उनसे निबटते रहेंगे, किंतु आज जो बाहरी संघर्ष हमारे सामने कुछ देशों ने खड़ा कर दिया है, वह अप्रत्याशित है। आज हमारे सामने गंभीर चुनौती है चीन। अंगरेजी में इस चुनौती का बढ़िया वर्णन है- 'क्लियर एंड प्रेजेंट डेंजर' अर्थात साफ दिखने वाला वर्तमान का खतरा। ऐसा क्यों हो गया और इस खतरे के पहलू क्या हैं, और हम क्या करें?
1949 में साम्यवादी चीन बना और माओ त्सेतुंग के खूनी नरसंहारों, विफल कृषि क्रांतियों और असफल औद्योगिक पुनर्निर्माण प्रक्रिया के बाद 1976 आते-आते चीन एक बरबाद अर्थव्यवस्था बन चुका था। 1979 में देंग झाओपिंग ने जब कमान संभाली, तो चीन ने बड़ी करवट ली। देंग ने तीन बातों पर पूरी ताकत झोंक दी- (1) विदेशी पूंजी चीन में लाने और निवेश करवाने में, (2) सेना और हथियारों को तेजी से आगे बढ़ाने में, और (3) विज्ञान और प्रौद्योगिकी में साम-दाम-दंड-भेद से अपनी क्षमता विकसित करने में। इन तीनों मोरचों पर लोकतंत्र की गैरमौजूदगी और नागरिक मूलभूत अधिकारों के अभावों ने चीनी सरकार को इतनी स्वतंत्रता दी कि एक पार्टी शासन और एक दिशा में क्रूरता से आगे बढ़ते रहने में चीन सफल हो गया।
चीन की तारीफ करने वाले भारत के उदारवादी और 'लिबरल' लोग इस तथ्य को पूरी तरह से भूल जाते हैं कि यदि भारत में एक पार्टी शासन आ जाये, मौलिक अधिकार खत्म हो जायें, संविधान नाममात्र का दस्तावेज हो जाये, न्याय-व्यवस्था एक पार्टी के अधीन हो जाये और सेना भी उसी पार्टी की वफादारी की कसमें खाने लगे- तो हम भी अगले 15-20 सालों में चीनी मिरेकल दोहरा सकेंगे। यह सब सुन कर घबराहट हो रही है न? जनाब, बहुत क्रूर है चीनी ड्रैगन की सफलता का राज है। भारत ने अपनी लोकतांत्रिक सीमाओं में रहते हुए 1991 से नयी व्यवस्था अपनायी. हम पहले ही लेट हुए थे और हम उतनी गति से आगे बढ़े ही नहीं. आज लगभग चालीस सालों बाद इन दोनों देशों के बीच का अंतर गहरा गया है।
चीन ने पिछले बीस सालों में दुनियाभर में उत्पाद निर्यात कर-करके लगभग तीन ट्रिलियन डॉलरों का भीषण सामरिक मुद्रा भंडार खड़ा कर लिया है, जो भारत के मुकाबले लगभग दस गुना ज्यादा है। इस वित्तीय ताकत का भरपूर इस्तेमाल वर्तमान नेता शी जिनपिंग साहब हमारे पड़ोसी देशों को खरीदने में लगा रहे हैं (शब्दों हेतु क्षमा करें, किंतु हो यही रहा है)। हाल में बांग्लादेश को 40 बिलियन डॉलर की मदद का वादा किया गया। भारत के पास ये वित्तीय शक्ति है ही नहीं, और हमारी मौजूदा औद्योगिक, निर्यात व श्रमबल उत्पादकता के चलते ऐसा संभव ही नहीं है। हम चीन से सीधे तौर पर तो नहीं लड़ सकते। ब्रिक्स शिखर वार्ता के बाद तीन बातें साफ हो गयी हैं। एक- चीन कभी भी पाक की मित्रता नहीं छोड़ेगा। मेरा अनुमान है कि पांच वर्षों में खुद पाकिस्तानी समझ जायेंगे कि सीपीइसी (चीन-पाक आर्थिक गलियारा) पाकिस्तान के लिए इस्ट इंडिया कंपनी का ही काम करेगा। दो- रूस अपनी मजबूरियों के चलते खुले तौर पर भारत का साथ नहीं दे सकता, धीरे-धीरे वह चीन के करीब जा रहा है (भारत के खिलाफ नहीं- जैसा नयी ब्रह्मोस- 600 किमी रेंज वाली मिसाइल- से साफ है)। तीन- भारत को अपने हर सुरक्षा इंतजाम तुरंत कर लेने चाहिए, भले ही टैक्टिकल परमाणु मिसाइल न रखने की नीति छोड़नी पड़ जाये। समय बहुत बड़ी करवट ले रहा है। तो इस चीनी ड्रैगन से कैसे निबटें? मेरे दिमाग में चार उपाय आते हैं.पहला- भ्रम में जीना छोड़ दें। चीन केवल खुद की सोच रहा है और वह 'वन बेल्ट वन रोड' की वर्तमान सरकार की नीति को लागू करके ही दम लेगा। सीपीइसी उसी का एक हिस्सा है। हम भी जितने देशों को अपने से जोड़ सकते हैं, उन्हें तेजी से जोड़ें और अपने पक्ष में करें, नहीं तो अपने विरोधी पक्ष से तो हटाएं।
दूसरा- चीनी सामान के सामरिक बहिष्कार की राष्ट्रीय नीति बनाने का अब शायद समय आ चुका है। वह हमारे जवानों के हत्यारों को संरक्षण देता रहे और हम उसका माल खरीदते रहे, यह खोखली देशभक्ति हम कब तक ओढ़े रहेंगे? शायद ऐसा करने से ही हमें खुद की औद्योगिक क्षमता (और सरकारी ढांचे) को सुधारने का मौका मिल जाये। तीसरा- हमें चीन की सीमा पर सामरिक परमाणु हथियारों के साथ टैक्टिकल (छोटी दूरी के, मगर अत्यंत खतरनाक) परमाणु हथियार तुरंत तैनात करने का निर्णय लेना चाहिए. ताकत में मदमस्त चीनी ड्रैगन दूसरी कोई भाषा न सुनेगा, न समझेगा। चौथा- शायद हम सबको अपनी देशभक्ति की परिभाषा पर गौर करने का भी समय आ गया है। वर्ष के केवल उन दो दिनों में 'भारत माता की जय' बोलने के अलावा प्रतिदिन यदि हम ईमानदारी, कार्य में उत्कृष्टता और अधिक उत्पादकता दिखायेंगे, तो शायद सच्ची लड़ाई लड़ पायेंगे।
जय हिंद।
विवेकानन्द राय
प्रवासन एवं डायस्पोरा अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
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