जीन्न का तोहफा Khushi Saifi द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जीन्न का तोहफा

जिन्न का तोहफा – पार्ट 1

अभी मैं पार्क में बैठा अपने ख्यालो में गुम था कि एक बच्चे के शोर से मैं ख़यालों की दुनिया से निकल कर हकीक़त की ज़िन्दगी में आ पहुंचा, अपनी ज़िन्दगी की भाग दौड़ और उधेड़ बुन में इतना बिज़ी था कि पता ही नही चला कब ऑफिस से निकली सडकें मुझे रोज़ की तरह पार्क में ले आयी.. शायद रोज़ का मामूल था मेरा इसलिए सड़कों को भी मेरी मंज़िल पता चल गई थी। मैं रोज़ ऑफिस से आ कर आधा घंटा यहीं गुज़रता था। घर जा कर भी क्या करना था मुझे.. खाना खाकर सो जाता या कुछ देर मोबाइल पर फेसबुक और यूट्यूब देखकर वक़्त गुज़र देता.. घर पर कोई इंतज़ार भी तो नही कर रहा जिसके लिए जल्दी जल्दी ऑफिस का काम खत्म कर के घर पोहंचु, मैं तो अकेला रहने वाला बाँदा हूँ.. खैर छोड़िये मेरे दुःख की कहानी, शायद घर से दूर आ कर काम करने वाले सभी लड़को की मेरे जैसी ही condition होती होगी...

शाम के वक़्त दिल्ली का मौसम कुछ ज़्यादा ही सुहाना हो जाता है, शुरू शुरू के October की हल्की हल्की ठण्ड लिए शामें, सामने कुदरत की कलाकारी में इंसान की technically का खूबसूरत संगम.. फूल पौधों से बनी तितली और गास से बने मन मोह लेने वाले खूबसूरत डिजाइन पार्क के चारों तरफ दिख रहे थे और किसी बेंच पर यंग कपल बैठा अपनी ही दुनिया में खोए थे तो किसी बेंच पर बूढे अंकल आंटी बैठे अपनी जवानी की यादों को ताज़ा कर मुस्कुरा मुस्कुरा कर बातें कर रहे थे।

अचानक मेरा ध्यान फिर उसी बच्चे पर गया जो अपने साथ बैठे बूढे आदमी से बोल रहा था, “नानू please! दिला दें ना एक ice cream” पर उसके नानू शायद मान नही रहे थे.. मैं मुस्कुरा दिया उस बच्चे की मासूम सी ज़िद पर। कभी मैं भी अपने नाना जान से एसे ही ज़िद किया करता था अपनी फरमाइशें पूरी करने के लिए...

अरे, बातों बातों में मैं अपना नाम तो बताना ही भूल गया आप लोगो को, मेरा नाम आरिफ़ है, मैं दिल्ली जॉब के सिलसिले से आया हूँ पर मेरा असल घर लाडपुर में है ऑफिस टाइम से पुहंच जाऊं तो पास ही एक कमरा ले लिया किराये पर, हर वीकेंड पर घर जा कर अम्मी पापा और भाई बहन से मिल आता हूँ।

उस बच्चे और उसके नानू को देख कर मुझे अपने नाना जान याद आ गए, हम तीनों (मैं, मेरी छोटी बहन और छोटा भाई) अम्मी के साथ अक्सर गर्मियों की छूट्टियों में नानी के घर जाते थे, वहाँ जा कर हम खूब मस्ती करते जिसमे हमारे नाना जान भी हमारा साथ देते, रोज़ शाम को वो कुछ देर हमारे साथ खेलते और फिर हमें कहानियां सुनाते। कहने को तो वो कहानी सुनाते पर उनकी कहानियां यूँ लगती जैसे कोई हकीकत का किस्सा सुना रहे हों, शायद कहानी कहने का हुनर भी किसी किसी को ही आता है और मेरे नाना जान उनमे से एक थे। कुछ इस तरह कहानी सुनाते की नज़रों के सामने फिल्म सी चलने लगती और हम खुद को उस कहानी का एक किरदार समझने लगते... उन्होंने एक एसी ही कहानी सुनाई जो आज तक मेरे दिल पर नक्श है...

मुझे आज भी याद है तेज़ गर्मी की शाम थी और हम नाना जान के आस पास बैठे ज़िद कर रहे थे की आज कोई भूत वाली कहानी सुनाये... हमारी बोहोत ज़िद करने के बाद वो मान गए और फिर नाना जान ने कहानी सुनानी शुरू की।

एक आदमी था जो जंगल पार काम पर जाता और दिन ढालने से पहले अपने घर लौट आता, उसे काम पर जाने के लिए मजबूरन जंगल का रास्ता लेना पड़ता क्योंकि कोई और रास्ता नही था सिवाए जंगल के, उसके साथ काम करने वाले साथी और वो साथ मिल कर जाते और साथ ही आते, इसी तरह उसके दिन रात गुज़र रहे थे और वो अपने घर की दाल रोटी चला रहा था।

एक दिन उसे अपना काम पूरा करते कुछ देर हो गयी..साथियों ने कहा “चल भाई, नही तो देर हो जायेगी और अँधेरा हो जायेगा”

“तुम लोग जाओ, मै ज़रा हाथ का काम निपटा लूँ, आज दिहाड़ी ले कर जाऊंगा” उसने जल्दी जल्दी लकड़ी पर आरी चलानी शुरू की।

“एसे कैसे चलें जाये तुम को अकेला छोड़ कर, जंगल के बारे में अफवाहें नही सुन रखी क्या तुमने”

“अरे भाई, सब झूठी बातें है, क्या भूत हमारे लिए ही बैठे हैं.. वेसे भी हमारा तो रोज़ का आना जाना है अब तक तो भूत लोग भी हम को जान चुके होंगे” उस आदमी ने मज़ाक उड़ने वाले अंदाज़ में कहा।

“मज़ाक तो ना बनाओ.. चलो फिर ठीक है, मैं चलता हूँ मेरे घर कुछ मेहमान आने वाले हैं आज”

“ठीक है, मैं भी जल्दी ही निकल जाऊंगा बस काम पूरा होते ही” और यूँ सभी साथी एक एक कर के चले गए।

वो आदमी काम पूरा कर के जल्दी जल्दी घर लौट रहा था, उसे चलते चलते बहुत देर हो गयी पर जंगल पार ही नही हो रहा था.. एसा लगता कि वो एक गोल रस्ते पर चल रहा है, जहाँ से शुरू करता चलना कुछ देर बाद फिर वहीँ पाता खुद को, वो सोचता कि आज ये क्या हो गया है जो जंगल पार ही नही होता, कहीं मैं रास्ता तो नही भटक गया। एसा कैसे हो सकता है ये तो मेरा रोज़ का काम है आना जाना फिर यूं अचानक रास्ता कैसे भूल सकता हूँ.. यूँ ही जंगल में रास्ता ढूढ़ते ढूंढते शाम ढलने लगी और चारों और अँधेरा फैलने लगा अब उसे कुछ कुछ फ़िक्र सताने लगी अगर रास्ता नही मिला तो कैसे घर पोहंचेगा, जंगल में जंगली जानवर भी है और अँधेरे का ख़ौफ़ भी... तभी खामोश जंगल में ख़ामोशी को चीरती एक ज़ोर दार आवाज़ गुंजी “मै मै, मैं मैं” उस आदमी ने उधर उधर देखा तो कुछ नज़र नही आया.. कुछ कदम चलने के बाद फिर वहीँ आवाज़ गुंजी “मैं मैं” उस भटके आदमी ने फिर इधर उधर देख कर आवाज़ वाली चीज़ को तलाशने की कोशिश की तभी उसे वहां जंगल में एक छोटा सा बकरी का बच्चा मिला, जिसकी “मै मै” से पूरा शांत जंगल चीख़ रहा था। उस आदमी ने जंगल में इधर उधर देखा की कोई चरवाह या कोई बकरी आस पास है या नही लेकिन दूर दूर तक कोई नज़र नही आया और वो बकरी का बच्चा उस आदमी को देख कर एसे बोल रहा था जैसे उससे मदद मांग रहा है। उस आदमी को छोटे से बच्चे पर तरस आ गया और सोचा मैं भी तो घर ही जा रहा हूँ तो क्यों ना उसे भी साथ लेता चलूँ, यहाँ रहेगा तो कोई जंगली जानवर खा जयेगा और ये नन्ही सी जान अपनी ज़िन्दगी खो बैठेगी। ये सोचना था कि उस आदमी ने बकरी के बच्चे को उठा कर अपने कंधे पर बैठा लिया और फिर चलने लगा इस उम्मीद में कि कहीं न कहीं से रास्ता मिल ही जायगा। वो आदमी चलता रहा तो अब उसे कुछ जाना पहचाना सा रास्ता लगने लगा, उससे महसूस हुआ कि अब वो जल्द ही घर पुहंच जायगा। इसी ख़ुशी में उसे अचानक बकरी के बच्चे का ख्याल आया तो उसने महसूस किया कि बकरी का बच्चा अब खामोश हो गया है तो उसने बकरी के बच्चे की तरफ देखा और जैसे ही उसकी तरफ देखा तो वो बकरी का बच्चा उस आदमी की तरफ देख कर शैतानी हँसी हंस रहा था। हंसी इतनी भयानक थी कि उसे कुछ कुछ ख़ौफ़ आने लगा और जब उस आदमी की नज़र उस बकरी के बच्चे के पीछे के पैरों पर पड़ी तो खोफ और भी ज़्यादा हो गया, क्या देखता है कि जहाँ से उसने बच्चे जो अपने कंधों पर बैठाया था वहां से उसके पैर लंबे होते होते जमीन पर खिचड़ने लगे। वो आदमी कभी बकरी के बच्चे को देखता तो कभी उसके मीटरों लंबे हुए पैरों को देखता और फिर ऐसा ख़ौफ़ तारी हुआ कि उस बकरी के बच्चे को वहीँ छोड़ दौड़ता भागता, उलटे सीधे कदम रखता अपनी जान की हिफाज़त को दौड़ा।

आगे जानने के लिए पढ़िए दूसरा पार्ट “जिन्न का तोहफा – पार्ट 2