मेरा जीवन वाया टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियाँ -3 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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मेरा जीवन वाया टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियाँ -3

आत्मकथ्य

मेरा जीवन

वाया

टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियाँ

(पार्ट-3)

सुभाष नीरव

अनुक्रम

1- मेरे जीवन का पहला चुम्बन

2- वैसी होली जीवन में फिर कभी नहीं आई

3- प्रेमचंद को न पढ़ा होता तो शायद मैं इस दुनिया में न होता !

4- जुए के नीचे फंसी गर्दन

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मेरे जीवन का पहला चुम्बन

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गर्मियों के दिन थे। एक दिन सभी अपने अपने घर के बाहर चारपाइयाँ बिछाकर सोने की तैयारी में थे कि अचानक शोर मच गया, “पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया।” यह अप्रैल, 1965 की बात है। मुराद नगर की आर्डनेंस फैक्टरी बम बनाने की सरकारी फैक्टरी है और पाकिस्तान इस फैक्टरी को बर्बाद करना चाहता था। लाल बहादुर शास्त्री उस समय देश के प्रधानमंत्री थे जिन्होंने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया था। लोगों ने अपने अपने बाड़ों में अंग्रेजी के ज़ैड अक्षर की खाइयाँ खोद ली थीं। रात में ब्लैक-आउट होता था। किसी भी समय सायरन बजने लगता और सब अपनी अपनी चारपाइयों से उठकर खाइयों में कूद पड़ते। इन्हीं दिनों अन्न का भंयकर अकाल पड़ा। गेहूं-चावल मिलता नहीं था। जो मिलता था, बहुत खराब मिलता था। उस समय तो हमने जौं- बाजरे की बिना चुपड़ी रोटियाँ भी खाईं थीं जिन्हें गरम-गरम ही खाया जा सकता था, ठंडी हो जाने पर वे पत्थर-सी सख्त हो जाती थीं और उन्हें चबाते-चबाते हमारे मुँह दुखने लगते थे।

एक दिन रात में आस-पड़ोस के बड़े-बुजुर्ग ट्रांजिस्टर के पास घेरा बनाकर बैठे समाचार सुन रहे थे और हम बच्चे लुका-छिपी का खेल खेल रहे थे। खेल खेल में छिपने के लिए मुझे और मुन्नी को कोई उपयुक्त जगह न मिली तो हम दोनों खाई में छिप गए। मुन्नी ने मेरा दायां हाथ पकड़ रखा था। अँधेरे में दूधिया चाँदनी बिखरी थी। इसी दूधिया चाँदनी में मुन्नी का सांवला चेहरा दमक रहा था। वह मुझे बेहद सुन्दर लग रही थी। न जाने मेरे मन में क्या आया, मैंने एक झटके से उसका गाल चूम लिया। मुन्नी मेरी इस हरकत से सकपका गई और उसने शरमाकर अपना चेहरा घुटनों के बीच छिपा लिया। किसी लड़की को चूमने का यह पहला अवसर था। कह सकते हैं कि मेरे जीवन का पहला चुम्बन ! अभी मैं और मुन्नी इस चुम्बन के असर में ही थे कि तभी, फैक्टरी का सायरन बजने लगा और लोग पट पट करके खाई में कूदने लगे। किसी को पता ही नहीं चला कि हम सायरन बजने पर खाई कूदे थे या सायरन बजने से पहले ही वहाँ छिपे बैठे थे।

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वैसी होली जीवन में फिर कभी नहीं आई

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सन् 1970 की बात है। मसें अभी भीगी ही थीं। जवानी की दहलीज पर खड़ा था। मुरादनगर में हम जहाँ रहते थे, वह सरकारी क्वार्टरों का एक मोहल्ला था। एक लाइन में नौ मकान एक तरफ़ और नौ मकान दूसरी तरफ़ यानी पिछवाड़े में। सभी मकानों के आगे खुली जगह थी जहाँ लोगों ने अपने अपने बाड़े बना रखे थे। उन बाड़ों में अमरूद, आम, केला और बेरी के पेड़ थे और सब्जियों की क्यारियाँ। कुछ ने अपने बाड़ों में किस्म-किस्म के फूल भी बो रखे थे। कुछ ने गाय, भैंस और बकरियां पाल रखी थीं और उनके लिए बाड़े में कच्चे कोठे बना रखे थे। वे क्वार्टर आर्डनेंस फैक्टरी के वर्करों को अलॉट थे जिनमें वे अपने परिवारों के संग रहते थे। वहाँ सभी जातियों के लोग थे। पंजाबी, पंडित, मुसलमान, मेहतर, बिहारी, जुलाहा आदि। हमारा क्वार्टर बिल्कुल कोने का था। मोहल्ले के बीचों-बीच एक सरकारी नल था जिस पर सुबह के समय पानी को लेकर खूब हो-हल्ला और मारा-मारी होती।

बिहार से आये लोगों, जिन्हें हम पुरबिये कहते थे, के घर अधिक थे। उनकी स्त्रियाँ होली से दो दिन पहले से ही भगोने चूल्हों पर चढ़ा देतीं। उनमें टेसू का रंग खौलता रहता। उनका होली खेलने का ढंग दूसरों से जुदा था। होली के दिन वे सफ़ेद धोतियां पहने होतीं और पानी वाले रंग से ही ज्यादा होली खेलती थीं। भगोने, बाल्टियां, लोटे खूब इस्तेमाल होते। वे अक्सर पुरूषों पर चुपके से हमला करतीं और गर्दन पर से कॉलर उठाकर टेसू का गुनगुना रंग उंड़ेल देतीं। वह रंग कपड़ों पर से तो कभी उतरता ही नहीं था, देह से भी कई-कई दिनों तक उतरने का नाम नहीं लेता था। रंगा हुआ पुरुष उनके पीछे भागता और वे कुशल छापामार की तरह भागकर घरों में छिप जातीं। रामप्रसाद की नई नई शादी हुई थी। वह तवे-जैसे काले रंग का था जबकि उसकी बीवी बहुत ही गोरी-चिट्टी और सुडौल देह वाली थी। उसकी बीवी को मैं और मेरी उम्र के सभी लड़के भौजी कहते थे। वह अनपढ़ थी और संतोषी मां का व्रत रखा करती थी। जिस दिन वह व्रत रखती, नहा-धो लेने के बाद मुझे बुला लिया करती। मैं किताब से संतोषी मां की कथा पढ़ता और वह मेरे सामने बैठी बड़े मनोभाव से उस कथा को सुनती रहती। वह मेरी ओर टकटकी लगाए देखती रहती थी। चोर निगाहों से एकाध बार मैं जब उसकी ओर देखता तो वह नज़रें झुका लेती।

उस वर्ष हाईस्कूल के बोर्ड की परीक्षा थी इसलिए मैं होली खेलने में अपना वक्त बरबाद नहीं करना चाहता था। घर का दरवाजा अंदर से बंद करके मैं उस दिन किताब में सिर गड़ाए बैठा था। बाहर से होली के हुड़दंग का शोर बीच-बीच में सुनाई देता तो मेरा ध्यान बँट जाता। बीच बीच में बाहर से दरवाज़ा पीटने के शोर के साथ कई स्त्री स्वर भी कानों में पड़ते रहे, पर मैंने दरवाजा नहीं खोला। दोपहर में जब लगा कि अब सब शांत हो गया है तो मैं बाहर निकला। बाहर वाकई सब शांत था। मैं घर के आगे वाले अपने बाड़े में जा घुसा। धूप थी लेकिन ठंडी हवा भी चल रही थी। मैंने आम के पेड़ के पास दो चारपाइयों को अंग्रेजी के अक्षर ‘एल’ के आकार में खड़ा किया और उन पर चादरें-दरियां डाल दीं ताकि हवा से बचाव हो सके और मैं किसी को दिखाई भी न दूँ।। जमीन पर टाट बिछा मैं आराम से लेट गया और धूप सेंकने लगा। ज्यादा देर नहीं हुई थी कि औरतों के एक झुंड ने मुझे चारों ओर घेर लिया गया। ये सभी मुहल्ले की औरतें थीं। बचकर निकल भागने का उन्होंने मुझे ज़रा भी अवसर ही नहीं दिया। उन सबके चेहरे लाल-हरे-पीले-काले रंगों से पुते पड़े थे और किसी की भी पहचान कर पाना मुश्किल था। ‘कब तक छिप कर बैठोगे बचुवा… आज तो होली है !’ कहती हुई वे सब मुझ पर एक-साथ टूट पड़ी थीं। वे सब खिलखिलाकर हँस रही थीं और ऐसी-ऐसी मसखरी बातें बोल रही थीं जो तब से पहले मैंने कभी नहीं सुनी थीं। उनके स्वर से ही मैं उन्हें पहचान पा रहा था। भगोनों, बाल्टियों और लोटों में भरा गुनगुना रंग वे मेरी कमीज का कॉलर और पाजामे का नेफा उठा-उठाकर डाले जा रही थीं। मेरे चेहरे पर, पीठ पर, छाती पर गीले रंगों से सने अपने नरम नरम हाथ रगड़ रही थीं। कुछ हाथ तो चिकौटी भी काट रहे थे। उनके चंगुल से भाग निकलने के चक्कर में मेरी कमीज भी फट गई थी। मुझे भूत बनाकर और बुरा हाल करके वे ‘खीं-खीं’ करती हुई वापस भाग गईं; पर एक मूरत अभी भी मेरे सामने खड़ी मुस्करा रही थी। उसके रंगे-पुते चेहरे में से दो आँखे और मोतियों जैसे दांत चमक रहे थे। एकाएक वह तेजी से आगे बढ़ी। मुझे अपनी बांहो में उसने कसकर भींच लिया और मेरे गालों को चूमते हुए बोली, ‘हमका गुलाल नहीं लगाव तुम… ?’ मेरे पास गुलाल नहीं था। मेरी दुविधा भांप उसने छाती में खोंसा हुआ गुलाल का पैकेट निकाल मेरे हाथों में दे दिया। मैंने गुलाल का पूरा पैकेट अपनी हथेलियों पर उंडेला और उसके गालों पर बहुत देर तक मलता रहा… वह हँसती रही… खिलखिलाती रही…। यह मुझसे संतोषी माँ की कथा सुनने वाली भौजी थी ! स्त्री देह की गंध और छुअन का रोमांच क्या होता है — यह जवानी की दहलीज पर खड़े मैंने उस दिन पहली बार अनुभव किया था। ऐसी होली फिर कभी जीवन में नहीं आई।

आज भी उस होली को याद करता हूँ तो देह में एक मीठी-सी सिहरन दौड़ जाती है।

प्रेमचंद को न पढ़ा होता तो शायद मैं इस दुनिया में न होता !

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कोर्स में प्रेमचंद की दो कहानियाँ पढ़ी थीं – ‘ईदगाह’ और ‘दो बैलों की कथा’। तब साहित्य से न लेना-देना था, न सोचा था कि कभी लेखक भी बनना है ! ये कहानियाँ आज भी मेरे ज़ेहन में तरोताज़ा हैं ! भूलाई जा भी नहीं सकतीं। बाद में कोर्स से बाहर ‘कफ़न’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘पूस की रात’ भी पढ़ीं। बस, इसलिए कि साहित्य पढ़ने की हल्की-हल्की चटक लग रही थी। और फिर मार्च 72 से जून 75 के बीच की अवधि में बेकारी से जुझते हुए प्रेमचंद को समय काटने और उन्हें जानने के लिए नियमित पढ़ा। ईश्वर की कृपा कहो कि मुराद नगर फैक्टरी एस्टेट में पानी की टंकी के पास बने नये-नये रीक्रेएशन कल्ब में एक छोटा-सा पुस्तकालय खुला और एक मित्र के पिता ने मुझे उसका सदस्य बनवा दिया। एक सरदार जी जो कविता भी लिखा करते थे और मुरादनगर फैक्टरी की ओर से हर वर्ष आयोजित किए जाने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में ‘सरस्वती वंदना’ करके कवि सम्मेलन का शुभारंभ किया करते थे, उस छोटे से पुस्तकालय के इंचार्ज थे। पुस्तकालय नया नया खुला था तो सरकारी खरीद से सबसे पहले प्रेमचंद की किताबें ही वहाँ आईं। बाद में अन्य बड़े लेखकों कीं।

मैं बेरोजगार था, पिता फैक्टरी में लेबर और परिवार बड़ा। किताब तो क्या अखबार तक खरीद कर पढ़ने की औकात नहीं थी। ऐसे में यह पुस्तकालय मेरे लिए वरदान साबित हुआ। प्रेमचंद की जो भी किताब वहाँ उपलब्ध थी, इशु करवाकर पढ़ी। कभी दिन के समय बाड़े में आम के पेड़ के नीचे बैठकर, कभी रात को स्ट्रीट लाइट में (उन दिनों सर्वेंट क्वाटर में लाइट की व्यवस्था नहीं थी, मिट्टी के तेल के लैंप से गुजारा होता था और मिट्टी का तेल राशन की दुकान से मिला करता था)। गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि जैसे उपन्यास और प्रेमचंद की अन्य कहानियाँ –‘बड़े भाई साहब’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘नमक का दरोगा’, इसी दौरान पढ़ीं। परिवार की बुरी तरह चरमराती आर्थिक स्थिति और अपनी करीब तीन वर्ष की भीषण बेरोजगारी के भीतर तक आहत और दुखी करते वे भयावह दिनों में यदि मैं अपने आसपास की दुनिया से बेखबर हो पाया तो इन्हीं किताबों की वजह से ! पेट भूख से कुलबुलाता था लेकिन ये किताबें मुझे तृप्त कर रही थीं, प्रेमचंद का साहित्य मुझे तृप्त कर रहा था, एक नई दुनिया मेरे सामने खुल रही थी। प्रेमचंद के साहित्य में आए संघर्षशील लोग मेरी प्रेरणा और शक्ति बन रहे थे। इन्हीं भयावह दिनों के शुरुआती दिनों में दो बार आत्महत्या तक की सोच जाने वाले इस कापुरुष को प्रेमचंद के साहित्य ने संघर्ष से मुँह न चुराने और जीवन को हर हाल में जीने की प्रेरणा और शक्ति न दी होती तो क्या होता, आज सोचकर भी कांप जाता हूँ। बेकारी के उस हताशा, निराशा और घोर उदासी के उन दिनों में यदि प्रेमचंद की किताबें पढ़ने को न मिली होतीं तो शायद मैं इस दुनिया में न होता !

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जुए के नीचे फंसी गर्दन

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घर में भूख थी, फाके थे, तंगियाँ-तुर्शियाँ थीं, परेशानियाँ थीं, और पिता इन सबसे अपने ढंग से लड़-जूझ रहे थे। पर मेरा बचपन इन सबके बावजूद चौदह वर्ष की उम्र तक लगभग मस्ती भरा रहा था। अपने माता-पिता की दुख-तकलीफ़ों को लेकर मैं कुछ पल के लिए उदास अवश्य होता था, पर अपने संगी-साथियों में शामिल हो जाने पर मैं बेफिक्र-सा हो जाता। स्कूल की पढ़ाई में मेरा मन लगने लगा था। आठवीं कक्षा तक आते आते मैं अन्तर्मुखी होता चला गया, अब मैं मोहल्ले के बच्चों के संग कम खेलता था। जिस समय बच्चे खेल रहे होते, मैं अपने घर के किसी कोने में अथवा बाड़े के किसी पेड़ की छाया में बैठा किताबों में सिर दिये रहता। मेरे हाथ में कोर्स की कोई किताब न होती तो लाइब्रेरी से इशु करवाई कोई न कोई किताब होती। अब मुझे अपने पिता जो अपनी गृहस्थी का पहिया हर हाल में चलता रखने की कोशिश में जुटे रहते थे, बड़े ही निरीह और दयनीय लगते थे। हर समय हाँफते हुए बैल की तरह दिखते। उन्हें देखता तो लगता,जैसे वह एक बैल ही थे जिसकी गर्दन पर हर समय गृहस्थी का जुआ लदा रहता है। वह हर समय घर-परिवार चलाने की खातिर इस जुए के नीचे अपनी गर्दन फंसाये गृहस्थी के हल को जोतने में लगे रहते थे। मैं चाहता था कि मैं जल्द से जल्द पढ़कर अपने पिता की गर्दन पर रखा जुआ अपने कंधों पर रख लूँ। पिता की आँखों में भी शायद यही सपना था, इसलिए उन्होंने तमाम तकलीफों-परेशानियों के बावजूद मुझे पढ़ने से कभी नहीं रोका।

पंजाबी में एक कहावत है कि एक दिन तो रूड़ी (कचरे के ढेर) के भी दिन फिरते है। एक लम्बी बेरोजगारी के बाद आखिर मेरी भी ईश्वर ने सुनी और मुझे सिविल कोर्ट, गाजियाबाद(उत्तर प्रदेश) में क्लर्क की नौकरी मिल गई। मेरे पैर धरती पर नहीं पड़ रहे थे। घर के परिवार जनों के लिए यह बहुत बड़ी खुशखबरी थी। मुझे याद है, माँ ने घर में कीर्तन करवाया था और पूरे महल्ले में प्रसाद बांटा था।

पिता की गर्दन पर टिके जुए का बोझ कुछ हल्का या नहीं, यह मैं नहीं जानता, पर नौकरी लगते ही मैंने महसूस किया कि एक जुआ मेरी गर्दन पर भी आ टिका है और पिता की तरह अब मैं भी एक बैल हूँ !

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