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मेरा जीवन वाया टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियाँ

आत्मकथ्य

मेरा जीवन

वाया

टुकड़ा-टुकड़ा स्मृतियाँ

(पार्ट-2)

सुभाष नीरव

अनुक्रम

1- सीखनी है तो अपनी माँ-बोली सीख

2- भूख से लड़ते नौ जीव

3- भूतवाला कोठा

4- मेरे जीवन का पहला चुम्बन

5- जुए के नीचे फंसी गर्दन

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सीखनी है तो अपनी माँ-बोली सीख

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पाँचवी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मेरा स्कूल बदल गया। अब मुझे सरकारी स्कूल की छ्ठी कक्षा में दाखिला मिल गया था। यह स्कूल दसवीं तक था जो बाद में बारहवीं तक हो गया। इस स्कूल का एक बड़ा-सा मुख्यद्वार था जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था – ‘आर्डनेंस फैक्टरी हॉयर सेकेंडरी स्कूल, मुराद नगर’। यह स्कूल फैक्टरी के मेन गेट के पास उसकी दीवार से लगा हुआ था। रेलवे स्टेशन, पुलिस थाना, पोस्ट आफिस इसके बहुत पास थे। रेलवे स्टेशन और स्कूल के बीच की जगह पर एक बाज़ार लगता था जिसे ‘पैंठ’ कहा जाता था। इस बाज़ार में सब्ज़ी की दुकानों के साथ-साथ कपड़े, किरयाने की दुकानें भी पटरी पर लगा करती थीं। आज भी यह बाज़ार उसी जगह लगता है, पर अब यहाँ पक्के शेड बन गए हैं। स्कूल के पूर्व में एक बहुत बड़ा ग्राउंड था, जहाँ रामलीला हुआ करती थी, पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के समारोह होते थे, विभिन्न साँस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। अक्सर यहाँ रात में फैक्टरी के कर्मचारियों को पर्दा टाँग कर फिल्में दिखाई जाती थीं। सन पैंसठ के भारत-पाक युद्ध के दौरान भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई.बी.चव्हाण आए थे तो उनका भव्य स्वागत इसी ग्राउंड में किया गया था। देशभक्ति के गीत लाउड-स्पीकरों पर गूँजते थे। ‘अ मेरे वतन के लोगो, ज़रा आँख में भर लो पानी…’ लता जी द्वारा गाया गीत हम सभी की आँखें नम कर देता था। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला, माये, रंग दे बसंती चोला’ गीत हमारे भीतर देशभक्ति का जोश भर देता था। रक्षा मंत्री के आह्वान पर स्त्रियों ने अपने गहने-जेवर उतार कर उनके सामने रख दिए थे। उस युद्ध में हमारे सिपाहियों की वीरता के किस्से घर-घर, गली-गली गूंजते थे। यह एक ऐसा माहौल था जिसने मेरे अंदर भी एक सिपाही बनने की ललक पैदा कर दी थी। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस की कहानियाँ मेरे अंदर देश के लिए मर मिटने का जज्बा पैदा करती थीं।

स्कूल की पक्की इमारत सेमल, जामुन, नीम, शीशम आदि विभिन्न प्रकार के वृक्षों से घिरे मैदान के एक कोने में बनी थी। मैंने पहली बार पक्के क्लास-रूम्स देखे, डेस्क देखे, छत पर लटकते पंखे देखे, और दीवार पर बड़ा-सा ब्लैक बोर्ड ! पाँचवी कक्षा तक टाट या बोरी पर नीचे धूल-मिट्टी में बैठने वाले छात्र के लिए यह एक अनौखी विस्मयकारी बात थी।

छठी कक्षा में तीन बातें बिल्कुल नई हुई थीं। पहली यह कि अंग्रेजी पढ़ने की हमारी शुरुआत छठी कक्षा से हुई। आजकल जो बच्चे नर्सरी में ही ए.बी.सी. रटने लगते हैं, वह हमें छठी कक्षा में पढ़ाना शुरू की गई। अंग्रेजी की रंगीन किताब मुझे बहुत आकर्षित करती थी। मेरे पास सिर्फ़ यही किताब नई थी जो पिता को मुझे मजबूरी में लेकर देनी पड़ी थी। जब मैं एक कक्षा पास करके दूसरी कक्षा में जाता तो पिता अपनी आर्थिक तंगी के कारण मुझे नई किताबें खरीदकर देने की बजाय पुरानी सेकेंड हैंड किताबें लेकर देते थे, जिनके वर्के पीले पड़े होते और जो जगह जगह से फटी होतीं। जब मैं अपने सहपाठियों के पास नई किताबें देखता तो मेरा मन उनके चिकने पन्नों को स्पर्श करने को तरसता था। उनके चिकने पन्ने और उनकी खुशबू मुझे अपनी ओर खींचती थी। पर मैं बेबस था। मुझे पुरानी किताबों से ही पूरा साल बिताना होता था। दूसरी विशेष बात जो हुई, वह यह थी कि ‘संस्कृत’ के स्थान पर विद्यार्थियों को कोई एक प्रादेशिक भाषा जैसे बंगला, उर्दू और पंजाबी में से एक चुनकर पढ़नी थी। मैं एक पंजाबी परिवार से था, पर मेरे परिवार में से पंजाबी धीरे धीरे लुप्त हो रही थी। हम सब घर में हिंदी में बात करते। कभी कोई मेहमान पंजाब से हमारे पास आता तो माता-पिता, दादा, नानी ही पंजाबी में बात कर पाते। पर उनके मुँह से पंजाबी सुनकर पंजाब से आए मेहमान हँसते थे। इस बारे में मैंने अपने माता-पिता से बात की, पिता बोले – ‘सीखनी है तो अपनी माँ-बोली ही सीख ले। कम से कम कोई तो पंजाबी बोलने-लिखने वाला हमारे परिवार में हो।’ बस, मैंने अगले दिन जाकर पंजाबी कक्षा में अपना नाम लिखवा दिया। पंजाबी की टीचर कमला सरीन को जब मेरे पंजाबी सीखने का कारण पता चला तो वह बहुत प्रसन्न हुईं। मैंने तीन वर्ष अर्थात छ्ठी, सातवीं और आठवीं कक्षा में पंजाबी सीखी, जो बाद में आगे चलकर मेरे साहित्यिक जीवन में बहुत काम आई। तीसरी बात ने तो मेरे लिए एक नई दुनिया ही खोल दी थी। छठी कक्षा में हमारे हिंदी के अध्यापक बाल मुकुन्द जी थे। उनके पढ़ाने का ढंग बड़ा रोचक था। वह पढ़ाते समय बच्चों के संग बच्चा बन जाते थे। वह हर छात्र को अक्सर वो कहानी सुनाने को कहते थे जो उसने अपने माता-पिता, दादा-दादी अथवा नाना-नानी से सुनी होती थी। इससे वह हमारी वाक-क्षमता और प्रस्तुति के ढंग को परखा करते थे। और बताते थे कि कोई कहानी किस प्रकार अधिक से अधिक रोचक ढंग से सुनाई जा सकती है। एक दिन खाली पीरियड में वह पूरी कक्षा को बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गए। इसमें दीवारों से सटीं चमचमाती लोहे और लकड़ी की अल्मारियाँ थीं जिनमें किताबें बड़े करीने से लगी हुई थीं। बीच में दो बड़े मेज़ थे जिन पर बहुत सारे अख़बार और पत्रिकाएँ पड़ी थीं। पुस्तकालय क्या होता है, यह हमें पहली बार उसी दिन मालूम हुआ था। उन्होंने कहा, “तुम यहाँ खाली घंटे में बच्चों की पत्रिकाएँ पढ़ सकते हो। यही नहीं, हर छात्र महीने में अपनी पसंद की एक किताब भी इशु करवा सकता है। तुम्हें अपनी स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ अच्छा बाल साहित्य भी पढ़ना चाहिए, पर यह ध्यान रखते हुए कि तुम्हारी स्कूल की पढ़ाई में किसी तरह का विघ्न न पड़े।” यह हमारे लिए हिंदी टीचर का बहुत बड़ा तोहफ़ा था। हम वहाँ खाली पीरियड में नंदन, चंदामामा, पराग पढ़ा करते। लाइब्रेरियन हमें बच्चों की पुस्तकें भी सुझाता और एक एक पुस्तक हमें पढ़ने के लिए इशु भी करता। मैं तो इन किताबों का दीवाना हो गया था। इनमें एक अलग और अद्भुत दुनिया सिमटी हुई थी। इन किताबों ने मेरा मोहल्ले के बच्चों के संग खेलना बन्द करवा दिया था। बाल-साहित्य की इन्हीं पुस्तकों ने शायद मेरे भीतर उस समय लेखन के बीज बोये होंगे जो बाद में समय पाकर अंकुरित हुए।

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भूख से लड़ते नौ जीव

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इस सरकारी स्कूल का वातावरण बहुत साफ़-सुथरा था। सभी टीचर्स बहुत अच्छे थे, मन लगाकर पढ़ाने वाले। दो-तीन टीचर सख्त भी थे, पर उनकी सख्ती अपने विदयार्थियों को अच्छी शिक्षा देने के लिए ही थी। स्कूल की बिल्डिंग के पीछे एक पक्की बाउन्ड्री से घिरा बड़ा-सा खुला हरा मैदान था, जो हमें अपनी ओर खींचता था। पी टी टीचर हमें तरह तरह के खेल खेलना सिखाते थे। आधी छुट्टी के समय हमारी क्लास के बच्चे जामुन के पेड़ों पर चढ़ जाते थे और उनकी टहनियों पर झूलते हुए नीचे कूदा करते थे। मैं चोट लगने के डर से ऐसा नहीं करता था, बस पास खड़ा होकर उनके करतब देखा करता था। सब मुझे डरपोक कहते थे। एक दिन एक लड़का पेड़ से गिर गया था और उसकी दायीं कलाई की हड्डी टूट गई थी। प्रिंसीपल साहब ने पूरी क्लास को सज़ा के तौर पर काफ़ी देर तक मुर्गा बनाए रखा था। हमारी टांगें दर्द से कांपने लगी थीं और कनपटियों सहित हमारे चेहरे लाल हो उठे थे। इस घटना के बाद स्कूल के किसी भी छात्र की पेड़ों पर चढ़ने की हिम्मत नहीं हुई थी।

जब से मैं इस स्कूल में आया था, मेरे मन में स्कूल और अध्यापकों को लेकर भय खत्म हो गया था। मैं सुबह खुद स्कूल जाने के लिए उठता था, मुहल्ले के सार्वजनिक नल पर नहाता था, तैयार होता था और स्कूल समय पर पहुँच जाता था। मैं अपनी ड्रेस तक खुद धोने लग पड़ा था। घर में एक लोहे की प्रेस थी जिसे अंगीठी पर रखकर गरम करता और अपनी स्कूल की ड्रेस को प्रेस करता। यहाँ कपड़े के सफ़ेद जूतों की जगह चमड़े के काले जूतों ने ले ली थी। ये एक जोड़ी चमड़े के काले जूते पिता ने ‘पैंठ’ की एक दुकान से मुझे उधारे दिलाये थे और कई महीनों तक इस उधार के पैसे नहीं चुका पाए थे।

छठी कक्षा में आने के बाद से ही मुझे अपने घर की दयनीय हालत का कुछ कुछ अहसास होना प्रारंभ हो गया था। परिवार बड़ा हो गया था। अब परिवार में नौ सदस्य थे। उन सस्ती के दिनों में भी पिता अपनी सीमित आय में घर का बमुश्किल गुजारा कर पाते थे। उनकी स्थिति उन दिनों और अधिक पतली हो जाती, जब फैक्टरी में 'ओवर टाइम' बन्द हो जाता। कई बार तो शाम को चूल्हा भी न जलता था। फाके जैसी स्थिति हो जाती। पिता घर से छह-सात मील दूर कस्बे की जिस लाला की दुकान से हर माह घर का राशन उधार में लेकर डाला करते थे, ऐसे दिनों में वह भी गेहूं-चावल देने से इन्कार कर दिया करता था। पिछले माह का उधार उसे पहले चुकाना पड़ता था, तब वह अगले माह के लिए राशन उधार देता था। ओवर टाइम बन्द हो जाने पर पिता पिछले माह का पूरा उधार चुकता करने की स्थिति में न होते, वे आधा उधार ही चुकता कर पाते थे। घर में कई बार शाम को चावल ही पकता और उसकी मांड़ निकाल कर रख ली जाती और कुछ न होने पर उसी ठंडी मांड़ में गुड़-शक्कर मिलाकर हम लोग पिया करते और अपनी क्षुधा को जबरन शांत करने का प्रयास किया करते थे। माँ, घर के बाहर बने बाड़े में से चौलाई का साग तोड़ लातीं और उसमें दो आलू काटकर सब्जी बनातीं। मेरे दादा मछली पकड़ने के जाल बुना करते थे। कई लोग उनसे जाल खरीदकर ले जाते थे। दादा के पास अपने भी जाल थे। इन तंगी के दिनों में वह अपना जाल उठाकर निकल जाते। शाम को ढेर सारी मछलियाँ पकड़कर लाते। रोटी की जगह हमें मछलियाँ ही खाने को मिलतीं।

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भूतवाला कोठा

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पिता फैक्टरी में बारह घंटे लोहे से कुश्ती किया करते थे। फैक्टरी की ओर से रहने के लिए उन्हें जो मकान मिला हुआ था, वहाँ आसपास पूरे ब्लॉक में विभिन्न जातियों के बेहद गरीब मज़दूर अपने परिवार के संग रहा करते थे, जिनमें पंजाबी, मेहतर, मुसलमान, पूरबिये, जुलाहे, ब्राह्मण, बंगाली आदि प्रमुख थे। एक ब्लॉक में आगे-पीछे कुल 18 क्वार्टर होते थे- नौ आगे, नौ पीछे। दोनों तरफ ब्लॉक के बीचोंबीच एक सार्वजनिक नल होता था, जहाँ सुबह-शाम पानी के लिए धमा-चौकड़ी मची रहती थी, झगड़े होते थे, एक दूसरे की बाल्टियाँ टकराती थीं। जहाँ औरतों में सुबह-शाम कभी पानी को लेकर, कभी बच्चों को लेकर झगड़े हुआ करते थे, हाथापाई तक हुआ करती थी। घरों में तब बिजली नाम की कोई चीज नहीं थी। घरों में मिट्टी के तेल के दीये या लैम्प जलते थे। बस, स्ट्रीट लाइट हुआ करती थी। ऊँचे-लम्बे लोहे के खम्भों पर लटकते बल्ब शाम होते ही सड़क पर पीली रोशनी फेंकने लगते थे। हम भाई बहनों को रात के समय अपनी पढ़ाई-लिखाई मिट्टी के तेलवाले लैम्प की रोशनी में करनी पड़ती थी या फिर घर के पास सड़क के किनारेवाले किसी बिजली के खम्भे के नीचे चारपाई बिछाकर, उसकी पीली मद्धिम रोशनी में अपना होमवर्क पूरा किया करते थे।

मौहल्ले में जगदम्बा, मुन्नी, सूरज, असलम, राम प्रताप, मनोहर, धरमी, मेरी बहन कमली, मैं और मेरे छोटे भाई-बहन गर्मी के दिनों में रात नौ-नौ बजे तक आइस-पाइस, छुअन-छुआई खेलते। दिन में छुट्टी के दिन स्टापू और पिट्ठू भी। आइसपाइस खेलते हुए हमें बहुत मजा आता। हम कभी बाड़े में झाड़ियों-दरख्तों के पीछे छुपते, कभी कच्चे कोठे के पीछे, कभी कोठे के काले अंधेरे में और कभी किसी की चारपाई के नीचे। हम सबके माता-पिता चीखते-चिल्लाते रहते कि अंधेरे में झाड़ियों, दरख्तों के पीछे या कोठे में ना छिपा करो, कोई कीड़ा-जानवर काट लेगा। पर हम बाज कहाँ आते थे। एक बार मैं और मुन्नी छिपने के लिए राम प्रताप के कोठे में जा घुसे। कोठे में एक तरफ़ भूसा भरा था और दूसरी तरफ एक चारपाई खड़ी थी। कोठे के अंदर घुप्प अंधेरा था। मैं और मुन्नी कोठे के एक कोने में चारपाई के पीछे सटकर बैठ गए। तभी, हमें कोठे के दूसरे कोने में भूसे के पास कुछ सरसराहट-सी सुनाई दी। अँधेरे का भी अपना एक उजाला होता है, उसी नीम उजाले में हमने देखा, वहाँ दो साये आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। हम डर गए। हमें वे भूत लगे। हम दोनों के दिल ज़ोरों से धड़कने लगे। हमारी सांसों की आवाज़ तेज हो गई। कुछ देर बाद दोनों साये कोठे से बाहर निकल गए। जो साया बाद में कोठे से बाहर निकला, उसके पैरों से ‘छन-छन’ की आवाज़ भी हमें सुनाई दी। बाद में, हम उस कोठे को ‘भूतवाला कोठा’ कहने लग पड़े थे। रात में क्या, हम दिन में भी उस तरफ़ मुँह न करते थे।

गरमी के दिनों में सभी अपने अपने घरों के बाहर चारपाइयाँ बिछाकर सोते थे। सन 60-62 में बैटरी से चलने वाले रेडियो हुआ करते थे। मेरे पिता को रेडियो रखने और सुनने का बहुत शौक था। पूरे मुहल्ले में सबसे पहले हमारे घर ही नीली बत्ती वाला रेडियो आया था। काली बिल्ली की तस्वीर वाली एवरेडी की बड़ी-सी बैटरी से चलने वाले उस रेडियो को पिता शाम के वक्त घर के बाहर एक मेज पर रख देते थे और समाचार और गाने सुनने के लिए आसपास के लोगों की हमारे घर के आगे भीड़ लग जाती थी। फिर, बाद में ट्रांजिस्टर आ गए जो सेल से चला करते थे और छोटे होते थे। जिन्हें उठाकर आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता था। पिता, दिल्ली से एक छोटा ट्रांजिस्टर खरीद लाए थे और रात में वह अपनी चारपाई के सिरहाने रखकर सुना करते थे।

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