सियाह हाशिए - 2 BALRAM AGARWAL द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सियाह हाशिए - 2

गत फाइल से जारी……

विभाजन से पहले का सामाजिक और मानसिक वातावरण, फिर विभाजन के बाद का वातावरण, दंगों, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगों में उलझी हुई हिन्दू-मुस्लिम राजनीति—इन सब की तरफ़ ‘मक़्तल’ की कहानियों में कहीं स्पष्ट तो कहीं धुँधले इशारे मिलते हैं।…मंटो के अपने सरोकार राजनीति और अराजनीतिक के फेर में पड़ने की बजाय अपने गहरे मानव-प्रेम और नैतिक क्षेत्र के माध्यम से एक विशिष्ट-बोध को अभिव्यक्त करते हैं। मंटो हर यथार्थ को बिना किसी फेर-बदल के एक नया यथार्थ बना देते हैं।…ब्रिटिश-भारत के अंतिम चरण, फिर स्वतंत्रता, विभाजन और दंगों की भयावहता और उस पूरे युग के त्रासद तत्वों का प्रेक्षण मंटो ने इतिहास की प्रयोगशाला के रूप में नहीं किया था।…कोई भी राजनीतिक घटना मंटो के लिए केवल राजनीतिक नहीं थी। मंटो ने मानवीय-अस्तित्व और उसके फैलाव में समाई हुई सच्चाइयों की समग्रता के साथ-साथ एक सच्चे मानव-प्रेमी साहित्यकार के ‘विज़न’ की व्यपकता के मानदण्ड को हमेशा सामने और सुरक्षित रखा। ऐसा न होता तो ‘सियाह हाशिये’ के अँधेरों से उजाले की किसी भी लकीर का फूटना असम्भव था। विभाजन ने मंटो के दिलो-दिमाग को इस बुरी तरह झकझोरा था कि उन्होंने ‘जब कभी 1947 का जिक्र किया, वतन की आज़ादी के ताल्लुक से नहीं किया। उन्होंने हमेशा 1947 का ज़िक्र ‘तक़सीम’ और ‘बँटवारे’ के ताल्लुक से किया।

मंटो के लेखकीय चरित्र को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि ‘पहला अफ़साना उसने बउनवान ‘तमाशा’ लिखा, जो जलियाँवाले बाग के खूनी-हादिसे से मुतअल्लिक था। यह अफ़साना उसने अपने नाम से न छपवाया। यही वज़ह है कि वह पुलिस की दस्तबुजी(हत्थे चढ़ने) से बच गया।

अपने आखिरी बरसों में मंटो ने बेतहाशा लिखा। सच्चा साहित्य तो उसी स्थिति में लिखा जा सकता है, जब लिखने वाला हिन्दू-जुल्म, मुसलमान-जुल्म, या कांग्रेस की राजनीति और मुस्लिम लीग की राजनीति, या हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के फेर में पड़े बिना, उस अनुभव पर हाथ डाल सके जिसका सरोकार इस सवाल से हो कि सामूहिक पागलपन के उस युग में इंसान के हाथों इंसान पर क्या बीती? उस इंसान का नाम और धर्म और सम्प्रदाय, ये सारी बातें गौण हैं।

मैं 18 अगस्त, 1954 को लिखी उनकी एक ऐसी रचना का जिक्र करना बहुत मुनासिब समझता हूँ जिसको अक्सर उनकी रचनाओं में गिना ही नहीं जाता है; और जो उनकी जिन्दादिली का अनुपम नमूना है:

786
कत्बा

यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है।
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिगारी के
सारे अस्रारो-रमूज़ दफ़्न हैं—
वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है
कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा।

सआदत हसन मंटो
18 अगस्त, 1954

क्या यह चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि यह ‘कत्बा’ लिखने के ठीक 5 माह बाद 18 जनवरी, 1955 को सुबह साढ़े-दस बजे मंटो को लेकर एंबुलेंस जब लाहौर के मेयो अस्पताल के पोर्च में पहुँची; डाक्टर लपके—लेकिन…शरीर को मनों मिट्टी के नीचे दफ़्न कर देने की खातिर मंटो की पवित्र-आत्मा उसे छोड़कर बहुत दूर जा चुकी थी।

—एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

‘सियाह हाशिए’ की भूमिका

हाशिया आराई

मंटो ने भी दंगों के बारे में कुछ लिखा है, यानी ये लतीफ़े या छोटे-छोटे अफ़साने जमा किये हैं। दरअसल, मैंने बड़ा ग़लत वाक्य इस्तेमाल किया है। ये अफ़साने दंगों के बारे में नहीं हैं बल्कि इन्सानों के बारे में हैं। मंटों के अफ़सानों में आप इन्सानों को अलग-अलग शक्लों में देखते रहते हैं। इन्सान वेश्या के रूप में, इन्सान तमाशबीन के रूप में वगैरा-वगैरा। इन अफ़सानों में भी आप इन्सान ही देखेंगे। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि यहाँ इन्सान को ‘ज़ालिम’ (जिसने ज़ुल्म किया हो) या ‘मज़लूम’ (जिस पर जुल्म किया गया हो) के रूप में पेश किया गया है। और झगड़ों की विशेष परिस्थितियों में समाजी मक़सद का तो मंटो ने झगड़ा ही नहीं पाला। अगर उपदेश से आदमी सुधर जाया करते तो मिस्टर गाँधी की जान ही क्यों जाती और मंटो को अफ़सानों के असर के बारे में न तो ज्यादा ग़लतफहमियाँ हैं, न ही उन्होंने ऐसी जिम्मेदारी अपने सिर ली है जिसे साहित्य पूरी कर ही नहीं सकता।

मंटो ने अपने अफ़सानों में वही किया है, जो एक ईमानदार (राजनीतिक मामलों में ईमानदार नहीं, बल्कि साहित्यिक के रूप में ईमानदार) और असली साहित्यिक को उन हालात में और ऐसी वाक़यों के इतने थोड़े समय बाद लिखते हुए करना चाहिए था। उन्होंने नेक व बद के सवाल को बहस-मुबाहिसों से परे करार दे दिया है। उनका नज़रिया न राजनीतिक है, न सामाजिक, न नैतिक बल्कि साहित्यिक और सृजनात्मक है। मंटो ने तो सिर्फ़ यह देखने की कोशिश की है कि ज़ालिम या मज़लूम के व्यक्तित्व के अलग-अलग बिन्दुओं से ज़ालिमाना कर्मों का क्या रिश्ता है? जुल्म करने की तबियत के अलावा जालिम के अन्दर और कौन-कौन सी प्रवृत्तियाँ काम कर रही हैं। इन्सानी दिमाग़ में जुल्म कितनी जगह घेरता है। ज़िन्दग़ी की दूसरी दिलचस्पियाँ बाक़ी रहती हैं या नहीं। मंटो ने न तो रहम के जज्बात भड़काये हैं, न गुस्से के, न नफ़रत के। वह तो आपको केवल इन्सानी दिमाग, इन्सानी चरित्र और व्यक्तित्व पर साहित्यिक और सृजनात्मक ढंग से ग़ौर करने की दावत देते हैं। अगर वह कोई जज्बा पैदा करने की फ़िक्र में हैं तो केवल वही जज्बा, जो एक कलाकार को समुचित रूप में पैदा करना चाहिए। यानी ज़िन्दग़ी के बारे में अथाह जिज्ञासा और आश्चर्य। दंगों के बारे में जितना भी लिखा गया है, उसमें अगर कोई चीज़ इन्सानी दस्तावेज़ कहलाने के लायक है, तो ये अफ़साने हैं।

चूँकि मंटो के अफ़साने सच्ची साहित्यिक कृतियाँ हैं, इसलिए ये अफ़साने हमें नैतिक रूप से भी चौंकाते हैं। हालाँकि मंटो का बुनायादी मक़सद यह नहीं था, बल्कि केवल सृजन था। असामान्य हालात में अगर कोई चीज़ चौंका सकती है तो वह असामान्य घटनाएँ या कर्म नहीं बल्कि बिल्कुल सामान्य और रोज़मर्रा की-सी बातें।

…लेकिन असामान्य काम करते हुए साधारण बातों की तरफ़ ध्यान हमें इन्सान के बारे में एक ज्यादा गहरी और ज्यादा बुनियादी बात बताता है—वह यह कि इन्सान हर वक़्त और एक वक़्त इन्सान भी होता है और हैवान भी। इसमें खौफ़ का पहलू यह है कि इन्सानियत के एहसास के बावजूद इन्सान हैवान बनना कैसे गवारा कर लेता है और सन्तोष का पहलू यह है कि वहशी से वहशी बन जाने के बाद भी इन्सान अपनी इन्सानियत से पीछा नहीं छुड़ा सकता। मंटो के इन अफ़सानों में दोनों पहलू मौज़ूद हैं—खौफ़ भी और दिलासा भी। इन लतीफ़ों में इन्सान अपनी बुनियादी बेचारगियों, हिमाक़तों, नफासतों और पवित्रताओं समेत नज़र आता है। मंटो के कहकहे में बड़ा ज़हर है, मगर यह कहकहा हमें तसल्ली भी बहुत दिलाता है। असामान्य हालात में यह कहना कि इन्सान की मामूली दिलचस्पियाँ और मामूली आदतें किसी के दबाये नहीं दब सकतीं, बड़ी बात है।

मंटो न तो किसी को शर्मिंदा करता है, न किसी को अच्छी राह पर लाना चाहता है। वह तो बड़ी व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ इन्सानों से यह कहता है कि अगर तुम चाहो भी तो भटककर ज्यादा दूर नहीं जा सकते। इस विश्वास से मंटो का इन्सानी स्वभाव पर कहीं ज्यादा भरोसा नज़र आता है। दूसरे लोग इन्सान को एक खास रंग में देखना चाहते हैं। वे इन्सान को कबूल करने से पहले चन्द शर्तें लगाते हैं। मंटो को इन्सान अपनी असली शक्ल ही में कबूल है, भले ही वह कैसी भी हो। वह देख चुका है कि इन्सान की इन्सानियत ऐसी मज़बूत है कि उसकी बर्बरता भी इन्सान को खत्म नहीं कर सकती। मंटो को ऐसी इन्सानियत पर भरोसा है।

दंगों के बारे में जितने भी अफ़साने लिखे गये हैं, उनमें मंटो के ये छोटे-छोटे लतीफ़े सबसे ज्यादा डरावने और उम्मीदभरे हैं। मंटो की दहशत और मंटो की उम्मीदपरस्ती राजनीतिक लोगों या इन्सानियत के नेकदिल सेवकों की दहशत और उम्मीदपरस्ती नहीं है बल्कि एक कलाकार की दहशत और उम्मीदपरस्ती है। इसका तआल्लुक बहस-मुबाहिसों, विश्लेषणों या विचारों से नहीं, बल्कि ठोस सृजनात्मक तज़ुर्बे से है। यही मंटो के इन अफ़सानों की इकलौती खूबी है।

—मुहम्मद हसन असकरी

समर्पण

उस आदमी के नाम

जिसने अपनी खूँरेज़ियों का ज़िक्र करते हुए कहा:

“जब मैंने एक बुढ़िया को मारा

तो मुझे ऐसा लगा,

मुझसे क़त्ल हो गया…!

मधुर पल

नई दिल्ली, जनवरी 31 (एपी): खबर मिली है कि महात्मा गाँधी मी मौत पर खुशी ज़ाहिर करने के लिए अमृतसर, ग्वालियर और बंबई में कई जगह लोगों में मिठाई बाँटी गयी।

मज़दूरी

  • लूट-खसोट का बाज़ार गर्म था।
  • फिर चारों ओर आग भड़कने लगी।

    गर्मी में बढ़ोत्तरी गयी।

  • एक आदमी हारमोनियम की पेटी उठाये ख़ुश-ख़ुश गाता जा रहा था:
  • जब तुम ही गये परदेस

    लगाकर ठेस

    ओ पीतम प्यारा

    दुनिया में कौन हमारा…

  • एक छोटी उम्र का लड़का झोली में पापड़ों का अम्बार डाले भागा जा रहा था। ठोकर लगी तो पापड़ों की एक गड्डी उसकी झोली में से गिर पड़ी।
  • लड़का उसे उठाने के लिए झुका तो एक आदमी ने, जिसने सिर पर सिलाई की मशीन उठाई हुई थी, उससे कहा, “रहने दे बेटा, रहने दे…अपने आप भुन जायेंगे…”

  • बाज़ार में धप्प से एक भरी हुई बोरी गिरी।
  • एक शख़्स ने जल्दी से बढ़कर अपने छुरे से उसका पेट चाक किया। आँतों की बजाय शक्कर…सफेद- सफेद दानोंवाली शक्कर बाहर निकल आयी।

    लोग जमा हो गये और अपनी-अपनी झोलियाँ भरने लगे।

    एक आदमी कुरते के बिना था। उसने जल्दी-से अपना तैमद खोला और मुट्ठीयाँ भर-भरकर उसमें डालने लगा।

    “हट जाओ…हट जाओ…” एक ताँगा ताज़ा-ताज़ा रौग़न की हुई अलमारियों से लदा गुज़र गया।

  • ऊँचे मकान की खिड़की में से मलमल का थान फड़फड़ाता हुआ बाहर निकला।
  • शोले की ज़ुबान ने हौले-से उसे चाटा।

    सड़क तक पहुँचा, तो वह राख का एक ढेर था।

  • “पौं-पौं…पौं-पौं…” मोटर के हॉर्न की आवाज़ के साथ दो औरतों की चीखें भी थीं।”
  • लोहे का एक सेफ़ दस-पंद्रह आदमियों ने मिलकर बाहर निकाला और लाठियों की मदद से उसे खोलना शुरू कर दिया।
  • ‘काऊ एंड गोट’ दूध के कई टिन दोनों हाथों में थामे और अपनी ठोड़ी से उनको सहारा दिये एक आदमी दुकान से बाहर निकला और आहिस्ता-आहिस्ता बाज़ार में चलने लगा।
  • एक बुलन्द आवाज़ आई : “गर्मी का मौसम है…आओ, लेमूनेड पियो…!”
  • गले में मोटर का टायर डाले हुए आदमी ने बढ़कर दो बोतलें उठाईं और शुक्रिया अदा किये बग़ैर चल दिया।

  • एक और आवाज़ आई : “कोई आग बुझाने वालों को खबर कर दे…वरना सारा माल जल जायेगा।”
  • इस सलाह की तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया।

  • लूट-खसोट का बाज़ार इसी तरह गर्म रहा, और चारों तरफ भड़कती हुई आग उस गर्मी को बढ़ाती रही।
  • फिर बहुत देर के बाद तड़-तड़ की आवाज़ आयी। गोलियाँ चलने लगीं।

    पुलिस को बाज़ार ख़ाली नज़र आया; लेकिन दूर, धुएँ में लिपटे मोड़ के पास एक साया-सा था।

    सिपाही सीटियाँ बजाते उस तरफ़ लपके।

    साया तेज़ी से धुएँ के अंदर घुस गया।

    सिपाही भी पीछा करने में लगे रहे।

    धुएँ का इलाक़ा ख़त्म हुआ तो सिपाहियों ने देखा कि एक कश्मीरी मज़दूर पीठ पर वज़नी बोरी उठाये भागा चला जा रहा है!

    सीटियों के गले ख़ुश्क हो गये मगर वह कश्मीरी न रुका। उसकी पीठ पर वज़न था। मामूली वज़न नहीं, एक भरी हुई बोरी थी लेकिन वह यूँ दौड़ रहा था जैसे उसकी पीठ पर कुछ है ही नहीं।

    सिपाही हाँफने लगे। एक ने तंग आकर पिस्तौल निकाला और दाग़ दिया।

    गोली कश्मीरी मज़दूर की पिंडली में लगी। बोरी उसकी पीठ पर से गिर पड़ी।

    घबराकर उसने अपने पीछे आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते हुए सिपाहियों को देखा, पिंडली से बहते हुए खून की तरफ भी उसने ग़ौर किया। फिर एक ही झटके से बोरी उठाई, पीठ पर लादी और लँगड़ाते-लँगड़ाते भागने लगा।

    थके हुए सिपाहियों ने सोचा—जाए जहन्नुम में…!

    उसी समय कश्मीरी मज़दूर लड़खड़ाया और गिर पड़ा। बोरी उसके ऊपर आ पड़ी।

    अब थके-हारे सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। फिर बोरी को उस पर लादकर थाने की तरफ चलने लगे।

    रास्ते में कश्मीर मज़दूर ने बार-बार कहा—“हज़रत, आप मुझे क्यों पकड़ती…मैं तो ग़रीब आदमी होती…चावल की एक बोरी लेती…घर में खाती…आप नाहक़ मुझे गोली मारती…”

    लेकिन उसकी एक न सुनी गयी।

    थाने में भी कश्मीरी मज़दूर ने अपनी सफ़ाई में कहा—“हज़रत, दूसरा लोग बड़ा-बड़ा माल उठाती…मैं तो फ़क़त चावल की एक बोरी लेती…हज़रत, मैं बहुत ग़रीब होती…हर रोज़ भात खाती…”

    जब वह थक-हार गया तो उसने अपनी मैली टोपी से माथे का पसीना पोंछा और चावल की बोरी की तरफ़ हसरतभरी निगाहों से देखते हुए थानेदार के आगे हाथ फैलाये—“अच्छा, हज़रत, तुम बोरी अपने पास रखती…मैं अपनी मज़दूरी माँगती…चार…आने!”