भाग-३ - सिंहासन बत्तीसी MB (Official) द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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भाग-३ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 03


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सिंहासन बत्तीसी

नौवीं पुतली मधुमालती की कथा

दसवीं पुतली प्रभावती की कथा

ग्यारहवीं पुतली त्रिलोचना की कथा

बारहवीं पुतली पद्‌मावती की कथा

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

नौवीं पुतली मधुमालती की कथा

राजा भोज हर दिन नई पुतली से राजा विक्रमादित्य की महानता और त्याग के किस्से सुनकर परशान हो चुके थे। लेकिन वे सिंहासन पर बैठने का मोह भी नहीं रोक पा रहे थे। दूसर तरफ उज्जयिनी की जनता अपने पूर्व राजा विक्रमादित्य के त्याग की कहानियां सिंहासन की पुतलियों से सुनने को बड़ी संख्या में हर दिन एकत्र होने लगी।

नौवे दिन जैसे ही राजा भोज सिंहासन की तरफ बढ़ने लगे मधुमालती नामक पुतली जाग्रत हो उठीं और बोली, ठहरो राजन, क्या तुम राजा विक्रम की तरह प्रजा के लिए अपने प्राणों का भी त्याग कर सकते हो, अगर नहीं तो सुनो राजा विक्रमादित्य की कहानी—

एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य और प्रजा की सुख—समृद्धि के लिए एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा। एक दिन राजा मंत्र—पाठ कर रहे, तभी एक ऋषि वहां पधारे। राजा ने उन्हें देखा, पर यज्ञ छोड़कर उठना असम्भव था। उन्होंने मन ही मन ऋषि का अभिवादन किया तथा उन्हें प्रणाम किया।

ऋषि ने भी राज्य का अभिप्राय समझकर उन्हें आशीर्वाद दिया। जब राजा यज्ञ से उठे, तो उन्होंने ऋषि से आने का प्रयोजन पूछा। राजा को मालूम था कि नगर से बाहर कुछ ही दूर पर वन में ऋषि एक गुरुकुल चलाते हैं जहां बच्चे विद्या प्राप्त करने जाते हैं।

ऋषि ने जवाब दिया कि यज्ञ के पुनीत अवसर पर वे राजा को कोई असुविधा नहीं देते, अगर आठ से बारह साल तक के छरू बच्चों के जीवन का प्रश्न नहीं होता। राजा ने उनसे सब कुछ विस्तार से बताने को कहा। इस पर ऋषि ने बताया कि कुछ बच्चे आश्रम के लिए सूखी लकड़ियां बीनने वन में इधर—उधर घूम रहे थे।

तभी दो राक्षस आए और उन्हें पकड़कर ऊंची पहाड़ी पर ले गए। ऋषि को जब वे उपस्थित नहीं मिले तो उनकी तलाश में वे वन में बेचौनी से भटकने लगे। तभी पहाड़ी के ऊपर से गर्जना जैसी आवाज सुनाई पड़ी जो निश्चित ही उनमें से एक राक्षस की थी। राक्षस ने कहा कि उन बच्चों की जान के बदले उन्हें एक पुरुष की आवश्यकता है जिसकी वे मां काली के सामने बलि देंगे।

जब ऋषि ने बलि के हेतु अपने—आपको उनके हवाले करना चाहा तो उन्होंने असहमति जताई। उन्होंने कहा कि ऋषि बूढे हैं और काली मां ऐसे कमजोर बूढ़े की बलि से प्रसन्न नहीं होगी। काली मां की बलि के लिए अत्यंत स्वस्थ क्षत्रिय की आवश्यकता है। राक्षसों ने कहा है कि अगर कोई छल या बल से उन बच्चों को स्वतंत्र कराने की चेष्टा करेगा, तो उन बच्चों को पहाड़ी से लुढ़का कर मार दिया जाएगा। राजा विक्रमादित्य से ऋषि की परेशानी नहीं देखी जा रही थी।

वे तुरन्त तैयार हुए और ऋषि से बोले— श्आप मुझे उस पहाड़ी तक ले चले। मैं अपने आपको काली के सम्मुख बलि के लिए प्रस्तुत करूंगा। मैं स्वस्थ हूं और क्षत्रिय भी। राक्षसों को कोई आपत्ति नहीं होगी।' ऋषि ने सुना तो हतप्रभ रह गाए।

उन्होंने लाख मनाना चाहा, पर विक्रम ने अपना फैसला नहीं बदला। उन्होंने कहा अगर राजा के जीवित रहते उसके राज्य की प्रजा पर कोई विपत्ति आती है तो राजा को अपने प्राण देकर भी उस विपत्ति को दूर करना चाहिए।

राजा ऋषि को साथ लेकर उस पहाड़ी तक पहुंचे। पहाड़ी के नीचे उन्होंने अपना घोड़ा छोड़ दिया तथा पैदल ही पहाड़ पर चढ़ने लगे। पहाड़ीवाला रास्ता बहुत ही कठिन था, पर उन्होंने कठिनाई की परवाह नहीं की। वे चलते—चलते पहाड़ की चोटी पर पहुंचे। उनके पहुंचते ही राक्षस बोला कि उन्हें बच्चों की रिहाई की शर्त मालूम है या नहीं।

राजा ने कहा कि वे सब कुछ जानने के बाद ही यहां आए हैं। उन्होंने राक्षसों से बच्चों को छोड़ देने को कहा। एक राक्षस बच्चों को अपनी बांहों में लेकर उड़ा और नीचे उन्हें सुरक्षित पहुंचा आया। दूसरा राक्षस उन्हें लेकर उस जगह आया जहां मां काली की प्रतिमा थी और बलिवेदी बनी हुई थी विक्रमादित्य ने बलिवेदी पर अपना सर बलि हेतु झुका दिया।

वे जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने मन ही मन अंतिम समय समझ कर भगवान का स्मरण किया। वह राक्षस खड्‌ग लेकर उनका सर धर से अलग करने को तैयार हुआ। अचानक उस राक्षस ने खड्‌ग फैंक दिया और विक्रम को गले लगा लिया। वह जगह एकाएक अद्‌भुत रोशनी तथा खुशबू से भर गया।

विक्रम ने देखा कि दोनों राक्षसों की जगह इन्द्र तथा पवन देवता खड़े थे। उन दोनों ने राजा विक्रमादित्य की परीक्षा लेने के लिए यह सब किया था। वे देखना चाहते थे कि विक्रम सिर्फ सांसारिक चीजों का दान ही कर सकता है या प्राणोत्सर्ग करने की भी क्षमता रखता है। उन्होंने राजा से कहा कि उन्हें यज्ञ करता देख ही उनके मन में इस परीक्षा का भाव जन्मा था। उन्होंने विक्रम को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया तथा कहा कि उनकी कीर्ति सदियों तक चारों ओर फैलेगी।

इतना कहकर मधुमालती चुप हो गई। अगले दिन राजा भोज का रास्ता रोका पुतली प्रभावती ने। पढ़ें अगले अंक में।

दसवीं पुतली प्रभावती की कथा

दसवें दिन फिर राजा भोज उस दिव्य सिंहासन पर बैठने के लिए उद्यत हुए लेकिन पिछले दिनों की तरह इस बार दसवीं पुतली प्रभावती जाग्रत हो गई और बोली, रुको राजन, क्या तुम स्वयं को विक्रमादित्य के समान समझने लगे हो? पहले उनकी तरह पराक्रमी और दयालु होकर बताओ तब ही इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी होंगे। सुनो, मैं तुम्हें परम प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कथा सुनाती हूं—

एक बार राजा विक्रमादित्य शिकार खेलते—खेलते अपने सैनिकों की टोली से काफी आगे निकलकर जंगल में भटक गए। उन्होंने इधर—उधर काफी खोजा, पर उनके सैनिक उन्हें नजर नहीं आए। उसी समय उन्होंने देखा कि एक सुदर्शन युवक एक पेड़ पर चढ़ा और एक शाखा से उसने एक रस्सी बांधी। रस्सी में फंदा बना था उस फन्दे में अपना सर डालकर झूल गया।

विक्रम समझ गए कि युवक आत्महत्या कर रहा है। उन्होंने युवक को नीचे से सहारा देकर फंदा उसके गले से निकाला तथा उसे सम झाया कि आत्महत्या कायरता है और अपराध भी है। इस अपराध के लिए राजा होने के नाते वे उसे दण्डित भी कर सकते हैं। युवक उनकी रोबीली आवाज तथा वेशभूषा से ही समझ गया कि वे राजा है, इसलिए भयभीत हो गया।

राजा ने उसे सहलाते हुए कहा कि वह एक स्वस्थ और बलशाली युवक है फिर जीवन से निराश क्यों हो गया। अपनी मेहनत के बल पर वह आजीविका की तलाश कर सकता है। उस युवक ने उन्हें बताया कि उसकी निराशा का कारण जीविकोपार्जन नहीं है और वह विपन्नता से निराश होकर आत्महत्या का प्रयास नहीं कर रहा था।

राजा ने जानना चाहा कि कौन सी ऐसी विवशता है जो उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित कर रही है। उसने बताया कि वह कालिंगा का रहने वाला है तथा उसका नाम वसु है। एक दिन वह जंगल से गुजर रहा था कि उसकी नजर एक सुन्दर लड़की पर पड़ी। वह उसके रुप पर इतना मोहित हुआ कि उसने उससे उसी समय प्रणय निवेदन कर डाला।

उसके प्रस्ताव पर लड़की हंस पड़ी और उसने उसे बताया कि वह किसी से प्रेम नहीं कर सकती क्योंकि उसके भाग्य में प्रेम करना नहीं लिखा है। दरअसल वह एक राजकुमारी है जिसका जन्म ऐसे नक्षत्र में हुआ कि उसका पिता ही उसे कभी नहीं देख सकता अगर उसके पिता ने उसे देखा, तो तत्क्षण उसकी मृत्यु हो जाएगी।

इसलिए उसके जन्म लेते ही उसके पिता ने नगर से दूर एक सन्यासी की कुटिया में भेज दिया और उसका पालन पोषण उसी कुटिया में हुआ। उसका विवाह भी उसी युवक से संभव है जो असंभव को संभव करके दिखा दे। उस युवक को जिसे मुझसे शादी करनी है खौलते तेल के कड़ाह में कूदकर जिन्दा निकलकर दिखाना होगा।

उसकी बात सुनकर वसु उस कुटिया में गया जहां उसके निवास था। वहां जाने पर उसने कई अस्थि पंजर देखे जो उस राजकुमारी से विवाह के प्रयास में खौलते कड़ाह के तेल में कूदकर अपनी जानों से हाथ धो बैठे थे।

वसु की हिम्मत जवाब दे गई। वह निराश होकर वहां से लौट गया। उसने उसे भुलाने की लाख कोशिश की, पर उसका रूप सोते—जागते, उठते—बैठते— हर समय आंखों के सामने आ जाता है। उसकी नींद उड़ गई। उसे खाना—पीना नहीं अच्छा लगता। अब प्राणान्त कर लेने के सिवा उसके पास कोई चारा नही बचा।

विक्रम ने उसे समझाना चाहा कि उस राजकुमारी को पाना सचमुच असंभव है, इसलिए वह उसे भूलकर किसी और को जीवन संगिनी बना ले, लेकिन युवक नहीं माना। उसने कहा कि विक्रम ने उसे व्यर्थ ही बचाया। उन्होंने उसे मर जाने दिया होता, तो अच्छा होता।

विक्रम ने उससे कहा कि आत्महत्या पाप है, और यह पाप अपने सामने वह नहीं होता देख सकते। उन्होंने उसे वचन दिया कि वे राजकुमारी से उसका विवाह कराने का हर सम्भव प्रयास करेंगे। फिर उन्होंने मां काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया।

दोनों बेताल पलक झपकते ही उपस्थित हुए तथा कुछ ही देर में उन दोनों को लेकर उस कुटिया में आए जहां राजकुमारी रहती थी। वह बस कहने को कुटिया थी। राजकुमारी की सारी सुविधाओं का ख्याल रखा गया था। नौकर—चाकर थे।

राजकुमारी का मन लगाने के लिए सखी—सहेलियां थीं। तपस्वी से मिलकर विक्रमादित्य ने वसु के लिए राजकुमारी का हाथ मांगा। तपस्वी ने राजा विक्रमादित्य का परिचय पाकर कहा कि अपने प्राण वह राजा को सरलता से अर्पित कर सकता है, पर राजकुमारी का हाथ उसी युवक को देगा जो खौलते तेल से सकुशल निकल आए। बस यह शर्त पूरी होनी चाहिए।

राजा विक्रम ने उसे बताया कि वे खुद ही इस युवक के स्थान पर कड़ाह में कूदने को तैयार हैं तो तपस्वी का मुंह विस्मय से खुला रहा गया। तभी राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ वहां आई। वह सचमुच अप्सराओं से भी ज्यादा सुन्दर थी।

खैर, विक्रम ने तपस्वी से कहकर कड़ाह भर तेल की व्यवस्था करवाई। जब तेल एकदम खौलने लगा, तो मां काली को स्मरण कर विक्रम तेल में कूद गए। खौलते तेल में कूदते ही उनके प्राण निकल गए और शरीर भुनकर स्याह हो गया। मां काली अपने भक्त को इस तरह कैसे मरने देती। उन्होंने बेतालों को विक्रम को जीवित करने की आज्ञा दी।

बेतालों ने अमृत की बून्दें उनके मुंह में डालकर उन्हें जिंदा कर दिया। जीवित होते ही उन्होंने वसु के लिए राजकुमारी का हाथ मांगा। राजकुमारी के पिता को खबर भेज दी गई और दोनों का विवाह धूम—धाम से सम्पन्न हुआ।

इतना कहकर प्रभावती खामोश हो गई। राजा भोज समझ गए कि विक्रम के अस अतुलनीय त्याग का उनके पास कोई जवाब नहीं है। और लौट गए अपने कक्ष की तरफ। अगले दिन 11वीं पुतली त्रिलोचना ने रोका राजा को और सुनाई विक्रमादित्य की सुंदर व रोचक कथा। पढ़ें अगले अंक में।

ग्यारहवीं पुतली त्रिलोचना की कथा

राजा भोज हर दिन तैयार होकर सिंहासन पर बैठने के लिए राज दरबार पहुंचते रहे और हर दिन दिव्य सिंहासन की सुंदर पुतलियां जाग्रत होकर उन्हें टोकती रही। हर पुतली उन्हें राजा विक्रमादित्य के त्याग और शौर्य की अतुलनीय गाथा सुनाकर सिंहासन पर बैठने से रोक देती। अब तक आप 10 पुतलियों द्वारा सुनाई कथा पढ़ चुके हैं। आइए आज पढ़ते हैं ग्यारहवीं पुतली त्रिलोचना की सुनाई कथा—

अगले दिन राजा भोज जब दरबार में पहुंचे तो ग्यारहवीं पुतली त्रिलोचना जैसे जाग्रत होने के लिए तैयार ही बैठी थी। त्रिलोचना बोली, हे राजा भोज, आप प्रतिदिन इस सिंहासन पर बैठने के लिए आते हैं और राजा विक्रमादित्य की कथा सुनने के बाद लौट जाते हैं। फिर भी आपने अब तक हिम्मत नहीं हारी?

राजा भोज का अभिमान अब कम हो चला था। वे विनम्रतापूर्वक बोले, हे सुंदरी, आप हमें राजा विक्रमादित्य की कौन सी कथा सुनाने वाली हैं कृपया सुनाएं। हमारे साथ—साथ नगर की प्रजा भी अपने पूर्व राजा की वीरता और त्याग से परिचित होना चाहती हैं।

त्रिलोचना ने मुस्कुरा कर कथा आरंभ की—

हे राजन, राजा विक्रमादित्य बहुत बड़े प्रजापालक थे। उन्हें हमेशा अपनी प्रजा की सुख—समृद्धि की ही चिंता सताती रहती थी। एक बार उन्होंने एक महायज्ञ करने की ठानी। असंख्य राजा—महाराजाओं, पंडितों और ऋषियों को आमन्त्रित किया। यहां तक कि देवताओं को भी उन्होंने नहीं छोड़ा।

पवन देवता को उन्होंने खुद निमंत्रण देने का मन बनाया तथा समुद्र देवता को आमन्त्रित करने का काम एक योग्य ब्राह्मण को सौंपा। दोनों अपने काम से विदा हुए। जब विक्रम वन में पहुंचे तो उन्होंने ध्यान करना शुरू किया ताकि पवन देव का पता—ठिकाना ज्ञात हो। योग—साधना से पता चला कि पवन देव आजकल सुमेरु पर्वत पर वास करते हैं।

उन्होंने सोचा अगर सुमेरु पर्वत पर पवन देवता का आह्वान किया जाए तो उनके दर्शन हो सकते हैं। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तो वे उपस्थित हो गए। उन्होंने उन्हें अपना उद्देश्य बताया। बेतालों ने उन्हें आनन—फानन में सुमेरु पर्वत की चोटी पर पहुंचा दिया। चोटी पर इतना तेज हवा थी कि पैर जमाना मुश्किल था।

बड़े—बड़े वृक्ष और चट्टान अपनी जगह से उड़कर दूर चले जा रहे थे। मगर विक्रम तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे योग—साधना में सिद्धहस्त थे, इसलिए एक जगह अचल होकर बैठ गए। बाहरी दुनिया को भूलकर पवन देव की साधना में रत हो गए। न कुछ खाना, न पीना, सोना और आराम करना भूलकर साधना में लीन रहे।

आखिरकार पवन देव ने सुधि ली। हवा का बहना बिल्कुल थम गया। मन्द—मन्द बहती हुई वायु शरीर की सारी थकान मिटाने लगी। आकाशवाणी हुई— श्हे राजा विक्रमादित्य, तुम्हारी साधना से हम प्रसन्न हुए। अपनी इच्छा बताएं।'

विक्रम अगले ही क्षण सामान्य अवस्था में आ गए और हाथ जोड़कर बोले कि वे अपने द्वारा किए जा रहे महायज्ञ में पवन देव की उपस्थिति चाहते हैं। पवन देव के पधारने से उनके यज्ञ की शोभा बढ़ेगी। यह बात विक्रम ने इतना भावुक होकर कही कि पवन देव हंस पड़े।

उन्होंने जवाब दिया कि सशरीर यज्ञ में उनकी उपस्थिति असंभव है। वे अगर सशरीर गए, तो विक्रम के राज्य में भयंकर आंधी—तूफान आ जाएगा। सारे लहलहाते खेत, पेड़—पौधे, महल और झोपड़ियां— सब की सब उजड़ जाएंगी। रही उनकी उपस्थिति की बात, तो संसार के हर कोने में उनका वास है, इसलिए वे अप्रत्यक्ष रूप से उस महायज्ञ में भी उपस्थित रहेंगे। विक्रम उनका अभिप्राय समझकर चुप हो गए।

पवन देव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि उनके राज्य में कभी अनावृष्टि नहीं होगी और कभी दुर्भिक्ष का सामना उनकी प्रजा नहीं करेगी।

उन्होंने विक्रम को कामधेनु गाय देते हुए कहा कि इसकी कृपा से कभी भी विक्रम के राज्य में दूध की कमी नहीं होगी। जब पवनदेव लुप्त हो गए, तो विक्रमादित्य ने दोनों बेतालों का स्मरण किया और बेताल उन्हें लेकर उनके राज्य की सीमा तक आए।

जिस ब्राह्मण को विक्रम ने समुद्र देवता को आमन्त्रित करने का भार सौंपा था, वह काफी कठिनाइयों को झेलता हुआ सागर तट पर पहुंचा। उसने कमर तक सागर में घुसकर समुद्र देवता का आह्वान किया।

उसने बार—बार दोहराया कि महाराजा विक्रमादित्य महायज्ञ कर रहे हैं और वह उनका दूत बनकर उन्हें आमंत्रित करने आया है। अंत में समुद्र देवता असीम गहराई से निकलकर उसके सामने प्रकट हुए। उन्होंने ब्राह्मण से कहा कि उन्हें उस महायज्ञ के बारे में पवन देवता ने सब कुछ बता दिया है। वे पवन देव की तरह ही विक्रमादित्य के आमन्त्रण का स्वागत तो करते हैं, लेकिन सशरीर वहां सम्मिलित नहीं हो सकते हैं।

ब्राह्मण ने समुद्र देवता से अपना आशय स्पष्ट करने का सादर निवेदन किया, तो वे बोले कि अगर वे यज्ञ में सम्मिलित होने गए तो उनके साथ अथाह जल भी जाएगा और उसके रास्ते में पड़नेवाली हर चीज डूब जाएगी। चारों ओर प्रलय—सी स्थिति पैदा हो जाएगी। सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

जब ब्राह्मण ने जानना चाहा कि उसके लिए उनका क्या आदेश हैं, तो समुद्र देवता बोले कि वे विक्रम को सकुशल महायज्ञ सम्पन्न कराने के लिए शुभकामनाएं देते हैं। अप्रत्यक्ष रुप में यज्ञ में आद्योपति विक्रम उन्हें महसूस करेंगे, क्योंकि जल की एक—एक बून्द में उनका वास है। यज्ञ में जो जल प्रयुक्त होगा उसमें भी वे उपस्थित रहेंगे।

उसके बाद उन्होंने ब्राह्मण को पांच रत्न और एक घोड़ा देते हुए कहा— श्मेरी ओर से राजा विक्रमादित्य को यह उपहार दे देना।' ब्राह्मण घोड़ा और रत्न लेकर वापस चल पड़ा। उसको पैदल चलता देख वह घोड़ा मनुष्य की बोली में उससे बोला कि इस लंबे सफर के लिए वह उसकी पीठ पर सवार क्यों नहीं हो जाता।

उसके ना—नुकुर करने पर घोड़े ने उसे समझाया कि वह राजा का दूत है, इसलिए उसके उपहार का उपयोग वह कर सकता है। ब्राह्मण जब राजी होकर बैठ गया तो वह घोड़ा पवन वेग से उसे विक्रम के दरबार ले आया।

घोड़े की सवारी के दौरान उसके मन में इच्छा जगी— श्काश! यह घोड़ा मेरा होता!श्

जब विक्रम को उसने समुद्र देवता से अपनी बातचीत सविस्तार बताई और उन्हें उनके दिए हुए उपहार दिए। तब बिना कुछ कहे ही राजा विक्रमादित्य ने कहा कि पांचों रत्न तथा घोड़ा ब्राह्मण को ही प्राप्त होने चाहिए, चूंकि रास्ते में आनेवाली सारी कठिनाइयां उसने राजा की खातिर हंसकर झेलीं।

उनकी बात समुद्र देवता तक पहुंचाने के लिए उसने कठिन साधना की। ब्राह्मण रत्न और घोड़ा पाकर अति प्रसन्न हुआ।

इतना कहकर त्रिलोचना बोली, राजान, विक्रमादित्य की तरह प्रजापालक और अत्यंत दयालु राजा ना हुआ है और न होगा। अगर इस सिंहासन पर बैठने की लालसा है तो आपको भी उनके गुणों को आत्मसात करना होगा। त्रिलोचना पुनरू पुतली रूप में सिंहासन पर स्थापित हो गई।

अगले दिन बारहवीं पुतली पद्‌मावती ने रोका राजा भोज का रास्ता और सुनाई आकर्षक गाथा। पढ़ें अगले अंक में।

बारहवीं पुतली पद्‌मावती की कथा

बारहवीं पुतली पद्‌मावती ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है—

एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य महल की छत पर बैठे थे। मौसम बहुत सुहाना था। पूनम का चांद अपने यौवन पर था तथा सब कुछ इतना साफ—साफ दिख रहा था, मानों दिन हो। प्रकृति की सुन्दरता में राजा एकदम खोए हुए थे।

सहसा वे चौंक गए। किसी स्त्री की चीख थी। चीख की दिशा का अनुमान लगाया। लगातार कोई औरत चीख रही थी और सहायता के लिए पुकार रही थी। उस स्त्री को विपत्ति से छुटकारा दिलाने के लिए विक्रम ने ढाल—तलवार सम्भाली और अस्तबल से घोड़ा निकाला। घोड़े पर सवार हो फौरन उस दिशा में चल पड़े। कुछ ही समय बाद वे उस स्थान पर पहुंचे।

उन्होंने देखा कि एक स्त्री श्बचाओ—बचाओश् कहती हुई बेतहाशा भागी जा रही है और एक विकराल दानव उसे पकड़ने के लिए उसका पीछा कर रहा है। विक्रम ने एक क्षण भी नहीं गंवाया और घोड़े से कूद पड़े।

युवती उनके चरणों पर गिरती हुई बचाने की विनती करने लगी। उसकी बांहें पकड़कर विक्रम ने उसे उठाया और उसे बहन सम्बोधित करके ढांढस बंधाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि वह राजा विक्रमादित्य की शरणागत है और उनके रहते उस पर कोई आंच नहीं आ सकती। जब वे उसे दिलासा दे रहे थे, तो राक्षस ने अट्टाहास लगाया।

उसने विक्रम को कहा कि उन जैसा एक साधारण मानव उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता तथा उन्हें वह कुछ ही क्षणों में पशु की भांति चीड़—फाड़कर रख देगा। ऐसा बोलते हुए वह विक्रम की ओर लपका।

विक्रम ने उसे चेतावनी देते हुए ललकारा। राक्षस ने उनकी चेतावनी का उपहास किया। उसे लग रहा था कि विक्रम को वह पभर में मसल देगा। वह उनकी ओर बढ़ता रहा। विक्रम भी पूरे सावधान थे।

वह ज्यों ही विक्रम को पकड़ने के लिए बढ़ा विक्रम ने अपने को बचाकर उस पर तलवार से वार किया। राक्षस भी अत्यन्त फुर्तीला था। उसने पैंतरा बदलकर खुद को बचा लिया और भिड़ गया।

दोनों में घमासान युद्ध होने लगा। विक्रम ने इतनी फुर्ती और चतुराई से युद्ध किया कि राक्षस थकान से चूर हो गया तथा शिथिल पड़ गया। विक्रम ने अवसर का पूरा लाभ उठाया तथा अपनी तलवार से राक्षस का सिर धड़ से अलग कर दिया।

विक्रम ने समझा राक्षस का अन्त हो चुका है, मगर दूसरे ही पल उसका कटा सिर फिर अपनी जगह आ लगा और राक्षस दोगुने उत्साह से उठकर लड़ने लगा। इसके अलावा एक और समस्या हो गई।

जहां उसका रक्त गिरा था वहां एक और राक्षस पैदा हो गया। राजा विक्रमादित्य क्षण भर को तो चकित हुए, किन्तु विचलित हुए बिना एक साथ दोनों राक्षसों का सामना करने लगे।

रक्त से जन्मे राक्षस ने मौका देखकर उन पर घूंसे का प्रहार किया तो उन्होंने पैंतरा बदलकर पहले वार में उसकी भुजाएं तथा दूसरे वार में उसकी टांगें काट डालीं। राक्षस असह्य पीड़ा से इतना चिल्लाया कि पूरा वन गूंज गया।

उसे दर्द से तड़पता देखकर राक्षस का धैर्य जवाब दे गया और मौका पाकर वह सिर पर पैर रखकर भागा। चूंकि उसने पीठ दिखाई थी, इसलिए विक्रम ने उसे मारना उचित नहीं समझा। उस राक्षस के भाग जाने के बाद विक्रम उस स्त्री के पास आए तो देखा कि वह भय के मारे कांप रही है।

उन्होंने उससे कहा कि उसे निश्चिन्त हो जाना चाहिए और भय त्याग देना चाहिए, क्योंकि दानव भाग चुका है।

उन्होंने उसे अपने साथ महल चलने को कहा, ताकि उसे उसके मां—बाप के पास पहुंचा दे। उस स्त्री ने जवाब दिया कि खतरा अभी टला नहीं है, क्योंकि राक्षस मरा नहीं। वह लौटकर आएगा और उसे ढूंढकर फिर इसी स्थान पर ले आएगा।

जब विक्रम ने उसका परिचय जानना चाहा, तो वह बोली कि वह सिंहुल द्वीप की रहने वाली है और एक ब्राह्मण की बेटी है। एक दिन वह तालाब में सखियों के साथ नहा रही थी तभी राक्षस ने उसे देख लिया और मोहित हो गया। वहीं से वह उसे उठाकर यहां ले आया और अब उसे अपना पति मान लेने को कहता है।

उसने सोच लिया है कि अपने प्राण दे देगी, मगर अपनी पवित्रता नष्ट नहीं होने देगी। वह बोलते—बोलते सिसकने लगी और उसका गला रुंध गया।

विक्रम ने उसे आश्वासन दिया कि वे राक्षस का वध करके उसकी समस्या का अन्त कर देंगे और उन्होंने राक्षस के फिर से जीवित होने का राज पूछा। उस स्त्री ने जवाब दिया कि राक्षस के पेट में एक मोहिनी वास करती है जो उसके मरते ही उसके मुंह में अमृत डाल देती है।

उसे तो वह जीवित कर सकती है, मगर उसके रक्त से पैदा होने वाले दूसरे राक्षस को नहीं, इसलिए वह दूसरा राक्षस अपंग होकर दम तोड़ रहा है। यह सुनकर विक्रम ने कहा कि वे प्रण करते हैं कि उस राक्षस का वध किए बगैर अपने महल नहीं लौटेंगे, चाहे कितनी भी प्रतीक्षा क्यों न करनी पड़े।

उन्होंने जब उससे मोहिनी के बारे में पूछा तो स्त्री ने अनभिज्ञता जताई। विक्रम एक पेड़ की छाया में विश्राम करने लगे। तभी एक सिंह झाड़ियों में से निकलकर विक्रम पर झपटा।

चूंकि विक्रम पूरी तरह चौकन्ने नहीं थे, इसलिए सिंह उनकी बांह पर घाव लगाता हुआ चला गया। अब विक्रम भी पूरी तरह हमले के लिए तैयार हो गए। दूसरी बार जब सिंह उनकी ओर झपटा तो उन्होंने उसके पैरों को पकड़कर उसे पूरे जोर से हवा में उछाल दिया।

सिंह बहुत दूर जाकर गिरा और क्रुद्ध होकर उसने गर्जना की। दूसरे ही पल सिंह ने भागने वाले राक्षस का रूप धर लिया। अब विक्रम की समझ में आ गया कि उसने छल से उन्हें हराना चाहा था। वे लपककर राक्षस से भिड़ गए।

दोनों में फिर भीषण युद्ध शुरू हो गया। जब राक्षस की सांस लड़ते—लड़ते फूलने लगी तो विक्रम ने तलवार उसके पेट में घुसा दी।

राक्षस धरती पर गिरकर दर्द से चीखने लगा। विक्रम ने उसके बाद तलवार से उसका पेट चीर दिया। पेट चीरते ही मोहिनी कूदकर बाहर आई और अमृत लाने दौड़ी। विक्रम ने बेतालों का स्मरण किया और उन्हें मोहिनी को पकड़ने का आदेश दिया। अमृत न मिल पाने के कारण राक्षस तड़पकर मर गया।

मोहिनी ने अपने बारे में बताया कि वह शिव की गणिका थी जिसे किसी गलती की सजा के रूप में राक्षस की सेविका बनना पड़ा। महल लौटकर विक्रम ने ब्राह्मण कन्या को उसके माता—पिता को सौंप दिया और मोहिनी से खुद विधिवत विवाह कर लिया।