भाग-५ - सिंहासन बत्तीसी MB (Official) द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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भाग-५ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 05


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सिंहासन बत्तीसी

सत्रहवीं पुतली विद्यावती की कहानी

अठारहवीं पुतली तारामती की कहानी

उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा की कहानी

बीसवीं पुतली ज्ञानवती की कहानी

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

सत्रहवीं पुतली विद्यावती की कहानी

विद्यावती नामक सत्रहवीं पुतली ने जो कथा कही वह इस प्रकार है— महाराजा विक्रमादित्य की प्रजा को कोई कमी नहीं थीं। सभी लोग संतुष्ट तथा प्रसन्न रहते थे। कभी कोई समस्या लेकर यदि कोई दरबार आता था तो उसकी समस्या को तत्काल हल कर दिया जाता था।

प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट देने वाले अधिकारी को दण्डित किया जाता था। इसलिए कहीं से भी किसी तरह की शिकायत नहीं सुनने को मिलती थी। राजा खुद भी वेश बदलकर समय—समय पर राज्य की स्थिति के बारे में जानने को निकलते थे।

ऐसे ही एक रात जब वे वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें एक झोपड़े से एक बातचीत का अ।'ा सुनाई पड़ा। कोई औरत अपने पति को राजा से साफ—साफ कुछ बताने को कह रही थी और उसका पति उसे कह रहा था कि अपने स्वार्थ के लिए अपने महान राजा के प्राण वह संकट में नहीं डाल सकता है।

विक्रम समझ गए कि उनकी समस्या से उनका कुछ सम्बन्ध है। उनसे रहा नहीं गया। अपनी प्रजा की हर समस्या को हल करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। उन्होंने द्वार खटखटाया, तो एक ब्राह्मण दम्पति ने दरवाजा खोला।

विक्रम ने अपना परिचय देकर उनसे उनकी समस्या के बारे में पूछा तो वे थर—थर कांपने लगे। जब उन्होंने निर्भय होकर उन्हें सब कुछ स्पष्ट बताने को कहा तो ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी। ब्राह्मण दम्पति विवाह के बारह साल बाद भी निरूसंतान थे।

इन बारह सालों में संतान के लिए उन्होंने काफी यत्न किए। व्रत—उपवास, धर्म—कर्म, पूजा—पाठ हर तरह की चेष्टा की, पर कोई फायदा नहीं हुआ। ब्राह्मणी ने एक सपना देखा है।

स्वप्न में एक देवी ने आकर उसे बताया कि तीस कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में एक घना जंगल है जहां कुछ साधु—संन्यासी शिव की स्तुति कर रहे हैं।

शिव को प्रसन्न करने के लिए हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर डाल रहे हैं। अगर उन्हीं की तरह राजा विक्रमादित्य उस हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर फेंकें, तो शिव प्रसन्न होकर उनसे उनकी इच्छित चीज मांगने को कहेंगे। वे शिव से ब्राह्मण दम्पति के लिए संतान की मांग कर सकते हैं और उन्हें सन्तान प्राप्ति हो जाएगी।

विक्रम ने यह सुनकर उन्हें आश्वासन दिया कि वे यह कार्य अवश्य करेंगे। रास्ते में उन्होंने बेतालों को स्मरण कर बुलाया तथा उस हवन स्थल तक पहुंचा देने को कहा। उस स्थान पर सचमुच साधु—संन्यासी हवन कर रहे थे तथा अपने अंगों को काटकर अग्नि—कुण्ड में फेंक रहे थे।

विक्रम भी एक तरफ बैठ गए और उन्हीं की तरह अपने अंग काटकर अग्नि को अर्पित करने लगे। जब विक्रम सहित वे सारे जलकर राख हो गए तो एक शिवगण वहां पहुंचा तथा उसने सारे तपस्विओं को अमृत डालकर जिन्दा कर दिया, मगर भूल से विक्रम को छोड़ दिया।

सारे तपस्वी जिन्दा हुए तो उन्होंने राख हुए विक्रम को देखा। सभी तपस्विओं ने मिलकर शिव की स्तुति की तथा उनसे विक्रम को जीवित करने की प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने तपस्वियों की प्रार्थना सुन ली तथा अमृत डालकर विक्रम को जीवित कर दिया।

विक्रम ने जीवित होते ही शिव के सामने नतमस्तक होकर ब्राह्मण दम्पति को संतान सुख देने के लिए प्रार्थना की। शिव उनकी परोपकार तथा त्याग की भावना से काफी प्रसन्न हुए तथा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ दिनों बाद सचमुच ब्राह्मण दम्पति को पुत्र लाभ हुआ।

अठारहवीं पुतली तारामती की कहानी

अठारहवीं पुतली तारामती की कथा इस प्रकार है— राजा विक्रमादित्य की गुणग्राहिता का कोई जवाब नहीं था। वे विद्वानों तथा कलाकारों को बहुत सम्मान देते थे। उनके दरबार में एक से बढ़कर एक विद्वान तथा कलाकार मौजूद थे, फिर भी अन्य राज्यों से भी योग्य व्यक्ति आकर उनसे अपनी योग्यता के अनुरूप आदर और पारितोषिक प्राप्त करते थे।

एक दिन विक्रम के दरबार में दक्षिण भारत के किसी राज्य से एक विद्वान आया उसका कहना था कि विश्वासघात विश्व का सबसे नीच कर्म है। उसने राजा को अपना विचार स्पष्ट करने के लिए एक कथा सुनाई।

उसने कहा— आर्याव मैं बहुत समय पहले एक राजा था। उसका भरा—पूरा परिवार था, फिर भी सत्तर वर्ष की आयु में उसने एक रूपवती कन्या से विवाह किया। वह नई रानी के रूप पर इतना मोहित हो गया कि उससे एक पल भी अलग होने का उसका मन नहीं करता था।

वह चाहता था कि हर वक्त उसका चेहरा उसके सामने रहे। वह नई रानी को दरबार में भी अपने बगल में बिठाने लगा। उसके सामने कोई भी कुछ बोलने का साहस नहीं करता, मगर उसके पीठ पीछे सब उसका उपहास करते।

राजा के महामंत्री को यह बात बुरी लगी। उसने एकांत में राजा से कहा कि सब उसकी इस बात की आलोचना करते हैं। अगर वह हर पल नई रानी का चेहरा देखता रहना चाहता है तो उसकी अच्छी—सी तस्वीर बनवाकर राजसिंहासन के सामने रखवा दे। चूंकि इस राज्य में राजा के अकेले बैठने की परम्परा रही है, इसलिए उसका रानी को दरबार में अपने साथ लाना अशोभनीय है।

महामन्त्री राजा का युवाकाल से ही मित्र जैसा था और राजा उसकी हर बात को गंभीरतापूर्वक लेता था। उसने महामन्त्री से किसी अच्छे चित्रकार को छोटी रानी के चित्र को बनाने का काम सौंपने को कहा।

महामन्त्री ने एक बड़े ही योग्य चित्रकार को बुलाया। चित्रकार ने रानी का चित्र बनाना शुरू कर दिया। जब चित्र बनकर राजदरबार आया, तो हर कोई चित्रकार का प्रशंसक हो गया। बारीक से बारीक चीज को भी चित्रकार ने उस चित्र में उतार दिया था।

चित्र ऐसा जीवंत था मानो छोटी रानी किसी भी क्षण बोल पड़ेगी। राजा को भी चित्र बहुत पसंद आया। तभी उसकी नजर चित्रकार द्वारा बनाई गई रानी की जांघ पर गई, जिस पर चित्रकार ने बड़ी सफाई से एक तिल दिखा दिया था। राजा को शंका हुई कि रानी के गुप्त अंग भी चित्रकार ने देखे हैं और क्रोधित होकर उसने चित्रकार से सच्चाई बताने को कहा।

चित्रकार ने पूरी शालीनता से उसे विश्वास दिलाने की कोशिश की कि प्रकृति ने उसे सूक्ष्म दृष्टि दी है जिससे उसे छिपी हुई बात भी पता चल जाती है। तिल उसी का एक प्रमाण है और उसने तिल को खूबसूरती बढ़ाने के लिए दिखाने की कोशिश की है।

राजा को उसकी बात का जरा भी विश्वास नहीं हुआ। उसने जल्लादों को बुलाकर तत्काल घने जंगल में जाकर उसकी गर्दन उड़ा देने का हुक्म दिया तथा कहा कि उसकी आंखें निकालकर दरबार में उसके सामने पेश करें। महामन्त्री को पता था कि चित्रकार की बातें सच हैं।

उसने रास्ते में उन जल्लादों को धन का लोभ देकर चित्रकार को मुक्त करवा लिया तथा उन्हें किसी हिरण को मारकर उसकी आंखे निकाल लेने को कहा, ताकि राजा के विश्वास हो जाए कि कलाकार को खत्म कर दिया गया है। चित्रकार को लेकर महामन्त्री अपने भवन ले आया तथा चित्रकार वेश बदलकर उसी के साथ रहने लगा।

कुछ दिनों बाद राजा का पुत्र शिकार खेलने गया, तो एक शेर उसके पीछे पड़ गया। राजकुमार जान बचाने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गया। तभी उसकी नजर पेड़ पर पहले से मौजूद एक भालू पर पड़ी।

भालू से जब वह भयभीत हुआ तो भालू ने उससे निश्चिन्त रहने को कहा। भालू ने कहा कि वह भी उसी की तरह शेर से डर कर पेड़ पर चढ़ा हुआ है और शेर के जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। शेर भूखा था और उन दोनों पर आंख जमाकर उस पेड़ के नीचे बैठा था।

राजकुमार को बैठे—बैठे नींद आने लगी और जगे रहना उसे मुश्किल दिख पड़ा। भालू ने अपनी ओर उसे बुला लिया और एक घनी शाखा पर कुछ देर सो लेने को कहा। भालू ने कहा कि जब वह सोकर उठ जाएगा तो वह जागकर रखवाली करेगा और भालू सोएगा।

जब राजकुमार सो गया तो शेर ने भालू को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि वह और भालू वन्य प्राणी हैं, इसलिए दोनों को एक—दूसरे का भला सोचना चाहिए। मनुष्य कभी भी वन्य प्राणियों का दोस्त नहीं हो सकता।

उसने भालू से राजकुमार को गिरा देने को कहा जिससे कि वह उसे अपना ग्रास बना सके। मगर भालू ने उसकी बात नहीं मानी तथा कहा कि वह विश्वासघात नहीं कर सकता। शेर मन मसोसकर रह गया।

चार घंटों की नींद पूरी करने के बाद जब राजकुमार जागा, तो भालू की बारी आई और वह सो गया। शेर ने अब राजकुमार को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि क्यों वह भालू के लिए दुख भोग रहा है।

वह अगर भालू को गिरा दे तो शेर की भूख मिट जाएगी और वह आराम से राजमहल लौट जाएगा। राजकुमार उसकी बातों में आ गया। उसने धक्का देकर भालू को गिराने की कोशिश की।

मगर भालू न जाने कैसे जाग गया और राजकुमार को विश्वासघाती कहकर खूब धिक्कारा। राजकुमार की अन्तरात्मा ने उसे इतना कोसा कि वह गूंगा हो गया।

जब शेर भूख के मारे जंगल में अन्य शिकार की खोज में निकल गया तो वह राजमहल पहुंचा।

किसी को भी उसके गूंगा होने की बात समझ में नहीं आई। कई बड़े वैद्य आए, मगर राजकुमार का रोग किसी की समझ में नहीं आया। आखिरकार महामन्त्री के घर छिपा हुआ वह कलाकार वैद्य का रूप धरकर राजकुमार के पास आया।

उसने गूंगे राजकुमार के चेहरे का भाव पढ़कर सब कुछ जान लिया। उसने राजकुमार को संकेत की भाषा में पूछा कि क्या आत्मग्लानि से पीड़ित होकर वह अपनी वाणी खो चुका है, तो राजकुमार फूट—फूट कर रो पड़ा।

रोने से उस पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा और उसकी खोई वाणी लौट आई। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसने राजकुमार के चेहरे को देखकर सच्चाई कैसे जान ली तो चित्रकार ने जवाब दिया कि जिस तरह कलाकार ने उनकी रानी की जांघ का तिल देख लिया था।

राजा तुरन्त समझ गया कि वह वही कलाकार था जिसके वध की उसने आज्ञा दी थी। वह चित्रकार से अपनी भूल की माफी मांगने लगा तथा ढेर सारे इनाम देकर उसे सम्मानित किया।

उस दक्षिण के विद्वान की कथा से विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए तथा उसके पाण्डित्य का सम्मान करते हुए उन्होंने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दीं।

उन्नीसवीं पुतली रूपरेखा की कहानी

रूपरेखा नामक उन्नीसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है—

राजा विक्रमादित्य के दरबार में लोग अपनी समस्याएं लेकर न्याय के लिए तो आते ही थे कभी—कभी उन प्रश्नों को लेकर भी उपस्थित होते थे जिनका कोई समाधान उन्हें नहीं सूझता था। विक्रम उन प्रश्नों का ऐसा सटीक हल निकालते थे कि प्रश्नकर्ता पूर्ण सन्तुष्ट हो जाता था।

ऐसे ही एक टेढ़े प्रश्न को लेकर एक दिन दो तपस्वी दरबार में आए और उन्होंने विक्रम से अपने प्रश्न का उत्तर देने की विनती की।

उनमें से एक का मानना था कि मनुष्य का मन ही उसके सारे क्रिया—कलाप पर नियंत्रण रखता है और मनुष्य कभी भी अपने मन के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है। दूसरा उसके मत से सहमत नहीं था।

उसका कहना था कि मनुष्य का ज्ञान उसके सारे क्रियाकलाप नियंत्रित करता है। मन भी ज्ञान का दास है और वह भी ज्ञान द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने को बाध्य है।

राजा विक्रमादित्य ने उनके विवाद के विषय को गौर से सुना, पर तुरन्त उस विषय पर अपना कोई निर्णय नहीं दे पाए। उन्होंने उन दोनों तपस्वियों को कुछ समय बाद आने को कहा।

जब वे चले गए तो विक्रम उनके प्रश्न के बारे में सोचने लगे जो सचमुच ही बहुत टेढ़ा था। उन्होंने एक पल सोचा कि मनुष्य का मन सचमुच बहुत चंचल होता है और उसके वशीभूत होकर मनुष्य सांसारिक वासना के अधीन हो जाता है।

मगर दूसरे ही पल उन्हें ज्ञान की याद आई। उन्हें लगा कि ज्ञान सचमुच मनुष्य को मन का कहा करने से पहले विचार कर लेने को कहता है और किसी निर्णय के लिए प्रेरित करता है।

विक्रम ऐसे उलझे सवालों का जवाब सामान्य लोगों की जिन्दगी में खोजते थे, इसलिए वे साधारण नागरिक का वेश बदलकर अपने राज्य में निकल पड़े। उन्हें कई दिनों तक ऐसी कोई बात देखने को नहीं मिली जो प्रश्न को हल करने में सहायता करती।

एक दिन उनकी नजर एक ऐसे नौजवान पर पड़ी जिसके कपड़ों और भावों में उसकी विपन्नता झलकती थी। वह एक पेड़ के नीचे थककर आराम कर रहा था। बगल में एक बैलगाड़ी खड़ी थी जिसकी वह कोचवानी करता था।

राजा ने उसके निकट जाकर देखा तो वे उसे एक झलक में ही पहचान गए। वह उनके अभिन्न मित्र सेठ गोपालदास का छोटा बेटा था। सेठ गोपालदास बहुत बड़े व्यापारी थे और उन्होंने व्यापार से बहुत धन कमाया था। उनके बेटे की यह दुर्दशा देखकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। उसकी बदहाली का कारण जानने को उत्सुक हो गए।

उन्होंने उससे पूछा कि उसकी यह दशा कैसे हुई? जबकि मरते समय गोपालदास ने अपना सारा धन और व्यापार अपने दोनों पुत्रों में समान रुप से बांट दिया था। एक के हिस्से का धन इतना था कि दो पुश्तों तक आराम से जिन्दगी गुजारी जा सकती थी। विक्रम ने फिर उसके भाई के बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की।

युवक समझ गया कि पूछने वाला सचमुच उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी रखता है।

उसने विक्रम को अपने और अपने भाई के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने बताया कि जब उसके पिता ने उसके और उसके भाई के बीच सब कुछ बांट दिया तो उसके भाई ने अपने हिस्से के धन का उपयोग बड़े ही समझदारी से किया।

उसने अपनी जरुरतों को सीमित रखकर सारा धन व्यापार में लगा दिया और दिन—रात मेहनत करके अपने व्यापार को कई गुणा बढ़ा लिया। अपने बुद्धिमान और संयमी भाई से उसने कोई प्रेरणा नहीं ली और अपने हिस्से में मिले अपार धन को देखकर घमंड से चूर हो गए।

शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, जुआ खेलना समेत सारी बुरी आदतें डाल लीं। ये सारी आदतें उसके धन के भण्डार को तेजी से खोखला करने लगीं।

बड़े भाई ने समय रहते उसे चेत जाने को कहा, लेकिन उसकी बातें उसे विष समान प्रतीत हुईं।

ये बुरी आदतें उसे बहुत तेजी से बरबादी की तरफ ले गईं और एक वर्ष के अन्दर वह कंगाल हो गया। वह अपने नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित सेठ का पुत्र था, इसलिए उसकी बदहाली का सब उपहास करने लगे।

इधर भूखों मरने की नौबत, उधर शर्म से मुंह छुपाने की जगह नहीं। उसका जीना दूभर हो गया। अपने नगर में मजदूर की हैसियत से गुजारा करना उसे असंभव लगा तो वहां से दूर चला आया। मेहनत—मजदूरी करके अब अपना पेट भरता है तथा अपने भविष्य के लिए भी कुछ करने की सोचता है।

धन जब उसके पास प्रचुर मात्रा में था तो मन की चंचलता पर वह अंकुश नहीं लगा सका। धन बरबाद हो जाने पर उसे सद्‌बुद्धि आई और ठोकरें खाने के बाद अपनी भूल का एहसास हुआ। जब राजा ने पूछा, क्या वह धन आने पर फिर से मन का कहा करेगा तो उसने कहा कि जमाने की ठोकरों ने उसे सच्चा ज्ञान दे दिया है और अब उस ज्ञान के बल पर वह अपने मन को वश में रख सकता है।

विक्रम ने तब जाकर उसे अपना असली परिचय दिया तथा उसे कई स्वर्ण मुद्राएं देकर होशियारी से व्यापार करने की सलाह दी। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि लग्नशीलता उसे फिर पहले वाली समृद्धि वापस दिला देगी। उससे विदा लेकर वे अपने महल लौट आए क्योंकि अब उनके पास उन तपस्वियों के विवाद का समाधान था।

कुछ समय बाद उनके दरबार में वे दोनों तपस्वी समाधान की इच्छा लिए हाजिर हुए। विक्रम ने उन्हें कहा कि मनुष्य के शरीर पर उसका मन बार—बार नियंत्रण करने की चेष्टा करता है, पर ज्ञान के बल पर विवेकशील मनुष्य मन को अपने पर हावी नहीं होने देता।

मन और ज्ञान में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है तथा दोनों का अपना—अपना महत्व है। जो पूरी तरह अपने मन के वश में हो जाता है उसका सर्वनाश अवश्यम्भावी है। मन अगर रथ है तो ज्ञान सारथी। बिना सारथी रथ अधूरा है।

उन्होंने सेठ पुत्र के साथ जो कुछ घटा था उन्हें विस्तारपूर्वक बताया तो उनके मन में कोई स।'ाय नहीं रहा। उन तपस्वियों ने उन्हें एक चमत्कारी खड़िया दिया जिससे बनाई गई तस्वीरें रात में सजीव हो सकती थीं और उनका वार्तालाप भी सुना जा सकता था।

विक्रम ने कुछ तस्वीरें बनाकर खड़िया की सत्यता जानने की कोशिश की तो सचमुच खड़िया में वह गुण था। अब राजा तस्वीरें बना—बना कर अपना मन बहलाने लगे। अपनी रानियों की उन्हें बिलकुल सुध नहीं रही। जब रानियां कई दिनों के बाद उनके पास आईं तो राजा को खड़िया से चित्र बनाते हुए देखा।

रानियों ने आकर उनका ध्यान बंटाया तो राजा को हंसी आ गई और उन्होंने कहा, वे भी मन के आधीन हो गए थे। अब उन्हें अपने कर्तव्य का ज्ञान हो चुका है।

बीसवीं पुतली ज्ञानवती की कहानी

बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है— राजा विक्रमादित्य सच्चे ज्ञान के बहुत बड़े पारखी थे तथा ज्ञानियों की बहुत कद्र करते थे। उन्होंने अपने दरबार में चुन—चुन कर विद्वानों, पंडितों, लेखकों और कलाकारों को जगह दे रखी थी तथा उनके अनुभव और ज्ञान का भरपूर सम्मान करते थे।

एक दिन वे वन में किसी कारण विचरण कर रहे थे तो उनके कानों में दो आदमियों की बातचीत का कुछ अ।'ा पड़ा।

उनकी समझ में आ गया कि उनमें से एक ज्योतिषी है तथा उन्होंने चंदन का टीका लगाया और अंतर्ध्‌यान हो गए। ज्योतिषी अपने दोस्त को बोला, श्मैंने ज्योतिष का पूरा ज्ञान अर्जित कर लिया है और अब मैं तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब कुछ स्पष्ट बता सकता हूं।'

दूसरा उसकी बातों में कोई रुचि न लेता हुआ बोला, श्तुम मेरे भूत और वर्तमान से पूरी तरह परिचित हो इसलिए सब कुछ बता सकते हो और अपने भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। अच्छा होता तुम अपना ज्ञान अपने तक ही सीमित रखते।' मगर ज्योतिषी रुकने वाला नहीं था।

वह बोला, श्इन बिखरी हुई हड्डियों को देख रहे हैं। मैं इन हड्डियों को देखते हुए बता सकता हूं कि ये हड्डियां किस जानवर की हैं तथा जानवर के साथ क्या—क्या बीता?' लेकिन उसके दोस्त ने फिर भी उसकी बातों में अपनी रुचि नहीं जताई।

तभी ज्योतिषी की नजर जमीन पर पड़े पदचिन्हों पर गई। उसने कहा, श्ये पदचिन्ह किसी राजा के हैं और सत्यता की जांच तुम खुद कर सकते हो। ज्योतिष के अनुसार राजा के पांवों में ही प्राकृतिक रूप से कमल का चिन्ह होता है जो यहां स्पष्ट नजर आ रहा है।'

उसके दोस्त ने सोचा कि सत्यता की जांच कर ही ली जाए, अन्यथा यह ज्योतिषी बोलता ही रहेगा। पदचिन्हों का अनुसरण करते—करते वे जंगल में अन्दर आते गए।

जहां पदचिन्ह समाप्त होते थे वहां कुल्हाड़ी लिए एक लकड़हारा खड़ा था तथा कुल्हाड़ी से एक पेड़ काट रहा था।

ज्योतिषी ने उसे अपने पांव दिखाने को कहा। लकड़हारे ने अपने पांव दिखाए तो उसका दिमाग चकरा गया। लकड़हारे के पांवों पर प्राकृतिक रूप से कमल के चिन्ह थे।

ज्योतिषी ने जब उससे उसका असली परिचय पूछा तो वह लकड़हारा बोला कि उसका जन्म ही एक लकड़हारे के घर हुआ है तथा वह कई पुश्तों से यही काम कर रहा है। ज्योतिषी सोच रहा था कि वह राजकुल का है तथा किसी परिस्थितिवश लकड़हारे का काम कर रहा है।

अब उसका विश्वास अपने ज्योतिष ज्ञान से उठने लगा। उसका दोस्त उसका उपहास करने लगा तो वह चिढ़कर बोला, श्चलो चलकर राजा विक्रमादित्य के पांव देखते हैं। अगर उनके पांवों पर कमल चिन्ह नहीं हुआ तो मैं समूचे ज्योतिष शास्त्र को झूठा समझूंगा और मान लूंगा कि मेरा ज्योतिष अध्ययन बेकार चला गया।'

वे लकड़हारे को छोड़ उज्जैन नगरी को चल पड़े। काफी चलने के बाद राजमहल पहुंचे। राजमहल पहुंचकर उन्होंने विक्रमादित्य से मिलने की इच्छा जताई। जब विक्रम सामने आए तो उन्होंने उनसे अपना पैर दिखाने की प्रार्थना की।

विक्रम का पैर देखकर ज्योतिषी सन्न रह गया। उनके पांव भी साधारण मनुष्यों के पांव जैसे थे। उन पर वैसी ही आड़ी—तिरछी रेखाएं थीं। कोई कमल चिन्ह नहीं था। ज्योतिषी को अपने ज्योतिष ज्ञान पर नहीं, बल्कि पूरे ज्योतिष शास्त्र पर संदेह होने लगा।

वह राजा से बोला, श्ज्योतिष शास्त्र कहता है कि कमल चिन्ह जिसके पांवों में मौजूद हों वह व्यक्ति राजा होगा ही, मगर यह सरासर असत्य है।

जिसके पांवों पर मैंने ये चिन्ह देखे वह पुश्तैनी लकड़हारा है। दूर—दूर तक उसका सम्बन्ध किसी राजघराने से नहीं है। पेट भरने के लिए जी—तोड़ मेहनत करता है तथा हर सुख—सुविधा से वंचित है। दूसरी ओर आप जैसा चक्रवर्ती सम्राट है, जिसके भाग्य में भोग करने वाली हर चीज है। जिसकी कीर्ति दूर—दूर तक फैली हुई है। आपको राजाओं का राजा कहा जाता है मगर आपके पांवों में ऐसा कोई चिन्ह मौजूद नहीं है।'

राजा को हंसी आ गई और उन्होंने पूछा, श्क्या आपका विश्वास अपने ज्ञान तथा विद्या पर से उठ गया?'

ज्योतिषी ने जवाब दिया, श्बिलकुल। मुझे अब रत्तीभर भी विश्वास नहीं रहा।' उसने राजा से नम्रतापूर्वक विदा लेते हुए अपने मित्र से चलने का इशारा किया। जब वह चलने को हुआ तो राजा ने उसे रुकने को कहा।

दोनों ठिठककर रुक गए। विक्रम ने एक चाकू मंगवाया तथा पैरों के तलवों को खुरचने लगे। खुरचने पर तलवों की चमड़ी उतर गई और अन्दर से कमल के चिन्ह स्पष्ट हो गए।

ज्योतिषी को हतप्रभ देख विक्रम ने कहा, श्हे ज्योतिषी महाराज, आपके ज्ञान में कोई कमी नहीं है, लेकिन आपका ज्ञान तब तक अधूरा रहेगा, जब तक आप अपने ज्ञान की डींगें हांकेंगे और जब—तब उसकी जांच करते रहेंगे।

मैंने आपकी बातें सुन लीं थीं और मैं ही जंगल में लकड़हारे के वेश में आपसे मिला था। मैंने आपकी विद्वता की जांच के लिए अपने पांवों पर खाल चढ़ा ली थी, ताकि कमल की आकृति ढंक जाए। आपने जब कमल की आकृति नहीं देखी तो आपका विश्वास ही अपनी विद्या से उठ गया। यह अच्छी बात नहीं हैं।'

ज्योतिषी समझ गया, राजा क्या कहना चाहते हैं। उसने तय कर लिया कि वह सच्चे ज्ञान की जांच के भौंडे तरीकों से बचेगा तथा बड़बोलेपन से परहेज करेगा।