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अव्यक्त कालिमा

हाँ ......कालिमा ही तो थी कुछ ऐसी यादों की जिनके साए से भी वह डर जाती थी और सोचने लगती थी कि किस तरह से वह अपनी इस अव्यक्त कुण्ठा से बाहर आए अकेली खिड़की पर खड़ी वह देख रही थी और आज दूर तक अंधेरे में कुछ भी तो दीख नहीं पड़ता था उसे सिवाय कालिमा के ।उसको शुरू से ही काला रंग बहुत पसंद था सब कहते थे कि काले रंग के परिधान उस पर बहुत ही जँचते हैं पर ..आज ये रात की कालिमा उसे जरा भी नहीं सुहा रही थी और नींद थी कि जिद्द पर अड़ी थी आँखों में उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी। चाँदनी को रह रह कर वो पल याद आ रहे थे जब वो छोटी सी थी करीब पाँच साल की । माँ पापा की लाडली, दो भाइयों के साथ प्यार तकरार की छाँव में बचपन खेल रहा था उसका।बस उसको एक यही कमी ख़लती थी कि माँ अध्यापिका और पापा की आटो पार्ट्स की दुकान होने से दोनों ही थोड़ा व्यस्त रहते थे और चाँदनी को माँ का समय कम मिलता था।और अधखुले अनभिज्ञ बचपन में कितनी ही कुलांचे भरो पर जरा सा भी पैर डांवाडोल होने पर माँ बाप बच्चों को संभाल लेते हैं पर उसके लिए उनका बच्चों के पास होना और निगाह रखना जरूरी है। चाँदनी भी सामान्य बच्चों की तरह बेफिक्र अल्हड़ से बचपन के भटकावों से पूर्णतया अनभिज्ञ थी।

समय के साथ ही व्यक्ति और व्यक्तित्व भी परिवर्तनशील होता रहता है और परिवेश के अनुरूप व्यक्ति का आचरण भी। वो नन्हीं नावाकिफ़ थी कुत्सित प्रवृत्ति वाले मानसिक रोगियों से और बच्चों के सामान्य खेलों में भी ऐसे लोग अपनी प्रवृत्तियों को पैर पसारने देते हैं और आनन्दित होते हैं। चाँदनी को याद हो आए वो उसके घर के किराएदार अंकल और उनके बच्चे जिनके साथ वह दिन भर खेला करती थी; कितनी मस्ती करती थी दोपहर भर धमाचौकङी; उनकी बेटी बेबी बहुत बङी थी वही तो लीडर हुआ करती थी गुड्डा गुड्डी खेलते हुए ब्याह तक रचवा डाला था उस पागल से अपने भाई के साथ और झूठमूठ का ब्याह... हाँ .. पर सच ही है गुड्डा गुड्डी की दुनियाँ के खेल भी बच्चे कितने संजीदा होकर खेलते हैं कई बार.. बच्चे भले ही बच्चे हैं पर संगत का असर हर उम्र में हमेशा से प्रभावी है और... हाँ वो रजनी और उसका भाई.. उनके घर भी तो खेलती थी वो.. और उनके वो चाचा जी उसको टॉफी देकर लाङ दिखाते थे.. एक बार तो गाल में ऐसा काटा उसके कि निशान ही पड़ गया फिर माँ ने भी बहुत फटकारा था उनको.. औररर...; तभी चाँदनी के बेटे ने करवट बदली और वो खिड़की से हटकर उसको थपकी देने चली गयी।

रात के दस बज रहे थे और अभी तक अरूण अपने व्यवसायिक टूर से वापस नहीं आए थे। और पुनः वो बचपन की यादों में तैर गयी...

ऐसे ही तो एक बार दादी की तबियत ज्यादा खराब होने पर उसके माँ पापा भी उसको मौसी(माँ की सहेली ) के पास गाँव छोड़ कर पास के अस्पताल चले गये थे। दोनों भाई तो बड़े थे और उनकी पढ़ाई हॉस्टल में रहकर कराने का निर्णय माँ का ही था उनका मानना था कि लड़के बिगड़ ना जायें इसलिए नियन्त्रण और निगरानी रखना जरूरी है और बेटियाँ स्वयं ही समझदार होती हैं आसानी से पल जाती हैं पर शायद माँ की सोच यहाँ कुछ हद तक सही भी थी और गलत भी।बेटियाँ समझदार तो होती हैं पर देखरेख उनको भी चाहिये होती है उनको कहीं ज्यादा सार संभाल की बचाव की जरुरत होती है। बस यहीं माँ से चूक हुई चाँदनी को समझदारी की चादर में लपेट कर उसको मौसी के घर छोड़ दिया वो थोड़ा सहमी तो थी पर परिस्थितियाँ देख कर रूक गयी। माँ ने अगले दिन साथ ले जाने का वादा किया था और उसको बहुत प्यार से रूकने को राजी किया था। माँ गयी और उसने वहीं से अगली भोर तक का समय पोरों पर गिनना शुरु कर दिया। दोपहर से साँझ हुई;

साँझ से रात होते ही दिन भर मौसी के घर की ऊबन भरी थकान से निढाल हो तेरह साल की चाँदनी जैसे ही बिस्तर पर पहुँची उसकी नींद कुछ ही देर में गहरा गयी कि अचानक रात के साये में लिपटे दो मजबूत हांथों ने उसे दबोच लिया सहसा इस आक्रमण से अनभिज्ञ चाँदनी का गला भय से रूँधने लगा और उसने पैरों को पटकना चालू किया हाथों की पकड़ जरा सी ढीली होते ही वह तेजी से बाहर की ओर भागी...... उफ्फ़.. चाँदनी ने गले तक भर आए उस भयावह रात के डर को एक घूँट की तरह गटका चाँदनी पसीने से तऱबतऱ हो चुकी थी। क्या हुआ कैसे हुआ कितना हुआ.... नहीं.. वह कोई तर्क कुतर्क नहीं करना चाहती अभी वह किसी कुण्ठा में नहीं डूबना चाहती और वह इस बीमार ख्याल से बाहर आ गई.. घड़ी की सुइयाँ चुहलबाजी कर रही थी रात के बारह बजने को थे अरुण को फोन मिलाया तो पहुँच से बाहर था.. फिर वह उन्ही यादों को टटोलने लगी ...

ऐसे ही जब उसने किशोरावस्था में पैर रखा तो राह चलते किसी नुक्कड़ की दुकान पर तो कहीं बीच रास्ते ही कितनी फब्तियाँ उसको खुद में ही सिमट जाने को मजबूर करतीं ऐसे ही एक बार बाबा के एक अच्छे दोस्त वकील चाचा के साथ वह इण्टर काॅलेज में एडमीशन के सिलसिले में शहर के बाहर तक गई थी और रास्ते में रेलवे क्राॅसिंग के पास रिक्शे पर जब सवार थी तो पता नहीं उनकी नेक नीयत को क्या हुआ और वह जबरन ही उसके घुटनों तक अपने हाथ ले आए पर उस समय तक उसको थोड़ा दबी आवाज का विद्रोह करना आ गया था औनके हाथ को तेजी से झटक उसने उनकी ओर तरेर कर देखा तो वह दाऐं बाऐं बगलें झाँकने लगे थे ।

अभी भी कुछ तो नहीं बदला किशोरी हो या दुधमुँही.. बच्चियों को आज भी जतन से संभालने की कहीं ज्यादा जरुरत है। हाँ सच ही तो है कितने ही किस्से आए दिन सुनने को मिलते हैं कहीं कोई पडोसी कोई दूर का रिश्ते वाला तो कोई जान पहचान का या अनजान व्यक्ति। आप किसी पर आँखे मूंदकर विश्वास नहीं कर सकते।

अब तो चाँदनी की भी आँखों में नींद दस्तक देने लगी थी और वो वहीं अपने बेटे के बगल में सो गयी। करीब सुबह के चार बजे दरवाजे की घण्टी बजने पर उसकी आँख खुली और उसने दरवाजा खोला तो अरूण ही थे नींद ही नींद में अरूण का स्वागत कर वह भीतर आ गई अरूण भी थके होने के कारण सीधे बिस्तर पकड़ कर सो गए ।

भोर की प्याली लेकर जब सूरज उसकी खिड़की से झाँका तब उसे अहसास हुए काफी देर हो गई है और उसकी क्लासिकल डाँस सीखने वाली छात्राओं के आने का समय भी लगभग हो ही चला है वह जल्दी जल्दी उठ कर काम समेटने लगी चाँदनी एक प्रोफेशनल डाँस टीचर थी और कई बच्चियाँ उससे डाँस सीखने आया करती थीं आज रविवार होने से अरूण के ऑफिस की छुट्टी थी और वह अभी भी रात की नींद पूरी कर रहा था । जल्दी जल्दी नाश्ता तैयार कर वह स्वयं भी तैयार होने लगी बच्चियों ने आना शुरू कर दिया था अरूण को सोतो छोड़ वह जल्दी से बाथरूम की ओर लपकी जब वह वापस निकली अरूण बैड पर नहीं थे जल्दी जल्दी दुपट्टा डालते हुए कमरे से बाहर निकलने लगी तो ड्राॅइंगरूम से उठती अरूण की आवाज सुनकर ठिठक गई "अरे आओ ना , बेटे अंकल को अपनी क्लास की पोएम सुनाओ तो " हाथ पकड़ कर अरूण इक 12 साल की बच्ची को बात करने में मशगूल था और बस्स चाँदनी ने बिना सोच विचार किए झटके से दुपट्टा काँधे पर डालती हुई उसके हाथ से बच्ची का हाथ झिड़कते हुए नाराजगी जाहिर कर दी

अरूण अवाक् खड़ा ऊपापोह की स्थिति में था कि आखिर हुआ क्या ?? बच्चों को भी छुट्टी का बहाना देकर चाँदनी ने अरूण पर child harrasement के आरोप जड़ दिए वो पसीने से तरब़तर होकर गुस्से से काँप रही थी ।अरूण माथा पकड़ कर धम्म से गद्दे पर गिर पड़ा वो समझ नहीं पा रहा था कि आखिर हुआ क्या?चाँदनी के सवालों और इल्जामों की लड़ी टूटते ही अब बारी अरूण की थी उसको विश्वास में लेकर समझाने की । " चाँदनी !! सारे धान बाईस पसेरी नहीं तौले जाते माना कि जमाना बहुत खराब है कुछ खराब अनुभव भी सभी के पास होते हैं पर क्या इस वजह से कोई जीना छोड़ देता है या घर में दुबक कर बैठ जाता है इस सच को स्वीकार करो कि सभंल कर पैर रखना जरूरी है पर बिना किसी की गल्ती देखे सिर्फ अंदेशा लगा कर दोषी करार देना सर्वथा अनुचित है।इसलिए मेरी प्रिय जीवन संगिनी अपने कटु अनुभवों के आधार पर समाज की एक जिम्मेदार कड़ी को हर वक्त कटघरे में मत खड़ा करो।" "मैं पढ़े लिखे समाज का हिस्सा हूँ मुझे मेरी नजरों में मत गिराओ हो सके तो इस मानसिकता से बाहर निकल समाज के कुछ निम्न तबके में इस बाल हित चेतना को जाग्रत करने के लिए एक संस्था का निर्माण करो और मुझ जैसे प्रगतिशील पुरूष वर्ग को भी इस सामाजिक चेतना जाग्रत संस्था का हिस्सा बनाओ ।किसी दर्द की गाँठ को बढ़ने मत दो वरन उसका इलाज और उपाय खोजो मैं हर कदम तुम्हारे साथ हूँ। " अरूण ने घुटने के बल बैठ जैसे ही चाँदनी की आँखों में झाँक कर देखा उसकी आँखों में दबा छुपा दर्द और सीलन का बाँध बह चला । अरूण के हाथों को थाम वह भी जमीन पर अपने घुटनों पर आ गई और उसके काँधे पर टिक गई । उसको खुशी थी बिना कुछ कहे उसके अंदर के दबे दर्द के लावे को समझ कर अरूण ने उसे अपने अंदर की शीतलता में पनाह दे दी ।मुसकुराती आँखों में अरूण के लिए श्रद्धा और अदम्य विश्वास तैर गया ।आज उसकी अव्यक्त कालिमा का अंधेरा उसको डरा नहीं रहा था बल्कि मजबूत कर रहा था कि वह अपने कदम उजालों ओर बढ़ाने में पूर्णतया समर्थ है ......

......pranjali......

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