आराधना
–ः लेखक :–
अजय ओझा
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आराधना
प्रिय चांदनी,
जिस तरह प्रसूता स्त्री अपनी पीडाओं को रोक नहींपाती, उसी तरह जरूरत न होने पर भी तुम्हें खत लिखने की मेरीख्वाहिश को मैँ रोक नहीं पा रहा । हाँलाकि खत तुम्हें भेजने कीहिंमत मैं हरगिज़ नहीं करनेवाला, क्यूं कि अगर अब तुम इन अक्षरों परनजरें डालोगी तो बरसों की साधना व तपस्या से बनाई वह तुम्हारीउज्जवल काँच–सी पारदर्शक आराधना इस खत की विडंबनाओं केप्रति सम्–वेदना की हलकी–सी ठोकर खाकर चकनाचुर हो जायेगी ।कुछ सवाल खुद ही इतने अनुत्तर होते है कि उसका जवाबमैं या तुम तो क्या प्रकृति भी नहीं दे सकती । आज तुम्हें मिलकरतुम्हारे आँगन से बाहर निकलते वक्त जो सवाल मेरे मन में हुआ वहइस कंपाउन्डवोल से भी ज्यादा विशालकाय व अभेद्य लगा । और इससवाल का जवाब खोजने मेरी यादों से निकले कई क्षण तेरे आँगन मेंबिखर पडे :़ ़ ़ बाईस साल की उम्र में दिल में अरमानों की गठरियाँसंजोकर मानी जाती 'वेलसेटल्ड' रफ्तारी जिंदगी बडी मजेदारलापरवाही से जी रहा था, तब तुम्हारे माँ–बाप की ओर से मेरे लिएशादी का पहला सुहावना प्रस्ताव आया था । मैँ महज इस हसीनखयाल से ही रोमांचित हो गया था । भले ही तुम्हें मैने देखा नहीं था,पर जो कुछ भी सुनने में आया उससे मेरे मन पर तुम्हारी एक अनोखीसंवेदन–आकृति तराशाई गई थी और जाने–अनजाने, मैं मन ही मनतुम्हारी आराधना करने लगा था । तुम्हें देखने की भारी उत्सुकता मेंमैं एस–डी–बर्मन का गीत भी गुनगुनाने लगा था; 'मेरे साजन है उसपार ़ ़ 'वैसे मेरे पास राज़ की कोई बात नहीं थी, फिर भी मुझेअपनी पुरानी क्षय की बीमारी से आपको अवगत करना जरूरी लग रहाथा, ये सोचकर आपकी जिंदादिली पर भरोसा रखते हुए इसी बात काएक छोटा–सा संदेश मैंने तुम्हें भेजा था । पर इससे पहले कि वहसंदेश तुम्हें मिले, मेरी अपेक्षाओं को जुटलाता तुम्हारा संक्षिप्त पत्रमुझे मिला, लिखा था : 'एक क्षय के मरीज़ से मैं शादी करना नहींचाहती ।'
मेरे भोलेपन का बुलबुला फट गया । दिल टूट गया । तुम्हेंदेखने की उत्सुकता दबी रह गई । इस दौरान मैं इतना ही जान सकाथा कि तुम्हारा नाम 'चांदनी' है । बाद में ये भी मालूम हुआ कितुम्हारी शादी भी इसी शहर में हो चूकी है ।
फिल्मों का कोई खास असर मुझ पर नहीं था, चांदनी,फिर भी उस घटना के बाद मुझे कभी शादी करने का खयाल आयानहीं । मेरे भीतर तराशाई तुम्हारी संवेदनप्रतिमा की आराधना को मैंखंडित नहीं कर पाया । शायद सचिनदा का वह गीत मुझे प्रेरणा देरहा था; 'सफल होगी तेरी आराधना, काहे को रोये ़ ़ 'समय के बहाव के साथ मेरे प्रत्याघात भी शांत होते रहे ।
तुम्हें भी अपनी पसंद–नापसंद का पूरा हक़ होना चाहिए –ये बात मैंसमझने लगा । मेरा दृष्टिकोण जरूर कुछ बदला, फिर भी तुम्हारीनिर्मल आराधना मन के किसी कोने में जिंदा थी ।
उस दिन मेरे एक युवा करीबी दोस्त प्रकाश कीआकस्मिक मौत हुई तब मैं उसकी नवयुवा विधवा पत्नी के पासअपना शोक व्यक्त करने और उसका दर्द हलका करने निकला था तबमैं नहीं जानता था कि मैं तुम्हारे ही पास आ रहा हूँ । उस वक्त जब मैंतुम्हारे बायोडेटा से वाकिफ हुआ तो मैं जान गया कि तुम वही चांदनीहो, ़ ़ हाँ, तुम ही वो चांदनी हो जिसने एक क्षय के मरीज़ को,जानबुझकर या शायद अनजाने में ही ़ ़ , ठुकरा दिया था । लेकिनतुम तो मुझे उस अतीत की नजरों से कभी नहीं पहचान सकती; ऐसीअतीत की निगाहें ही कहाँ हैं तुम्हारे पास ?
उस वक्त तुम्हें सफेद वस्त्रों में देख, मेरे मन में कईखयालात चकराने लगे । काश, तुमने मुझसे शादी की होती ़ ़ । तो? तो ़ ़ ़ आज ये तुम्हारी जवान खूबसूरती को इस सफेद साडी केअजगर ने यूं दबोच लिया ना होता । एक विषद् कल्पना ़ ़ ।?
चांदनी, तुम्हारा पति मेरा अच्छा दोस्त था, और तब उसकी मौत कोअभी चार ही दिन तो हुए थे, जिसका गम मेरे जहन में यकीनन था ।
लेकिन वहाँ तुम्हें इस हालात में देख मेरे विचारों ने मन को औरबोझिल बना दिया था । पलभर तो हुआ कि अभी का अभी तुम्हारीआँखों के आंसुओं को पोंछकर उनमें नये सपनों के रंग भर दूँ ? अपनीपुरानी पहचान देकर पुनर्मिलन(?)की एक नई भूमिका बाँध दूँ ?
अचानक आये तुम्हारे दुःख को अपने हाथों से हटा दूँ । एक ऐसासहारा बनूँ कि जिसकी इस मौके पर तुम्हें खास आवश्यकता हो ।एक नया सवेरा देनेवाला रवि बनने की अंतरतम इच्छा हुई ।'एक क्षय के मरीज़ से मैं शादी करना नहीं चाहती ।' –तुम्हारे उस खत के शब्द मेरे कान से टकराये और मेरे विचारों की गतिरूक गई । कुछ भी पाये बगैर, मेरी आराधना तुम्हें अर्पण करने की एकबहोत बडी घडी बीत गई । सारे खयालात यूं ही बह गये ।
तुम मुझे अपने दिवंगत पति के इकलौता विश्वासपात्रदोस्त 'रविबाबु' की हैसियत से ही जानती हो, चांदनी । उसी दोस्तके नाते मैं भी कुछ ही दिनों में एक सन्माननीय हद तक तुम्हारे भीकुछ करीब आ सका था । तुम्हारे हिजराते शुष्क जीवन को देख मैंपरेशान हो जाता था । शब्दों की नींव बनाकर मैं तुम्हें आश्वस्त करनेकी कोशिश करता पर स्थायी तौर पे कोई कामियाबी की इमारत खडीनहीं हो पाती थी ।
पिछले कुछ दिनों से तुम्हारे नजदीकी लोगों से मुझेअंदाजा मिला था कि शायद तुम दूसरी शादी के बारे में सोच रही हो।वैसे हमारी बातों में से भी कभी मुझे ऐसा तथ्य जरूर मिला है जिससेलगे कि तुम्हारा इशारा दूसरी शादी की तरफ हो सकता है । तभी तोमुझे अब यकीन हो गया है कि तुम वाकई पूरे होश से,सभानता से,गंभीरता से शादी करने की सोच रही हो ।
मेरी आराधना का एक नया पदचिह्न ़ ़ , एक नयापायदान ़ ़ , एक खुल रहा नया दरवाजा था क्या ये ?
इंजिन को धक्का देकर आगे बढाती गरम बाष्प–सी मेरीभावुकता से मुझे शरमिंदगी का एहसास हुआ । कितने बेतूके विचारथे मेरे ?आज ़ ़ ़उन सारे खयालात के भारी दबाव की वजह से मैं तुम्हारेपास दौड़ आया था, हमेशा की तरह महज तुम्हारा बोझ हलका करनेनहीं, बल्कि तुम्हारे सामने शादी का प्रस्ताव रखने । आराधना केपौधे को आशाएँ फूटीं । श्रध्धा दृढ़ बनी । जानता था; मेरी सहीपहचान पाकर तुम गद्गदित होकर मेरा स्वीकार करोगी । तेरे उस खतके लफ्ज़ लगातार क्षीण होते जा रहे थे । हताशा को जीवंत आशाओंकी ओर खींचता सचिनदा का आराधना से सफलता की ओर फलाँगेभरता गीत घट्ट स्वरों में गूंज रहा था । सच चांदनी, आज मुझे शादीका प्रस्ताव जताने में जो खुशी हो रही है वो पहली बार जब तुझे देखनेआनेवाला था तब भी नहीं मिली थी । मिलन और पुनर्मिलन में शायदयही फर्क होगा ।
़ ़ और तुम्हारे बंगले की छत पर अभी अभी बीती धुँधलीसीशाम के हलके उजाले में बुझ रहे एक निस्तेज सितारे की ओरअपनी अनिमेष निगाहें टिकाते तुम मुझे कहे रही थी :'हाँ, रविबाबु, आपका अंदाजा सही है । आपके दोस्तकी जगह तो कोई नहीं ले सकता, पर बरसों पहले किये एक पाप केपश्चाताप से फूटी एक आराधना के चित्र में प्रायश्चित का आखरी रंगभर देने की रहरहकर इच्छा होती है । अर्थहीन बनी मेरी जिंदगी सेकिसी को विश्वास का छोटा–सा फूल चढा सकुँ तो मेरी आराधनासफल हो जायेगी । इसी लिए सब कुछ सोच–विचार के आखिर मैंपुनर्लग्न के किनारे आ पहूँची हूँ । मेरे इस खयाल के बारे में आपकाक्या मानना है, रविबाबू ?'
देखता रह गया था मैं तुम्हारे सामने, तुम्हारी निगाहें अबभी उस बिना तेज के तारे पर स्थिर थी । तुम्हारा ये सवाल मेरे भीतरमें खलबली मचाने लगा । मेरे अंदर कुछ सिलवटें करवटें बदलतीरहीं। भीतर कितना कुछ हो रहा था, मैं समझ न सका । मैं तुम्हारेकुछ शब्द समझ पाया था और कुछ नहीं समझ पाया था । या जो कुछसमझ पाया था उस बात का यकीन अपने आपको दिलाना चाहता था।सारे खयाल चकरा रहे थे, फिर तुरंत ही याद आया कि तुम मेरे जवाबका इंतजार कर रही हो ।
'मुझे क्या ऐतराज़ हो सकता है ़ ़ ?' मैं बोला, फिरहकलाया, लगा कि जवाब देने में कुछ गरबड़ हो गई है । दूसरे पलअस्वस्थता को छुपाकर मैंने कहा, 'मेरा मतलब है आपके निर्णय केविषय में मुझे कुछ भी अयोग्य नहीं दिखाई देता । लेकिन येपश्चाताप, पाप, आराधना, प्रायश्चित ़ ़ ये सब क्या है ?'
सही मायने में तो मेरा बूरा हाल हो रहा था, चांदनी ।अच्छा हुआ तुम्हारी स्थिर निगाहें मुझ पर पडी नहीं थी, वरना तुम मेरीधुँधलाहट को भाँप जाती । उसी तारे पर से निगाहें हटाए बिनागमगीन स्वरों में मुस्कुराते तुम बोली, 'बताती हूँ, आपसे नहींछुपाऊँगी । तब की बात है जब आपके दोस्त प्रकाश के साथ मेरीशादी नहीं हुई थी । जिस लडके के साथ मेरी शादी की बात चल रहीथी वो क्षय का मरीज़ था । इससे पहले कि वो मुझे देखने आये मैंने हीउसे शादी से इनकार करता पत्र भेज दिया । उसी दिन उस युवक काअपनी इसी बात का इकरार करता हुआ संदेश मिला । मैं जान गई कियुवान मुझे अंधेरे में रखना नहीं चाहता था । उसकी जिंदादिली मुझेभा गई । लेकिन मेरे पत्र भेजने के बाद मैं खुद कुछ कर ना सकी । मैंअपने इस पाप को धोने का मौका तक न पा सकीं । मेरे इर्दगिर्द केस्वार्थी विचारों बह गई । ये सब इतना जलदी से हो गया कि ज्यादाकुछ समझ में आने से पहले ही मेरी शादी आपके दोस्त प्रकाश से होगई और मैं ़ ़ 'तुम कुछ रूकी ़ , वह पल मेरे लिए विलंब के महाकायपल बन गये । उत्तेजना के तीव्र झटके मेरे शरीर में आने लगे । तुमनेबात को आगे बढाई, 'रविबाबु, उस लडके को मैंने कभी देखा तकनहीं । जान–पहचान भी नहीं । नाम तक नहीं पता । फिर भी दिल केएक कोने में उसके निर्दोष, निखालस अनदेखे व्यक्तित्व की कभी नामिटनेवाली छवि आज भी बरकरार है । जाने–अनजाने शायद आजतकमैं उस छबी की मौन आराधना करती रही हूँ ।'
सितारे की ओर लगी स्थिर अचल निगाहें समेत तुम एकपल रूकी, चांदनी ।हाँ, एक ही पल ़ ़ ।
वह एक पल में मेरे विचारो का और भावनाओं का कब सेरूका एक प्रचंड़ धोध फूटा ़ ़ ़़ ़ तुम अब भी मुझे याद करती हो ़ ़ ओह चांदनी । तुमभी मेरी आराधना करती हो ? कैसा हसीन इत्तफाक ? और संयोग भीदेखो चांदनी, आज इन हालात में, इस स्तर पर, इस पल एक ऊँचीभूमिका पर कुदरत ने मुझे तुम्हारे सामने खडा भी कर दिया ?। क्यायही हमारी खुशनसीबी का संकेत है ? बस, बस, सबकुछ देखोचांदनी, कितना रंगीन हो गया ? बरसों की मेरी तपस्या अपनी मंजिलपर आ गई और पता भी न चला । कहीं मैं पागल ना हो जाऊँ । कुछभी अब बाकी नहीं रहा । हां, सिर्फ मेरी सही पहचान देना बाकी है,अभी जब मुझे जान जाओगी तो खुशी से उछल पडोगी । फिर शादी केप्रस्ताव के लिए कोई औपचारिक पूर्वभूमिका का मैं मोहताज नहींरहूँगा । आह ़ ़ । रेल की पटरी की तरह समांतर दौडती हमारीजिंदगी एकाकार हो जायेगी । फिर सब कुछ हसीन होगा ़ ़ , सबकुछ ।
सुहावने खयालात से भरे उस सघन क्षण को संजोकररखने का जी करता है । जी करता है इस पल को कभी नपिघलनेवाली बर्फ में ढालकर रखूँ ।
दूसरे पल; तुम आगे बोलने लगी,'तारक है उसका नाम । मैं उससे शादी करनेवाली हूँ ।आप जानते हैं रविबाबू, तारक को केन्सर है, अभी तो पहले स्टेज में।क्षय के मरीज़ को और उसके प्यार को तो मैं न पा सकी, शायद तारकको बचा पाऊँ, उसका सहारा बन सकूँ । इस तरीके से शायद मैं अपनेआपको माफ कर सकूँ । मैं जानती हूँ, लोग मेरी इस बात कोपागलपन ही कहेंगे, लेकिन आप क्या कहेंगे ? ़ ़ आप कुछ बोलतेक्यूं नहीं रविबाबू ? आप भी मुझे गलत समझते है क्या ? नहीं, मुझेभरोसा है आप पर, आप उन लोगों में से नहीं हैं, है ना ?'हजारों पायदान वाली सीढियों के सबसे उपर के पायदानपर आप खडे हो और उसी वक्त सीढियां आप के हाथ से छूट जाय तोक्या होगा ? आकाश में इतने उपर चकराकर जमीन पर टकराने कादर्द कैसा होगा ? रोम रोम में असंख्य झहरीले बिच्छू एक साथ काटेतो ?
नहीं चांदनी, मैं अपने दर्द की दास्ताँ ऐसी साधारणतुलनाओं से नहीं कर सकता । क्षय के मरीज़ के बजाय एक केन्सर केमरीज़ को शायद तुम्हारी ज्यादा जरूरत हो सकती है । और फिर'चांदनी' के पास तो 'तारक' ही सोहाते है, 'रवि' नहीं ।दूर दूर 'सूर्यास्त' हो चूका था । वह सितारा–जिस पर सेअभी तुम्हारी निगाहें हटी नहीं थी–क्षीण तेज से चमक रहा था । तारेमें से एक प्रकाशकिरण तुम्हारे उपर आ रहा था, जिससे तुम्हारे चेहरेपर कई तेजांकनों की रेखाएँ गुजर रही थी । अच्छा हुआ तुमने मेरीओर देखा नहीं, वरना चांदनी, तुम अपने उस सवाल का जवाब मेरेचेहरे पर बिखरी चाहतों की लाशों से जरूर देख चूकी होती –जो तुमअक्सर पूछा करती थी– 'रविबाबू, आप शादी क्यूं नहीं कर लेते ?'तुम्हारी आँखों को उस तारे पर लगाये रखे मैं छत से नीचेउतकरर कंपाउन्ड में आ गया चांदनी, क्यूं कि तुमने पूछे प्रश्न के बारेमें मैं खुद भी स्पष्ट नहीं था, यदि था तो भी मैं तटस्थ नहीं बन पाता। तुम्हारे सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था । यूं तो मेरे अपनेसवालों के जवाब भी कहां मेरे पास होते है ?चांदनी, मैं और तुम, हम दोनों एकदूसरे की अपने अपनेतरीकों से अनूठी आराधना करते रहे । किसकी आराधना महान ?किसकी आराधना सफल हुई ?
मैंने अभी बोला ना कि कुछ सवाल खुद ही इतने अनुत्तरहोते है कि उसका जवाब मैं या तुम तो क्या प्रकृति भी नहीं दे सकती।मुझे लगता है; आराधना का कोई फल नहीं हो सकता, अगर होता हैतो उसे 'बीजनेस' कहते है, आराधना नहीं ।
़ ़ फेफडे के भर गये घाव एक बार फिर भीतरी दीवारों कोझुलसाने लगे । ऐसा लगा कि अस्थमा का एक भयानक हमला आ रहाहै । आँगन में बिखरे क्षणों को सावधानी से समेटकर मैं बाहर निकलाचांदनी, तब सचिनदा का एक गीत मैं गुनगुनाता था;'वहाँ कौन है तेरा, मुसाफिर, जायेगा कहाँ ़ ़ '
तेरा ही आराधक
रवि