बदला
लेखक :–
अजय ओझा
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बदला
–क्यो ना लें ? जरूर लिया जाए । यही सही मौका है । मैंतो कहता हूँ बदला ले ही लेना चाहिए । ऐसे सुनहरे मौके बार बारनहीं आते । बात ही ऐसी थी, दम था बात में । फिर मैं भी कहाँबेचैनी से इंतजार कर रहा था ? मैंने तो सब कुछ भुला भी दिया था ।
लेकिन पूरे बीस साल बाद, हां बीस साल बाद अपने आप ही बोलमेरी कोर्ट में आया है, तो मैं भी ऐसा स्ट्रोक लगा दूँ कि ़ ़ , बीससाल से इकठ्ठी हुईं यातनाओं को शांति मिले, सारी भडाँस निकलजाए, इतने साल से दबीं पडीं संवेदनाओं को राहत पहूँचे, एकअजीबोगरीब अव्यक्त दुःख को चैन मिले, बदला लेने का संतोषमिले, और आत्मा को ठंडक पहूँचे । यही सही मौका है बदला लेनेका । ऐसा स्ट्रोक मार दूँ कि शरदचाचा को ऐसा ही लगे मानो बीससाल पुरानी कहानी अपने आप को नये ढंग से दोहरा रही हो । उसे भीपता तो चले कि कोई उसे भी हरा सकता है, इतने साल के बाद भीबदला लिया ।
आज बदला लेने की बात भले ही मुझे ज्यादा महत्वपूर्णनहीं लगती, लगता है वक्त ने मेरे सारे जख्म भुला दिये हैं । लेकिनउस वक्त शरदचाचा के जरिये जो तूफान उठ खडा हुआ था उसे मैंकैसे भूल सकता हूँ ? आज भी मुझे लगातार झुलसाती रहती है ऐसीआगभरी दास्तान की गर्म लपटों को मैं आज भी महसूस करता हूँ ।बीस साल पहले बात कुछ इस तरह से शुरू हुई थी ।
शरदचाचा मेरे घर के सामने रहते थे जरूर, लेकिन जयश्री के पिता केसाथ उनका मिलना जुलना कुछ ज्यादा हुआ करता था । वैसे इससेकिसीको क्या ऐतराज़ हो सकता है, यदि बात इतने से न बढती ।
कभी जयश्री हमारे घर कुछ लेने आये तो भी शरदचाचा उसे टोकना नभूलते । छोटी से छोटी बात भी उन्हें अखरती, असल में जयश्री मेरे घरबदलाआये ये बात उन्हें पसंद नहीं थी ।कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरी आँखें जयश्री से कुछयूं मिल गई थी कि एक–दूसरे से मिले बिना चैन नहीं मिलता ।
सोसायटी के कोमन प्लोट के करीब एक पतली गली है, जहाँ किसीतरफ से स्ट्रीटलाइट का प्रकाश भी नहीं पहूँच पाता । ये अंधेरी गलीप्रेमियों को मिलने की सही जगह थी, जिसे हमने चुना था । 'आज'तक का प्यार और 'कल' की बातें हम दोनों यहीं बैठकर अभिव्यक्तकरते । एक दिन ऐसी ही कोई अभिव्यक्ति चल रही थी कि हमारे बीचएक काला चेहरा यकायक प्रकट हुआ, जो शरदचाचा थे । उनके हाथमें टोर्च थी, जिस में से प्रकाश की नुकीली किरणें जयश्री के चेहरे परगिरकर जोर से चिल्लाई, 'जयश्री ़ ़ इं ़ ़ इं ़ ़ , तूँ ़ ़ ऊं ़ ़ ?' मुँहछुपाती जयश्री भयभीत हो कर चल पडी । टोर्च का प्रकाशपुंज मेरास्पर्श करते हुए वापस गया । मन ही मन बडबडाते हुए शरदचाचा तेज़गति से चल पडे । मेरे अंगअंग में पसीना भर गया था । जयश्री कीमुलाकात से खडे हुए रोंगटे अब भय के मारे सीधे तन गये थे । पैरकाँप रहे थे । जैसे तैसे घर आया ।
जयश्री का क्या होगा ? लगातार उसकी फिक्र होने लगीथी। शरदचाचा ने हमें देख लिया, उस समय मन में फैला भय प्रतिपलऔर भयावह हो रहा था । अब क्या होगा ? जयश्री को कैसे मिलूँगा ?
क्या कहूँगा ? उसके हालात कैसे जानूँ ? घर के बाहर भी वो दिखाईनहीं देती । क्या करूँ ? मेरा खाना–पीना–सोना सब कुछ रूक–सागया । जयश्री को देखे बिना अब चैन मयस्सर नहीं होनेवाला ।
किताबों मे पढी, चिबावलीं दिखती बातें, सारी यातनाएँ मैंने उसवक्त महसूस की । मैं मन में शरदचाचा को बडी क्रूरता से कोसनेलगा । पता चला कि जयश्री के पिता दूसरे शहर गये थे, इसलिएकश्मकश भरा एक दिन तो बिना किसी उथल–पुथल के बित गया ।पर दूसरे दिन वे आ गये थे । उन क्षणों को गुजारना बहोत कठिन था ।
मैं समझता था कि शरदचाचा जयश्री के पिता को जरूर सब कुछ बतादेंगे, और ऐसा ही किया उन्होंने । उस दिन शाम को शरदचाचा नेजयश्री के पिता को सारी बातें जरूरी पूर्तता के साथ बता दीं । फिर तोक्या था, चारो तरफ मानो शोले ऊठे । झंझावात, एक ऐसा तूफान जोमुझको जयश्री से इतना दूर कर गया । उस रात जयश्री के घर में भडकीइस आग की लपटें आज भी मुझे सर से लेकर पैर तक झुलसा रही है ।
उस आग ने सिर्फ जयश्री के घर को ही नहीं, मेरे अरमानों को भी भूँनदिया, राख कर दिया । ऐसे वक्त शरदचाचा के चेहरे पर किसी काभला करने का संतोष दिखता था ।़ ़ ़ जैसे कि होता है; वक्त के गुजरने के साथ हालात सेसमझौते होते रहें । समय के बहाव में जख्म सँभलते रहें, भरते रहें ।
दिशा के साथ खुशहाल दाम्पत्यजीवन को भी पन्द्रह साल हो चूके ।बीस साल बाद आज तो सारे जख्म भर गये हो ऐसा लगता है ।
शरदचाचा भी शायद उस बात को भुल चुके हैं । कई बार वे मेरे घरप्यार से आते–जाते रहते हैं, मैं भी उनके घर जाता हूँ । कोई विवादनहीं कोई फरियाद नहीं ।़ ़ परन्तुबातही कुछ ऐसी बन गई जो बीस साल पुराने मेरे गडेजख्मों को फिर से दुगुनी तीव्रता से हरा कर गई । ऐसी ही एक अंधीगली, वैसे ही कोई निर्दोष प्रेमी पंछी, वही ओकेजन वहीं लोकेशन ।
इस वक्त शरदचाचा वहाँ नही थे, बल्कि मैं था । मैं टहल रहा था तोअचानक मेरा ध्यान उस तरफ गया । दो युवा कोमल परछाइयाँ हाथ मेंहाथ थामे खडी थीं । मैं करीब गया तो चौंक पडा, चेहरा अनजाननहीं था, अरे ़ ़ , ये तो दिव्या, हां ़ ़ , वही, ये तो शरदचाचा कीबेटी दिव्या है । मैंने अपना मोबाइल कैमरा क्लिक किया ।
'दिव्या ़ ़ , तुम ़ ़ ?' मैंने उसी तरह चिल्लाया । लगाजैसे बीस साल से इस गली मे ऐसी ही चिल्लाहटों का प्रतिध्वनि गूँजरहा है । वहाँ खडा युवक मुँह छुपाकर भाग निकला और दिव्या तोबिना नजरें मिलाये ही अपने घर की ओर दौड़ पडी ।
पलभर मैं भी हक्काबक्का रह गया था, फिर खयाल आयाकि इस बार घबराने की बारी शरदचाचा की है, मेरी नहीं । घर आकरक्या करना, कैसे करना इस विचार में पडा । और कोई होता तो बातभी कुछ और होती, शायद तरस भी आ जाता । पर शरदचाचा के लिएमेरा मन ऐसा सद्भाव पैदा नहीं कर सकता । छोटी–सी बात सेप्रतिशोध की भावना तेज़ होने लगी । बरसों से दबीं नफरत कीज्वालाएँ एक चिंगारी से फिर से सुलग ऊठीं । मैं क्यों शरदचाचा सेबात ना बताऊँ ? क्यों तरस खाऊँ ? उन्होंने मेरे लिए जरा–सी भीअनुकंपा रखी थी ? मसीहा बनने निकल पडे थे जयश्री के पिता कारक्षण करने ? जयश्री के पिता जब तक इस दुनिया में रहें तब तकशरदचाचा के उपकार तले दबे पडे रहे; कौन–सा उपकार किया थाउन्होंने ? मैं भी आज ऐसा ही एक 'भला' काम करना चाहु तो इसमेंक्या हर्ज है ? आज रात ही जब शरदचाचा मेरे घर बैठने आये तभी बातको खोल दूँगा, जरूरी पूर्तता के साथ ही; 'आपकी दिव्या होगी ये तोमैं सोच भी कैसे सकता हूँ, चाचा ? मैं तो जरा टहेल रहा था तोध्यान गया । सोसायटी की बेटियों का खयाल रखना हमारा फर्ज भीबनता है न । मैंने देखा कि यह तो अपनी ही बेटी है, दिव्या । समयके अनुसार देखा जाये तो लडकियों को बोयफ्रेन्ड होना कोई नई बातनहीं, लेकिन ऐसी अंधेरी गली में, ऐसी अधनंगी अवस्था में ़ ़ ? शुक्रमानो चाचा, कि मैं ही था, और मैंने सीधा आप ही को बताया,किसी और को खबर तक नहीं होने दी, आपका भला जो सोचता हूँ ।
दूसरे किसीने देख लिया होता तो ? तो पूरी सोसायटी में बवंडर खडाहो गया होता, बवंडर, चाचा ।'इतनी बातें सुनने के बाद कौन–सा बाप ज्यादा सुनने मेरेपास बैठा रहेगा ? अपनी बेटी की इतनी कहानी सुनने के बाद तोशरदचाचा के पैरों तले से मैंने जमीं ना निकाली तो मेरा नाम नहीं ।इसके बावजूद भी यदि बात को और असरदार बनाने की जरूरत हुई तोउस स्थिति में मेरे मोबाइल में कैद प्रेमीपंछियों की धूँधली–सी तसवीरभी काम आयेगी । फिर देखने योग्य होगा शरदचाचा का चेहरा । बीससाल पहले उन्हीं के ारा बनाई गई घटना का उन्हीं के हाथोंपुनरावर्तन होगा ़ ़ , ओह ।
इस समय दिव्या व उसके प्रेमी के हालात कैसे यातनापूर्णहोंगे, उसकी मनःस्थिति क्या क्या झेल रही होंगी ये मुझसे अच्छा भलाकौन समझ सकता है ? मुझे एक अजीब किसम का मानसिक आनंदप्राप्त हो रहा है । शायद बदला लेने की क्षण जब करीब हों तब ऐसाआनंद सब को मिलता होगा । प्रतिशोध की यथार्थता को लेकर मन मेंहो रहे न् को बुजाने की मैं कोशिश करने लगा । मैं ठीक समझताथा कि मुझे बदला शरदचाचा से लेना है । दिव्या या उसके प्रेमी कीफिक्र करने की मुझे कोई जरूरत नहीं है । मुझे उन दोनों से क्यानिस्बत ? उनका जो भी हो, लेकिन यदि शरदचाचा को पाठ नापढाया जायेगा तो उनकी आँखें नहीं खुलेगी, और जब तक जीयेंगे,इसी तरह दूसरों का 'भला' करने का छल करते रहेंगे । आज फिर सेहरे हुए इन जख्मों को तब भरनें में कितने साल खर्च हुए थे ये मैं हीजानता हूँ । कितने दुःखों को संसार से कैसे कैसे छुपाना पडता था येमैं ही जानता हूँ । आखरी बार देखा जयश्री का चेहरा आज भी आधीरात को डरावने सपने बनकर जगा देता है । आज भी वही अंधेरी गलीमें से जब गुजरता हूँ तो एक नुकीली ठोकर जरूर लगती है । मेरी पत्नीदिशा को अन्याय न कर बैठूँ इस लिए जयश्री को हमेशा के लिए दिलके किसी कोने में भी आने से रोकने में मुझे कैसा दर्द हुआ करताहोगा ? ये सब शरदचाचा को कैसे बता सकता हूँ ? बस, एक हीरास्ता है, ़ ़ प्रतिशोध, ़ ़ बदला, ़ ़ ़ बदला, सिर्फ बदला । बसएक ही रास्ता है ।
़ ़ अब तो शरदचाचा रात को मेरे घर आये तब तक राहदेखने का मुझसे नहीं बन पडेगा । अभी का अभी, इसी वक्त मैं खुदही उनके घर जाऊँगा । अभी तो शाम ढल रही थी कि मैं शरदचाचा केघर जा पहूँचा । चाचा घर पर ही थे, उन्होंने मुझे बिठाया । दिव्या भीघर में ही थी । मुझे देख उसकी आँखों में डर छा गया, उसका डरमुझसे छिप ना सका । दिव्या के पैर लगातार काँप रहे थे । उसकीघबराहट देखकर मुझे अनोखा आनंद होने लगा, सोचा कुछ देर यूं हीवक्त बिताऊँ और दिव्या की हडबडाहट भरी व्याकुलता का जी भरकेलुत्फ ऊठाऊँ । मैं चाचा के साथ कुछ बातें बनाने लगा ।
मुझे वाकई तरस आ रहा था । ये आदमी ़ ़ , जिसनेकभी मेरे पर जानलेवा वार किया था; थोडी ही देर बाद मैं भी उस परजानलेवा वार करुंगा तब ़ ़ तब उसका क्या अंजाम होगा ? कैसातडप रहा होगा मेरी आँखो के सामने ? यही सच्चा प्रतिशोध होगा ।
इस बीच दिव्या मुझे पानी और बाद में कोफी दे गई ।जाने–अनजाने वो मेरे सामने हाथ जोडकर खडी रह जाती हो एसालगा । मानो वो गिडगिडाती थी शायद । उसकी आँखों में रचाबिनती का आर्द्रभाव मुझे परेशान करने लगा । उसके चेहरे पर छायाखौफनाक भय मुझे भी डराने लगा । बीस साल पहले की कहानीमानो दोहराई जा रही हो ऐसा लगा ।क्या करूँ ? क्या करूँ ? भीतर फिर एक बार वही न् ऊठखडा हुआ । तरस आ गया दिव्या पर, ़ ़ और जलन होने लगीशरदचाचा की । बीस साल पहले भी मैं ही हारा था और आज भी मैंही हारनेवाला हूँ । आज फिर एक बार शरदचाचा की जीत होगी ?जल्दी से कोफी पी कर मैं खडा हुआ । बाहर निकलतेसमय किचन की खिडकी की ओर मुडकर मैंने देखा, –अनायास आनपडे इस खुशहाल पल से हो रहे दिव्या के गुलाबी चेहरे में मुझेअर्धपागल अधजला जयश्री का मृतःप्राय चेहरा नजर आया ।