की मेन Ajay Oza द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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की–मेन

लेखक :–

अजय ओझा


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'की–मेन'

सही मायने में यदि पूछा जाए तो धर्मा का बाप ही 'कीमेन'था । म्युनिसिपालिटी के रजिस्टर में उसके बाप का ही नाम दर्जहुआ है । लेकिन लंबे समय की बीमारी के कारण उसका बापमरणशैया पर पडा था और तब से धर्मा ही सारे काम सँभालता था ।

साइकिल पर बडी–सी वाल्वचाबी(की) लेकर सूर्योदय सेपहले ही धर्मा को निकल जाना होता है । वह काम का आरंभ नेचरलपार्क से करता । फिर रींग रोड, विवेकानंद पार्क, शिवाजी सोसायटीऔर देव कोलोनी विस्तार की पानी की लाइनें क्रमशः खोलना औरबंध करना होता है । जीगर कोलोनी, अक्षर पार्क एवं उसकी अपनीसोसायटी के विस्तार में पानी चालु करने का टाइम शाम का रखागया है ।

कईं सोसायटी के लोग धर्मा को अधिक से अधिक समयलाइन चालु रखने का आग्रह करते, ताकि उनके नल में ज्यादा देरपानी आये । सारे जान–पहचान वाले लोग धर्मा को वाल्व ज्यादा देरखुला रखने के लिए अपने निजी तरीकों से रिझाने की कोशिश करते ।कहते, 'धर्मेन्द्रभाई, कुछ देर रहने दो ना, अभी थोडा पानी भरनाबाकी है ।'–ऐसी बिनतियाँ धर्मा रोज सुनता । लोग पानी के प्यासेही होते है और कितना भी पानी मिले, प्यासे ही रहेंगे । धर्मा अच्छीतरह जानता कि लोगों की प्यास कभी खत्म होनेवाली नहीं है । फिरभी वह कभी किसी की बात को टालता नहीं । कभी किसी कोनिराश नहीं करता । सभी एरिया में धर्मा को सम्मान मिलता थाउसकी यही तो वजह थी ।

एक सामान्य 'की–मेन' होने के बावजूद भी इतना आदरमिलता देख उसकी नई–नवेली दुल्हन मन ही मन इतराती–इठलातीमन में खुश होती । समझदार धर्मा उसे अपनी वाल्वचाबी दिखाकर'की–मेन'कहेता, 'ज्यादा खुश मत हो, सारा मान इस 'की' को है । जिसदिन यह 'की' हाथ से गई, तो ये सारा रूतबा भी गया समझ ।' फिरदोनों हँस पडते ।

फिलहाल तो डरने की ऐसी कोई बात नहीं । विवेकानंदपार्क के कोर्नर पर रहते शाहसाहब धर्मा को रोज़ अपने घर बुलाते,बातें करते । समय होते वाल्व बंद करने जैसे ही धर्मा खडा होने जायेतभी आग्रहपूर्वक फिर शाहसाहब उसे बिठाते, 'अरे, ऐसे कैसे जाने दूँमैं आपको धर्मेन्द्रभाई, चाय बनाने को बोला है मैंने, अभी आती हीहोंगी । बैठिए, चाय पिये बिना मैं कभी जाने देता हूँ आपको भला ?'

बात में दम है, शाहसाहब हमेशा चाय पिलाते है, मगर वाल्व बंदकरने के समय ही, उससे पहले कभी नहीं ।शिवाजी सोसायटी में रहनेवाले भगवानभाई के घर उनकेबेटे की शादी थी तब धर्मा को बुलाकर उन्होंने सौ रूपए का नोटथमाया, 'बेटे की शादी है धर्मेन्द्रभाई, शुभ प्रसंगो में मेहमानों कीभरमार रहती ही है । ऐसे वक्त पानी के बिना तो कैसे चलेगाधर्मेन्द्रभाई ? दो–तीन दिनों की ही तो बात है भैया, जरा सँभाललेना, हाँ ।' तनख्वाह के अतिरिक्त पाँच–सातसौ रूपए तो धर्मा ऐसेही कमा लेता होगा ।

देव कोलोनी की लाइन चालु करके धर्मा जीतु की पानकी दूकान पर बैठता । 'आइए धर्मेन्द्रभाई, आइए ।' कहते धर्मा कोदेखते ही जीतु भावुक हो उठता । पान की दूकान पर उसे बिठाकरजीतु दूकान के पिछवाडे अपने घर में पानी भरने जाता । बाद में आकरकहता, 'धर्मेन्द्रभाई, जरा दूकान का खयाल रखियेगा, मैं दूध केकेन लेकर अभी आता हूँ । और हाँ, आपके लिए सिगरेट वहाँ रखा है,मजे से ऐश करो, मैं अभी आया ।' जीतु साइकिल लेकर चल पडता ।

करीब घण्टे–पौने घण्टे के बाद वह वापस आता । इस दौरान धर्मा नेपाँच–सात सिगरेट भी खत्म कर दिये होते । जीतु का यह रोज काक्रम रहा है । हफ्ते में एक दिन पानी बंद रहता । ऐसे में जब कभीधर्मा न आया हो तो जीतु प्यार से कहता, 'धर्मेन्द्रभाई, कल आप क्युंनहीं आये ?'

'क्यों आऊँ ? कल तो तेरी इस देव कोलोनी में पानी बंदका दिन था ।' जीतु व्याकुल होकर बोलता, 'मैंने आपको कई बारकहा है कि 'बंद' के दिन भी आपको मेरी दूकान पर आना ही होगाऔर मेरे सिगरेट पीना ही होगा । भले आदमी, अगर आप आकर बैठोतो मेरे भी दो–चार काम बनते है न ।' जीतु का प्यार देखकर मन हीमन धर्मा खुश हो जाता ।

मगर जरूरी नहीं कि सिर्फ अच्छे ही अनुभव हो । हमेशाऐसा होता भी नहीं । कई बार कोई विस्तार में पानी सप्लाय करने मेंकुछ देर हो जाये तो वहाँ के लोग हंगामा खडा कर देते । कोईराजकीय पहचानवाला आदमी हो तो पन्द्रह–बीस लोगो को लेकरम्युनिसिपालिटी तक पहूँचकर कंम्प्लेन करने । अधिकारी लोग कीडाँट सुनने की नौबत आने में देर नहीं लगती, 'देखो धरमा, तेरे बापके हालात देखकर तरस आता है । तुझे कोई फिकर है कि नहीं ? बुढाजिंदा है तो तेरी नौकरी है । वरना कबसे निकाल दिये गये होते ।

अच्छी तरह काम कर, तेरे फायदे में रहेगा ।'तो कोई धर्मा के बारे में ऐसा भी कहता, 'ये कलमुँहाठीक से वाल्व ही नहीं खोलता । 'की' घुमाना इसे आता ही नहीं ।अब तो इसका बाप मरे तो दूसरा 'की–मेन' आये और हमारा कल्याणकरे, यही एक रास्ता है ।'

इसी 'की–मेन' को 'ही–मेन' के रूप में देखती मफतनगरकी चंपा ने भी धर्मा को परेशान करने में कोई कमी नहीं छोडी थी ।म्युनिसिपालिटी के नलस्टेन्ड से मटका लेकर दौडती हुई धर्मा कीसाइकिल के आडे वह अपने आपको खडा कर देती और अपने अनोखेअंदाज़ में बोलती, 'ऐ धरमेन्दर्‌र्‌र्‌ ़ ़ , जरा हमारे तरफ की लाइन भीचालु कर दे न ? कितनी देर है ? कबकी स्टेन्ड पर मटका लेकर खडीहूँ ।' हिरनी–सी चंपा से अपनी साइकिल को बचाकर निकलते हुएधर्मा कोई बार जवाब भी दे देता, 'तेरे मफतनगर की लाइन मेरेविस्तार में नहीं आती । ये अपने समय पर चालु होगी ।' धर्मा के जानेके बाद भी चंपा की आवाज़ बंद नहीं होती । धर्मा सारी बातें दूसरेकान से निकाल देता, चंपा को आगे बढने का मौका तक नहीं देता ।दिल का सीधा–सादा इन्सान धर्मा घर आकर फिर सारी बातें अपनीबीवी को बताता । उसकी बीवी उसे कहती, 'आपको मफतनगर में सेगुजरना ही नहीं चाहिए । जीतुभाई की दूकान वाले रास्ते ही आना ।इससे आप अपने दोस्त से भी मिल सकते है ।'

एक दिन धर्मा की बीवी को बुखार लगा । एक ओर बापकी बीमारी और दूसरी ओर पत्नी को तेज़ बुखार । धर्मा बहोत बेचैनहो उठा । दो दिनों तक वह नौकरी पर भी न जा सका । उसनेपासवाले किसी दूसरे 'की–मेन' को अपना काम करने मना लिया ।

तीसरे दिन उसकी बीवी ने कहा, 'आज मेरी तबियत कुछ ठीक लगतीहै । आप काम पर जरूर जाना । मैं बाबूजी का भी खयाल रखूँगी ।अगर जरूरत पडी तो जीतुभाई की दूकान पर फोन करके आपको बुलालुंगी । आप वहीं बैठना ।'

'की' लेकर धर्मा चल पडा । उदास चेहरा देख जीतु नेपूछा, 'क्या हुआ धर्मेन्द्रभाई ? इतने दिन कहाँ थे ? और ये चेहरा क्युंउदास बना रखा है ?'

'कुछ नहीं, तेरी भाभी को तीन दिनसे जरा बुखार है ।तो दिल को चिंता खाये जा रही है । ला, सिगरेट जरा जल्दी से पिलादे । आज मेरे पास बैठने का वक्त नहीं ।' धर्मा दूकान के बाहर बैठतेहुए बोला । उसकी आवाज़ में बीवी की चिंता के कारण कुछ भारीपनलगता था ।

जीतु बोला, 'ऐसे नहीं जाने दूँगा मैं आपको । आप चिंताक्यों करते है ? सब ठीक हो जायेगा । मैं हूँ ना ? घबराना मत । मैंदूध के केन लेकर अभी आया । वैसे भी धर्मेन्द्रभाई, वाल्व बंद करनेमें अभी थोडा समय बाकी है । लो, मैं अपना पानी भरने का काम मेरेलडके को सौंप देता हूँ ।' दूकाने के पीछे खेल रहे एक लडके कोपुकारते हुए वह बोला, 'राजु, जरा पानी भर लेना, बेटा । मैं दूध लेनेजाता हूँ ।' फिर धर्मा की ओर घुमते बोला, 'अभी आता हूँ,धर्मेन्द्रभाई । इकलौते बच्चे को मैं कभी काम नही सौंपता, बिना माँका है न ।' कहते धर्मा को सिगरेट थमाकर जीतु चला गया । धर्मा नेचार–पाँच सिगरेट खत्म किये होंगे जब तक वो वापस आया ।

काम निपटाकर धर्मा जब घर पहूँचा तब अपनी बीवी कोकाफी स्वस्थ पाया । उसके दिल में ठण्डक पहूंची ।़ ़ इस ठंडक को कुछ दिन ठीक से अभी देखा ही था किएक दिन सुबह बाबूजी के पास खडी धर्मा की बीवी अचानकफूटफूटकर रोने लगी । सारे शहर में खबर फैल गई कि धर्मा का बापस्वर्ग सिधार गया । धर्मा दुःखी दुःखी हो गया ।

बाप की उत्तरक्रियाओं से निपटकर करीबन पन्द्रह दिनों केबाद धर्मा ने अपनी साइकिल पर से धूल हटाई और बाहर निकला ।

बाप के मरने से उसकी नौकरी भी जा चूकी थी । रास्ते में जोपहचानवाले मिले उन्होंने यथायोग्य प्रतिभाव दिए; किसी ने हाथउठाकर तो किसी ने मुस्कुराकर, तो कोई कोई तो धर्मा पर आये इसदुःख पर अपना शोक प्रकट करने भी रुके ।

विवेकानंद पार्क वाले शाह साहब कंम्पाउन्ड वोल परकोहनी टिकाकर हँसते हुए तिरछे अंदाज में बोले, 'क्युं धर्मा ?? अबकोई दूसरा काम–वाम ढूँढ लेना, हां । यूं ही इधर–उधर घूमना औरजीतु की दूकान पर मुफ्त में सिगरेट पीना ठीक बात नहीं है ।' कहकरअपनी कोहनी पर लगे कंम्पाउन्ड वोल के चुने को इस तरह झाडने लगेमानो अपने मन से धर्मा को झाड़ रहे हो ।

शायद पहली बार धर्मा इतना निराश हुआ था । सदमें केलिए वो शायद पहले से इतना तैयार नहीं था । सदमा उसके दिल मेंजाकर फैलने लगा । शिवाजी सोसायटी के भगवानभाई ने धर्मा केसामने देखा तक नहीं और शाह साहब ने आज चाय का पूछा नहीं ।

रोज बडे आदरभाव से उसकी ओर आशाओं भरी निगाहें लगाये रखतीपूरी देव कोलोनी में किसी ने आज धर्मा की उपस्थिति का न तोलिहाज किया और न तो जिक्र । वो अब 'की–मेन' नहीं था, पर'मेन' तो था ? उसके गले में दबाव, दिल में चुभन और आँखों के दारपर आंसू आ गये । उसे लगा कि वो अभी रो पडेगा । कडवे सच जैसीएक बात धर्मा की समझ में जरूर आ गई; लोगो को अब 'की–मेन' सेकोई लगाव नहीं था, फिर उसे भला कोई क्युं बुलाये ??

'आइए धर्मेन्द्रभाई, आइए । कितने दिन बाद आये ?'जीतु के स्वागत में कोई बदलाव नहीं था । उसके सम्मान में कोईकमी नहीं थी । धर्मा ने सोचा था कि अब तो जीतु भी क्या रिश्तानिभायेगा ? सब लोग जो उससे नाता तोड़ रहे है तो जीतु भी तोड़देगा । अब सिगरेट खरीदना पडेगा । बिना वजह दूकान पर कोई बैठनेभी नहीं देगा । लेकिन ऐसा न हुआ । जीतु ने उसे उसी तरह बुलायाजिस तरह वो पहले उसे प्यार से बुलाया करता था । पहले जैसा हीमान दिया और दूकान पर बिठाया । उसकी खैरियत पूछी । धर्मा केदिल में ठंडक छा गई ।

जीतु ने कहा, 'जी छोटा मत होने देना धर्मेन्द्रभाई, मैं हूँना ? हम कोई दूसरा काम ढूँढ लेंगे । तब तक आप मेरी दूकान काखयाल रखने रोज यहाँ आया करना, ठीक है ?' धर्मा को सिगरेटदेकर जीतु दूध लेने निकल गया । धर्मा ने सिगरेट जलाया ।

'ऐ धरमेन्दर्‌र्‌र्‌ ़ ़ ।' कहीं से आवाज आई । धर्मा नेदेखा चंपा खडी थी । वो बोला, 'अरी, तू यहाँ क्या लेने आई है?'सामने आकर अपने अनोखे अंदाज में चंपा बोली, 'ऐधरमेन्दर्‌र्‌र ़ ़ , तनिक अपनी 'हेमामालिनी' को समझा देना, मेरेरास्ते में ना आये, हां, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं, हां ़ ़ ।'

धर्मा की समझ में कुछ आया नहीं फिर भी आवाज मेंसख्ती लाकर वो भी बोला, 'क्युं ? क्या हुआ ?'

'ये जो तेरी 'हेमामालिनी' है ना, धरमेन्दर्‌र्‌र्‌, कुछ दिनपहले मुझसे पंगा लेने आई थी । उसे कहना, पहले खुद का पल्लुसाफ करे, बाद में दूसरों का देखें, क्या ? छिनाल मुझे गालियां देतीथी, मुझे । मेरा नाम चंपा है, चंपा । मफतनगर की चंपा हूँ ़ ़ , क्यारे ? समझा देना तेरी बीवी को ।'

'अबे जा जा, देखी बडी मफतनगर की ़ ़ ' धर्मा गुस्सेहुआ । उसकी समझ में कुछ कुछ ही आया था । उसे अपनी बीवी परभी गुस्सा आया, किस हरामजादी के मुँह लगी ।

'जाती हूँ । हां, वैसे मैं तो तूझे ये बताने आई थी कि तुझेअब भी इस तरफ की 'लाइन' चालु करनी है तो मैं इनकार नहींकरूंगी । हां, सुना तुमने मेरा इनकार नहीं, ऐ धरमेन्दर्‌र्‌र्‌ ़ ़ ।'

'अबे तू जाती है या मैं इस 'की' से यहीं तेरा फैसला करदूँ ?' धर्मा का गुस्सा अब तीव्र बनता जा रहा था । स्थिति को भाँपगई चंपा भी अपने रास्ते चल पडी ।

'की ़ ़ ?' धर्मा को 'की' याद आई । साथ ही ये भी यादआया कि आज म्युनिसिपालिटी में 'की' वापस जमा करनी है । घडीमें देखा कि ओफिस बंद होने में बहोत कम समय रह गया है । जीतुअभी आया नहीं था । जीतु के लडके को दूकान सौंपकर जलदी सेधर्मा 'की' लेने घर की ओर साइकिल दौडाने लगा ।

साइकिल पर धर्मा सोचता था कि 'की' वापस करतेवक्त बडे साहब को कहूँगा कि मुझे मेरे बाबुजी की जगह नौकरी देनेकी महेरबानी करें । ईश्वर ने चाहा तो साहब ना नहीं कहेंगे । यदिऐसा हुआ तो ़ ़ तो मैं भी खुश और मेरी 'हेमामालिनी' भी खुश ।

असल में तो अब तक मैं 'की–मेन' था ही नहीं, महज एक 'की' बनादिया था लोगो ने मुझे । सही मायने में तो भगवानभाई या शाह साहबया तो जीतु ही 'की–मेन' हुआ करते थे । ़ ़ लेकिन, ़ ़ लेकिन अबऐसा नहीं होगा । बडे साहब यदि मुझे 'की–मेन' बना देते है फिरदेखना मैं क्या करता हूँ । फिर तो ना कभी किसी शाह साहब कीचाय पिऊँगा और ना ही किसी भगवानभाई के कभी रूपए लूँगा । वें भीदेखेंगे, एक असली 'की–मेन' का रूतबा क्या होता है ।? ़ ़ वैसेदेखा जाए तो कैसा रहेगा यदि मफतनगर की 'लाइन' भी चालु कर हीदूँ ़ ़ ?'

विचारों की मुस्कानो में घर आ गया । धर्मा साइकिल कास्टेन्ड टिकाता ही था तभी उसके घरके दरवाजे से पसीना पोछता हुआजीतु बाहर निकला ।

धर्मा स्वतः कुछ इस तरह जमीं पर खडा रह गया मानो वोखुद ही एक 'की' बन गया हो ़ ़ ।