कातिल Munshi Premchand द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कातिल

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मुंशी प्रेमचंद


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जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

कातिल

जाड़ों की रात थी। दस बजे ही सड़कें बन्द हो गयी थीं और गालियों में सन्नाटा था। बूढ़ी बेवा मां ने अपने नौजवान बेटे धर्मवीर के सामने थाली परोसते हुए कहा—तुम इतनी रात तक कहां रहते हो बेटा? रखे—रखे खाना ठंडा हो जाता है। चारों तरफ सोता पड़ गया। आग भी तो इतनी नहीं रहती कि इतनी रात तक बैठी तापती रहूँ।

धर्मवीर हृष्ट—पुष्ट, सुन्दर नवयुवक था। थाली खींचता हुआ बोला—अभी तो दस भी नहीं बजे अम्मॉँ। यहां के मुर्दादिल आदमी सरे—शाम ही सो जाएं तो कोई क्या करे। योरोप में लोग बारह—एक बजे तक सैर—सपाटे करते रहते हैं। जिन्दगी के मजे उठाना कोई उनसे सीख ले। एक बजे से पहले तो कोई सोता ही नहीं।

मां ने पूछा—तो आठ—दस बजे सोकर उठते भी होंगे।

धर्मवीर ने पहलू बचाकर कहा—नहीं, वह छरू बजे ही उठ बैठते हैं। हम लोग बहुत सोने के आदी हैं। दस से छरू बजे तक, आठ घण्टे होते हैं। चौबीस में आठ घण्टे आदमी सोये तो काम क्या करेगा? यह बिलकुल गलत है कि आदमी को आठ घण्टे सोना चाहिए। इन्सान जितना कम सोये, उतना ही अच्छा। हमारी सभा ने अपने नियमों में दाखिल कर लिया है कि मेम्बरों को तीन घण्टे से ज्यादा न सोना चाहिए।

मां इस सभा का जिक्र सुनते—सुनते तंग आ गयी थी। यह न खाओ, वह न खाओ, यह न पहनो, वह न पहनो, न ब्याह करो, न शादी करो, न नौकरी करो, न चाकरी करो, यह सभा क्या लोगों को संन्यासी बनाकर छोड़ेगी? इतना त्याग तो संन्यासी ही कर सकता है। त्यागी संन्यासी भी तो नहीं मिलते। उनमें भी ज्यादातर इन्द्रियों के गुलाम, नाम के त्यागी हैं। आज सोने की भी कैद लगा दी। अभी तीन महीने का घूमना खत्म हुआ। जाने कहां—कहां मारे फिरते हैं। अब बारह बजे खाइए। या कौन जाने रात को खाना ही उड़ा दें। आपत्ति के स्वर में बोली—तभी तो यह सूरत निकल आयी है कि चाहो तो एक—एक हड्डी गिन लो। आखि़र सभावाले कोई काम भी करते हैं या सिर्फ़ आदमियों पर कैदें ही लगाया करते हैं?

धर्मवीर बोला—जो काम तुम करती हो वहीं हम करते हैं। तुम्हारा उद्देश्य राष्ट़ की सेवा करना है, हमारा उद्देश्य भी राष्ट़ की सेवा करना है।

बूढ़ी विधवा आजादी की लड़ाई में दिलो—जान से शरीक थी। दस साल पहले उसके पति ने एक राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध में सजा पाई थी। जेल में उसका स्वास्थ्य बिगड़ गंया और जेल ही में उसका स्वर्गवास हो गया। तब से यह विधवा बड़ी सच्चाई और लगन से राष्ट़ की सेवा सेवा में लगी हुई थी। शुरू में उसका नौजवान बेटा भी स्वयं सेवकों में शमिल हो गया था। मगर इधर पांच महीनों से वह इस नयी सभा में शरीक हो गया और उसको जोशीले कार्यकर्ताओं मे समझा जाता था।

मां ने संदेह के स्वर में पूछा—तो तुम्हारी सभा का कोई दफ्तर हैं?

‘हां है।'

‘उसमें कितने मेम्बर हैं?'

‘अभी तो सिर्फ़ पचास मेम्बर हैं? वह पचीस आदमी जो कुछ कर सकते हैं, वह तुम्हारे पचीस हजार भी नहीं कर सकते। देखो अम्मां, किसी से कहना मत वर्ना सबसे पहले मेरी जान पर आफत आयेगी। मुझे उम्मीद नहीं कि पिकेटिंग और जुलूसों से हमें आजादी हासिल हो सके। यह तो अपनी कमजोरी और बेबसी का साफ एलान हैं। झंडियां निकालकर और गीत गाकर कौमें नहीं आजाद हुआ करतीं। यहां के लोग अपनी अकल से काम नहीं लेते। एक आदमी ने कहा—यों स्वराज्य मिल जाएगा। बस, आंखें बन्द करके उसके पीछे हो लिए। वह आदमी गुमराह है और दूसरों को भी गुमराह कर रहा है। यह लोग दिल में इस ख्याल से खुश हो लें कि हम आजादी के करीब आते जाते हैं। मगर मुझे तो काम करने का यह ढंग बिल्कुल खेल—सा मालूम होता है। लड़कों के रोने—धोने और मचलने पर खिलौने और मिठाइयां मिला करती है—वही इन लोगों को मिल जाएगा। असली चीज तो तभी मिलेगी, जब हम उसकी कीमत देने को तैयार होंगे।

मां ने कहा—उसकी कीमत क्या हम नहीं दे रहे हैं? हमारे लाखों आदमी

जेल नहीं गये? हमने डंडे नहीं खाये? हमने अपनी जायदादें नहीं जब्त करायीं?

धर्मवीर—इससे अंग्रेजों को क्या—क्या नुकसान हुआ? वे हिन्दुस्तान उसी वक्त छोड़ेगे, जब उन्हें यकीन हो जाएगा कि अब वे एक पल—भर भी नहीं रह सकते। अगर आज हिन्दोस्तान के एक हजार अंग्रेज कत्ल कर दिए जाएं तो आज ही स्वराज्य मिल जाए। रूस इसी तरह आजाद हुआ, आयरलैण्ड भी इसी तरह आजाद हुआ, हिन्दोस्तान भी इसी तरह आजाद होगा और कोई तरीका नहीं। हमें उनका खात्मा कर देना है। एक गोरे अफसर के कत्ल कर देने से हुकूमत पर जितना डर छा जाता है, उतना एक हजार जुलूसों से मुमकिन नहीं।

मां सर से पांव तक कापं उठी। उसे विधवा हुए दस साल हो गए थे। यही लड़का उसकी जिंदगी का सहारा है। इसी को सीने से लगाए मेहनत—मजदूरी करके अपने मुसीबत के दिन काट रही है। वह इस खयाल से खुश थी कि यह चार पैसे कमायेगा, घर में बहू आएगी, एक टुकड़ा खाऊँगी, और पड़ी रहूँगी। आरजुओं के पतले—पतले तिनकों से उसने ऐ किश्ती बनाई थी। उसी पर बैठकर जिन्दगी के दरिया को पार कर रही थी। वह किश्ती अब उसे लहरों में झकोले खाती हुई मालूम हुई। उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह किश्ती दरिया में डूबी जा रही है। उसने अपने सीने पर हाथ रखकर कहा—बेटा, तुम कैसी बातें कर रहे हो। क्या तुम समझते हो, अंग्रेजों को कत्ल कर देने से हम आजाद हो जायेंगे? हम अंग्रेजों के दुश्मन नहीं। हम इस राज्य प्रणाली के दुश्मन हैं। अगर यह राज्य—प्रणाली हमारे भाई—बन्दों के ही हाथों में हो—और उसका बहुत बड़ा हिस्सा है भी—तो हम उसका भी इसी तरह विरोध करेंगे। विदेश में तो कोई दूसरी कौम राज न करती थी, फिर भी रूस वालों ने उस हुकूमत का उखाड़ फेंका तो उसका कारण यही था कि जार प्रजा की परवाह न करता था। अमीर लोग मजे उड़ाते थे, गरीबों को पीसा जाता था। यह बातें तुम मुझसे ज्यादा जानते हो। वही हाल हमारा है। देश की सम्पत्ति किसी न किसी बहाने निकलती चली जाती है और हम गरीब होते जाते हैं। हम इस अवैधानिक शासन को बदलना चाहते हैं। मैं तुम्हारे पैरों में पड़ती हूँ, इस सभा से अपना नाम कटवा लो। खामखाह आग में न कूदो। मै अपनी आंखों से यह दृश्य नहीं देखना चाहती कि तुम अदालत में खून के जुर्म में लाए जाओ।

धर्मवीर पर इस विनती का कोई असर नहीं हुआ। बोला—इसका कोई डर नहीं। हमने इसके बारे में काफी एहतियात कर ली है। गिरफ्तार होना तो बेवकूफी है। हम लोग ऐसी हिकमत से काम करना चाहते हैं कि कोई गिरफ्तार न हो।

मां के चेहरे पर अब डर की जगह शमिर्ंन्दगी की झलक नजर आयी। बोली—यह तो उससे भी बुरा है। बेगुनाह सजा पायें और कातिल चौन से बैठे रहें! यह शर्मनाक हरकत है। मैं इसे कमीनापन समझती हूँ। किसी को छिपकर कत्ल करना दगाबाजी है, मगर अपने बदले बेगुनाह भाइयों को फंसा देना देशद्रोह है। इन बेगुनाहों का खून भी कातिल की गर्दन पर होगा।

धर्मवीर ने अपनी मां की परेशानी का मजा लेते हुए कहा—अम्मां, तुम इन बातों को नहीं समझती। तुम अपने धरने दिए जाओ, जुलूस निकाले जाओ। हम जो कुछ करते हैं, हमें करने दो। गुनाह और सवाब, पाप और पुण्य, धर्म और अर्धम, यह निरर्थक शब्द है। जिस काम का तुम सापेक्ष समझती हो, उसे मैं पुण्य समझता हूँ। तुम्हें कैसे समझाऊँ कि यह सापेक्ष शब्द हैं। तुमने भगवदगीता तो पढ़ी है। कृष्ण भगवान ने साफ कहा है—मारने वाला मै हूँ, जिलाने वाला मैं हूँ, आदमी न किसी को मार सकता है, न जिला सकता है। फिर कहां रहा तुम्हारा पाप? मुझे इस बात की क्यों शर्म हो कि मेरे बदले कोई दूसरा मुजरिम करार दिया गया। यह व्यक्तिगत लड़ाई नहीं, इंग्लैण्ड की सामूहिक शक्ति से युद्ध है। मैं मरूं या मेरे बदले कोई दूसरा मरे, इसमें कोई अन्तर नहीं। जो आदमी राष्ट़ की ज्यादा सेवा कर सकता है, उसे जीवित रहने का ज्यादा अधिकार है।

मां आश्चर्य से लड़के का मुहं देखने लगी। उससे बहस करना बेकार था। अपनी दलीलों से वह उसे कायल न कर सकती थी। धर्मवीर खाना खाकर उठ गया। मगर वह ऐसी बैठी रही कि जैसे लकवा मार गया हो। उसने सोचा—कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी का कत्ल कर आया हो। या कत्ल करने जा रहा हो। इस विचार से उसके शरीर के कंपकंपी आ गयी। आम लोगों की तरह हत्या और खून के प्रति घृणा उसके शरीर के कण—कण में भरी हुई थी। उसका अपना बेटा खून करे, इससे ज्यादा लज्जा, अपमान, घृणा की बात उसके लिए और क्या हो सकती थी। वह राष्ट़ सेवा की उस कसौटी पर जान देती थी जो त्याग, सदाचार, सच्चाई और साफदिली का वरदान है। उसकी आंखों मे राष्ट़ का सेवक वह था जो नीच से नीच प्राणी का दिल भी न दुखाये, बल्कि जरूरत पड़ने पर खुशी से अपने को बलिदान कर दे। अहिंसा उसकी नैतिक भावनाओं का सबसे प्रधान अंग थी। अगर धर्मवीर किसी गरीब की हिमायत में गोली का निशाना बन जाता तो वह रोती जरूर मगर गर्दन उठाकर। उसे गहरा शोक होता, शायद इस शोक में उसकी जान भी चली जाती। मगर इस शोक में गर्व मिला हुआ होता। लेकिन वह किसी का खून कर आये यह एक भयानक पाप था, कलंक था। लड़के को रोके कैसे, यही सवाल उसके सामने था। वह यह नौबत हरगिज न आने देगी कि उसका बेटा खून के जुर्म में पकड़ा न जाये। उसे यह बरदाश्त था कि उसके जुर्म की सजा बेगुनाहों को मिले। उसे ताज्जुब हो रहा था, लड़के मे यह पागलपन आया क्योंकर? वह खाना खाने बैठी मगर कौर गले से नीचे न जा सका। कोई जालिम हाथ धर्मवीर को उनकी गोद से छीन लेता है। वह उस हाथ को हटा देना चाहती थी। अपने जिगर के टुकड़े को वह एक क्षण के लिए भी अलग न करेगी। छाया की तरह उसके पीछे—पीछे रहेगी। किसकी मजाल है जो उस लड़के को उसकी गोद से छीने!

धर्मवीर बाहर के कमरे में सोया करता था। उसे ऐसा लगा कि कहीं वह न चला गया हो। फौरन उसके कमरे में आयी। धर्मवीर के सामने दीवट पर दिया जल रहा था। वह एक किताब खोले पढ़ता—पढ़ता सो गया था। किताब उसके सीने पर पड़ी थी। मां ने वहीं बैठकर अनाथ की तरह बड़ी सच्चाई और विनय के साथ परमात्मा से प्रार्थना की कि लड़के का हृदय—परिवर्तन कर दे। उसके चेहरे पर अब भी वहीं भोलापन, वही मासूमियत थी जो पन्द्रह—बीस साल पहले नजर आती थी। कर्कशता या कठोरता का कोई चिहृन न था। मां की सिद्धांतपरता एक क्षण के लिए ममता के आंचल में छिप गई। मां ने हृदय से बेटे की हार्दिक भावनाओं को देखा। इस नौजवान के दिल में सेवा की कितनी उंमग है, कोम का कितना दर्द हैं, पीडि़तों से कितनी सहानुभूति हैं अगर इसमे बूढ़ों की—सी सूझ—बूझ, धीमी चाल और धैर्य है तो इसका क्या कारण है। जो व्यक्ति प्राण जैसी प्रिय वस्तु को बलिदान करने के लिए तत्पर हो, उसकी तड़प और जलन का कौन अन्दाजा कर सकता है। काश यह जोश, यह दर्द हिंसा के पंजे से निकल सकता तो जागरण की प्रगति कितनी तेज हो जाती!

मां की आहट पाकर धर्मवीर चौंक पड़ा और किताब संभालता हुआ बोला—तुम कब आ गयीं अम्मां? मुझे तो जाने कब नींद आ गयी।

मॉँ ने दीवट को दूर हटाकर कहा—चारपाई के पास दिया रखकर न सोया करो। इससे कभी—कभी दुर्घटनाएं हो जाया करती हैं। और क्या सारी रात पढ़ते ही रहोगे? आधी रात तो हुई, आराम से सो जाओ। मैं भी यहीं लेटी जाती हूँ। मुझे अन्दर न जाने क्यों डर लगता है।

धर्मवीर—तो मैं एक चारपाई लाकर डाले देता हूँ।

‘नहीं, मैं यहीं जमीन पर लेट जाती हूँ।'

‘वाह, मैं चारपाई पर लेटूँ और तू जमीन पर पड़ी रहो। तुम चारपाई पर आ जाओ।'

‘चल, मैं चारपाई पर लेटूं और तू जमीन पर पड़ा रहे यह तो नहीं हो सकता।'

‘मैं चारपाई लिये आता हूँ। नहीं तो मैं भी अन्दर ही लेटता हूँ। आज आप डरीं क्यों?'

‘तुम्हारी बातों ने डरा दिया। तू मुझे भी क्यों अपनी सभा में नहीं सरीक कर लेता?'

धर्मवीर ने कोई जवाब नहीं दिया। बिस्तर और चारपाई उठाकर अन्दर वाले कमरे में चला। मॉँ आगे—आगे चिराग दिखाती हुई चली। कमरे में चारपाई डालकर उस पर लेटता हुआ बोला—अगर मेरी सभा में शरीक हो जाओ तो क्या पूछना। बेचारे कच्ची—कच्ची रोटियां खाकर बीमार हो रहे हैं। उन्हें अच्छा खाना मिलने लगेगा। फिर ऐसी कितनी ही बातें हैं जिन्हें एक बूढ़ी स्त्री जितनी आसानी से कर सकती है, नौजवान हरगिज नहीं कर सकते। मसलन, किसी मामले का सुराग लगाना, औरतों में हमारे विचारों का प्रचार करना। मगर तुम दिल्लगी कर रही हो!

मां ने गभ्भीरता से कहा—नहीं बेटा दिल्लगी नहीं कर रही। दिल से कह रही हूँ। मां का दिल कितना नाजुक होता है, इसका अन्दाजा तुम नहीं कर सकते। तुम्हें इतने बड़े खतरे में अकेला छोड़कर मैं घर नहीं बैठ सकती। जब तक मुझे कुछ नहीं मालूम था, दूसरी बात थी। लेकिन अब यह बातें जान लेने के बाद मैं तुमसे अलग नहीं रह सकती। मैं हमेशा तुम्हारे बगल में रहूँगी और अगर कोई ऐसा मौका आया तो तुमसे पहले मैं अपने को कुर्बान करूँगी। मरते वक्त तुम मेरे सामने होगे। मेरे लिए यही सबसे बड़ी खुशी है। यह मत समझो कि मैं नाजुक मौकों पर डर जाऊंगी, चीखूंगी, चिल्लाऊंगी, हरगिज नहीं। सख्त से सख्त खतरों के सामने भी तुम मेरी जबान से एक चीख न सुनोगे। अपने बच्चे की हिफाजत के लिए गाय भी शेरनी बन जाती है।

धर्मवीर ने भक्ति से विहृल होकर मां के पैरों को चूम लिया। उसकी दृष्टि में वह कभी इतने आदर और स्नेह के योग्य न थी।

दूसरे ही दिन परीक्षा का अवसर उपस्थित हुआ। यह दो दिन बुढि़या ने रिवाल्वर चलाने के अभ्यास में खर्च किये। पटाखे की आवाज पर कानों पर हाथ रखने वाली, अहिंसा और धर्म की देवी, इतने साहस से रिवाल्वर चलाती थी और उसका निशाना इतना अचूक होता था कि सभा के नौजवानों को भी हैरत होती थी।

पुलिस के सबसे बड़े अफसर के नाम मौत का परवाना निकला और यह काम धर्मवीर के सुपुर्द हुआ।

दोनों घर पहुँचे तो मां ने पूछा—क्यों बेटा, इस अफसर ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया फिर सभा ने क्यों उसको चुना?

धर्मवीर मां की सरलता पर मुस्कराकर बोला—तुम समझती हो हमारी कांस्टेबिल और सब—इंस्पेक्टर और सुपरिण्टेण्डैण्ट जो कुछ करते हैं, अपनी खुशी से करते हैं? वे लोग जितने अत्याचार करते हैं, उनके यही आदमी जिम्मेदार हैं। और फिर हमारे लिए तो इतना ही काफी है कि वह उस मशीन का एक खास पुर्जा है जो हमारे राष्ट्र को चरम निर्दयता से बर्बाद कर रही है। लड़ाई में व्यक्तिगत बातों से कोई प्रयोजन नहीं, वहां तो विरोध पक्ष का सदस्य होना ही सबसे बड़ा अपराध है।

मां चुप हो गयी। क्षण—भर बाद डरते—डरते बोली—बेटा, मैंने तुमसे कभी कुछ नहीं मांगा। अब एक सवाल करती हूँ, उसे पूरा करोगे?

धर्मवीर ने कहा—यह पूछने की कोई जरूरत नहीं अम्मा, तुम जानती हो मैं तुम्हारे किसी हुक्म से इन्कार नहीं कर सकता।

मां—हां बेटा, यह जानती हूँ। इसी वजह से मुझे यह सवाल करने की हिम्मत हुई। तुम इस सभा से अलग हो जाओ। देखो, तुम्हारी बूढ़ी मां हाथ जोड़कर तुमसे यह भीख मांग रही है।

और वह हाथ जोड़कर भिखारिन की तरह बेटे के सामने खड़ी हो गयी। धर्मवीर ने कहकहा मारकर कहा—यह तो तुमने बेढब सवाल किया, अम्मां। तुम जानती हो इसका नतीजा क्या होगा? जिन्दा लौटकर न आऊँगा। अगर यहां से कहीं भाग जाऊं तो भी जान नहीं बच सकती। सभा के सब मेम्बर ही मेरे खून के प्यासे हो जायेंगे और मुझे उनकी गोलियों का निशाना बनना पड़ेगा। तुमने मुझे यह जीवन दिया है, इसे तुम्हारे चरणों पर अर्पित कर सकता हूँ। लेकिन भारतमाता ने तुम्हें और मुझे दोनों ही को जीवन दिया है और उसका हक सबसे बड़ा है। अगर कोई ऐसा मौका हाथ आ जाय कि मुझे भारतमाता की सेवा के लिए तुम्हें कत्ल करना पड़े तो मैं इस अप्रिय कर्त्‌तव्य से भी मुहं न मोड़ सकूंगा। आंखों से आंसू जारी होंगे, लेकिन तलवार तुम्हारी गर्दन पर होगी। हमारे धर्म में राष्ट्र की तुलना में कोई दूसरी चीज नहीं ठहर सकती। इसलिए सभा को छोड़ने का तो सवाल ही नहीं है। हां, तुम्हें डर लगता हो तो मेरे साथ न जाओ। मैं कोई बहाना कर दूंगा और किसी दूसरे कामरेड को साथ ले लूंगा। अगर तुम्हारे दिल में कमजोरी हो, तो फौरन बतला दो।

मां ने कलेजा मजबूत करके कहा—मैंने तुम्हारे ख्याल से कहा था भइया, वर्ना मुझे क्या डर।

अंधेरी रात के पदेर्ं में इस काम को पूरा करने का फैसला किया गया था। कोप का पात्र रात को क्लब से जिस वक्त लौटे वहीं उसकी जिन्दगी का चिराग बुझा दिया जाय। धर्मवीर ने दोपहर ही को इस मौके का मुआइना कर लिया और उस खास जगह को चुन लिया जहां से निशाना मारेगा। साहब के बंगले के पास करील और करौंदे की एक छोटी—सी झाड़ी थी। वही उसकी छिपने की जगह होगी। झाड़ी के बायीं तरफ नीची जमीन थी। उसमें बेर और अमरूद के बाग थे। भाग निकलने का अच्छा मौका था।

साहब के क्लब जाने का वक्त सात और आठ बजे के बीच था, लौटने का वक्त ग्यारह बजे था। इन दोनों वक्तों की बात पक्की तरह मालूम कर ली गयी थी। धर्मवीर ने तय किया कि नौ बजे चलकर उसी करौंदेवाली झाड़ी में छिपकर बैठ जाय। वहीं एक मोड़ भी था। मोड़ पर मोटर की चाल कुछ धीमी पड़ जायेगी। ठीक इसी वक्त उसे रिवाल्वर का निशाना बना लिया जाय।

ज्यों—ज्यों दिन गुजरता जाता था, बूढ़ी मां का दिल भय से सूखता जाता था। लेकिन धर्मवीर के दैनंदिन आचरण में तनिक भी अन्तर न था। वह नियत समय पर उठा, नाश्ता किया, सन्ध्या की और अन्य दिनों की तरह कुछ देर पढ़ता रहा। दो—चार मित्र आ गये। उनके साथ दो—तीन बाजि़यां शतरंज की खेलीं। इत्मीनान से खाना खाया और अन्य्‌ दिनों से कुछ अधिक। फिर आराम से सो गया, कि जैसे उसे कोई चिन्ता नहीं है। मां का दिल उचाट था। खाने—पीने का तो जिक्र ही क्या, वह मन मारकर एक जगह बैठ भी न सकती थी। पड़ोस की औरतें हमेशा की तरह आयीं। वह किसी से कुछ न बोली। बदहवास—सी इधर—उधर दौड़ती फिरती थीं कि जैसे चुहिया बिल्ली के डर से सुराख ढूंढ़ती हो। कोई पहाड़—सा उसके सिर पर गिरता था। उसे कहीं मुक्ति नहीं। कहीं भाग जाय, ऐसी जगह नहीं। वे घिसे—पिटे दार्शनिक विचार जिनसे अब तक उसे सान्तवना मिलती थी—भाग्य, पुनर्जन्म, भगवान की मर्जी—वे सब इस भयानक विपत्ति के सामने व्यर्थ जान पड़ते थे। जिरहबख्तर और लोहे की टोपी तीर—तुपक से रक्षा कर सकते हैं लेकिन पहाड़ तो उसे उन सब चीजों के साथ कुचल डालेगा। उसके दिलो—दिमाग बेकार होते जाते थे। अगर कोई भाव शेष था, तो वह भय था। मगर शाम होते—होते उसके हृदय पर एक शन्ति—सी छा गयी। उसके अन्दर एक ताकत पैदा हुई जिसे मजबूरी की ताकत कह सकते हैं। चिडिया उस वक्त तक फड़फड़ाती रही, जब तक उड़ निकलने की उम्मीद थी। उसके बाद वह बहेलिये के पंजे और कसाई के छुरे के लिए तैयार हो गयी। भय की चरम सीमा साहस है।

उसने धर्मवीर को पुकारा—बेटा, कुछ आकर खा लो।

धर्मवीर अन्दर आया। आज दिन—भर मां—बेटे में एक बात भी न हुई थी। इस वक्त मां ने धर्मवीर को देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह संयम जिससे आज उसने दिन—भर अपने भीतर की बेचौनी को छिपा रखा था, जो अब तक उड़े—उड़े से दिमाग की शकल में दिखायी दे रही थी, खतरे के पास आ जाने पर पिघल गया था—जैसे कोई बच्चा भालू को दूर से देखकर तो खुशी से तालियां बजाये लेकिन उसके पास आने पर चीख उठे।

दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा। दोनों रोने लगे।

मां का दिल खुशी से खिल उठा। उसने आंचल से धर्मवीर के आंसू पोंछते हुए कहा—चलो बेटा, यहां से कहीं भाग चलें।

धर्मवीर चिन्ता—मग्न खड़ा था। मां ने फिर कहा—किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं। यहां से बाहर निकल जायं जिसमें किसी को खबर भी न हो। राष्ट्र की सेवा करने के और भी बहुत—से रास्ते हैं।

धर्मवीर जैसे नींद से जागा, बोला—यह नहीं हो सकता अम्मां। कर्त्‌तव्य तो कर्त्‌तव्य है, उसे पूरा करना पड़ेगा। चाहे रोकर पूरा करो, चाहे हसंकर। हां, इस ख्याल से डर लगता है कि नतीजा न जाने क्या हो। मुमकिन है निशाना चूक जाये और गिरफ्तार हो जाऊं या उसकी गोली का निशाना बनूं। लेकिन खैर, जो हो, सो हो। मर भी जायेंगे तो नाम तो छोड़ जाएंगे।

क्षण—भर बाद उसने फिर कहा—इस समय तो कुछ खाने को जी नहीं चाहता, मां। अब तैयारी करनी चाहिए। तुम्हारा जी न चाहता हो तो न चलो, मैं अकेला चला जाऊंगा।

मां ने शिकायत के स्वर में कहा—मुझे अपनी जान इतनी प्यारी नहीं है बेटा, मेरी जान तो तुम हो। तुम्हें देखकर जीती थी। तुम्हें छोड़कर मेरी जिन्दगी और मौत दोनों बराबर हैं, बल्कि मौत जिन्दगी से अच्छी है।

धर्मवीर ने कुछ जवाब न दिया। दोनों अपनी—अपनी तैयारियों में लग गये। मां की तैयारी ही क्या थी। एक बार ईश्वर का ध्यान किया, रिवाल्वर लिया और चलने को तैयार हो गयी।

धर्मवीर का अपनी डायर लिखनी थी। वह डायरी लिखने बैठा तो भावनाओं का एक सागर—सा उमड़ पड़ा। यह प्रवाह, विचारों की यह स्वतरू स्फूर्ति उसके लिए नयी चीज थी। जैसे दिल में कहीं सोता खुल गया हो। इन्सान लाफानी है, अमर है, यही उस विचार—प्रवाह का विषय था। आरभ्भ एक दर्दनाक अलविदा से हुआ—

‘रुखसत! ऐ दुनिया की दिलचस्पियों, रुखस्त! ऐ जिन्दगी की बहारो, रुखसत! ऐ मीठे जख्मों, रुखसत! देशभाइयों, अपने इस आहत और अभागे सेवक के लिए भगवान से प्रार्थना करना! जिन्दगी बहुत प्यारी चीज है, इसका तजुर्बा हुआ। आह! वही दुख—दर्द के नश्तर, वही हसरतें और मायूसियां जिन्होंने जिंदगी को कडुवा बना रखा था, इस समय जीवन की सबसे बड़ी पूंजी हैं। यह प्रभात की सुनहरी किरनों की वर्षा, यह शाम की रंगीन हवाएं, यह गली—कूचे, यह दरो—दीवार फिर देखने को मिलेंगे। जिन्दगी बन्दिशों का नाम है। बन्दिशें एक—एक करके टूट रही हैं। जिन्दगी का शीराजा बिखरा जा रहा है। ऐ दिल की आजादी! आओ तुम्हें नाउम्मीदी की कब्र में दफन कर दूँ। भगवान्‌ से यही प्रार्थना है कि मेरे देशवासी फलें—फूलें, मेरा देश लहलहाये। कोई बात नहीं, हम क्या और हमारी हस्ती ही क्या, मगर गुलशन बुलबुलों से खाली न रहेगा। मेरी अपने भाइयों से इतनी ही विनती है कि जिस समय आप आजादी के गीत गायें तो इस गरीब की भलाई से लिए दुआ करके उसे याद कर लें।'

डायरी बन्द करके उसने एक लम्बी सांस खींची और उठ खड़ा हुआ। कपड़े पहनेख्‌ रिवाल्वर जेब में रखा और बोला—अब तो वक्त हो गया अम्मां!

मां ने कुछ जवाब न दिया। घर सम्हालने की किसे परवाह थी, जो चीज जहां पड़ी थी, वहीं पड़ी रही। यहां तक कि दिया भी न बुझाया गया। दोनों खामोश घर से निकले।दृएक मर्दानगी के साथ कदम उठाता, दूसरी चिन्तित और शोक—मग्न और बेबसी के बोझ से झुकी हुई। रास्ते में भी शब्दों का विनिमय न हुआ। दोनों भाग्य—लिपि की तरह अटल, मौन और तत्पर थे—गद्यांश तेजस्वी, बलवान्‌ पुनीत कर्म की प्रेरणा, पद्यांश दर्द, आवेश और विनती से कांपता हुआ।

झाड़ी में पहुँचकर दोनों चुपचाप बैठ गये। कोई आध घण्टे के बाद साहब की मोटर निकली। धर्मवीर ने गौर से देखा। मोटर की चाल धीमी थी। साहब और लेडी बैठे थे। निशाना अचूक था। धर्मवीर ने जेब से रिवाल्वर निकाला। मां ने उसका हाथ पकड़ लिया और मोटर आगे निकल आयी।

धर्मवीर ने कहा—यह तुमने क्या किया अम्मां! ऐसा सुनहरा मौका फिर हाथ न आयेगा।

मां ने कहा—मोटर में मेम भी थी। कहीं मेम को गोली लग जाती तो?

‘तो क्या बात थी। हमारे धर्म में नाग, नागिन और सपोले में कोई भी अन्तर नहीं।'

मां ने घृणा भरे स्वर में कहा—तो तुम्हारा धर्म जंगली जानवरों और वहशियों का है, जो लड़ाई के बुनियादी उसूलों की भी परवाह नहीं करता। स्त्री हर एक धर्म में निर्दोष समझी गयी है। यहां तक कि वहशी भी उसका आदर करते हैं।

‘वापसी के समय हरगिज न छोडूंगा।'

‘मेरे जीते—जी तुम स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकते।'

‘मैं इस मामले मे तुम्हारी पाबन्दियों का गुलाम नहीं हो सकता।'

मां ने कुछ जवाब न दिया। इस नामदोर्ं जैसी बात से उसकी ममता टुकड़े—टुकड़े हो गयी। मुश्किल से बीस मिनट बीते होंगे कि वहीं मोटर दूसरी तरफ से आती दिखायी पड़ी। धर्मवीर ने मोटर को गौर से देखा और उछलकर बोला— लो अम्मां, अबकी बार साहब अकेला है। तुम भी मेरे साथ निशाना लगाना।

मां ने लपककर धर्मवीर का हाथ पकड़ लिया और पागलों की तरह जोर लगाकर उसका रिवाल्वर छीनने लगा। धर्मवीर ने उसको एक धक्का देकर गिरा दिया और एक कदम रिवाल्वर साधा। एक सेकेण्ड में मां उठी। उसी वक्त गोली चली। मोटर आगे निकल गयी, मगर मां जमीन पर तड़प रही थी।

धर्मवीर रिवाल्वर फेंककर मां के पास गया और घबराकर बोला—अम्मां, क्या हुआ? फिर यकायक इस शोकभरी घटना की प्रतीति उसके अन्दर चमक उठी—वह अपनी प्यारी मां का कातिल है। उसके स्वभाव की सारी कठोरता और तेजी और गर्मी बुझ गयी। आंसुओं की बढ़ती हुई थरथरी को अनुभव करता हुआ वह नीचे झुका, और मां के चेहरे की तरफ आंसुओं में लिपटी हुई शमिर्ंन्दगी से देखकर बोला—यह क्या हो गया अम्मां! हाय, तुम कुछ बोलतीं क्यों नहीं! यह कैसे हो गया। अंधेरे में कुछ नजर भी तो नहीं आता। कहॉँ गोली लगी, कुछ तो बताओ। आह! इस बदनसीब के हाथों तुम्हारी मौत लिखी थी। जिसको तुमने गोद में पाला उसी ने तुम्हारा खून किया। किसको बुलाऊँ, कोई नजर भी तो नहीं आता।

मां ने डूबती हुई आवाज में कहा—मेरा जन्म सफल हो गया बेटा। तुम्हारे हाथों मेरी मिट्टी उठेगी। तुम्हारी गोद में मर रही हूँ। छाती में घाव लगा है। ज्यों तुमने गोली चलायी, मैं तुम्हारे सामने खड़ी हो गयी। अब नहीं बोला जाता, परमात्मा तुम्हें खुश रखे। मेरी यही दुआ है। मैं और क्या करती बेटा। मॉँ की आबरू तुम्हारे हाथ में है। मैं तो चली।

क्षण—भर बाद उस अंधेरे सन्नाटे में धर्मवीर अपनी प्यारी मॉँ के नीमजान शरीर को गोद में लिये घर चला तो उसके ठंडे तलुओं से अपनी अॉंसू—भरी अॉंखें रगड़कर आत्मिक आह्लाद से भरी हुई दर्द की टीस अनुभव कर रहा था।