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सुराजी कॉलोनी की स्वच्छ्ता अभियान



सुराजी कॉलोनी की स्वच्छता अभियान

ओम प्रकाश मेहरा


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सुराजी कॉलोनी की स्वच्छता अभियान

कॉलोनी में उस दिन सुबह से ही बड़ी गहमा—गहमी थी। गांधी जयंती का दिन था और खबर थी— खबर क्या थी पक्का ही था कि जिले के प्रभारी मंत्री कॉलोनी में स्वच्छता सप्ताह का श्रीगणेश करेंगे।

कॉलोनी शब्द से आप भ्रम में न पड़ें। दरअसल यह कुछ छोटी—कुछ बड़ी, कुछ कच्ची—कुछ अधपक्की गोया तमाम किस्म की झोपडियों का एक बेतरतीब—सा झुंड था जो शहर के बीचोबीच बहने वाले नाले की पूरब दिशा वाली कगार पर उग आया था। दूसरी कगार पर इसी तरह का दूसरा झुंड था जिसे भी उधर वाले कॉलोनी कहते। यहाँ के बाशिंदों ने दुगर्ंध, सीलन, कीचड़ और गंदगी से भरी अपनी इन बेतरतीब बस्तियों को कम से कम एक इज्जतदार नाम देने की गरज से और शायद इस तरह अपने दिलों को एक तरह की राहत बख्‌श करने की ख्‌वाहिश के चलते फलाँ—फलाँ कॉलोनी के नाम दे लिए थे। क्रूर सच्चाई यह थी कि वे सब एक सचमुच की कॉलोनी का सिफ सपना देखता—देखते सर खप जाने के लिए अभिशप्त लोग थे... लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच था कि अपनी बस्ती को एक खुशगवार और इज्जत बख्श नाम देने जितनी गुंजाइश का हक तो उनका बनता ही था। किस्सा कोताह उधर वाली का नाम समता कॉलोनी था और इधर वाली का जिसका यह किस्सा है सुराजी कॉलोनी। बस्ती के बुजुगोर्ं ने सुराज नगर नाम सुझाया था लेकिन बस्ती की युवा जमात ने सिरे से उसे नामंजूर कर दिया था।

नगर वगर क्यों? तमाम दकियानूसी बात। कम से कम नाम तो ढंग का हो अब देखो शहर के संपन्न इलाकों में श्गुलमोहर कॉलोनीश्, शालीमार कॉलोनी है, जवाहर कॉलोनी है और श्इंदिरा कॉलोनीश् या फिर सिफ साकेत और द गार्डन सिटी, द पैराडाइन इन्क्लेव वगैरह। तमाम रंग रोगन में पुती लड़कियाँ रहती हैं वहाँ और सेंट और परफ्यूम में रचे बसे छोकरे जो दुनिया को अपने जूतों की नोक पर रखते हैं। इधर वाले नौजवानों के दिलों पर इस सारी गैर बराबरी की वजह से कैसी धुरियाँ चलती थीं या तो वही जानते या उनका ईश्वर जो बकौल उनके, पता नहीं, था भी या नहीं। बात एक समझौते पर आकर टूटी थी... चलो सुराजी रहने देते हैं... बुजुर्ग इस बहाने सुराज की अपनी लड़ाई के दिनों की याद ताजा रखना चाहते हैं तो सुराज शब्द रहे लेकिन उसके साथ नगर नहीं चलेगा— समझौता यह हुआ कि नाम सुराजी कॉलोनी हो।

बहरहाल चलिए उस गांधी जयंती वाली सुबह सुराजी कॉलोनी में लौटें। आश्चर्यजनक रूप से सारे के सारे टॉपरों से लोग— क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या औरतें, क्या नौजवान बाहर आ चुके थे और इस पीपल के सामने वाली खुली जगह पर इकट्ठे हो गए थे। हालाँकि जलसे का तयशूदा वक्‌त साढ़े ग्यारह था जिसमें अभी कुछ घंटों की देर थी लेकिन हर कोई इतने जोश और उत्साह में था कि उन पर नियंत्रण की कोई कोशिश मुमकिन न थी। पीपल वाले चबूतरे के सामने वाली खुली जगह पर इकट्ठी भीड़ के बीच तमाम तरह की तैयारियाँ शुरू हो गई थीं। सभी ने बड़ी हौंस के साथ चंदे में अपना हिस्सा दिया था जिससे दीगर इंतजामात के अलावा मंच और शामियाने की व्यवस्था की गई थी। शामियाने वाले सरदार जी की देखरेख में इस समय मंच तैयार किया जा रहा था। नौजवानों और बच्चों का एक मिला—जुला झुंड था जो रंग—बिरंगे पतंगी कागज की झंडियाँ बनाने में व्यस्त था। कहीं से केले के पत्ते अपनी समूची लंबाई में काट कर ले आए गए थे और उनसे एक अलग झुंड जिसमें लड़कियाँ अधिक थीं, स्वागत द्वार सजा रहा था। वहीं एक ओर दस बारह पीतल के छोटे—बड़े लोटे जो घर से इकट्ठे किए गए थे माँजे, धोए और चमकाए जा रहे थे। उनका उपयोग मंगल कलश के रूप में होना था। कलश लेकर खड़ी होने वाली लड़कियों के नाम फाइनल कर लिए गए थे। वे भी दीगर लड़कियों के साथ वहीं थीं लेकिन जब से मंगल कलश के लिए चुनी गई थीं उनमें विशिष्ट होने की हल्की—सी ठसक साफ दिखाई पड़ रही थी। तय किया गया था कि वे अपने—अपने घरों से अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनकर और सज—सँवर कर आएँगी। जिनके पास या तो साडि़याँ थीं ही नहीं या ढंग की नहीं थीं वे अपनी चाचियों, मामियों या मुँह बोलो परिवारों की गृहणियों से माँग कर और उनकी जरूरी सलाह और मदद से सलीके से साथ पहन कर, मंत्री जी के पधारने के समय के लगभग आधा घंटा पहले स्वागत स्थल पर मौजूद रहेंगी। कुछ लड़कियाँ स्वागत द्वार के सामने बड़े मनोयोग से रंगोली काढ़ रही थीं। रुक—रुक कर वे आपस में मशविरा करतीं कि रंगोली को ज्यादा से ज्यादा खूबसूरत कैसे बनाया जाए।

अरे हाँ, यह बात बताना तो रह ही गया कि इन सारी गतिविधियों का केंद्र शंकर था जो घूम—घूम कर तैयारियों का जायजा ले रहा था। यह उसकी ही पहल और कोशिश थी कि जिसने इतने बरसों की प्रतीक्षा के बाद यह संभव कर दिखाया था कि कोई मंत्री इस बस्ती तक आने का कष्ट उठाए। इस वक्‌त बस्ती के बुजुगोर्ं के बीच तयशुदा कार्यक्रम में किसे क्या करना है इस विषय पर बात कर रहा था। जैसे कि हम, आप या कोई भी किसी मेहमान के सामने अपना सर्वश्रेष्ठ ही प्रदर्शित करने का चाव रखता है— मसलन मेहमान को सबसे बढिया टी—सेट में चाय पेश की जाए, ड्राइंग रूम में सर्वश्रेष्ठ परदे हों, कुशन कवर्स और टेबिल क्लाथ वे हों जो ऐसे ही मौकों के लिए सँभालकर रखे गए होते हैं उसी तरह शंकर चाहता था कि मंत्री जी के स्वागत में बस्ती के एकमात्र स्वतंत्रता सेनानी सुराजी जी, भारत चीन युद्ध में बोमडिला में एक टाँग गँवा चुके धनीराम जी और स्वामी आत्मानंद जी के आश्रम में कुछ वर्ष स्वयंसेवक रहे राम आसरे जी को प्रमुखता से पेश करे। इस वक्‌त उनके साथ वह यही तय कर रहा था कि स्वागत द्वार पर मंत्री जी को माला कौन पहनाएगा और मंच पर स्वागत भाषण कौन देगा। वह उन्हें यह भी समझा रहा था कि मंत्री जी के ठीक साथ—साथ जो सज्जन होंगे उनका नाम अनिल भाई है और उनके प्रति मंत्री जी जैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए क्यों कि सच पूछो तो उनकी इच्छा के बिना मंत्री जी के कार्यक्रमों का तय होना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य था। दरअसल यह उनकी ही विशेष कृपा थी कि शंकर के प्रस्ताव को मंत्री जी की स्वीकृति मिल सकी थी जिसमें बस्ती के चुने हुए लोगों के साथ उनके जलपान का कार्यक्रम भी शामिल था। शंकर और उसकी बस्ती के लिए यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी कि मंत्री जी अपने साथियों के साथ युगों से एक अमानवीय निरादर के पात्र लोगों की बस्ती में जलपान करें किंतु उधर यह भी उतना ही बड़ा सच था कि अनिल भाई और मंत्री जी अपनी सियासत में इस जलपान की खबर का भरपूर लाभ उठाना चाहते थे।

इस कार्यक्रम को लेकर शंकर इसलिए भी कुछ अधिक उत्साहित और खुश था कि बस्ती के इन बुजुगोर्ं की आँखों में वह पहली बार अपने लिए प्रशंसा और स्वीकार की छाया देख रहा था। धनीराम जी को तो उसने रामआसरे काका से यह बतियाते भी सुना था कि भई इस शंकर को हम लोग बेकार ही कोसते रहते थे। अब देखो तो आखिर उस अकेले के बलबूते पर ही न है जो इतना बड़ा कार्यक्रम इस बस्ती में होने जा रहा है। बाकी सब तो प्रसन्न थे, अलबत्ता ऐसा लग रहा था मानो सुराजी जी ने अभी पूरे मन से उसकी मेहनत को स्वीकार न किया हो। वे वहाँ मौजूद तो थे और सलाह मशविरे में हिस्सा भी ले रहे थे लेकिन उनके चेहरे पर स्थायी नापसंदगी की नामालूम—सी सख्त सलवटें अभी ज्यों की त्यों थीं।

वैसे सुराजी जी थे भी कायदे के जरा सख्त और उनके मन को आसानी से नहीं जीता जा सकता था। सौ फीसदी में राई—रत्ती भी कम हो तो वे संतुष्ट नहीं हो सकते थे किंतु जिस तरह से आयोजन की तैयारियाँ चल रही थीं, शंकर आशावान था कि कार्यक्रम संपन्न होते—होते सुराजी जी भी उसे सौ में से सौ अंक दे डालेंगे। इस एक एहसास ने उसके उत्साह को अचानक दुगुना कर दिया था।

— क्यों भैया, कागज की झंडियों की चार लड़ें तो तैयार हैं, और बनाएँ क्या? नाले के किनारे चार बाँसों के सहारे सुतली तान कर झिल्ली कागज की रंग—बिरंगी झंडियाँ बना रहे बच्चों के झुंड में से आकर किसी ने कहा। इस वक्‌त शंकर को दम मारने की भी फुर्सत न थी। मंत्री जी के आने का समय पास आता जा रहा था और अभी ढेर सारा काम पड़ा था।

— नहीं नहीं। बहुत हैं। अब फटाफट मंच के रास्ते के दोनों तरफ ये झंडियाँ लगा डालो। उसने कहा और फिर जल्दी—जल्दी डग बढ़ाता कार्यक्रम स्थल की तरफ बढ़ गया।

बस्ती में खुली जगह कोई थी नहीं। ले देकर पीपल के पेड़ के नीचे वाला बड़ा—सा चबूतरा था जो बस्ती के शुरुआती दिनों में किसी ने बनाना शुरू किया। उसमें धीरे—धीरे हर साल कुछ न कुछ जुड़ता रहा। शुरू में किसी ने मिट्टी के दो—चार ओटले बनाए। फिर धीरे—धीरे वहाँ एक चबूतरा बन गया। बस्ती में हैंड पंप लगा तो पत्थर की चीपों के टुकड़े बटोरकर उसमें लगा दिए गए। फिर पिछले गणेशोत्सव में जब तय हुआ कि बस्ती के सार्वजनिक गणेश वहीं बिठाए जाएँगे तो आनन—फानन चंदा इकठ्‌ठा हुआ और गणेश जी की स्थापना के पहले ही एक पक्का चबूतरा बन कर तैयार हो गया। वह वही चबूतरा बस्ती के सार्वजनिक स्वप्नों की शरण स्थली था। वहीं बैठकर बड़े बूढ़े लड़के लड़कियों के विवाह संबंध तय करते, वही बिरादरी के झगड़े निपटते और वहीं आज के कार्यक्रम की तरह के सार्वजनिक कार्यक्रम होते।

चबूतरे की सफाई हो गई थी। उस पर मेज और कुर्सियाँ लाकर रखी जा चुकी थीं। इस समय मेज पर एक धुला हुआ कपड़ा मेजपोश की तरह बिछाया जा रहा था। उसने संतुष्ट नजरों से इस गतिविधि को देखा फिर वह गली के मुहाने पर रखी झाडुओं, टोकरियों और फावड़ों की तरफ बढ़ गया। दरअसल मंत्री जी अपने भाषण के बाद यहीं आकर सफाई अभियान की शुरुआत करने वाले थे। गली बहुत संकरी थी इसलिए नगर निगम के प्रशासक के सुझाव के मुताबिक गली के मुहाने पर एक तरफ कचरे का एक ढेर इकट्ठा कर दिया गया था। बस्ती में कचरे के ढेर के लिए कोई नियत जगह नहीं थी, पूरी बस्ती ही, कूड़े का एक बड़ा—सा ढेर थी। अब भला यह उम्मीद कैसे की जाती कि मंत्री जी और उनके साथी सचमुच कूड़ा साफ करें इसलिए बस्ती के ही कुछ लोगों ने उसमें से कूड़ा इकट्ठा किया और गली के मुहाने पर एक ढेर की शक्ल में सजा दिया। कूड़े के संदर्भ में श्सजा दियाश् कहना इस मौके पर गलत नहीं था क्यों कि उस ढेर में से ही मंत्री जी द्वारा फावड़े के सहारे कूड़ा इकट्ठा कर कचरा पेटी में डालना आज के आयोजन का स्टार आयटमश् था।

मंत्री जी के साथ बस्ती के वार्ड सदस्य और युवा प्रकोष्ठ के प्रमुख अनिल भाई भी सफाई अभियान में भाग लेने वाले थे। युवा प्रकोष्ठ के प्रमुख यानी उसके इमीडियेट बॉस।

शंकर किस तरह भीड़ जुटाने की अगुआई करते—करते एक राजनैतिक पार्टी के युवा प्रकोष्ठ प्रमुख अनिल भाई का चमचा बन गया और कैसे उसने उनके ही जरिए आज का यह कार्यक्रम तय करवाया यह एक अलग कहानी है। अनिल भाई खुद अपने लिए इसे एक बढिया अवसर मान रहे थे। सोचो तो कितनी पब्लिसिटी मिलेगी। समाचार पत्रों की सुर्खियों में खबर होगी— श्युवा प्रकोष्ठ के अनिल भाई के अथक प्रयास सफल। मंत्री जी द्वारा सफाई वालों की बस्ती में स्वच्छता अभियान का शुभारंभश् भाई वाह!! खुद सफाई वालों की बस्ती का पूरा सपोर्ट मिले इसलिए अनिल भाई ने शंकर से भी कह रखा था— देखता जा। इधर कार्यक्रम सफल हुआ और उधर युवा प्रकोष्ठ में तेरे लिए एक जगह तय।श् उसने अपनी तरफ से जी भर कर भागदौड़ की थी। बड़े बूढ़ों में कहता फिरा था— मुझे हमेशा डाँटते डपटते थे न काका। मंच के ऊपर मंत्री जी की बगल में बैठूँगा तब देखना। अतिरिक्त उत्साह में एकाध बार उसने यह भी जोड़ा— मंत्री जी बस्ती से ए. बी. रोड तक पक्की सड़क की घोषणा भी करने वाले हैं। आखिर इतने बड़े नेता हैं, बस्ती को क्या इतना भी न देंगे? जो बात वह कह नहीं पाता था लेकिन जो इन दिनों एक मोहक सपने की तरह उसके जेहन में शक्ल अख्तियार कर रही थी यह थी कि एक न एक दिन सियासत में उसका भी बड़ा—सा कद होगा— लोग उसे भी इसी तरह उद्‌घाटन और शिलान्यास के लिए बुलाया करेंगे और उसके पास भी नारों से उसका जयजयकार करने वाले समर्थकों का एक हुजूम होगा।

भैया जी, जरा देख लें। बस कि रोलर और चलाएँ। रोड़ रोलर का ड्रायवर उससे पूछ रहा था। वह मानो सपने से वापस लौटा इस रोड—रोलर वाले पर झुंझला भी नहीं सकता था। इतना वक्‌त था भी नहीं। उसने ए. बी. रोड से बस्ती तक के कच्चे रास्ते पर नजर डाली। हाल की ही बारिश से उसमें कीचड़ ही कीचड़ हो गया था। आज के कार्यक्रम के मद्देनजर पूरी बस्ती के लोग उसे ठीक—ठाक करने में लगे थे। निगम प्रशासक ने रोड रोलर भिजवा दिया था एक ट्रक गिट्टी भी पड़ गई थी। सुबह से उस पर रोड रोलर चल रहा था। लेकिन कच्ची सड़कें क्या इस तरह एक दो दिन में ठीक होती हैं। कोशिश थी कि सड़क कम से कम इस लायक हो जाए कि नेताजी के पैर कीचड़ में न धँसें। पाँव पैदल, टखने तक कीचड़ में धँसकर भला वे कैसे आएँगे?

हाथ घड़ी में समय देखकर उसकी हड़बड़ी थोड़ी बढ़ गई। अरे कहाँ हैं कलश सिर पर धरे अगवानी के लिए तैयार लड़कियाँ और कहाँ हैं हार फूल वाले? वह अपने लग्गू भग्गुओं पर चीखा।

मंत्री जी की अगवानी मुख्य सड़क के उस मोड़ पर की जाना तय हुआ था जहाँ से बस्ती का कच्चा रास्ता शुरू होता है। अगवानी कौन—कौन करेंगे इसकी सूची दो दिन पहले ही तय हो गई थी। इस समय वे सब पीपल वाले चबूतरे पर नेताजी की अगवानी के टाइम का इंतजार कर रहे थे। उनके चाय पानी का प्रबंध वहीं कर लिया गया था। पार्टी फंड से शंकर को कुछ एडवांस मिला था और बाकी राशि चंदे से इकट्ठी कर ली गई थी। मंच स्थल के पास मंत्री जी अगवानी में जिंदाबाद! जिंदाबाद! करने के लिए तैयार मोहल्ले के निठल्ले छोकरों की टोली भी तैयार खड़ी थी। स्कूल का वक्‌त था वरना स्कूली छोकरी को भी शामिल कर लिया जाता। हाँ, जो छोकरे स्कूल न जाकर गली में कंचे या गुल्ली डंडा खेलते रहते हैं, उन्हें अवश्य ढंग के कपड़े पहनाकर इस स्वागत दल में शामिल कर लिया गया था। इस तरह तीस चालीस जनों की अच्छी खासी टोली अगवानी के लिए तैयार थी। उन्हें बस इशारे की देर थी। वे दो मिनट में ही कूदते—फाँदते दौड़ लगाते अगवानी स्थल वाले मोड़ पर उपस्थित हो सकते थे।

मंच के सामने अब श्रोतागण आ—आ कर बैठने लगे थे। कुछ देर पहले ही रामू पहलवान को भीड़ इकट्ठा करने का काम सौंपा गया था। उसने घर—घर जाकर हाँक लगाई थी। भला किसमें हिम्मत थी कि उसका हुक्म टालता। महिलाएँ खास मौकों के लिए सहेजकर रखे चमकदार रंगों वाली साडियों में थीं। पुरुषों के पास जो भी ड्रेस ठीक—ठाक हालत में थी उसे ही धो—धो कर, इस्तरी करवा के पहना गया था। उसने घड़ी देखी, अगवानी करने वाले बुजुगोर्ं को साथ लिया और अगवानी स्थल की तरफ कदम बढ़ाए।

उसके इशारे पर जयकार करने वालों की भीड़ भी पीछे—पीछे चल दी। सामने की पंक्ति में सर पर कलश लिए सीता, श्यामा और आशा थीं और फूल मालाएँ लिए दगडू। आज के आयोजन में इतना महत्वपूर्ण स्थान पाकर वे सब प्रसन्न थे... खासकर दगडू। वह एक डंडे में मालाएँ टाँगे हुए उन्हें... धक्कम धुक्का से बचाते हुए तन कर चल रहा था और उसके चेहरे पर एक स्थायी—सी मुस्कुराहट चिपकी हुई थी... जो थोड़ी बेतुकी—सी थी लेकिन उसके भीतर अचानक आ चुकी इतनी सारी खुशी का सशक्त परिचय देती थी। सभा स्थल पर गौरी, कमली, और रघु की नई—नवेली बहू को हारमोनियम और पुंडरीक को तबले के साथ तैयार रहने के लिए पहिले ही कह दिया गया था। उन पर स्वागत गान की जिम्मेदारी थी। लाउडस्पीकर वाला बार—बार लता मंगेशकर का श्ओ मेरे वतन के लोगों जरा आँखों में भर लो पानीश् वाला गीत बजाए जा रहा था जो इधर ऐसे अवसरों के लिए बेहद चलन में था— हालाँकि सचाई यह थी कि आजादी के इन पचास सालों में आँख का पानी यो तो लगभग सूख चुका था या मर चुका था। आँखे भर लेने की तो बात ही बेमानी थी।

ग्यारह बजने ही वाले थे। उन्हें तो कभी का अगवानी स्थल पर पहुँच जाना चाहिए था। आसपास की बस्तियों के लोग देखें ऐसा कुछ समाँ भी बाँधना था न। श्जल्दी चलो भाइयों बहनों, हमें देर हो रही हैश् उसने चिल्लाकर कहा। भीड़ की चाल में कुछ तेजी दिखाई दी लेकिन फिर वह सुस्त पड़ गई। दो एक बार टोकना पड़ा। बस्ती की परली तरफ वाले वॉचमैन चाचा ने अपने साथ चलते भैया मुकादम से फुसफुसा कर कहा— श्अरे नेता लोग कोई टाइम पर आते हैं। ये शंकर बेकार ही हड़बड़—हड़बड़ कर रहा है।

कुछ देर बाद सब लोग निर्धारित मुकाम पर पहुँच गए। उसने आगे बढ़कर शहर की दिशा में ए.बी.रोड पर नजर डाली। अभी दूर—दूर तक लाल पीली बत्ती वाली कारों का कोई काफिला नजर नहीं आ रहा था। चौन की साँस लेते हुए उसने एक बार दगडू के हाथों में लकड़ी के टुकड़े पर सजी फूलमालाओं का मुआयना किया... आशा के कलश से चुल्लू भर पानी लेकर उन पर छिड़का, भीड़ पर एक संतोष भर नजर डाली और मन ही मन मुस्कराया।

मंत्री जी के आगमन में देर होती देख कुछ जवान छोकरे सड़क किनारे पुलिया पर बैठकर सुस्ताने लगे। गुंडू हमेशा की तरह फिल्मी अभिनेताओं की आवाज की नकल करते हुए डायलॉग बोलने लगा... छोटे बच्चे उछलकूद में लग गए। वह खीझ उठा। यही तो... यही तो। रहे न उजड्ड के उजड्ड। इन्हें जरा खयाल नहीं कि ऐसे मौके पर जरा कायदे में, जरा अनुशासन में रहें। अरे. . .इतने बड़े नेता अपने चरणों की धूल इस बस्ती को देने आ रहे हैं और ये लोग हैं कि...।

मंत्री जी आ रहे हैं... मंत्री जी आ रहे हैं— अचानक शोर मच गया। चौकन्ना होकर उसने ए.बी.रोड पर नजर डाली। सचमुच लाल पीली बत्तियाँ वाली कारों का एक काफिला धूल उड़ाता उस ओर बढ़ता दिखाई पड़ रहा था। उसने दगडू और कलश वाली लड़कियों को आखरी क्षणों की हिदायतें दीं और सड़क पर दस कदम आगे बढ़ गया। वाचमैन चाचा वगैरह को भी उसने अपने साथ आने को इशारा किया। अगुआ वह ही था। सबके हाथ में मालाएँ थीं।

सबसे आगे वाली कार झन्नाटे के साथ आगे निकल गई तो वॉचमैन चाचा की विस्मय भरी श्अरेश् को उसने एक जानकार व्यक्ति की तरह यह कह कर शांत किया— श्कुछ नहीं चाचा। वह पायलट कार है।श् फिर वह उसके पीछे वाली कार की तरफ बढ़ा। सामने बैठा गनमैन दरवाजा खोलकर झपाक से सड़क पर कूदा और फुरती से उसने कार का पिछला दरवाजा खोल दिया। मंत्री जी हाथ जोड़े मुस्कुराते हुए उतरे।

पधारिए, पधारिए। वह जल्दी—जल्दी बोला और उसने लपककर उन्हें फूलमाला पहनानी चाही। उन्होंने अपनी गर्दन आगे कर दी। तब तक दूसरे दरवाजे से अनिल भाई और पीछे वाली कारों से पार्टी के अन्य वी.आई.पी. उतरकर आ गए। सभी को मालाएँ पहनाई गईँ। दगडू एक—एक कर मालाएँ देता रहा और चारों तरफ गर्वीली मुस्कान फेंकता रहा। मालाएँ खत्म हो गईं तो उसके हाथ में खाली बाँस का वह टुकड़ा बचा जिसमें मालाएँ टाँगी गई थीं। उसका इरादा बाँस के उस टुकड़े को यादगार चिह्न की तरह अपनी झोपड़ी में सजा रखने का था। इस विचार से वह बार—बार पुलकित हो रहा था।

— हाँ भाई!! किधर चलना है? मंत्री जी ने पूछा। वह आगे आकर संकेत से उन्हें रास्ता दिखाने ही वाला था कि अचानक अनिल भाई ने बढ़कर कमान अपने हाथ में सँभाल ली।

— शंकर, मंत्री जी को हम ले चलते हैं। तुम सब लोगों को लेकर आओ।

— वो स्वागत, तिलक. . .। उसने मंगल कलश वाली लड़कियों के दल की तरफ इशारा किया।

— हाँ हाँ। तो बताते क्यों नहीं। अनिल भाई का स्वर जरा खीझा हुआ था, मानों उसने कार्यक्रम के एक जरूरी हिस्से की अनदेखी का लांछन उन पर लगा दिया हो। उसके इशारे पर लड़कियों का दल आगे बढ़ा। सबसे आगे वाली लड़की ने थाल में रखे कुंकुम से मंत्री जी को तिलक लगाया और आरती उतारी। तब मंगल गीत गाती मंगल कलश वाली लड़कियों के बीच से मंत्री जी व उनका दल आगे बढ़ा। पीछे—पीछे बस्ती के नौजवानों की टोली पूरे दमखम से जिंदाबाद—जिंदाबाद के नारे लगाती चल रही थी। अचानक अनिल भाई रुक गए। मंत्री जी को भी उन्होंने रोक लिया। गिट्टी डालने और रोड रोलर चलाने के बावजूद सड़क अभी गीली थी। श्शकर, तुम लोग फटाफट आगे बढ़ो, हम मंत्री जी को कार में लेकर आते हैं।श् शंकर थोड़ा निष्प्रभ हुआ। लगा हेठी हो गई। किसी तरह यह सोचकर अपने आपको धीरज बँधाया कि सड़क की हालत मंत्री जी खुद देख चुके. . .अच्छा हुआ. . .अब शायद पक्की सड़क की घोषणा कर दी जाए।

मंच पर उसने ठीक—ठीक गिनकर कुर्सियाँ लगवाई थीं। एकदम बीच में मंत्री जी, उनके दोनों तरफ अनिल भाई और जिला काँग्रेस अध्यक्ष रामेश्वर जी, फिर वार्ड मेंबर साहिब, बस्ती के बुजुर्ग सुराजी जी और वाचमैन चाचा और वह खुद। दरअसल उसने मंच की व्यवस्था के बारे में बहुत बढ़—चढ़कर बातें की थीं और अपना रौब गालिब किया था। मंत्री जी के साथ उनके स्थानीय छुटभैयों की फौज देखकर उसके दिल में कुछ खटका जरूर हुआ था लेकिन उसने अपने आप से ही तर्क किया था— कुछ भी हो। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि मंत्री जी उसे अपने साथ मंच पर न बिठाएँ. . .यह कार्यक्रम ही उसके मोहल्ले का है. . .वह प्रोग्राम न बनता तो क्या वे आज यहाँ आने की सोचते और इतनी जयकार पाते।

मंच तक पहुँचने तक तो सारा काम तरतीब से चला पर जैसे ही मंच पर चढ़ने के लिए मंत्री जी ने कदम बढ़ाए अफरा—तफरी—सी मच गई। बड़ी मुश्किल से वह अनिल भाई, जिला काँग्रेस अध्यक्ष और वार्ड मेंबर साहब को उनकी कुर्सी तक पहुँचा पाया। बाकी कुर्सियों पर न जाने कब मंत्री जी के साथ आए अन्य लोगों में से दो ने कब्जा कर लिया और बाकी लोग मंच पर ही आलथी—पालथी बैठ गए। वह कुछ खिन्न हो उठा। मंच पर तिल भर जगह न थी और मंत्री जी के साथ मंच पर बैठने की उसकी हुलास की ऐसी की तैसी हो गई थी। जैसे—तैसे उसने माल्यार्पण का कार्य संपन्न करवाया। गनीमत थी कि इस कार्यक्रम में अब तक किसी की दखलंदाजी न थी इसलिए बस्ती के बड़े—बुजुगोर्ं से नेताजी को माला पहिनवाकर उनकी थोड़ी बहुत इज्जत रखने में वह सफल हुआ। कार्यक्रम तयशुदा ढंग से ठीक—ठाक चल रहा था। खासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। मंत्री जी भी संतुष्ट थे। वक्ताओं ने उनके इस गरीब बस्ती में पधारने की भूरि—भूरि प्रशंसा की थी, देवता तुल्य कह कर उनका मान बढ़ाया था। सामने की पंक्ति में बैठा वह इस सफलता पर मन ही मन बेहद प्रसन्न हो रहा था किंतु पता नहीं क्यों मंत्री जी के बाजू की कुर्सी पर बैठे अनिल भाई के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ थीं। वे बार—बार कुर्सी पर पहलू बदल रहे थे और कुछ बेचौन से थे। यह देखकर उसे अपनी खुशी गायब होती लगी। उनकी मदद से ही तो यह कार्यक्रम जमा था और अगर वे ही खुश नहीं तो!

अगला कार्यक्रम जलपान का था। वह उठा। देख तो ले सब ठीक है या नहीं। जलपान की व्यवस्था मंच के पिछले हिस्से में की गई थी। मनोहर स्वीटसवाले को अॉर्डर दिया था ताकि व्यवस्था साफ—सुथरी रहे और जात—पात को लेकर कोई बवाल खड़ा न हो। इस तरह का भेदभाव बड़ी तकलीफ पहुँचाता लेकिन किया भी क्या जा सकता था? वह अपने से ही सवाल पूछता— ये लोग बड़ी—बड़ी बातें करते हैं। भाषणों में अक्सर इस विषय पर जरूर अपनी राय प्रकट करते हैं. . . श्देखो भाई, प्रजा में तो सभी शामिल हुए न और हमारा देश है प्रजातंत्र वाला देश। तो प्रजा तो सब एक हुई न. . .भेदभाव कैसा?श् वह इस तरह के भाषणों में बह जाता। वे लोग उसे देवदूत जैसे नजर आते। मन ही मन अलबत्ता एक सवाल उसे कोंचता श्कहा कुछ भी जाए सच तो नहीं हो जाता! सचमुच में तो बात—बात पर भेदभाव होता है न। क्या नेताओं को पता नहीं?

जलपान वाले पंडाल में टेबल पर कपड़ा बिछाया जा चुका था और नाश्ते की प्लेटें करीने से सजाई जा रही थीं। चाय के लिए उसने कह रखा था मुझसे आकर पूछ लेना वरना पड़ी—पड़ी चाय ठंडी हो जाएगी।

वह कनात के पीछे था इसलिए अनिल भाई को देख न पाया लेकिन इस बीच वे भी मंच से उठकर पीछे आ गए थे। उनके साथ सखाराम था जो इन दिनों उनके पास तेजी से अपनी जगह बनाने की जुगाड़ में लगा हुआ था। वह जानता था कि सखाराम को वह फूटी आँख न सुहाता था और अनिल भाई से उसकी नजदीकी से जलता था।

अचानक अपना नाम सुनकर वह चौकन्ना हो गया। सखाराम कह रहा था, श्क्या अनिल भाई शंकर जैसे लोगों के चंगुल में आखि़र आप फँस कैसे जाते हैं?

— ऐसा क्यों कहते हो? काम का आदमी है वह।

— खाक! सखाराम बोला— श्आप कहिए तो इससे डबल—टिबल भीड़ जुटा दूँ लेकिन वो भीड़ भी होगी कायदे की— यह क्या कि तमाम चोर चमारों की भीड़।

— चुप! चुप! अनिल भाई ने उसे सतर्क किया।

— ठीक है। ठीक है। लेकिन अब देखिए। न पूछा न ताछा ये जलपान का प्रोग्राम। बदबू के मारे तो नाक में दम है, सार्वजनिक छवि सँभालने के चक्कर में नाक पर रूमाल तक तो रख नहीं सकते, चाय क्या सुड़की जाएगी। ये तो बस मंत्री जी का जिगरा है कि ऐसी बदबू और गंदगी में भी चेहरे पर शिकन नहीं आने देते।श् सखाराम फुसफुसाया।

सखाराम को लगा अनिल भाई पर अभी उपयुक्त प्रभाव नहीं पड़ा। राजदाराना अंदाज में वह उनके कुछ और करीब खिसक आया— श्चलिए यह किस्सा छोडिए यह तो अंदाजा लगाइए कि मंत्री जी और पार्टी की आज की पब्लिसिटी का सेहरा किसके सिर बँधेगा?श् ये बातें शंकर साफ—साफ तो नहीं सुन पा रहा था लेकिन सखाराम की अनिल भाई के नजदीक उपस्थिति से उसे इतना अंदाज जरूर लग गया था कि बातें उनके ही बारे में होंगी।

श्हूँश् अनिल भाई की आवाज में पड़ते बल और फिर तेज कदमों से उनका मंच की तरफ बढ़ना। ये किसी अनिष्ट के संकेत थे। वह आशंकित हो उठा। किसी बात के अंदेशे के एहसास के साथ वह भी मंच की तरफ लौटा। उसने पाया अनिल भाई ने नेताजी के कानों में कुछ कहा। नेता जी ने भाषण रोककर उनकी बात सुनी। उसके बाद अचानक अगले ही दो—तीन वाक्यों में ही उन्होंने अपना भाषण समेट दिया।

इधर धन्यवाद कहते हुए वे बैठे उधर अनिल भाई ने तुरंत माइक थाम कर कार्यक्रम की लगभग समाप्ति की घोषणा कर डाली। उसने उनके सामने जाकर कुछ कहने की कोशिश की तो उसे लगभग झिड़कते हुए कह उठे— हमेशा बीच में मत घुसा करो शंकर। नेताजी को एक जगह और जाना है। अब समय नहीं है हाँ, सफाई सप्ताह की शुरुआत का कार्यक्रम कहाँ रखा है। चलो वहीं चलो।

गिरे मन से वह हट गया। समझ गया सखाराम ने बाजी मार ली है। इस कार्यक्रम की तो अब आत्मा ही नहीं रही।

मंच से घोषणा हुई— श्मंत्री जी को एक और कार्यक्रम में शामिल होना है इसलिए सभा यहीं समाप्त की जाती है।. . .श् साफ था कि कार्यक्रम संचालन के सूत्र शंकर के हाथों से छिन गए थे और अब वहाँ उसकी उपस्थिति एकदम बेमतलब और फालतू थी। उसने अपनी आँखों के सामने बस्ती के अघोषित नेता और पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में अपनी छवि के सपने को टूटते बिखरते देखा। वह भी अपने ही अनिल भाई के हाथों। फिर भी उसने एक आखि़री कोशिश की। सफाई अभियान की शुरुआत करने के लिए मंत्री जी को आमंत्रित करने के लिए उन तक पहुँचने का प्रयास करते समय अनिल भाई ने उसे लगभग झिड़क कर परे कर दिया।

— क्या शंकर। बीच—बीच में टाँग अड़ाते रहते हो। हम लाए हैं न मंत्री जी को तुम्हारी बस्ती में तो हमें ही संचालित करने दो।

शंकर इतना नासमझ नहीं था कि अभी—अभी सुनी गई बातचीत से अनिल भाई के इस रुख को जोड़ न पाता।

इस वक्‌त मंत्री जी मंच की साढियाँ उतरकर नुक्कड़ की तरफ बढ़ रहे थे जहाँ बाजार से खरीदी गई नई—नई झाडुएँ और टोकरियाँ स्वच्छता अभियान की शुरुआत की बाट जोह रही थीं। उसने सोचा स्वच्छता अभियान की औपचारिक शुरुआत के तुरंत बाद मंत्री जी चल देंगे और उसके मंसूबों पर तो पानी ही फिर जाएगा।

नेता जी कुछ तो कह जाएँ वर्कर के नाते उसके पक्ष में, पक्की कोलतार वाली सड़क न सही, मुरम वाली की तो घोषणा कर जाएँ। है ही कितना... बस एकाध फलार्ंग का टुकड़ा ही तो है। उसने बस्ती वालों के सामने बड़ी शेखी बघारी थी और उन पर बड़ा रौब गाँठा था... ।

मंच से लगभग कूद कर वह उनकी बगल में जा पहुँचा— साब मेरे लिए क्या हुकुम है?

उन्होंने नाराजी से उसकी तरफ देखा।

— क्या मतलब?

— साहेब जी. . .वो पक्के पहुँच मार्ग के बारे में?

— हुँह! नुक्कड़ की तरफ बढ़ते हुए उन्होंने एक समझ में न आने वाला हुंकार भरा। उसने कहना जारी रखा— सर जी! इन लोगों के भरोसे के लिए... मेरे हक में कुछ... आशीर्वाद। उसने अटकते—अटकते कहा। ताईद के लिए उसने अनिल भाई की तरफ देखा किंतु पाया कि वे मनसा वाचा कर्मणा वहाँ नहीं थे। अब यह कार्यक्रम पूरी तरह उनका था और उसका राजनैतिक लाभ उन्हें ही मिले, इसकी फिक्र इस क्षण उनका सर्वोपरि लक्ष्य था। उसकी बात पर मंत्री जी पल भर के लिए रुक गए और उसे गौर से ऊपर से नीचे तक देखा। लगा. . .अभी—अभी गुस्से में फट पड़ेंगे लेकिन शायद चारों तरफ इकट्ठे मजमे पर गौर कर अपनी संयत छवि को सप्रयास संभालते हुए जरा—सा मुसकुराकर उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा और बोले — देखो शंकर... इस बार तो दिक्कत है। हाँ, तुम प्रयास करते रहो... हम खयाल रखेंगे। जानते तो हो तुम लोगों के लिए तो हम और हमारी पार्टी प्रतिबद्ध है। क्यों अनिल भाई?... अनिल भाई ने नेता जी से अपनी स्थापित निकटता में और भी वृद्धि की आशा से चारों तरफ देखा और जोर—जोर से बोले — नेताजी आपने तो आपके जीवन का मिशन ही इन लोगों का कल्याण तय कर रखा है। इसमें भला किसे शक हो सकता है... क्यों भाइयों? उन्होंने भीड़ पर एक नजर फेंकी। उत्साह में भीड़ मशीनी तौर पर चिल्लाई। मंत्री जी जिंदाबाद! मंत्री जी की जय!

मंत्री जी ने प्रसन्नता से अनिल भाई की तरफ देखा और झटके से शंकर के कंधे पर से अपना हाथ हटाया। दिल कर रहा था कि कहीं हाथ धो लेंश्... पर इसकी गुंजाइश और मौका न देख उन्होंने आगे बढ़कर झाडू—टोकरी उठा ली और नुक्कड़ पर इकट्ठा किए गए कचरे के ढेर में से टोकरी में कचरा भरने लगा। अनिल भाई ने भी एक झाडू हाथ में ले ली और कैमरे वालों को इशारा किया। फ्लैश की जलती—बुझती चमक में हाथ में झाडू—टोकरी लिए, कैमरे की तरफ मुस्कान फेंकती मुद्रा में मंत्री जी के फोटो पर फोटो उतरे और शंकर से ट्रेनिंग पाए बस्ती के छोकरों की ब्रिगेड ने मंत्री जी की जयकार से आसमान गुँजा दिया।

बहरहाल फोटो खिंचने के ठीक बाद मंत्री जी दलबल सहित कारों में सवार हुए और रिकार्ड पर अटकी हुई सूई से बार—बार बजने वाली गीत पंक्ति की तरह दुहराई जाती जयकार के शोर के बीच रवाना हो गए।

शंकर ने पाया कि इस आपाधापी में वह बहुत पीछे छूट गया था। अचानक पता नहीं कौन—कौन लोग उसे ठेलते हुए आगे बढ़ गए थे और वह मंच स्थल के पास ही नुची—खुची कागज की झंडियों के बीच एक गैर—जरूरी चीज की तरह खड़ा रह गया था। वहीं कहीं लावारिस—सा पड़ा था सुराजी कॉलोनी का वह सपना जिसे उसने मुकम्मिल करना चाहा था।

आज के इस कार्यक्रम के चलते उसकी जो छवि मोहल्ले वालों की नजरों में थोड़ी उजली हो गई थी वह जैसे फिर माटी में मिल कर मैली हो गई थी। अभी कुछ देर पहले तक उसके प्रति प्रशंसा से भरी उनकी नजरों में अब फिर लानत थी। जैसे हर कोई कह रहा हो अरे हमने तो पहिले ही कहा था यह लड़का बिगड़ चुका है और किसी काम धाम का नहीं।

उसने महसूस किया कि इस वक्‌त उसके भीतर अपनी असफलता की हताशा की बजाए अनिल भाई और उनकी पार्टी के लिए हद दर्ज़े की नफरत का जुनून था जो उसे एक अलग—सी अंदरूनी ताकत दे रहा था। कहने को ये उस राजनैतिक पार्टी के लोग थे जिसके चुनाव घोषणा पत्र में पहिला ही मुद्दा था— हर किस्म के शोषण के खिलाफ कारगर लड़ाई! कितना झूठ! थू! उसने एक तरफ थूका और दृढ़ कदमों से उस तरफ बढ़ा जिधर भिनक रहे कूड़े में से बमुश्किल एक फावड़ा कूड़ा मंत्री जी ने जरा—सा इधर—उधर खिसका कर सफाई अभियान की शुरुआत की थी जिसके बारे में अगले दिन के समाचार पत्रों में कसीदे काढ़े जाने लगे थे।

कुछ देर तक वह कुछ सोचता रहा। फिर कुछ पलों बाद ही मानो एक जुनून में दोपहर की तपती धूप के बावजूद पूरी ताकत के साथ वह कचरे के ढेर की सफाई में जुटा हुआ था। मंत्री जी और उनके लगुओं—अगुओं को विदा कर लौटते हुए मोहल्ले वाले उसके आस—पास इकट्ठा होने लगे। फिर स्वतंत्रता सेनानी सुराजी ने आगे बढ़कर एक टोकरी उठाई और देखते ही देखते तमाशा देखकर ताली बजाने वाले हाथ करतब दिखाने वाले कामकाजी हाथ बन गए।

सुराजी कॉलोनी के स्वच्छता अभियान की वास्तविक शुरुआत हो चुकी थी।

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