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चिठ्ठी आई हे


चिट्ठी आई है

कमलेश भट्ट


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चिट्ठी आई है

शताब्दी एक्सप्रेस ठीक समय से चल पड़ी है। इसके अनुसार कानपुर पहुँचने का समय ग्यारह बज के दस मिनट है। लेकिन प्रायरू यह समय से पहले ही पहुँच जाती है— ऐसा पिछले अनुभव बताते हैं। चलो अच्छा है, मक्खन से मुलाकात कुछ और जल्दी हो जाएगी। साल भर से अधिक समय हो गया है मक्खन से मिले। चिठ्‌ठी मिल गई होगी तो वह स्वयं स्टेशन पहुँच जाएगा। रात फोन पर बात करने का कितना प्रयास किया, लेकिन फोन ही नहीं लग पाया। हर बार एक ही तरह का स्वर सुनाई देता रहा ष्कृपया डायल किया गया नंबर चेक कर लें।

टिप—टॉप दिख रहे गाँव में जब एक के घर कोई लड़की वाला शादी के लिए आता तो विरोधी खेमे वाले उसे भड़काने के लिए हर सूरत कोशिश किया करते। अपने विपक्षी के लड़के के बारे में सही गलत जोड़कर उसे बदचलन और आवारा बताना ऐसी कोशिश का प्रमुख अंग होता था उससे भी काम न चलता तो खानदान के बारे में ऐसे बीसियों ऐब गिना दिए जाते जैसे पिछली सात पुश्तें उनके ही आगे जन्मीं हो। इस कुचक्र में वे उनके नाते—रिश्तेदारों तक को भी नहीं बख्शते थे। इसी बीच वाक्पटु गाँव वाले अपने पक्ष के लड़को का बखान करना भी नहीं भूलते थे। इन सबका परिणाम यह होता कि लड़की वाले भाग खड़े होते थे। संभावित विवाह में अड़चन पैदा करने के ही मुद्दे पर गाँव में हुई कई—कई फौजदारियों के मुक में आज भी कोर्ट में चल रहें हैं। जाहिर है ऐसे गाँव में बेटे की शादी किसी भी माँ—बाप के लिए चुनौती बनी रहती थी और मक्खन की शादी भी ऐसे ही किसी दबाव में बहुत जल्दी हो गई थी।

यह तो गनीमत हुई कि शादी के समय ही मक्खन की बीवी उसके घर रहने के लिए नहीं आ गई, अन्यथा मक्खन की जिंदगी में जो घमासान तीन साल बाद शुरू हुआ, वह शादी के दिन से ही शुरू हो गया होता। हुआ यह कि तीसरे साल जब मक्खन का गौना आया तब वह एम।ए। के पहले साल में था। मक्खन कोई बहुत खूबसूरत किस्म का तो लड़का था नहीं लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उसे बदसूरत कहा जा सके। लेकिन जब उसकी बीवी आई तो पता चला कि वह पक्के रंग की कुछ—कुछ मोटी—सी है और उम्र भी मक्खन से कुछ ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। उसके दो—तीन दरजे तक पढ़े होने की बात का पता तो शादी के समय ही चल चुका था। लड़की का नाम लाली था लेकिन शारीरिक सुंदरता की बहुत ही क्षीण लालिमा ही उसके अंदर दिखाई देती थी। अतरू मुँह दिखाई के समय ही मक्खन की माँ बिफर पड़ी, ष्हाय रे, खराब कर दई मेरे फूल जैसे बालक की जिंदगी। किस जन्म को बदलो चुकायो रे रमनथवा? फिर तो क्या गौने का उत्साह और क्या खुशी— सब ठप हो गया जैसे किसी ने टेप रिकार्डर का स्विच बंद कर दिया हो।

लाली के साथ आई सगुन की मिठाई जिसमें से मक्खन की माँ ने गाँव वालों को बाँटने के लिए एक थाली में निकाला था आँगन में ही लाली की आँखो के सामने कुत्तों को डाल दी गई। सारा माजरा सुनकर मक्खन सकते में आ गया। उसकी कल्पना में खूबसूरती की जो सीमाएँ थी उसमें लाली कहीं फिट नहीं हो रही थी। लेकिन अब क्या हो सकता था यह तो शादी से पहले देखी जाने वाली बातें थीं। सुहागरात जैसी कोई उत्सुकता मक्खन में नहीं रह गई थी लेकिन मन के एक कोने में एक बात जरूर थी कि स्त्री विधाता की सबसे खूबसूरत सृष्टि है तो लाली में भी कुछ न कुछ खूबसूरती तो होनी ही चाहिए। वह इस प्रतीक्षा में था कि कोई उसे किसी बहाने बुलाकर बहू के कमरे में ढकेल देगा और बाहर से कुंडी चढ़ा देगा। लेकिन पूरी रात वह यह र्प्रतीक्षा ही करता रह गया। कोई भी उसे बुलाने नहीं आया। मक्खन मन मसोसकर रह गया बल्कि उसके अंदर एक अपराध—बोध सा भी भर गया कि दूसरे घर से आई लड़की उसके बारे में क्या—क्या सोच रही होगी।

अगले दिन गाँव की एक भाभी से पता चला कि मक्खन की मां ने ही मक्खन को नहीं आने दिया था। यही नहीं उसने बहू को कोसते हुए कहा भी था, ऐसी कुलच्छनी की घर में कोई जरूरत नाय है, वह कल जानों चाय रही होय तो आज—इ चली जाय बाप के घर।

ताजा जख्‌म है तो आज ज्यादा टीस है। कल से धीरे—धीरे सब ठीक हो जाएगा यही सोचकर मक्खन चुप रहा। लेकिन एक—एक करके तीन दिन बीत गए और मक्खन की मुलाकात लाली से नहीं हो सकी। धीरे—धीरे सब रिश्तेदार भी चले गए। आखिर में चौथे दिन मक्खन ने खुद ही लाली से मिलने का निश्चय किया और खाना खा लेने के बाद खुद ही लाली के कमरे की ओर चल पड़ा।

चौकस पहरेदारी में लगी मक्खन की माँ झपटते हुए उसके सामने खड़ी होती हुई बोली, ष्लल्ला, उस भूतनी के पास जाने की कोई जरूरत नॉय। शादी हो गई सो हो गई। एक गलती के बाद दूसरी गल़ती ना करौ। जे चाहै तो बाप को बुलाकर अपने घर चली जावै। मैं तुम्हारी दूसरी शादी कराय दूँगी।

लेकिन अम्मा, शादी में लाली का क्या कसूर है? यही न कि वह खूबसूरत नहीं है— बदसूरत है। तो इससे तुम्हें क्या। लाली के साथ ब्याह मेरा हुआ है, मैं अपने साथ रखूँगा। मक्खन को अपनी तरफ से सख्ती जरूरी लगी।

लेकिन जग हँसाई तो हमारी है रही है लल्ला। जिसे देखो वई ताने मार रिया है कि इकलौती बहू वह भी भूतनी जैसी।ष्मक्खन की माँ ने लड़का हाथ से जाते देख कहा।

तो इसमें लाली की क्या गलती है? क्या लाली जान बूझकर बदसूरत पैदा हो गई? पूछना है तो जाकर भगवान से पूछो कि वह किसी को खूबसूरत और किसी को बदसूरत क्यों बना देता है?

मक्खन की माँ अपने बेटे के मुँह से पहली बार ऐसी ढिठाई भरी बातें सुन रही थी। वह खीझती ही खड़ी रह गई और मक्खन ने लाली के कमरे के अंदर से कुंडी चढ़ा दी।

मक्खन को अपने कमरे में अकेला पाकर लाली उसके पैरों पर भहरा पड़ी। मक्खन ने लाली को उठाकर अपने गले लगा लिया तो देर से रुकी लाली की आँखों से आँसुओं की लड़ी फूट पड़ी।

मक्खन ने लाली को समझा—बुझाकर शांत किया तो वह बोली, ष्आपने मेरे लिए अम्मा से इस तरह झगड़ा क्यों कर लिया? मैं तो जन्म से ही अभागन हूँ, नहीं तो जन्म के साथ ही माँ थोड़े मर जाती। आपने मुझे समझने की कोशिश की, यही क्या कम है। मैं तो स्वयं आपके जोग नहीं हूँ। लाली फिर सुबकने लगी थी।

नहीं लाली, ऐसा नहीं कहते। ठीक है शरीर की सुंदरता भी कोई चीज होती है लेकिन मन की सुंदरता के बिना वह भी बेकार हो जाती है। मैं जानता हूँ तुम्हारा मन सुंदर है। धीरे—धीरे मन की सुंदरता ही तन की सुंदरता बन जाएगी।

तो कुछ इस तरह शुरुआत हुई थी मेरे दोस्त के दांपत्य जीवन की जिसके बारे में उसने गौने के बाद मुझसे हुई मुलाकात में विस्तार से बताया था।

फिर प्रतियोगी परीक्षा में बैठने का सिलसिला प्रारंभ हुआ था। अंततरू संयोगवश हम दोनों को एक ही नौकरी मिली। आस—पास के इलाको में राजपत्रित अधिकारी बनने वाले हम दोनों पहले थे। फिर तो ट्रेनिंग भी हम दोनों की साथ—साथ ही हुई। ट्रेनिंग के बाद मुझे दिल्ली में पोस्टिंग मिली और मक्खन को कानपुर भेजा गया।

उसके बाद दो—ढ़ाई साल का वक्त कब बीत गया, इसका पता ही नहीं चला। इस बीच मेरी भी शादी हो गई। एक बच्चा भी हो गया। शादी में मक्खन से बातचीत का अवसर ही नहीं मिल पाया था व्यस्तता के कारण। उसके बाद मुलाकात का यह अवसर मिल पाया है। कानपुर में औद्योगिक प्रदूषण के अध्ययन का एक प्रोजेक्ट मुझे मिला है। अध्ययन की प्रारंभिक रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिए सात दिन का समय मुझे दिया गया है, जिसके लिए इस यात्रा का अचानक कार्यक्रम बना।

ट्रेन अब तक लगभग पाँच घंटे का सफर तय कर चुकी है। सामने काफी दूरी पर एक ऊँची चिमनी धुआँ उगलती हुई दिखाई देती है। ध्यान आया कि पनकी पावर हाउस है। इसी बीच ट्रेन में मधुर ध्वनि गूँजती है— ष्अब से कुछ ही देर में शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन उत्तर प्रदेश की औद्योगिक नगरी कानपुर पहुँचने वाली है। गंगा के पावन तट पर बसी यह नगरी अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि रही है। यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित बिठूर ष्उदघोषणा पूरी हुई नहीं कि लोग—बाग अपना सामान ठीक करने में लग गए। इस ट्रेन में ज्यादातर यात्री कानपुर के ही होते हैं। मैं भी अपना सामान सहेजने लग गया। ट्रेन की गति मंद पड़ने लगी थी।

प्लेटफार्म पर मैंने ही मक्खन को देखा था। यानी मेरी चिठ्‌ठी मक्खन को मिल गई थी।

मक्खन अपनी सरकारी गाड़ी ले आया था अर्दली भी साथ था। अर्दली ने लपक कर मेरा सामान ले लिया था। मुझसे हाथ मिलाते—मिलाते मक्खन ने कुछ इस तरह से गले लगाकर बाहों में कस लिया कि कुछ क्षण के लिए मैं कसमसाकर रह गया। दोहरी काठी के मक्खन की इस श्परपीड़ाश् में उसकी आत्मीयता रची—बसी थी। ष्पी।के। मैं यह नहीं पूछूँगा कि तुम्हारी यात्रा कैसी रही।ष् गाड़ी की सीट पर बैठते हुए उसने एक खास अंदाज में यह बात कही। ष्लगता है गाँव का असर अभी बाकी है। पी।के। नहीं प्रवीण कुमार कहो।ष् हम दोनों का समवेत ठहाका एक साथ गूँजा।

ष्भाई मक्खन, तुम जो मेरे लंगोटिया यार ठहरे, तुम्हें भला अपने दोस्त के सुख—दुख से क्या मतलब।ष् मैंने दुबारा चुटकी ली थी।

ष्अच्छा तो ये अंदाज हैं जनाब के। किस शायर का असर हो रहा है?ष् मक्खन हल्के मूड में लग रहा था।ष् मैं और शायरी! क्या कमाल करते हो मक्खन।ष् हम दोनों का ठहाका फिर साथ—साथ गूँजा था।

मक्खन के घर पहुँचा तो मेरा स्वागत मक्खन के घर के कुछेक कर्मचारियों ने किया। जाहिर है इस स्वागत में अपनापन कम औपचारिकता ज्यादा थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी कैंप अॉफि़स में आ गया हूँ।

घर में खाना बनाने वाला एक महाराज था और अन्य घरेलू काम—काज के लिए एक नौकर। एक चपरासी को अपने कार्यालय से भी मक्खन ने बुलवा लिया था। मेरे खाने और चाय आदि की विधिवत हिदायत देकर, मेरे साथ चाय पीने के बाद मक्खन अॉफि़स चला गया और जाते—जाते बोल गया था कि शाम का खाना साथ ही खाएगा।

यात्रा की थकान यों तो कुछ खास नहीं थी, लेकिन सुबह जल्दी ट्रेन पकड़ने की चिंता में रात तीन बजे ही आँख खुल गई थी। अतरू शरीर पर खुमारी का असर था। मैं खाना खाकर आराम करते—करते सो गया।

जब तक मेरी नींद टूटी, मक्खन भी अॉफि़स से वापस आ गया था।

ष्अरे, तुम ने तो देर से आने की बात कही थी इतनी जल्दी कैसे?ष् मैंने पूछा।

ष्हाँ एक मीटिंग थी। बॉस के आने से मीटिंग कैंसिल हो गई।ष् मक्खन ने बात स्पष्ट की थी और साथ ही महाराज को आवाज देते हुए बोला, ष्महाराज तुम फटाफट चाय नाश्ता लाओ हम लोग घूमने जाएँगे।ष्

ष्कौन सी जगह घुमाओगे मुझे?ष्

ष्प्रवीण तुम पहली बार इत्मीनान से कानपुर आए हो। शुरुआत जे।के। मंदिर से ही करेंगे। फिर मोती झील की हवाखोरी करेंगे और बाद में मालरोड घूमते हुए वापस आ जाएँगे। मक्खन ने जैसे पहले ही सोच रखा हो।

जब तक मैं फ्रेश होकर बाथरूम से बाहर आया— चाय तैयार हो चुकी थी। ड्रायवर गाड़ी साफ करने में लगा था, चाय पीकर हम दोनों गाड़ी में बैठ गए।

जे.के. मंदिर के दर्शन के बाद मुख्य द्वार के बाहर संगमरमर से बने दूधिया फर्श पर हम दोनों न चाहते हुए भी बैठ गए थे। फर्श की शीतलता अपूर्व सुख की अनुभूति दे रही थी।

ष्मक्खन यहाँ आने के बाद से एक बात मैं बड़ी देर से सोच रहा हूँ लेकिन तुम अपनी तरफ से कोई पहल ही नहीं कर रहे हो।ष्

ष्ऐसी भी क्या बात है?ष्

ष्भाभी के क्या हालचाल है? कहीं विवेक की तरह तुमने भी तो नहीं?ष् मैं कहते—कहते संकोच में पड़ गया।

क्या किया विवेक ने?ष् मक्खन का चेहरा आशंकाग्रस्त हो आया था।

तो तुम्हें पता नहीं?

मक्खन, हम लोग भगवान के घर में हैं। फिर तुमसे झूठ और छिपाव क्या।ष्अफसर बनने के बाद उसने अपनी बीवी बदल ली।

क्या मतलब?

मतलब यह है कि उसने एक और बीवी श्रखश् ली है। पहली बीवी अब गाँव में रहती है। शहर के लिए उसने एक दूसरी लड़की को बीवी की तरह रख लिया है और तो और, सालों से गाँव भी नहीं गया है। माँ बाप बहुत दुखी और चिंतित रहते हैं।

लेकिन उसकी पहली बीवी बुरी तो नहीं थी।

विवेक कहता है कि वह बैकवर्ड लगती है। उसकी सोसायटी में फिट नहीं बैठती नई वाली बीवी क्रिश्चियन है। जींस टॉप वाली।

अरे हाँ मक्खन तुम भाभी वाली बात टाल ही गए। कहाँ है भाभी? ठीक तो हैं न? जे।के। मंदिर घुमाया या नहीं।

नहीं प्रवीण, लाली घर पर ही रहती है। एक बच्चा भी है सोचता हूँ कुछ और बड़ा हो जाए तो अपने पास ले आऊँ और किसी स्कूल में डाल दूँ।

और भाभी?

लाली तो गाँव में ही रहेगी। माँ भी तो है न। जब तक माँ है। माँ को अकेले तो नहीं छोड़ा जा सकता न।

लेकिन माँ तो भाभी को बहुत प्रताडि़त करती होगीं?

तो क्या हुआ। जो माँ को करना है वह माँ कर रहीं हैं, जो लाली को करना चाहिए वह लाली कर रही है। माँ हम लोगों के लिए अच्छा करें तभी हम लोग उसके लिए कुछ करें यह तो कोई बात नहीं हुई। अपने कर्तव्य के निर्वाह में कैसी शर्त और कैसा संकोच।ष्

तो क्या माँ ने भाभी को स्वीकार कर लिया?

ष्बिल्कुल नहीं। वह अब भी लाली से उतनी ही नफरत करती हैं। यही नहीं, नौकरी मिलने के बाद एक बार फिर माँ ने कोशिश की थी कि लाली को छोड़ दूँ। लेकिन मेरी तरफ से हरी झंडी न पाकर चुप हो गई।ष्

विश्वास नहीं होता मक्खन कि एक औरत किसी दूसरी औरत के खिलाफ इस हद तक भी जा सकती है।

मेरा दुर्भाग्य है प्रवीण, और कुछ नहीं। तुम्हीं बताओ क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं लाली की किस्मत से ही नौकरी पाने में सफल हुआ हूँ। मुझे माँ के ऊपर तरस आता है कि जो बहू उनकी तमाम गाली—गलौज के बाद भी पूरे मन से उनकी सेवा में लगी रहती है। उससे अच्छी बहू कौन हो सकती है यह जरा—सी बात भी उनकी समझ में नहीं आती।

मक्खन थोड़ा—सा भावुक हो उठा। गले में जैसे कुछ आकर फँसने सा लगा था। कुछ क्षण की चुप्पी के बाद वह फिर बोला,

सच कहूँ प्रवीण, भाई लाली की जिस्मानी सुंदरता को लेकर मेरे मन में भी एक कुंठा हो जाया करती है, लाली मेरी इस कुंठा को समझती है। शायद इसीलिए मेरे एक दो बार कहने पर भी वह मेरे साथ शहर आने के लिए राजी नहीं हुई। बस चिठ्‌ठी—पत्री आती रहती है। साल छरू महीने में मैं भी गाँव हो आता हूँ।

मक्खन को लगा कि जैसे बहुत देर हो गई। झटके से अपनी बात पूरी करते वह उठ खड़ा हुआ। मैं भी उठ खड़ा हो गया। रात हो जाने के कारण चारों कोनों से पड़ने वाली सोडियम लैंप की लाइट में मंदिर की आभा स्वर्णिम हो आई थी।

घर वापसी तक रात के नौ बज चुके थे। मक्खन तो फ्रेश होने चला गया और मैं उसके ड्राइंग रूम का जायजा लेने लगा।

अचानक एक रैक से इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का एक वाल्यूम निकालते हुए कई लिफाफे गिरकर फर्श पर बिखर गए। उत्सुकतावश मैंने उन्हें उठा लिया। सभी लिफाफों पर एक ही जैसी लिखावट थी तथा सभी डाक से आए थे। थोड़ा ध्यान से देखा तो सभी लिफाफों पर भेजने वाले का नाम अंग्रेजी में लिखा था।

श्हैं! भाभी ने अंग्रेजी सीख ली! और मक्खन ने बताया तक नहीं। बड़ा छुपा रूस्तम है।श् मेरे मन के कोने में हलचल—सी हुई। तभी मेरा ध्यान गया कि लिफाफे तो अभी खोले ही नहीं गए हैं। मैं अचानक किसी उलझन में फँस गया। खैर पूछूँगा बच्चू से। मैं यह सोच ही रहा था कि मक्खन वापस आ गया।

मैंने नाराजगी भरे स्वर में उससे शिकायत की, ष्मिस्टर मक्खन लाल जी, भाभी की इतनी सारी चिठि्‌ठयाँ आईं और तुम ने उन्हें खोलकर पढ़ने तक की जरूरत नहीं समझी। एक तरफ तो भाभी के हमदर्द बनते हो और दूसरी तरफ ऐसी निष्ठुरता। इसे मैं तुम्हारी कुंठा समझूँ या हिकारत। भाई माजरा क्या है?

चलो तुम्हीं खोलकर देख लो माजरा समझ में आ जाएगा।ष् मक्खन गंभीर हो गया।

तो ये बात है! कहते हुए एक—एक कर सारे लिफाफे मैंने खोल डाले। लेकिन ये क्या? सभी लिफाफों में पत्रों की जगह मुडें हुए सादे कागज भर निकले।

इन में तो कुछ लिखा ही नहीं है? मैं हैरान था।

फिर? मेरी उलझन बढ़ रही थी।

ष्प्रवीण, तुम तो मेरे अपने हो। तुम से क्या छिपाना। जब मैं घर जाता हूँ तो अपना पता लिखकर तथा भेजने वाले कि जगह लाली का नाम लिख कर कुछ टिकिट लगे लिफाफे रख आता हूँ। लाली महीने भर में उन्हीं लिफाफे में सादे कागज रख कर मेरे पास भेजती रहती है। अनपढ़ जैसी होने की वजह से कुछ लिख नहीं पाती। इन पत्रों को पाकर मुझे लगता है कि लाली सही सलामत है, जि़ंदा है।

मक्खन के स्पष्टीकरण से मैं ठगा—सा रह गया।

उधर मक्खन की पलकों में आँसू की कुछ बूँदे आकर ठहर गईं थीं।

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