कहानीः
कंक्रीट के जंगल में
यहॉ का मशहूर रेस्टोरेन्ट हैकृ सुकून रेस्टोरेन्ट! शहर के सबसे व्यस्त चौराहे से सटा। शरीर विज्ञान की भाषा में कहे तो ठीक हार्ट आफ द सिटी में स्थित। अब नाम के अनुरूप लोगो को यहॉ पहॅुच कर सुकून मिलता है या नही और मिलता भी है तो कितना घ् अपने आप में जटिल शोध का विषय है। पर आगुंतको को देख केबिन में बैठे मालिक को जिस घोर सुकून की प्राप्ति होती हैए वह सर्व विदित है। शाम के वक्त यहॉ की रौनक कई गुना बढ़ जाती है। वैसे इस नव आधुनिक शहर के मूल में व्याप्त जाहिलपन को उजागर करती प्रथम दृष्टतया आपत्तिजनक लगने वाली बात यह है कि यहॉ पधारने वाले अधिकांश शक्स बाहर मोटे अक्षरो में लिखे श्श्नो पार्किगश्श् बोर्ड की मॉकृबहन करना अपना नैतिक धर्म समझते है। और साथ ही इस हरकत को अपनी शान में वृद्धि से जोड़कर देखतेे है। ऐसी अव्यवस्था के बावजूद ग्राहको की आमादरफ्त हैए जो थमने का नाम नही लेती।
मोटरसाइकिलो और मारूती एट हंड्रेड जैसी छोटी कारो की अनवरत आवाजाही के बीच कुछ महगीं चमचमाती गाड़ियॉ भी आकर यहॅा रूकती हैए जिनमें से अक्सर उतरते देखता हॅूण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्परफ्यूमकृडियो की मादक खुशबू से लबरेज टाइट जींसधारी पे्रमी युगलए स्थानीय इंजीनियरिंग कालेज पर रहम खाते रईस घरो से आये छात्रकृछात्राओ के समूहए काम्प्लान पोषित फूल से खिले बच्चेए चटक परिधानो में लिपटे नवविवाहित जोड़ेए स्थूलकाय सेठकृसेठानियांए आफिसर्सए नेतागणए ठेकेदारण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्वगैरह को।
फिलहाल अभीकृअभी आकर पार्क हुई ग्रे कलर की होण्डा सिटी से उतरने वालो में एक सुदर्शन पुरूष ए स्मार्ट मेम साहब व गोलकृमटोल बच्चे के साथ थीकृ पावर चश्मेएखिचड़ी बालेा वाली बृद्ध मॉ। ऐसी रंगीनियो भरी ग्लैमरस जगह के लिए अनुपयुक्त। किसी विलुप्त हो रही दुर्लभ प्रजाति सरीखी। मेरा ध्यान बरबस उनकी ओर खिचता चला गयाण्ण्ण्ण्
गेट पर तैनात दरबान ने जब यंत्रवत झुककर सलाम ठोकाए तो ऐसी कृत्रिम सम्मान की आदी मेमसाहब सामान्य भाव से आगे बढ़ गयी। बच्चे की अगुली थामे । पर मॉ साथ में चल रहे सहारा देने को तत्पर बेटे को बड़ी आत्मीयता से निहार उठी।
अन्दर टेबुल का दृश्य और भी दर्शनीय था। परिवार वहॉ मॉकृबेटे के दो समूहो में विभक्त हो गया थाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्।
श्श् नहीण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्सोनू नही अभी आइसक्रीम नही। पहले तुम कोई हेैवी डिनर ले लोण्ण्ण्ण्ण्। देखो दिन में भी तुमने ठीक से लन्च नही लिया थाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्श्श् एक ओर नन्हे बेटे का पुचकार कर उसकी मॉ खिला रही थी तो दूसरी ओर बड़ा बेटा मॉ का मनुहार कर रहा था
श्श् मॉए यह डिश लीजिए मैने खास आपके लिए मगवायी हैण्ण्ण्ण्ण्ण् श्श्
श्श् नही कृनहीए अभी बीमारी से उठी हॅू। कही कुछ नुकसान कर गया तोण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्।श्श्
श्श् अरे मॉए आप भीण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् खायेगी नही तो भला ताकत कैसे आयेगीण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् लीजिए यह शुद्ध ऊड़द दाल से बनाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्उतप्पम !श्श्
नाकृनुकुर करती हुई बृद्ध मॉ के झुर्रियो भरे चेहरे से संतोष झर रहा था। गुलमोहर के फूल जैसा। ऑखो की चमक बता रही थी कि बेटे की तवज्जो से वह निहाल हुई जा रही थी । ए0सी0 के ठण्डे माहोैल पर रिश्तो की गर्मी हावी थी। उन्हे तल्लीन हो देखतेकृदेखते ऑखो में मॉ का चेहरा कौंध गयाण्ण्ण्ण्ण् कैसे रात में नींद से जगाकर मुझे एक गिलास दूध पिलाने में मॉ श् भगीरथ प्रत्यनश् कर डालती थी। पिताजी खीजते रहते और कहते कि एक दिन दूध नही पियेगा तो कौन सा दुबला हो जायेगा घ् पर मॉ एक न सुनती । भयकृडॉटकृपुचकार की कुछ देर चली कार्यवाही के पश्चात जब श् आपरेशन मिल्कश् समाप्त होता और मै खाली गिलास उसकी ओर बढ़ाताए तो अद्भुत आत्मसंतोष से भरी मॉ उसे कुछ इस ठसक भरे अंदाज से पकड़ती जैसे पाकिस्तान के विरूद्ध शतक ठोकने के बाद भारतीय बल्ले बाज अपना बल्ला पकड़ता है। सर्दी के दिनो में एक छीक आते मॉ मुस्तैद सिपाही की भाति बिना समय गवाये जवाबी आक्रमण कर देतीण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
सरसो का तेल गुनगुना करती। उसमें अजवाइन मिलाती और फिर मेरे शरीर की विधिवत मालिश शुरू हो जाती। बाहर खेलने जाने के लिए मै रोता चिल्लाता रहता। पर मॉ मेरे शरीर में कटोरी भर तेल सुखाकर ही दम लेती थी।
निःसदेह मुझे उच्च शिक्षा दिलाने में एक समान्य अभिभावक से कही अधिक कष्ट झेलने पड़ेए मेरे मॉकृबाप को। फैजाबाद में रहकर एमण्बीण्एण् की पढ़ाई के दौरान घर की अर्थव्यवस्था काफी डामाडोल हो गयी थी। एड़ियो में फफूदी जैसी उग आयी बिवाइयो से बचाव के लिए अत्यन्त आवश्यक एक अद्द हवाई चप्पल की अनदेखी करती मॉ जब पिताजी से मेरे लिए नये चमड़े के जूते लाने को कहती तो मैं अन्दर ही अन्दर कॉप उठता। मुझे चिन्तित देख मॉ कहतीए श्श् तू चिंता काहे करत है बेटाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् सब भगवान पूरा करत हैण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्हुऑ तू बड़े घर के लड़कन के बीच मा उठतकृबइठत हैण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्बस यही से चाहित है कि तू अपटूडेट बनके रहयै कोई से उन्नीस न रहयैण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् तोहरे जूते की शक्ल बतावत है कि कबहु फट सकत हैण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्श्श् छुट्टियॉ बिताकर घर से फैजाबाद के लिए निकलते समय मॉ ने निश्चित नियम सा बना लिया थाण्ण्ण्ण्ण्ण् देर तक मुट्ठी में रखे जाने से पसीज गये कुछ तुडे़कृमुड़े नोट वह मेरे पैन्ट की जब में डाल देतीए पिताजी की नजर से बचाकर। उनमें से अधिकतर दसकृपॉच के वे नोट होतेएए जिसे मॉ अपने ऊपर होने वाली बेहद आवश्यक खर्चो में से अभूतपूर्व कटोैती करके जमा करती थी। इन नोटो में जाने कैसा आकर्षण होता कि खर्च करने का जी न करता। एकान्त में जब भी इन्हे देखता तो ये मॉ के त्याग व समर्पण की जीवांत तस्वीर से दिखते। इनकी चमक के आगे विश्व बैंक का खजाना भी फीका पड़ जाता।
मॉ की असाधारण उदारता उसके प्रति श्रद्धा में तो अपार वृद्धि करतीए पर मेरे भीतर एक हीन भावना सी भर देती। शायद इसी से कुछ उबरने के क्रम में दिवाली की छुट्टी में घर लौटाए तो जेब खर्च में मामूली कटोैती कर मॉ के लिए एक जोड़ी चप्पल ले आया। मुझे कत्तई आभास न था कि इसे पाकर मॉ निहाल हो जायेगी और उसमें प्रेमचन्द जी की कहानी श् ईदगाह श् का दादी मॉ वाला पात्र एकाएक जीवांत हो उठेगा गॉव का शायद ही कोई अभागा बचा रह सका होगा जिसे मॉ ने वह चप्पल न दिखायी हो। मेरा गुणगान करते।
अचानक एक सहकर्मी मनोज ने आकर मुझे झिझोड़ दियाएश्श् अबेए उधर क्या इतना रम कर देख रहा हैए सिम्पल फैमली ड्रामा हैण्ण्ण्ण्ण्ए वो उधर देखण्ण्ण्ण्ए कोने वाली टेबिल परण्ण्ण्ण्ण्ण्प्रेम की पाठशाला चल रही हैण्ण्ण्ण्ण्थोड़ा सा प्यार हुआ है थोड़ा है बाकी ण्ण्ण्ण्ण्अरे हम जैसे ढीठ घूरने वाले न होते तो अबतक तो इन बेशर्मो ने कलाइमेक्स भी फिल्मा लिया होता ण्ण्ण्ण्ण्।श्श् व्यंग्य भरी मुस्कान फेक कर उसने एक लिफाफा थमा दिया था। स्पीड पोस्ट डाक। पिताजी की लिखावट थी। किसी अनिष्ट की आशंका से दिल जोरकृजोर से धड़कने लगा। हफ्ते भर पहले भी उनका एक पत्र मिला थाए जिसमें मॉ की तबीयत न ठीक होने का जिक्र था। पर व्यस्तता के चलते या सच कहूॅण्ण्ण् मन एक कोने में पड़े ओबरटाइम के लालच ने मुझे एक बारगी स्वार्थी बना दिया था। बेहद तंग दिल। कंक्रीट के जंगल में रहतेकृरहते आत्मा का पथरा जाना इसी को कहते है। भीतर जड़ जमा चुके शातिर व्यवसायी ने मुझे इस उधेड़बुन में उलझाये रखा कि खुद जाकर मॉ से मिल आऊॅए उसके इलाज की व्यवस्था देख लूॅ या पिता जी को मनी आर्डर भेज दू। जबकि वह इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ था कि मनीआर्डर हजार पॉच सौ भेजना है नही। शहर के अच्छे खासे डाक्टर की फीस पॉच सौ रूपये लग जाती है। आने जाने का किरायाए जॉच दवा का खर्च इससे कई गुना अधिक बैठता है। ऐसे मे चारकृपॉच हजार से कम भेजने का कोई मतलब न था और इतने पैसे की व्यवस्था पहली तारीख से पहले बिल्कुल सम्भव न थी। महीने का आखिरी हफ्ता था। कुछ रूपये एकाउंट में पड़े तो थे पर उसमें और जोड़कर बीमे की किस्त निपटानी थीए तीस तक। हर हाल में। बीमाकृकम्पनी से दसियो बार रिमाइन्डर आ चुका था।
कॉपते हाथो से लिफाफा खोलकर देखा तो पिताजी का मुझे अब तक का सबसे संक्षिप्त पत्र था। बिना सम्बोधन व आशीर्वाद के बेहद हड़बडी में लिखा गया कृ श्श् तुम्हारी मॉ को दिल का गम्भीर दोरा पड़ा है। इस समय वह जिला अस्पताल के इमरजेंन्सी वार्ड में भर्ती है।श्श् मै जड़वत बैठा रह गया। निष्प्राण सा। शरीर हरकत के परे था पर ऑखे ड़बडबा आयी। क्षण भर में उनमें नमी का सैलाब उमड़ पड़ा। अब इन ऑसुओ में मॉ का विशुद्ध मोह ही था या पश्चाताप का कोई भाव भी। मै कुछ ठीककृठीक से समझ नही पा रहा था।
प्रदीप मिश्र
संपर्क रूकृ द्वारा कृष्णा पुस्तक केन्द्रए तहसील गेट के सामनेए जनपद बलरामपुर
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