तदबीर से बदली तकदीर
मुश्किल हालात से डर कर उसके सामने घुटने टेक देना कोई समझदारी नहीं होती। हालात चाहे जितने भी खराब और विपरीत क्यों न हों, इंसान को अपना संघर्ष हमेशा जारी रखना चाहिए, क्योंकि हालात का सामना करना उससे लड़ना, लड़कर गिरना और फिर उठकर संभलना ही तो जिंदगी है। तकदीर के भरोसे रहने वालों को केवल उतना ही मिलता है, जो कोशिश करने वाले अक्सर छोड़ देते हैं। इसका मतलब तदबीर से ही तकदीर बनाई जाती है। अमोल के लिए भी हालात सामान्य नहीं थे, जब वो कुछ ही साल का था तो उसके पिता दुनिया से चले गये थे। ऐसे हालात में घर चलाने की जिम्मेदारी अमोल के कंधों पर आ गई। इसलिए वो कभी ब्रेड बेचने का काम करता तो कभी टायर बदलने का। ऐसे कामों से अमोल को जो थोडे बहुत पैसे मिलते उससे वो अपना घर चलाता। घर में उसकी मां चूल्हा जला सके इसके लिए वो आसपास के इलाके में घूम घूम कर कोयला बीनता था। तब वो चाहता तो अपनी किस्मत को कोसते हुए हिम्मत हार जाता, लेकिन उसने अपनी तकदीर बदलने की ठानी और अपनी मेहनत और हिम्मत के कारण आज अमोल मैकेनिकल इंजीनियर है और दुबई में एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े पद है।
बावजूद इसके वो अपने पुराने दिनों को नहीं भूला है, तभी तो उसने वो काम किया जो मुकाम हासिल करने बाद लोग अक्सर भूल जाते हैं। अमोल ने अपने जैसे दूसरे गरीब बच्चों को ऐसे दिन ना देखने पड़े इसके लिए नौकरी के साथ एक सामाजिक संगठन बनाया। जिसके जरिये वो गरीब बच्चों में एक उम्मीद भर रहा है और एक दिन वो बच्चे डॉक्टर और इंजीनियर बन सके इसके लिए उनकी मदद कर रहा है। आज भी अमोल को अच्छी तरह याद है कि जब वो इंटर की पढ़ाई पूरी कर रहा था तो उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वो अपनी आगे की पढ़ाई को जारी रख सके, क्योंकि पढ़ाई में होशियार अमोल दूसरे बच्चों को ट्यूशन देकर घर का खर्च चलाता था। अमोल की पढ़ाई बीच में छूटती उससे पहले उसके दोस्त उसकी मदद को आगे आये और उन्होने मिलकर अमोल के लिए पैसे जुटाये ताकि वो नागपुर के एक बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज से बी-टेक की पढ़ाई कर सके। अमोल का सपना सच हो रहा था और उसकी मेहनत रंग ला रही थी। यही वजह थी कि बी-टेक की फाइनल परीक्षा में वो पहले स्थान पर आया। कॉलेज ने उसे इनाम के तौर पर 13 हजार 500 रुपये दिये। अमोल खुद्दार था वो जानता था कि बीटेक जैसी पढ़ाई पूरी करने के लिए किताबें कितनी जरूरी होती हैं। इसलिए उसने इनाम में मिले वो पैसे कॉलेज की लाइब्रेरी को दान में दे दिये, ताकि लाइब्रेरी में इंजीनियरिंग से जुड़ी नई किताबें उन लोगों के लिये आ सकें जो पैसे की कमी के कारण किताबें नहीं खरीद पाते। इस तरह अमोल ने बी-टेक तो किसी तरह कर लिया था लेकिन उन्होने दूसरे बच्चों को पढ़ाना नहीं छोड़ा था। अब वो चाहता था कि अपनी पढ़ाई को आगे भी जारी रखे और एम-टेक करे, लेकिन एक बार फिर वही समस्या पैसे की तंगी उसके सामने आकर खड़ी हो गयी और उसको आगे की पढ़ाई के लिए अपना विचार छोड़ना पड़ा। बी-टेक की पढ़ाई पूरी करने के बाद अमोल एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने लगे। काम के सिलसिले में उनको कई देशों के यात्रा भी करनी पड़ी। इन्ही यात्राओं के चलते उनको एक बार युगांडा जाने का मौका मिला। जहां की गरीबी और कुपोषण को देखकर उन्होने फैसला किया कि वो शिक्षा के क्षेत्र में जो काम अपने स्तर पर कर रहे हैं उसे और ज्यादा फैलाने की जरूरत है। इसके लिए उन्होने अपने कुछ खास दोस्तों से बातचीत की और एक सामाजिक संगठन की नींव रखी। इस तरह अमोल जहां अच्छी खासी नौकरी कर रहा था वहीं दूसरी ओर वो अपने दोस्तों के साथ मिलकर ऐसे बच्चों की आर्थिक मदद में जुट गया जो पढ़ना तो चाहते थे, लेकिन गरीबी के कारण वो अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पा रहे थे। नौकरी के साथ अमोल शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहा था लेकिन वो चाहता था कि सामाजिक कामों के क्षेत्र में अपना दायरा बढ़ाये। इसके लिए उसने एक बार फिर अपने दोस्तों को जोड़ा और महाराष्ट्र के छह गांव गोद लिये। यहां पर उसने एक खास तरह का कार्यक्रम चलाया और उसका नाम रखा ‘विद्यादीप’। अमोल और उसके साथियों ने इस कार्यक्रम के तहत उन गांव में सौलर लैंप दिये जहां बिजली की काफी किल्लत थी। ऐसे में वहां रहने वाले बच्चे उनके दिये सोलर लैम्प के कारण अपनी पढ़ाई अच्छी तरह से करने लगे। इतना ही नहीं अमोल और उसके साथियों ने मिलकर प्रशासन पर इतना दबाव बनाया कि महाराष्ट्र के लोनवारी गांव में 67 सालों बाद बिजली की व्यवस्था हुई और गांव को पक्की सड़क से जोड़ा गया। प्रशासन से मिले सहयोग के कारण अमोल ने गांव के स्कूल को ना सिर्फ डिजिटल रूप दिया बल्कि सोलर पंप की मदद से उन्होने यहां पर पानी भी पहुंचाया है। इस तरह जिस गांव में सालों तक बिजली, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं कोसों दूर थी वो अमोल और उसके साथियों की कोशिश से दूसरे प्रगतिशील गांव को टक्कर देने लगा।
अमोल ने पिछले कुछ सालों में देखा था कि निश्चित आय ना होने की वजह से जब किसान की फसल सूखे या बारिश के कारण बर्बाद हो जाती थी तो वो आत्महत्या कर लेता था। इसे ध्यान में रखते हुए अमोल ने साल 2014 में किसानों के लिए एक ट्रस्ट बनाया। इसके तहत आत्महत्या कर चुके किसानों की विधवाओं को सिलाई की ट्रेनिंग देकर उन्हें सिलाई मशीन दी गई। ये महिलाएं अपने पैरों पर खडी हो सकें इसके लिये ट्रस्ट के जरिये भैंस, बकरी जैसे पालतू जानवरों के साथ विधवाओं को कैंटीन तैयार करके दी गई। ताकि हर महीने उन्हें एक निश्चित आय मिल सके। इतना ही नहीं ट्रस्ट ने उन किसानों को भी अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश की जो आर्थिक रूप से कमजोर थे। साथ ही किसानों को बढ़िया किस्म की खेती का ज्ञान विशेषज्ञों के जरिये दिलाना शुरू किया। ये अमोल और उसके साथियों की कोशिशों का नतीजा है कि किसानों की आत्महत्या में कमी आने लगी है। आज अमोल भले ही दुनिया के किसी कोने में हों, लेकिन वो अपना बीता कल नहीं भूला है। इसलिए जब भी ये किसी बच्चे को हायर एजुकेशन के लिए स्कॉलरशिप देते हैं तो उसे नौकरी मिलने के बाद वो उससे कहते हैं कि उसे जितनी स्कॉलरशिप मिल रही थी उतनी ही स्कॉलरशिप वो किसी गरीब बच्चे को दे दे। जिससे दूसरे बच्चे भी तरक्की कर सके।
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लेखक : हरीश बिष्ट