कबीरदास-कृतित्व और व्यक्तित्व shipra singh द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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कबीरदास-कृतित्व और व्यक्तित्व

पे्ररक व्यक्तित्व

कबीरदास

—शिप्रा सिंह

भक्ति और कविताई दोनों ही मोर्चों पर अपना परचम लहराने वाले कबीर का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही अपने आप में अनूठा और निराला है।

मध्यकाल में अज्ञानता, परंपराओं और कर्मकांडों में उलझे भारत को गहरी नींद से झकझोर कर उठाने वाले कबीर एक ऐसे महापुरुष के रूप में जाने जाते हैं जो रूढ़ियों, कर्मकांडो से मुक्त नई मानवता की रचना करना चाहते हैं जो जाति, वर्ण की दीवारें गिराकर एक नए रूप में खुद को गढ़ना चाहते हैं और एक ऐसी मानवता की इबारत रचना चाहते हैं जो धार्मिक कट्‌टरता, कुरीतियों, अंधविश्वास से मुक्त तथा सौहार्द्र, प्रेम, भाईचारा, सद्‌भावना आदि से युक्त हो। कबीर के शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैंं, उनकी आवाज ने न जाने कितनों को रोशन किया। वह ज्ञानी नही थे ककहरा भी नहीं पढ़ा था लेकिन उनसे बड़ा ज्ञानी कोई नहीं था। शायद इसीलिए उन्होंने कहा था ‘‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई''।

————कबीर न तो मात्र कवि हैं और न ही समाज सुधारक है———— वे देश और काल से परे एक ऐसे सच्चे उपदेशक हैं जिनकी काव्य प्रतिभा अद्वितीय है।

कबीर के बारे में हिंदी के शीर्षस्थ बुद्धिजीवी हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं ‘‘सिर से पैर तक मस्त—मौला, स्वभाव से फक्क्ड़, आदत से अख्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के सामने प्रचंड, दिल के साफ, दिमाग के दुरूस्त भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय हैं कबीर।

काशी में प्रगट भए—

विक्रम संवत 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के दिन कबीर जन्मे थे। एक कथाश्रुति के अनुसार जुलाहा दंपति नीरू व नीमा को कबीर बनारस के पास लहरतारा नामक तालाब के पास नवजात शिशु के रूप में मिले थे। इनके जन्म से संबंधित ये दोहा प्रसिद्ध है—

चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार एक ठाठ हुए।

जेठ सुदी बरसाइत को, पूरनमासी प्रगट भए।

धीरे—धीरे वक्त बीतता गया। किलकारियां मारता शिशु नीरू—नीमा का मन मोह लेता था इसे वे बहुत प्यार करते थे। जुलाहा दम्पति इस अनामंत्रित मेहमान को बोझ नहीं वरदान समझता था और बड़े लाड़ प्यार से उसका नाम कबीर रखा।

अपने शुरूआती दिनों में कबीर को कठमुल्लाओं को विरोधों का बहुत सामना करना पड़ा। लोग उनके विरोध में तरह—तरह की कहानियां गढ़ते थे। कोई कहता था कि कबीर किसी विधवा ब्राहमणी की अवैध संतान हैं जो लोकलाज के भय से उनको लहरतारा तालाब के पास छोड़ गई थी। तो कोई यह कहते बाज नहीं आता था कि ये बच्चा नीमा का ही है और अपना अपराध छुपाने के लिए एक काल्पनिक कहानी गढ़ ली है। बाद में कबीर ने समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों की जमकर खबर ली और उनको धर्म का मर्म तथा कर्म का महत्व समझाया।

मसि कागद छुयो नही, कलम गही नहिं हाथ

कबीर के जमाने में प्रचलित, पाखंड, कट्‌टरता, और दिशाहीनता और उनकी स्वयं की निर्धनता के कारण वह मदरसे नही जा सके। नन्हे कबीर को खुद भी स्कूल जाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिए वे अपने पिता नीरू के साथ करघे का काम सीखने में मन लगाने लगे।

कबीर ने जीवनरूपी पाठशाला में अध्ययन किया था। जिसके लिए पुस्तक नहीं धर्म का मर्म और सच्ची राह को जानने की आवश्यकता थी। कबीर ने तत्कालीन समाज को जगाने के लिए जड़ता के विरूद्ध संघर्ष किया। कबीर के आगमन का समय भारत में अंधकार काल जैसा था। भक्ति की रोशनी जलाने की भी जरूरत इसीलिए महसूस हुई।

बिना मदरसे गए, बिना कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण किए, कबीर ने ज्ञान की एक ऐसी अलख जगाई है जिसके पीछे पूरा समाज चल पड़ा और पूरे समाज में ज्ञान और चेतना की लहर दौड़ गई।

जप माला छापा तिलक, सरै न एको काम

कबीर एक ऐसे धर्म को मानने वाले थे जो आपसी प्रेम, भाईचारा, सौहार्द्र और व्यावहारिक कसौटियों पर खरा उतरता था। वह सभी प्रकार के पाखंड, धार्मिक कट्‌टरता, रूढ़ियों और कुरीतियों के खिलाफ थे। कबीर सदैव राम—राम, गोविंद—गोविंद, हरि—हरि का उच्चारण करते रहते थे हालांकि उनके राम दशरथ पु़त्र मर्यादा पुरूषोत्तम राम नही थे। वह परमात्मा को राम कहते थे। इसी संबंध में आत्मा का परमात्मा से संबंध दर्शाते हुए वे कहते हैं—

राम मोरे पिउ, मैं राम की बहुरिया।

वे ईश्वर को माता—पिता, मित्र, पति के रूप में सहजभाव से स्वीकारते थे। कबीर की इन्हीं बातों की वजह से कट्‌टरपंथी और समाज के तथाकथित धार्मिक ठेकेदार उनके विरुद्ध हो गए और कबीर को काफिर घोषित कर उन्हें बुरा—भला कहने लगे और स्वयं को श्रेष्ठ बताने लगे। इस पर कबीर दास ने प्रहार करते हुए उन्हीं की भाषा में जवाब दियाः—

कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय।

तापर मुल्ला बांग दे, का बहरा हुआ खुदाय।

वह जीव जंतुओं के प्रति हिंसा मांसभक्षण के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि दूसरों को दुख पहुँचाकर हिंसा करके यदि धार्मिक कर्मकांडों को किया भी तो क्या किया।

रोजा के बाद अखाद्य ग्रहण करते वाले मुस्लिमों की खबर लेते हुए कहते है—

दिन में रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय।

यहाँ खून वै वंदगी, क्यों कर खुशी खोदाय।।

मांस भक्षण और जीवों के प्रति हिंसा करने वालों के सख्त खिलाफ हैं वो। वे कहते है—

बकरी पाती खात है, जाको काढी खाल।

जो नर बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल।।

वे साधु—संतों और सूफियों व फकीरों की संगति करते दिखते हैं लेकिन पंडितो, कठमुल्लाओं आदि से दूर भागते हैंं हिंदुओं की धर्मांधता के बारे में वे कहते हैं—

हिंदू बरत एकादशी साधे दूध सिंघाड़ा सेती।

अन्न को त्यागे मन को न हटकै पारण करै सगौती।।

उनका कहना था कि दूसरों का माल लूटने, कपट कर ठगने, वाला काफिर होता था। भगवान के भक्तों को काफिर कहना बुद्धिहीनता है।

गला काट कर विसमिल करें, ते काफिर बेबूझ।

औरन को काफिर कहै, अपनी कुफ्र न बूझ।।

कबीर को अपने जीवन काल में अपनी मुखर विचारधारा और खरी—खरी बातों और कुरीतियों का विरोध करने के कारण कदम—कदम पर तमाम विरोधों का सामना करना पड़ा। वह किसी की सुनी—सुनाई बात पर विश्वास नहीं करते थे बल्कि सत्य पर चलने वाले थे, वह धर्मों से परे मानवता की राह पर लगातार चलते रहे हैंं। वह बहुदेववाद पर विश्वास न करके केवल एक ईश्वर को मानते थे। वह कहते थे—

‘‘अल्लाह, राम करीमा, केशव, हरि हज़रत नाम धराया।''

गगगगगगगगगगगग

वही महादेव, वही मुहम्मद, ब्रह्म आदम कहिए।

को हिंदु को तुरक कहावे, एक जिमीं पर रहिए।।

कबीर के दार्शनिक विचार

कबीर निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के अनुयायी थे। उनकी वाणी में सहज ही ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, बह्‌म, जीव जगत, आत्मा मन, मुक्ति, मोक्ष, गुरूमहिमा आदि गूढ़ तत्वों का प्रकटीकरण होता है। वह ईश्वर, के निराकार स्वरूप में विश्वास करते थे, उनका ईश्वर ऐसा अनुपम तत्व है जो कि पुष्पवास से भी अधिक सूक्ष्म हैः

जाके मुंह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप वास तैं पातरा, ऐसा तत्व अनूप।।

कबीर ने अपनी रचनाओं में जीव, जगत और उनके पारस्परिक संबंधों पर भी स्पष्ट विचार रखे हैं। वह कहते हैं इस जगत में ब्रहम ही एकमात्र सत्ता हैं, उसके अतिरिक्त संसार में कुछ नही है जो कुछ है ब्रहम है, ब्रहम से ही संसार की उत्पत्ति होती है और अंत में संसार ब्रहम में ही लीन हो जाता है। वह कहते हैं—

पानी ही ते हिम भया, हिम हो गया बिलाय।

जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाए।ं

जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तत कथौ गियानी।।

वह अहंकार को बहुत हेय दृष्टि से देखते हैं, उनका कहना या अहंकार करने के बारे में वह कहते हैंः—

एक लाख पूत सवा लाख नाती।

ते रावन घर दिया न बाती।।

कबीर ने माया को मोहिनी के समान बताया है। वह कहते हैं सारा संसार माया के वश में है और इससे बच पाना बहुत ही कठिन है।

‘‘माया दीपक नर पतंग है, भ्रम—भ्रम इवेैं पड़ंत''।।

कबीर की रचनाओं में जन्म—मरण से छुटकारा पाने, भव बंधन से छूटने आदि प्रकार के वर्णन अनेक जगहों पर आए हैंं। कबीर के अनुसार मुक्ति सभी प्रकार के बंधनों तथा जन्म मरण के बंधन से छुटकारा दिलाने वाली जीवन अवस्था है।

कबीर की गुरू महिमा तो सबसे निराली हैं वह गुरू और शिष्य के बीच बहुत विश्वास का भाव देखते हैं और गुरू की महिमा को अपरंपार बताते हुए उसे ईश्वर से भी श्रेष्ठ ठहराते हैं—

जाके मन विश्वास है, सदा गुरू है संग।

कोटि काल झकझोरहीं, तउ न हो चित भंग।।

गुरू गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांव।

बलिहारी गुरू आपने, गोविन्द दियो बताय।।

राम मोरे पिउ

कबीर की भक्ति का मुख्य तत्व प्रेम है और कबीर की भक्ति में यह प्रेम आधारभूत होकर आया हैं । ज्ञान की सहायता से मन को निर्मल करके भगवत प्रेम की प्राप्ति ही कबीर का लक्ष्य था। कबीर को यह प्रेम भक्ति अपने गुरू से मिली है—

सतगुरू हम सौं रीझि करि, कहा एक परसंग।

बरसा बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंड्‌.ग।।

कबीर का यह प्रेम रति भाव का है, इसमें सभी प्रकार की दूरी समाप्त हो जाती है। लघुता और हीनता की भावना का अपने आप लोप हो जाता है।

कबीर ने ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति वात्सल्य स्वरूप में भी की हैं इस स्वरूप में उन्होंने ईश्वर को माँ और स्वयं को बालक कहा है—

‘‘हरि जननी मैं बालक तोरा''

प्रेमी—प्रमिका के विरह प्रेम की भांति वह ईश्वर प्रेम में व्याकुल होकर सहसा पुकार उठते हैं—

आंखड़ियां प्रेम कसाइयां, जग जाने दुखाड़ियां।

राम सने ही करणे, रोई रोई रातड़ियां।।

आंखड़ियां झाई परी, पंथ निहारि—निहारि।

जीभडियां छाला पड़या, राम पुकारि—पुकारि।।

भाषा बहता नीर :

कबीर की भाषा को लेकर साहित्य जगत में तरह—तरह के विचार प्रचलित हैं। कोई उनकी भाषा को सधुक्कड़ी कहता है तो कोई पंचमेल खिचड़ी। कोई उनकी भाषा को अपरिमार्जित तथा अनगढ़ बताता है तो कोई उसमें विकृत रूपों के दर्शन करता है। कबीर की भाषा में अनेक भाषाओं का मिश्रण पाया जाता है। कुल मिलाकर हम देखें तो पाएंगे कि उनकी वाणी बहुरंगी है जैसे एक ही पौेधे में विभिन्न जातियों के फूल खिले होंं।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार कबीर की रचना, पद, साखी और रमैनी के रूप में उपलब्ध होती है। इनमें से साखी की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात्‌ राजस्थानी—पंजाबी मिली खड़ी बोली है पर रमैनी और सबद में ब्रजभाषा तथा कहीं—कहीं पूर्वी बोली का प्रयोग हुआ है।

कबीर ने अपनी भाषा में विभिन्न शब्द शक्तियों, अलंकारों का प्रयोग बड़ी ही स्वाभाविक व सहज तरीके से किया है।

कबीर की रचनाओं में पाई जाने वाली भाषिक वैविधता का महत्वपूर्ण कारण यह है कि कबीर ने अपनी रचनाओं को स्वयं लिपिबद्ध नही किया है। नित्य प्रति प्रवचन, सत्संग या फिर बातचीत के दौरान वे जो कुछ बोलते थे उसे उनके अनुयायी लिपिबद्ध कर लेते थे। कई बार तो ऐसा भी हुआ है श्रुति —परंपरा के आधार पर, बाद में अलग समय और स्तर पर कागज का उकेरा गया। इन वजह से कबीर की कृतियों में भाषा का बहुरंगा स्वरूप नजर आता है।

मिल्यो पवन में पवन

ऐसा कहा जाता है कि जीवन भर काशी में रहने के बाद कबीर अपने अंतिम समय से मगहर चले आए। मगहर में ही कबीर ने प्राण त्याग दिए। एक जनश्रुति के अनुसार कबीर की मृत्यु के बाद उनके समर्थकों के बीच तनाव व्याप्त हो गया। उनके प्रमुख शिष्य वीर देवसिंह के नेतृत्व में हिंदू धर्मावलंबी चाहते थे कि कबीर की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार हिंदू रीति से हो जबकि बिजली खान के नेतृत्व वाले मुस्लिम शिष्यों ने मांग किया कि शव को दफनाया जाना चाहिए। इसी विवाद के दौरान तेेज हवा चली और उनके शव से चादर हट गई तब देखा गया कि वहां फूलों का ढेर लगा हुआ है। इसके बाद दोनों पक्षों ने आधे—आधे फूल बांट लिए। हिन्दुओं ने इन्ही फूलों से मगहर में समाधि बनवाई और मुसलमानों ने मकबरे का निर्माण कराया। शिष्य सुरतिगोपाल ने काशी के कबीर चौरा में समाधि बनवाई।

कबीर की मृत्यु के संबंध कोई स्पष्ट तारीख का पता नहीं चलता है। इनकी मृत्यु के संबंध में निम्नलिखित दोहा प्रचलित है—

संवत पंद्रह सौ पछतरा, मगहर कियो गवन।

माघ सुदी एकादशी, मिल्यो पवन में पवन।।

इसके अनुसार कबीर की मृत्यु संवत्‌ पंद्रह सौ पचहत्तर में माघ माह की ग्यारहवीं तारीख को मगहर में हुई।

इस प्रकार कबीर मर कर भी आकाश में ध्रुव तारे के समान अटल और दैदीप्यमान रहेंगे। उपर्युक्त विवरण में कबीर के बारे में बहुत ही संक्षिप्त वर्णन किया गया है, वस्तुतः आज कबीर न तो किसी परिचय के मोहताज हैं और न ही पहचान के। वह आज से 6 सौ वर्ष पूर्व जितने प्रासंगिक थे आज भी उतने ही हैं और भविष्य में भी उतने ही रहेंगे।

संदर्भः

1 कबीर हिज बायोग्राफी :डॉ मोहन सिंह

2 सन्त कबीरडॉ0 रामकुमार वर्मा

3 विभिन्न शोध पत्र और इंटरनेट पर संबंधित सामग्री।

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मुख्य शाखा, धनबाद