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अंधविश्वास का पुल

आलेख

अंधविश्वास का पुल

भारतीय संविधान में उल्लिखित नागरिकों के दस मूल कर्तव्यों में से एक (दसवां) कहता है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन एवं सुधार की भावना का अपने में विकास करे। इस सामान्य से लगते क्रांतिकारी प्रावधान पर हर ‘समरथ’ नागरिक अमल कर ले तो सदियों से भरठेहुन कूढ़मग्ज़ी के दलदल में जीता आया हमारा समाज अचानक से वैज्ञानिक मिजाज़ अर्थात चंगा मन हो जाएगा। किन्तु विडंबना देखिये कि इस वैज्ञानिक - तकनीकी ज्ञान से लोडेड समय में भी हमारे देश में अन्धविश्वासपरक वाह्याचारों एवं धर्म भावनाओं का बढ़ता उफान तो विकट उलट स्थिति और डरावना सत्य ही सामने रखता है।

पुल अक्सर जोड़ने वाला होता है, मगर जोड़ने की बजाए तोड़ने के भी पुल होते हैं! फ़िर, पुल प्राकृतिक ही नहीं होते, भावनात्मक भी होते हैं। पुल विश्वास के भी होते हैं, अंधविश्वास के भी! पुल जीवन दायिनी होते हैं तो जीवन हरण करने वाले भी! आइये, यहाँ हम प्राकृतिक एवं भावनात्मक, साथ ही जोड़ने – तोड़ने से दो चार होते पुल पर एक घटना के बहाने से बात करें। एक पुल जो लाभों को जोड़ने नहीं देती, एक पुल जो पुल है भी, नहीं भी है!

‘रामसेतु’ पर राजनीति हो रही है, उस राम-सेतु पर जो कथित राम – रावण युद्ध की राजनीति का गवाह माना जा रहा है! विश्वास, अन्धविश्वास के इसी पुल के बहाने यहाँ बात करनी है। झारखंड में स्थित बाबाधाम कहे जाने वाले देवघर के शिव मन्दिर समेत देश के तमाम बड़े - बड़े मन्दिरों में उमड़ती नित नए रिकार्ड तोड़ती - बनाती भीड़ के समान ही अनेक अवैज्ञानिक अन्धविश्वासी घटनाएं और जोड़ पकड़ रही हैं जो हमारे संविधान की उक्त उच्च भावना या कि सदिच्छा को मुंह चिढ़ाती हैं। अपने देश में आज नए सिरे से आस्थावादी लोग बुद्धि, विवेक, तर्क, विज्ञान, भौतिक यथार्थ आदि को नजरंदाज़ कर सामाजिक जड़ता एवं यथास्थितिवाद के पोषण के साथ हैं। कुछ लोग एवं संस्थाएं तो इस विज्ञान विरोधी मति - गति के पक्ष में बाजाब्ता संगठित अभियान ही चला रहे हैं। राम के मिथक को हिन्दू जनमानस में मादकता से घोलकर तो देश की एक 'रामपार्टी' शून्य से चलकर सत्ता एवं उठान के शिखर को चूम रही है। दुखद यह है कि अन्य राजनीतिक पार्टियां भी वोट बिगड़ने के भय से धार्मिक आडम्बरों एवं स्थापनाओं के विरोध में खुलकर सामने नहीं आते। विडंबना है कि यह आधुनिक समय विज्ञान की नेमतों से सजा है, लेकिन डंका विज्ञान का नहीं बज रहा, ‘पूजा’ उसकी नहीं हो रही, बल्कि विज्ञान का ही सहारा ले विज्ञान विरोधी धर्म का धंधा चल निकला है! टीवी सीरियलों एवं सिनेमा में वैज्ञानिक एवं तकनीकी खोजों एवं प्राप्तियों का सहारा ले मिथकों में वर्णित चरित्रों, घटनाओं को जीने का खेल चल निकला है। कंप्यूटर एनिमेशन की तकनीक ने तो धार्मिक चमत्कारों को जीने एवं अभिनय करने में बड़ी भूमिका निभाई है। जैसे, अब सीरियलों में बालक हनुमान द्वारा अरबों मील दूर विशाल आग एवं गैस पुंज सूरज को निगला जाता हुआ मनोरंजक तरीके से दिखाया जा रहा है।

रामकथा के मिथक से जोड़ कर देखा जाने वाला कथित 'राम सेतु' (आदम का पुल व नल सेतु नाम से भी जाना जाता है यह) का धार्मिक बखेड़ा भी एक ऐसा ही बुद्धि - विवेक का हरण करने वाला धार्मिक खेल है। खेल बड़ा है क्योंकि राजनीतिक है, वोट को कैच करने वाला है! सो, आइये, इस प्रसंग को विस्तार से देखें और विवेकवादी नजरिये से खंगालें।

आरएसएस प्रभाव की भगवा भारत सरकार कुछ दिनों से तमिलनाडु के रामेश्वरम के तटवर्ती क्षेत्र में पूर्ववर्ती सरकार द्वारा चालू की गयी एक महत्वाकांक्षी परियोजना 'सेतु समुद्रम शिपिंग कैनाल प्रोजेक्ट' (प्रचलित हिंदी नाम - 'सेतु समुद्रम परियोजना') के पूरा होने में अब बाधक बन रही है, क्योंकि इस परियोजना को पूरा करने के क्रम में 'राम सेतु' नामक एक प्राकृतिक समुद्री ढाँचे को आंशिक रूप से तोड़ना पड़ेगा। यह ढांचा कुछ-कुछ पुल की आकृति का है जिसे हिंदू धार्मिक हलके में राम - रावण के बीच की लड़ाई में उपयोग में लाया गया पुल बताया जा रहा है। सवाल धार्मिक भावना को आहत करने का बनाया जा रहा है। जबकि इस महत परियोजना के पूरा होने के बाद, यानी नया रास्ता खुल जाने के बाद पश्चिमी तट और बंगाल की खाड़ी के बीच कोई 400 कि. मी. घट जानी है। जलपोत अभी लगभग 650 कि. मी. (लगभग 350 समुद्री मील) की लम्बी दूरी तय करते हुए श्रीलंका का चक्कर लगा कर ही पश्चिमी तट से बंगाल की खाड़ी तक आवाजाही कर पाते हैं। इस समुद्री मार्ग में सुधार होने से, समुद्र तटीय प्रदेशों, खासकर तमिलनाडु को व्यापक आर्थिक व औद्योगिक लाभ मिलने की सम्भावना है। लेकिन इस परियोजना के पूर्ण होने में एक अड़चन आ खड़ी हुई है। उस क्षेत्र में अवस्थित 'राम सेतु' नाम से अभिहित कथित जलसेतु नामक ढाँचे को अक्षुण रखने, क्षतिग्रस्त नहीं करने के प्रश्न पर कुछ हिन्दू धार्मिक संगठन, कथित साधु - संत एवं न्यस्त स्वार्थ वाले भगवा खेमे के पर्यावरणप्रेमी आन्दोलन की मुद्रा में हैं। विरोध हिन्दू आराध्य राम के नाम पर ही है। यह विरोध दक्षिण से शुरू हुआ और अब वाराणसी एवं अयोध्या जैसे उत्तर भारतीय ‘धर्मपीड़ित’ नगरों में पसर रहा है।

परियोजना पर गर्भ - विचार 1860 के औपनिवेशिक भारत में ही 'इंडियन मैरिन्स' कमांडर के ए. डी. टायर ने दिया था। वैसे परियोजना पर सरकारी विचारों की सुगबुगाहट गुलाम और स्वतंत्र भारत में होती रही है, पर निर्णायक घड़ी पिछली भाजपा नीत 'धार्मिक' सरकार के समय में इस परियोजना को मंजूरी मिली और बाद की सरकार में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह द्वारा 02 जुलाई, 2005 को इसमें विधिवत हाथ कगा। इस मुद्दे पर भाजपा के हाथ बंधे रहने के कारण ज्यादा बवाल नहीं हो पाया, वर्ना, यह मुद्दा भी अयोध्या के कलंकित रामजन्म भूमि आन्दोलन (जिसकी परिणति व्यापक अल्पसंख्यक नरसंहार में हुई) की तरह ही राजनीतिक जामा पहन लेता। वैसे, कुछ धर्म संगठन 'रामकर्मभूमि आन्दोलन' नाम से इसे उछालने की कोशिश टी कर ही रहे हैं।

सेतु निर्माण के पक्ष - विपक्ष पर बात करें तो इस परियोजना से कोई चिंताजनक पर्यावरणीय अथवा पारिस्थितकीय क्षति की सम्भावना नहीं बनती। जो निजी पर्यावरण संगठन या पर्यावरण हितैषी इस परियोजना के विरोध में खड़े हो रहे हैं, उनकी सदिच्छा संदिग्ध है। अमेरिकी अन्तरिक्ष संस्था 'नासा' के सैटेलाइट आधारित वर्ष 2003 में जारी कथित 'रामसेतु' के जिन चित्रों के आधार पर रामनामी संत - महंथ व भक्तजन उछल - कूद मचा रहे हैं, उनके लिए 'नासा' का स्पष्टीकरण मूर्च्छा लाने वाला है। उसने अपने उपग्रह - चित्रों एवं उसके अध्ययनों से इस सेतु के मानव निर्मित ढांचा होने को एकदम से नकार दिया है। 'समुद्र सेतु निगम' ने 26 जुलाई, 2007 को 'नासा' भेजे अपने 'ई-मेल' में यह स्पष्ट करने को कहा था कि यह ढांचा मानव निर्मित है या नहीं? मालूम हो कि पुरातात्विकों एवं भूगर्ववेत्ताओं के मुताबिक प्रश्नगत 'रामसेतु' दरअसल, चूने के पत्थरों के ढूहों या टीलों (shoals) की एक शृंखला है जो श्रीलंका के निकटवर्ती मन्नार के द्वीप समूहों तथा रामेश्वरम तट के बीच की 48 कि. मी. की लम्बाई में फैली हुई है।

महाभारत, वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, वेद - पुराण जैसे धार्मिक ग्रन्थों की शरण गहने पर हमें जितना मुंह उतनी बातें मिलती हैं। इनके हवाले से उठाए गये तथ्यों की धैर्यपरक वस्तुनिष्ठ छानबीन करने से 'रामसेतु' के अस्तित्व को पचाना मुश्किल है। इस सेतु के आकार - प्रकार व उम्र के सम्बन्ध में प्रदत्त विरोधाभासी सूचनाओं में छत्तीस का आंकड़ा है। जिस राम के जन्म और जन्मकाल का ही कोई ठोस सुबूत नहीं है, जिसके पैदा लेने का कोई निश्चित काल ही अबतक निर्धारण नहीं हुआ है, उससे जोड़कर किसी सेतु को खड़ा करने की बात ही बेमानी होनी चाहिए। सनद रहे, द्वापर, त्रेता और सतयुग जैसे काल की कोई वैज्ञानिक एवं ऐतिहासि़क मान्यता ही नहीं है जबकि राम को मिथकप्रेमी लोग मनुष्य रूप में जन्म लिए माने हुए बैठे हैं। और तो और, जिस रामकथा को हम वर्तमान श्रीलंका से जोड़ डाल रहे है, उस देश की सरकार एवं मूलनिवासी जनता किसी राजा रावण एवं राम - रावण कथा को नहीं जानती। फ़िर, किसी राम सेतु को मिथकीय राम द्वारा लंका पर चढ़ाई के दौरान बनाए जाने की ‘सांस्कृतिक समृद्धि’ जन्य खुमारी पालने एवं मगजमारी करने का क्या मतलब?

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