उपन्यास- मौसी
लेखक - उपन्यास
नाम ः रमणिका गुप्ता
जन्म ः 22 अपै्रल, 1929
जन्म स्थान ः सुनाम, पंजाब
शिक्षा ः एम.एम., बी.एड.
(क्रमशः पंजाब यूनिवर्सिटी, सोलन, सैंट्रल इंस्टीच्यूट आॅफ एजुकेशन, नई दिल्ली से)
व्यवसाय ः लेखन, सम्पादन एवं समाज सेवा, राजनीति
भाषा ः हिन्दी, पंजाबी, (लिपि ज्ञान भी है), उर्दू, बांग्ला, तामिल, मराठी, गुजराती, संताली
(केवल बोलना व समझना)
विशेष ः बिहार/झारखण्ड की पूर्व विधायक एवं विधान परिषद् की पूर्व सदस्य
संप्रति
रमणिका फाउंडेशन की अध्यक्ष।
अखिल भारतीय साहित्यक मंच की को-आर्डिनेटर
‘युद्धरत आम आदमी’ (त्रौमासिक हिन्दी पत्रिका) की सन् 1985 से संपादक।
जनवादी लेखक संघ, झारखंड की संरक्षक।
अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ की राष्ट्रीय परिषद् की सदस्या।
संयोजिकाµलघु पत्रिका सम्मेलन, झारखंड।
चेयरपर्सन एन.सी.ई.ओ.ए यूनियन (सीटू)
सदस्याµराष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति लघु-पत्रिका सम्मेलन।
एक
‘‘मैं अपने लिए दुलहिन खोजूँ या फूफी के लिए दूल्हा?’’ चिल्ला-चिल्लाकर, सुना-सुनाकर कह रहा था मोहना और मौसी (मोहना की फुआ को सभी मौसी कहकर पुकारते थे) को पटक-पटककर मार रहा था। थप्पड़ों से मारते-मारते उसके हाथ थक जाते, तो वह घूँसों से मारने लगता। घूँसे मारते-मारते ऊब जाता, तो लातों से मारता। पर मौसी थी कि प्रतिकार न कर, मार खाए जा रही थी।
मोहना को बचपन से ही बेटे की तरह पाला है मौसी ने। अपनी भाभी से पैदा होते ही उसे माँग लिया था उसने। आँचल में जो लिया, सो अब तक मोहना साथ ही है। पढ़ा-लिखा भी रही है। जवान हो रहा है मोहना पर पूरा जवान नहीं हुआ। मसें भीगने लगी हैं। माँ-बाप के पास कभी रहा नहीं। बस फुआ ही उसकी माँ थी, फुआ ही बाबा। फुआ ने कई घर बदले थे और कई फूफा भी। सबने उसे प्यार दिया। फुआ तो उसे जान से ज्यादा प्यार करती थी। मजाल है कोई भी फूफा ऊँची आवाज़ से उसे बोल तो दे कुछ! फूफा भले बदले थेे फुआ ने, पर वह खुद नहीं बदली थी। मोहना के लिए बस एक ही तथ्य सत्य थाµकि फूफा बदल सकते हैं पर फुआ नहीं बदलेगी। जवानी में ही फुआ ने माँ जैसे सब काम सँभाल लिए थे और बन गई थी सबकी मौसी। उसकी बहन की बेटी बिन्दु, उसे मौसी कहती, तो सभी उसे मौसी कहने लगे।
क्यों पुराने फूफा का घर छोड़ देती है फुआ? क्यों वह ‘नयके’ (नये) फूफा का घर धर लेती है? मोहना कभी भी यह सवाल नहीं पूछता था।
फुआ का सपना था, मोहना पढ़-लिखकर खूब बड़ा आदमी बने। पुलिस का हवलदार नहीं तो कोलियरी का मुंशी या ठेकेदार जरूर बने! खेत मंे नहीं खटेगा मेरा मोहना। खेत हमनी के पेट भी तो नहीं भर सकत है। न ही पढ़ाई का खर्च दे सकत है। महुआ चुनकर, सखुआ बीनकर, कुसुम-फूल सिझाकर, कैसे सालो भर पेट भरतै? अब महुआ-सखुआ पर भी तो बहुतों की नज़र लगी रहत है। सिपाही से लेकर मुखिया, नेता, रंगदार सभी का हिस्सा देवे पड़त है। खेती करे पर भी तो नहीं पुरात। तब भी हजारीबाग आकर खटे के पड़ ही जात है। तब ‘काहे ले करेंगे’ अब खेती? ‘कुछो’ नहीं धरा इस खेती में। मूली, टमाटर उगाओµ दस कोस शहर में बेचे जाओ, तब भी दस रुपया बैलगाड़ी उठा लेता है व्योपारी। बेचारी झुमरा वाली तो चुरचू पहाड़ से आउती हैं। चार आना किलो टमाटर का भी नहीं मिलता। मेहनत, खाद, बीज-पानी भी तो लौटत न है। क्या जरूरत है ऐसी खेती करे के? इससे अच्छा है कोलियरी में जाके कहीं कोई काम धर ले। भाई-भाभी को जमीन का मोह ही नहीं छोड़ता। आधी से ज्यादा जमीन तो भाई के ब्याह में ही बन्धक रखा गई। फिर चार-चार ‘चेंगने’ (बच्चे) हो गए। खर्चा बढ़ गया। कमाए वाला वही दुई जन। माय-बप्पा तो कबे के मराय (मर) गेले। अब हम न खटब तो घर में भूखों रह जायब सभै लोग। पर ऐसन कब तक चलतै? मौका मिलतेई (मिलते ही) मोहना के साथ लेके गाँव छोड़ के चल जाब।’
मौसी सोच ही रही थी कि यह घटना घट गई।
अब क्या करती वह भी। भगवान सिंह के घर जाना तो नामुमकिन थाµवह गाँव लौट आई थी। सोचा थाµपन्द्रह हजार रुपया मिला है, भाई-भाभी के पास रह लेगी। भोज-भात करके बिरादरी को भी मिला लेगी। फिर माधो संग मिलके अपने भी कमाएगी। पर पता नहीं माधो को देखकर मोहना को क्या तो हो जाता है?
कितना काम कर देता रहा माधो। अब गुजर करे खातिर तो कोई मददगार चाहिए ना। फिर इतने दिन बाद तो मिला है हमरी उमिर का कोई? अब तक तो ‘बूढ़वन’ को ही ढोत रहल रही मैं। पता नहीं क्यों सारा गाँव जलने लग गेल है? ‘क्यों छाती पर साँप लोटे लगत है इन सबनी के, मोर खुशी देख के? मौलवी साहब से निकाह हुआ, त कोइओ नाय बोलले! भगवान सिंह ले गेले, फिर छोड़ भी देले, तबौ काऊ नाय कुसुकले! आइज (आज) जब माधो हमर संग रहे खोजे है, तो सब जात-कुजात खोजे लगल है। उ$ मियां, क्या जात लगता था? बाबू साहब का इनकर जात था? दुसाध क्या आदमी नाय होत है? माझी-मुण्डा के कौन बाबू लोग छुआ खात हैं, जे अपन के बड़ जात मानत हैं? बिरादरी के भोज कराय दो तो सब जात-कुजात भुलाय जात हैं। ई कैसन कानून हय? मोहना के भी कान भर देलके है ऊ सब। देखो रेणुका जी बुला भेजल हैं उकरा, का करता है लौट के?
मौसी सोच रही थी और मोहना का हजारीबाग से लौटने का इन्तज़ार भी कर रही थी।
दो
‘‘क्यों रे मोहना, तूने मौसी को काहे मारा। तेरी फुआ है। कितना प्यार करती है तुझे। कितने प्यार से उसने तुझे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया, दुख काटा। अब, जब उसे सुख देने का समय आया, तू सयाना हुआ, तो तू मारने लगा माँ बरोबर फुआ को? ू जानता है कि नहीं कि कितना भी पूछने और धमकाने पर भी, तेरी फुआ ने पुलिस को तेरा नाम नहीं बताया। केस तो बड़ा सीरियस है। फँस जाता तो हाईकोर्ट तक से जमानत न होती तेरी और तेरे बाप की।’’ मैंने कुछ डाँटते, कुछ धमकाते, कुछ प्यार से कहा।
‘‘क्या करूँ देवी जी, बात ही कुछ ऐसन हो गई, जे बर्दास्त से बाहर हो गई। वो सार (साले) माधो को लेके सारा मामला, सारा झंझट हुआ। फुआ को कोई मरद ही करना था तो माझी, मुण्डा खोजती या चल जाती फिर भगवान बाबू के घर। ई दुसाधवा के साथ रहे लगले, इससे हमर बदनामी नाय है क्या? अब और कितने फूफा करेगी फुआ?’’ मोहना कुछ सवाल करता, कुछ जवाब देता-सा बोला।
‘‘अपने माई-बप्पा से, अपन बिरादरी से काहे नहीं पूछता है रे यह सब बात? काहे उसका ब्याह नहीं किया जब उसे जरूरत थी? अब जात की बात करते हो ? तब काहे सलीम के अब्बाµउस मौलवी को दामाद मान लिया था सबने और इसे उसी के घर छोड़ दिया था? क्यों गाँव वालों ने भगवान सिंह से पैसा लेकर उसके साथ भेजा था? जब वह लौटी तो उसका पैसा क्यों बिरादरी को खुश करने के लिए भोज-भात में खर्च करवा दिया? क्यों नहीं उसे अपने पाँव पर खड़ा होने दिया गाँव वालों ने? क्यों नहीं बसाने दिया उसे भी अपना घर?’ मन-ही-मन मैंने ये सवाल पूछ डाले। एक बार तो मेरा मन हुआ मोहना से यह सब पूछूँ, पर यह सोचकर चुप रह गई कि पूरे समाज के अपराधों का जवाबदेह अकेला यह नन्हा मोहना कैसे हो सकता है? वह तो बस समाज की बिसात का एक मोहरा है।
‘‘अब क्या करेगी मौसी? कहाँ रहेगी? क्या खाएगी? उसका सारा का सारा पैसा तो तुम लोगों ने खर्च कर दिया। क्या उसे फिर भगवान सिंह के साथ भेज दोगे? उसे अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करो, मोहना। उसकी अपनी उम्र का माधो अगर जि़ंदगी-भर उसका साथ देने को तैयार था तो क्या हर्ज था? उस बूढ़े मौलवी और भगवान सिंह से तो अच्छा था। अब तुम साथ नहीं दोगे तो उसका कौन होगा? अब तो मजदूरी करने की उसकी आदत भी छूट गई है कि कहीं ईंटा-पत्थर ढो लेती। जंगल का कानून भी सख्त हो गया है। पकड़ी जाएगी तो तेरी जात-बिरादरी तो उसे छुड़ाने ना जाएगी। जि़ंदगी-भर सड़ जाएगी जेल में। जा, जाके देख हजारीबाग जेल में। दारू चुआने के केस में सात-सात वर्ष से वहाँ पड़ी हैं कई अधेड़ बूढ़ी औरतें, जबकि उस केस में सज़ा कुल दस दिन की ही होती है।’’ मैंने प्रगट में उससे कहा।
मोहना कुछ सोच में पड़ गया और बोला, ‘‘ठीक है देवीजी! मैं फुआ के मामले में बीच में नहीं पड़ईँगा। बिरादरी को सँभालना मेरे लिए मुमकिन नहीं। जे हमनी ऊ दिन फुआ के मारने नहीं लगते तो ऊ सबनी फुआ और माधो को तो जान से ही मार देते, हमर और हमर भाई-बप्पा को भी नाय छोड़ते। गाँव छोड़के फुआ कोनो दूसर (किसी) जगह चल जाय, तो बिरादरी का न चलेगा।’’ मोहना ने सफाई देते हुए आधी हिन्दी आधी खोरठा में कहा।
मैं सोच में पड़ गई, ‘क्या होगा इस समाज का? क्या होगा इस औरत का? जिसे न आदिवासी अपना समझता है न दिकू ही अपना कहता है। वह न गाँव की रही, न शहर की। कहाँ जाएगी मौसी?’
‘कोलियरी जाएगी, सड़क पर जाएगी, ईंटा ढोएगी, माटी ढोएगी, बालू ढोएगी! काम करेगी काम, और जब उसके हाथ अपना पैसा होगा तो ये बिरादरी, ये गाँव, ये शहर, सबके सब सवाल करना बन्द कर देंगे उससे।’ खुद ही जवाब दिया मेरे मन के भीतर की एक सबल औरत ने।
उस मार के बाद मौसी बहुत उदास रहने लगी थी। एक माधो कुछ सहारा देता था, वह भी चला गया। काफी चोटें लगी थीं माधो को। आठ टाँके लगे थे। वह अभी अस्पताल से लौटा नहीं था। पुलिस पूछने घर गई थी। पूछताछ हुई। वह आया ही नहीं था घर लौटकर। भाई-भाभी पूछते ही नहीं। बिरादरी ने कह रखा है, अगर माधो उसके घर गया तो सभी दुसाधों के घरों को आग लगा देंगे।
‘आखिर की कसूर हले ऊकर (उसका)?’ वह बार-बार पूछती उनसे जो वहाँ नहीं थे। प्रश्न लौटकर उसी के वक्ष से टकराता। वह छाती पर हाथ धर के बैठ जाती। एक टीस प्रश्नचिह्न-सी उसका सीना चीरती रहती।
‘क्या मोर मन नाय हो सकत है ब्याह करके बस जाय के? काहे बिरादरी तब सहारा नाय देलके जब मौलवी मरे पर घर लौटल रही थी मैं? ठीके कहत रहीं रेणुका जी, पैसा बचाय के रख। अपने पाँव पर खड़ी हो जा, तो कोइयो कुछ नाय बोलते? अब सारा पैसा सिराय (खत्म) गेले, तो सभै हमर बाप बन रहल है। तब बाप बनेके कोउओ तैयार न हलै, जब भगवान सिंह पैसा देके हमर के किने (खरीदने) खातर गाँव आयल रहे। जब मौलवी हमर संग निकाह पढ़ाय लेल, तभे भी कोऊ ना बोलले?’
वह बार-बार तर्क गढ़ती उन सबके खिलाफष् जो वहाँ नहीं थेµजिन्होंने उसका बहिष्कार कर रखा था। उसके तर्क आॅक्टोपस की तरह उसे ही घेर-घेर कर कसते रहते। कनख़जूरे की तरह डँक मारने को उसने अपने इर्द-गिर्द विष भरे तर्क छितरा दिए थेµपर कोई पास होता, तब न वह डँक मारती। वह तो नितान्त अकेली रह गई थी। अब उस पर नज़रें भी उठनी बन्द हो गई थीं। उसे देखते ही लोग अपना मुँह फेर लेते या अपने-अपने घर में ढुक जाते।
वह खो जाती बीती यादों में। जवानी के दिनों में लौट आती वह। कितने लड़कों की नज़र लगी रहती थी उस पर। बड़ी बहन का ब्याह तो बप्पा ने जीते-जी कर दिया था पर ‘बड़-बहन’ एक बेटी बिन्दु के जन्म देते ही मर गई। बहनोई ‘दूसर’ कर लाया। ‘दुसरकी’ आपन ‘पहलके’ की औलाद से एक बेटा साथ लाई, जिसे रिवाज़ के माफिक बहनोई ने ‘पाले-पोसे के गछ’ (स्वीकार) लिया। अब वह रह गई बिन ब्याही। कौन फिकर करता उसकी? भाई के ब्याह में जो खेत बँधक रखाया, वह छूटा ही नहीं। फिर भाभी के भी हो गए चार-चार गो ‘चेंगना’ (बच्चे)। उनके पालने की भी मुसीबत थी। तो कौन मौसी को बिठा के खिलाता? कौन उसके ब्याह के लिए सोचता?
बिन ब्याही मौसी ने सब काम अपने जिम्मे ले लिया। वह भोरे उठके बस या ट्रक पकड़ के हजारीबाग झण्डा चैक में मेहनत बेचने वालों की कतार में लग जाती। ‘दूबर-पातर’ (दुबली-पतली) देह, देखने में लम्बी, पर ‘बुतरू’ (बच्चे) सा चेहरा-मोहरा। सब मोटी, हट्टी-कट्टी माझी या मुण्डा कामिनों को ही देख सुनकर खटाने खातिर ले जाते। कभी काम मिल जाता, कभी ‘छूछो’ (खाली हाथ) लौट आती। मजदूरी भी कम मिलती। ‘पुसाई’ न पड़ता। तब उसने जंगल की ‘डहर’ (राह) धरी।
मौसी पुराने दिनों की याद में डूबती-ऊबती मन-ही-मन पूरा किस्सा दुहराती। मानो उसके भीतर कोई बायस्कोप लग गया हो और वह घुमा-घुमा कर अपनी जि़ंदगी की तस्वीरें दिखाती जा रही हो, साथ-साथ बताती भी जा रही हो दर्शकों को, चूँकि बायस्कोप की तस्वीरें गूँगी होती हैं। वे बोलती नहीं।
तीन
गाँव के अन्य औरत-मर्दों के साथ मौसी भी मुँह अँधेरे रस्सी-टाँगी लेकर लकड़ी काटने चली जाती। बेन्दी का जंगल मशहूर था। दिन में भी घुसो तो रात जैसा ‘करिया-करिया’ (काला-काला) नज़र आता। सूखी लकडि़याँ काट-बीनकर, मिल-जुलकर वे बड़े-बड़े गट्ठड़ बाँध लेते। नौ-दस बजे तक वे लोग पाँव-पैदल ही ‘जंगले-जंगल’ होकर हजारीबाग पहुँच जाते। सभी लोग साथ में ‘भोथा’ (बासी) भात बाँध कर लेते जाते थे। जब प्यास लगती, तो भात का पानी पी लेते, भूख लगती तो भात खा लेते। वही उनका नाश्ता, वही उनका खाना। थोड़ा नून, एक-आध हरी मिरच, कोई पा गया तो प्याज का एक टुकड़ा साथ मेंµबस। लकड़ी बेचकर ‘टटका’ पैसा मिल जाता। ग्राहक भी कम न होते। उन दिनों शहर में भी अकेले आने पर कोई खतरा नहीं था। जंगल में न आदमी से खतरा था, न जानवर से।
‘जानवर तो परच गए थे हमर संग। जेने (जिधर) हम लोग काम करतै, लकड़ी काटतै, जनावर उधर के रास्ता ही छोड़ देत रहे। पर सबसे बड़ा खतरा तो जंगल के सिपाहियन, फारेस्टरवन, और रेंजरन से रहल। जाने कौन जात रहल? न आदमी, न ‘जनावर’ पर जनावर ते भी जादा खूँखार! उ$ सब आदमी जैसन बर्ताव करते तो की हमनी सब जानत न रहल। बाघ देइख के सायत (शायद) एते डर नाय लगतै, जैते ई तीनों के देहख के लगल रहै। कहीं कोई औरतिया पकड़ा गइल तो ‘एको’ इज्जत नाय छोड़तै ई ‘सिपाहिया’ सब। पैसा भी धराय लेतै आर इज्जतो भी। पैसा मिले पर ते ‘बुतरू-बुतरू’ (बच्चे जैसे छोटे) सखुआ के गाछ भी कटवाय देत जालिम।’’ मौसी अपने-आप बड़बड़ाती रहती।
जंगल की लकड़ी बेचकर मौसी को अच्छा पैसा हाथ लग जाता। वह लौटते वक्त बस से ही लौटती। जब-जब इन सिपाहियों और हाकिमों का तबादला होता तो बड़ी मुसीबत आ जाती। ‘नयका’ हाकिम अपना सिक्का जमाने के लिए खूब जुल्म करता। कभी लकड़ी ‘सीज़’ (जब्त) कर लेता, कभी कोर्ट-केस कर देता, कभी जुर्माना लगा देता। एक-दो दिन हाजत में रख देता। किसी-किसी को तो ‘जेहल’ भी भेज देता। बेचारे छः-आठ महीना बाद जमानत पर छूटते। जमानत कराने में ढेर ‘काचा-पैसा’ खर्च हो जाता। फिर कुछ दिन बाद सब ठण्डा हो जाता। नयका अफसर भी ‘दस्तूरी’ बँधा लेता।
‘‘तब जैसन चलता था वैसने चलै लगता। चोरवन से ज्यादा पैसा लेके बड़-बड़ गाछ कटवाय देत रहा और गरीबन से जे सूखी लकड़ी बेच-बूच के गुजर-बसर करै है, थोड़ा कम ही घूस लेत रहा। पन लेता जरूर। सुन्दर ‘जनी’ देख के तो सार (साला) पीछेई पड़ जात रहा।’’
मौसी सोच-सोच कभी गुस्साती, कभी मुस्काती।
चार
एक दिन शहर में भाव पटाने में देर हो गई। मौसी दूर निकल गई थी। बस- स्टैण्ड पर लौटी तो बस निकल गई थी। तब हजारीबाग से सिमरिया तक एक ही बस चलती थी। सवेरे आती थी, तीन बजे साँझ लौट जाती थी। कोई और साधन न था। कोई लौटता हुआ खाली ट्रक मिल जाता तो वह भी सवारियाँ चढ़ाकर ले जाता। ट्रेक्टर, मैटाडोर का तब चलन न था। अगर बस छूट जाए और कोई ट्रक न मिले तो हालत खराब हो जाती थी। शहर में अनजाने कहाँ रहें? अनठिकाने कहाँ जाएँ? फिर अपनी दो टाँग वाली गाड़ी पर भरोसा करके आदमी को पैदल ही गाँवलौटना पड़ता था।
मौसी भी उस दिन बुरी फँसी थी। अब क्या करे? सर्दी का महीना। तन पर एक साड़ी। कन्धे पर गमछा। सिर पर लेठो (कपड़े या रस्सी का बना गोला, जिस पर मजदूर टोकरी या सामान रखते हैं)। कैसे कटेगी रात, वह इसी सोच में पड़ी थी। असल में इन लोगों की दिनचर्या बड़ी सीमित होती है। मुँह अँधेरे जंगल जाना। दिन-भर शहर में लकड़ी बेचना या मजदूरी करना, साँझ को बस से लौट जाना। राँधना-पकाना। हँडिया या महुआ चुआना। पीना-खाना। घर के बाहर बने मिट्टी के ही बेंचनुमा चबूतरे या बड़े-से गाछ के तने पर, जिसे घर के बाहर बैठने के लिए रख दिया जाता हैµबैठकर ‘बतियाना’, गाँव घर का झगड़ा हो तो मिल- जुलकर मिटाना-निपटाना। पर्व हो या हफ्ते का पैसा मिला हो, तो नाचना-गाना। कोई शिकार मार के लाया हो, तो मिल-जुलकर खाना, नाचना, फिर सो जाना। मिट्टी के घर। न खिड़की न दरवाज़ा पर एकदम साफ-सुथरे। चावल का दाना भी गिरा हो, तो बीन लो। दीवारों पर रंग-बिरंगे चित्रा। फूस या खपरे की छत। गर्मी में ठण्डे, सर्दी में गरम घर। घर के भीतर हँडिया, महुआ चुआने का जुगाड़। बाहर बाड़ी, जिसमें उगी कद्दू, लौकी या निनुए की लतर, पेड़ या घर की छत पर चढ़ी रहती है। ये लोग ‘किसिम-किसिम’ का साग बाड़ी में ज़रूर उगाते हैं। धान, मक्का और ‘रहर’ (अरहर) तीनों की खेती करते हैं।
मरद गर्मी में उघाड़े बदन रहते हैं। बस लँगोटी या घुटनों के ऊपर लपेटी आधी धोती। सर्दी में कभी चादर ओढ़ ली। चादर न हो तो लकड़ी जलाकर ताप लिया। लोग खटिया के नीचे बोरसी भी रख लेते हैं, खासकर बूढ़े-बच्चे और बीमार। सर्दी में बाहर बिना आग तापे उघारे बदन रहना कठिन है। जंगल में तो लकड़ी जमा कर, कड़ाके की सर्दी में भी ये लोग रात-रात भर उघारे बदन ही अगोरते रह जाते हैं। यहाँ शहर में क्या करे मौसी? न लकड़ी है कि जला ले, न ठौर है कि कहीं सर छुपा ले।
ज्यों-ज्यों सूरज लाल होता जाता था मौसी की अकबकाहट बढ़ती रही थी। हवा में ठण्डक बढ़ रही थी। एक साड़ी वह भी घुटनों तक। एक गमछा क्या ढँकेगा देह? शरीर पर रोंये खड़े हो रहे थे।
सामने एक मस्जिद दिखी। वह उसी के बरामदे मंे जाकर बैठ गई। आने वाले ट्रक आते-जाते रहते। मस्जिद के आगे कुछ रुकते, तो कुछ आगे बढ़ जाते।
‘क्या करूँ, कहीं कोई जान-पहचान वाला भी तो नाय है?’ मौसी सोच-सोचकर घबरा रही थी।
मौसी को अहसास था कि वह सुन्दर है। जवान है। बदन इकहरा पर गठा-गठा है। कद-काठी युकलिप्टस के गाछ-सी लम्बी है। वह सोच रही थी कि मुहल्ले में जाकर कोई दरवाज़ा खटखटाए और रात-भर के लिए जगह माँगे।
‘पर ई तो मियाँ टोली है।’ यह ख्याल आते ही वह घबरा गई।
‘पन (पर) हिन्दू टोली वाले कौनो शरीफजादे होेते हैं? ये जंगल सिपाहियन और हाकिम सभै तो हिन्दुवन ही हैं? कभी कोई औरत के छोड़े हैं ये जालिम? बस मौका मिले भर की देर होवै है, ऐसन झपट्टा मारे हैं कि जैसे सभै जनी (औरतें) सरवन (सालों) की खरीदी हुई तियन-तरकारी (सब्जी-भाजी) होवे हैं।’
इसी उधेड़बुन में थी वह, कि एक ट्रक गुजराµरुका। एक सिर बाहर झाँकाµ गोरा-चिट्ठा, घुँघराले बाल।
‘‘इतनी रात गए यहाँ कैसे? घर काहे नहीं गई? कहाँ है तोर घर? घर से भाइग (भाग) के आई है या मरद-मारपीट के भगाय देलके? अरे मरदों की मार-पीट तो रोजे (रोज़) चलत है। ज़रा-सी चढ़ गई, तो पीट दियाµसाहब ने डाँटा तो पीट दिया। जोरू पर ही गुस्सा उतारते हैं सब साले। पर झगड़ा से डर के कोई घर छोड़ता है भला? हमरे घर में ऐसन-ऐसन झगड़ा रोज़ होवे है। चल उठ, तोर घर में फिकर लगल होतै। चल हम घर पहुँचाय देव।’’ कहते हुए वह ट्रक से उतरा और उसे उठाने की लिए हाथ बढ़ाया।
मौसी को उसकी बातों पर हँसी और गुस्सा दोनों आया। वह बिना मौसी के जवाब की प्रतीक्षा किए, अपने ही सवाल पूछता था और अपने ही जवाब भी देता चला जा रहा था।
‘‘तू अपने ही इतना ताबड़तोड़ बोले जा रहल है कि दूसर के बात सुनतै नाय। हमर के कुछो सुनबै, तबै ना जानबै। तू कहाँ रहे है? तोर का नाम है? तुई ट्रक चलात है। ई तो हम अपने दुई आँख से देख लेल है। पर तू मालिक हय या ड्रैवर है? कुछ तू न बतायब तो हम कैसन जानब? खाली आपन हाँकल (हाँकते) जा रहल (रहा) है।’’ मौसी ने उसी के लहजे़ में कहा।
‘‘खता माफष् हो। गलती हो गेल। गलती आदमी ही करत है न। बन्दे का नाम सलीम है और पेशा ड्रैवर। बगल में मेरा मकान है। अब आप ही बताइए किस खुशी में सर्दी की इस रात में खुले बरामदे में आप यहाँ इस अँधेरे में बैठी हैं? सवेरा होने तक बर्फ की सिल्ली बन जाएँगी आप। फिर गर्म पानी में डुबोकर आपका ‘हाथ-गोड़’ (हाथ-पाँव) सीधा करना पड़ेगा।’’ वह सूरजमुखी-सी मुस्कान मुस्काया।
‘‘मोर घर तो बेन्दी हय। लकड़ी बेचे ले आयल रही। तीन बजिया बस छूट गेल। अब जाय के कोई सवारी नाय है। जान-पहचान भी कोई नाय (नहीं) है। ई पूजा का थान देखे रहली, तो कौनो ढंग से रात गुजारे खातर इकर (इसके) बरामदे में बैठ गइल। बिहाने (सवेरे) आपन घर चल जायब। मजबूरी से रुके पड़ गेल। कोई जान-बूझ के थोड़े सर्दी में मरे खातर बरामदे में बैठते। मरे वास्ते तो औरों भी सस्ते-सुविस्ते तरीके ढेर हंय। हम तो जिनगी जिये खातर इहाँ बैठ गेली।’’ मौसी ने भी उसी टक्कर का जवाब दिया।
‘‘तो फिर हम किस दिन काम आएँगे? आदमी ही आदमी के काम आता है न। बगल में हमर घर है। चार-चार भाई-भाभियाँ हैं। माय है। बूढ़े मियाँ यानी कि हमारे अब्बा हुजूर भी हैं और फिर मैं हूँ। घर में सबसे छोटा बेटा। मेरे बाद तो चार-चार बेटे अल्ला को प्यारे हो गए। हम पर विश्वास हो तो चलिए हमारे घर। सवेरे अपने घर चली जाइएगा।’’ उसने अपने घर का पूरा ब्योरा देकर गम्भीरता से कहा।
मौसी सोच में पड़ गई। नहीं जाएगी तो सर्दी में मरेगी, जाएगी तो क्या भरोसा? साँप-छछुन्दर-सी हालत हो गई।
‘‘देखिए, हाथ की सब अँगुली बरोबर नहीं होतीं। दुनिया में सब लोग एक जैसे नहीं होते। हमारा चेहरा देखिए। छल-कपट, धोखा-धड़ी नज़र आए तो थूक दीजिए इस चेहरे पर। नहीं तो चलिए, हम लोग भी शरीफ हैं। आप मुसीबत में हैं।’’ सलीम ने उसके मन की दुविधा उसके चेहरे पर पढ़ कर कहा।
मौसी उठी और धीरे-धीरे उसके पीछे जाने लगी। बड़ा-सा घर, चार-पाँच कमरे, बड़ा-सा दलान, ढेर सारे बच्चे। सलीम उसे अपनी बूढ़ी माँ के पास ले गया। उसकी मुसीबत का बयान किया। माँ ने घर से दो सुजनियाँ (पुरानी साडि़यों/धोतियों को तहयाकर एक साथ रंगीन धागों से सी गई चादरें) निकालीं। एक बिछाने को, एक ओढ़ने को। उसकी माँ ने अपनी बगल में ही उसे सुलाया।
सबेरे वह उठी! घर में जो भी उठता उसे देखता और पूछता, ‘‘कौन है? कौन है?’’
ढेर से बच्चे जमा हो गए मौसी के गिर्द, जिनसे मौसी ने खेलना शुरू कर दिया था। सलीम ने एक-एक थाप बच्चों को दी।
‘‘यह ‘कौन है-कौन है’ क्या लगा रखी है? सबको जो सवाल करना है, एक ही बार कर लो। मैं सबको जवाब एक ही बार दे दूँगा। अब सुनो। तुम लोगों के पास आँख हैं कि नहीं या बस जवान ही है, ‘कौन है-कौन है’ पूछने के लिए? देखते नहीं, आदम-जात औरत है। साढ़े पाँच फुट लम्बी है। दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो आँख, दो नाक, तौबा-तौबा भूल हो गई, एक नाक है। अरे! दीदी बोलो। मौसी बोलो। खाला बोलो। बूढ़ी तो है नहीं यह कि दादी-अम्मा बोलोगे। हैंµचलो फूटो।’’ वह बच्चों को हड़काते हुए बोला। सब बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े।
‘‘जाओ, घर में मेहमान आया है, नाश्ता कराओ, फिर इन्हें अपने घर जाना है।’’ सलीम ने भाभियों को सुनाते हुए कहा।
बड़ी भाभी ने नाश्ता भेज दिया। छोटी भाभी पान ले आई।
‘‘तो यही पसन्द है आपकी?’’
जाते-जाते छोटी भाभी तीर छोड़ गई। रोज़ का वाचाल सलीम मौसी के सामने कहे गए इस जुमले से सकपका गयाµबोल नहीं पाया। मौसी भी सकुचा गई। वह गमछा समेटकर घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई।
‘‘मैं भी उधर ही गाड़ी लेकर जा रहा हूँ, रास्ते में उतार दूँगा।’’ सलीम ट्रक लाने चला गया। मौसी बगल में बैठी, खलासी पीछे। गाड़ी चल दी।
‘‘कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’
‘‘नाय, तकलीफ कैसन? आराम से सोवेे के मिल गेले।’’
‘‘कभी फिर ऐसी मुसीबत आए तो सीधे घर चले आना, मैं रहूँ या न रहूँ। और देखो, भाभी की बात का बुरा न मानना। वह ऐसे ही मज़ाक करती रहती है।’’
‘‘सब समझ रहल हूँ।’’ मौसी बोली।
कुछ गुदगुदा गया अन्दर-ही-अन्दर। सलीम उसके गाँव में उसके द्वार तक ट्रक से पहुँचाने गया। ट्रक देखकर सब बच्चे-बूढ़े जमा हो गए। भाई-भाभी को चिन्ता लगी थी। मौसी को देखकर चैन पड़ गई।
अब अक्सर सलीम मौसी के घर आ टपकता। कभी सिमरिया से आते हुए, उसे ले लेता कि हजारीबाग पहुँचा देगा तो कभी हजारीबाग में देर हो जाती तो मौसी उसके घर रह जाती। मौसी को सलीम अच्छा लगने लगा था। वह जब शहर जाती तो सलीम उससे मिल ही लेता। अक्सर लौटते वक्त ‘जोहार’ (आदिवासी जब मिलते हैं, तो आपस में ‘जोहार’ कहते हैं) या दुआ-सलाम भी हो ही जाती।
‘‘काहे जंगल में लकड़ी काट के रात-दिन मेहनत करती हो, खतरा मोल लेती हो और अपनी सुन्दर देह गलाती हो? किसी के घर चैका-बरतन या बाल-बुतरू पालने का काम काहे नहीं पकड़ लेती?’’ एक बार सलीम ने उसे बड़े प्यार से
कहा था।
मौसी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह मुक्त थी। स्वच्छन्द थी। दिन भर खटना, साँझ को पीना, रात को आराम से सोना और मुँह अँधेरे उठकर जंगल जाना। दिन में बस या ट्रक पकड़कर शहर जाना। रास्ते में ट्रक या बस के ड्राइवर से ठिठोली, गाँव के जवान लड़कों से हँसी-ठट्ठा। बस, इससे आगे कुछ नहीं। गाँव के ठाकुरों के लड़के भी उसकी लाठी-सी मजबूत काठी वाली देह पर लट्टू थे। पूरी फिज़ा उस पर फिष्दा थी लेकिन उसका तेवर देखकर कोई बात करने की हिम्मतन जुटा पाता था।
हाँ तो ब्याह हुआ नहीं था मौसी का। न बारात आई, न दूल्हा द्वार लगाµन माँदर बजी, न नाच हुआµन पाहन आया, न सरना पूजाµन पलास खोसा, न सखुआ और ऐसे ही एक दिन ट्रक में सलीम के साथ हजारीबाग जा रही थी कि वह औरत बन गई। मौसी कुछ जान भी न पाई। सिमरिया से हजारीबाग के बीच जंगल में ही सखुआ ने फूल बरसाए, पत्तों ने सेज सजाईµहवा ने गीत गाएµआकाश ने आशीष दियाµपलाश और करौंज के पेड़ मुस्काए, खर-पतवार चरमराए, चिडि़याँ शर्मा कर फुर्र से उड़ गईं। लताओं ने पेड़ों को कस के जकड़ लिया और वहीं सुहाग-रात नहींµ सुहाग दिन मना उनका।
उसके जैसी मेहनतकश लड़कियाँ कब औरत बन जाती हैं और कब माँ, वे जान ही नहीं पातीं? जंगल के सिपाही से बचकर निकलना तो मुश्किल ही है। गाँव के हाट-बाजार का ठेकेदार और भी जबर होता है। शहर के बाजार में सब्जी बेचने खातिर जगह घेरने के लिए, उन्हें दलालों की जमात भी उलांघनी पड़ती है। फिर ट्रक के ड्राइवर तो होते ही हैंµमनमौजी। किसी पर मन आ गया, तो ले जाएँगे गाड़ी भगाकर और छोड़ भी जाएंगे वापिस गाड़ी भगाकर।
मौसी बिन ब्याहे ही लड़की से औरत बन गई थी। पत्नी का दर्जा तो नहीं, उसे सलीम की रखनी का दर्जा जरूर मिल गया था। सप्ताह में एक बार सलीम ट्रक में चढ़ाकर ले जाता। उसकी अपनी कुछ जमीन सिमरिया के आसपास थी। वहीं कुछ घरनुमा झोंपड़े भी बने हुए थे। एक बगीचा भी था। रात-भर वह वहाँ रहते। अगले दिन लौटते हुए उसे घर छोड़कर वह शहर चला जाता।
रोज़ शहर में मौसी लकड़ी लेकर जाती तो सलीम उससे जरूर भेंट करता। कभी पाउडर तो कभी ब्लाउज, कभी साया (पेटीकोट), तो कभी कुछ पैसे ही थमा देता। बागीचे से आम भी ला देता। ब्याह की जरूरत कभी उसे महसूस ही नहीं हुई थी या वह भूल गई थी कि ब्याह भी जरूरी होता है। उसे सलीम से भरपूर प्यार मिल रहा था। बातों का धनी तो वह था ही पर वह पैसे की कमी भी नहीं रखता था। इज्ज़त तो अफरात थी उसके पासµदेने को भी, पाने को भी। अब अगल-बगल के छैलों की नज़र, ठाकुरों के नौजवानों की घूरती आँखें सलीम को देखते ही गायब हो जाती थीं। उसे अब एक जबर पहरेदार जो मिल गया था, नज़रों को रोकने वाला।
मौसी में माँ बनने की इच्छा बहुत तेज़ी से जग रही थी।
‘‘अभी तो हम खुद ही बच्चे हैं, जि़ंदगी बहुत लम्बी है। अभी तो मेरे अब्बा ही मेरे भाइयों की क्रिकेट की टीम पैदा किए जा रहे हैं। फिर तुम्हारा मोहना भी तो है, जिसे तुमने भाभी से गोद ले रखा है।’’
यह कहकर सलीम जोर से हँसता और मौसी का मसविदा (प्रस्ताव) ठहाकों में उड़ जाता। माँ बनने का सवाल टल जाता। काफी दिन इसी तरह गुज़र गए।
पाँच
एक दिन हजारीबाग बस अड्डे पर ही मौसी को खोजते हुए सलीम आया और बोला, ‘‘जल्दी चलो, मेरी माँ छोटे भाई को पैदा करते ही मर गई है। घर में कुहराम मचा है। अब्बा की भी हालत खराब है। उस मासूम बच्चे की देखभाल करने वाला कोई नहीं। भाभियाँ अपने बच्चों में उलझी हैं। तुम्हें बच्चा चाहिए था ना। चलो, मेरे भाई को पालो।’’
मौसी सलीम के लिए कुछ भी करने को तैयार थी।
‘‘चलो’’ कहकर मौसी ने अपनी पोटली उठाई और जल्दी-जल्दी उसके पीछे हो ली। उसने घर की दहलीज में पाँव रखा ही था कि सलीम के बड़े भाई ने, जो लगता है कि उसी की इन्तजार में थे, बच्चे को मौसी की गोद में डाल दिया।
‘‘लो सँभालो इसे। पाल दो इस बे-माँ के बच्चे को। अब तुम ही इसकी माँ हो। यह तुम्हारा ही घर है।’’ वह रुआँसा होकर घिघियाते हुए बोला।
मौसी ने बच्चे को गोद में उठाया और चूम लिया। बिल्कुल सलीम जैसा चेहरा, वैसी ही आँखें, वैसी ही सूरत। बच्चा पालना, मौसी के लिए मुश्किल नहीं था। भाभी के सभी बच्चे उसी ने पाले थे। मोहना को तो पैदा होते ही उसने अपने अँचरा में ले लिया था। उसके लिए घर की देखभाल करना भी बड़ा काम न था। वह तो अब तक दूसरों के लिए ही जीती रही थी। अपने लिए जीने का अवसर उसे कभी कहाँ मिला? उसने दूसरों के लिए ही सपने सजाये थे। अपने लिए तो बस उसकी आँखों में एक सपना समाया थाµ‘बारात आएगी, दूल्हा आएगा, वह दुल्हन बनेगी, विदाई होगी।’
लेकिन इन सबके बिना ही सब-कुछ हो चुका था।
उसका दूसरा सपना था माँ बनने का। वह भी मोहना पूरा कर रहा था। रही-सही कसर आज पूरी हो गई। आज फिर उसे एक बच्चा मिल गया था। दूसरों के माध्यम से ही आज एक सपना और पूरा हो रहा था। उसकी कोख़ कब धारण करेगी उसका बच्चा? यह सवाल उसे बार-बार कचोटता था। पर इस वक्त तो उसे ऐसे लग रहा था जैसे उसी ने इस बच्चे को जना हैµजैसे प्रसव पीड़ा भी उस सामने पड़ी मरी औरत ने नहींµस्वयं उसी ने झेली हैµजैसे उस मरी औरत की रूह उसी में आ बैठी है।
उसे नहीं मालूम था कि जिस दहलीज़ में उसने पाँव रखा था उसी दहलीज़ के भीतर ही वह बँध जाने वाली है। बगल के कमरे में बूढ़े मौलवी साहब खोंख रहे थे। उस खोंखवाहट में कहीं रुलाई भी खोंख रही थी।
घर में एक बहस भाइयों में चल रही थी कि माँ के इन्तकषल के बाद बच्चा कैसे पले? बूढ़े अब्बा की देख-रेख कौन करे?
‘‘बच्चा तो बेन्दी वाली (मौसी के गाँव का नाम बेन्दी था) देख लेगी, अब्बा की देख-भाल का जिम्मा सब भाभियाँ बारी-बारी मिलकर कर लें।’’ सलीम ने सुझाया। इसके लिए कोई तैयार नहीं हुई।
‘‘हम लोगों से यह न होगा। कोई दाई-नौकर रख लो। जो खर्चा होगा अपना-अपना हिस्सा सब दे देंगे।’’ बड़ी भाभी ने सबकी तरफ से निर्णय-सा देते हुए कहा।
‘‘इतने मर्दों के बीच कौन दाई रहेगी इस घर में?’’ छोटी बोली।
‘‘हम लोग तो काम से बाहर निकल जाते हैं। कभी-कभी रात को भी नहीं आते। अब्बा की देखभाल के लिए तो किसी को जिम्मा लेना ही होगा। उन्हें तो अब रात को सूझने भी कम लगा है!’’ सलीम ने टोका।
‘‘पर वे बच्चे तो पैदा किए जा रहे थे न। तब कम नहीं सूझा उन्हें। इसी में तो मर गई अम्मा। वरना उसके मरने के दिन थे क्या अभी?’’ छोटी भाभी ने ताना देते हुए फुसफुसाकर बड़ी भाभी के कान में कहा। पर वह ऐसे फुसफुसाई थी कि मरदों ने भी सुन लिया था। दरअसल मरने वाली छोटी भाभी की ख़ाला थी।
‘‘क्या बकवास करती हो भाभी। बड़ों के लिए ज़रा भी लिहाज़ नहीं। सब अदब ताकष् पर रख दिया क्या?’’ सलीम घुड़का।
‘‘इतना दर्द है तो काहे नहीं ब्याह देते अपनी इस बेन्दी वाली मुंडियाइन को अब्बा के साथ? बेटवा भी पाल देगी और अब्बा और तुम्हारी दोनों की देखभाल कर लेगी।’’ छोटी मुँह बनाकर बोली।
सलीम गुस्से से उठकर जाने को ही था कि बड़े भाई ने हाथ खींचकर बिठाते हुए कहा, ‘‘तैश में मत आओ, ठण्डे दिमाग से सोचो, क्या गलत कह रही है, तेरी छोटी भाभी? बेन्दी वाली को तो बसा-बसाया घर मिल जाएगा। अब्बा के मरे बाद खेती-बाड़ी अगोरने के लिए उसे सिमरिया की जमीन पर बैठा देंगे। ये आदिवासी लोग तो खेती के कीड़े होते हैं। इनकी औरतें तो मरदों से भी ज्यादा काम करती हैं। मरद तो महुआ पीके पड़ा रहता है। कमा के तो ये ही लाती हैं। अरे औरत को क्या चाहिए? दो जून खाना, कपड़ा-लत्ता और रहने को घर। सो इसमें तो हम कभी कमी नहीं होने देंगे। मन बहलाने को उसे बच्चा भी मिल गया है। पालेगी, इस छोटे शहजादे को।’’
सलीम को तो मानो काटो तो ख़ून नहीं! कैसे कहता वह कि वह खुद उससे निकाह पढ़ना चाहता है। वह तो बच्चे की हालत देखकर उसकी देखभाल करने के लिए, उसे लाया था, अब्बा से निकाह पढ़ाने के लिए नहीं।
सलीम घर छोड़कर भाग गया। मौसी बच्चे में मग्न हो गई। वह प्यार से उसे पालती। अब्बा को भी हुक्का-पानी देती और खाना खिला देती। उसने भाई-भाभी के पास खबर भेज दी कि उसे शहर में काम मिल गया है। वह गाँव नहीं आएगी। मोहना की चिन्ता उसे जरूर सता रही थी, पर उसे भाभी सँभाल लेगी, सोचकर वह चिन्ता को झाड़ देती। उसने कुछ खिलौने, कुछ बताशे, कुछ कपड़े, मोहना के लिए भिजवा दिए। एक किताब भी सलीम से कहकर पढ़ने के लिए भेज दी। उसने खुद-ब-खुद घर का कामकाज भी सँभाल लिया, जैसे यह उसी का फर्ज हो, उसी का काम हो और उसी का घर हो। दस्तूर के अनुसार अम्मा का चालीसवाँ पूरा हुआ। मातम मनाने वालों का आना बन्द हो गया। बेटियाँ भी रो-धोकर अपने-अपने घर लौट गईं। रह गए बेटे, उनकी बहुएँ, अब्बा, बच्चा और मौसी। बच्चे का नाम प्यार से सबने ‘शहजादा’ रख दिया था। मौसी उसे ‘शादा’ कहकर बुलाती थी।
एक रात फिर घर में भाइयों की मजलिस जमी। सलीम भी लौट आया था। इस मजलिस में मौसी भी शामिल थी। अब तक वह सबसे मिलजुल गई थी और सब बहुओं ने भी उसे मन-ही-मन छोटी सास और बेटों ने माँ मान लिया था। माना नहीं था, तो बस सलीम ने। वह उससे कटा-कटा रहता। कैसे उसे माँ मान सकता था वह, जिसके साथ उसने प्यार-भरी रातें बिताईंµजि़ंदगी के सपने सजाए?
बड़े भाई ने मौसी के आगे प्रस्ताव रखा, ‘‘देखो, तुमने इस बच्चे को जान बख्शी है। जनमने वाली माँ हमारी अम्मा तो मर गई, अब इसे पोसने वाली असली माँ तो तुम ही हो। उधर अब्बा की हालत भी नाज़श्ुक है। माँ के गुज़र जाने के बाद वे निहायत अकेले पड़ गए हैं। तुम उनकी देखभाल तो कर ही रही हो। हम लोग चाहते हैं कि तुम बाकायदा इस बच्चे के साथ हमारी माँ बनकर भी रहो। हमारे अब्बा की देखभाल दाई-नौकर की तरह नहीं, उनकी बराबर की साझेदार, उनकी बीवी बनकर करो। उनसे निकाह कर लो। मेहर की जो रकम माँगोगी देंगे।’’
मौसी अवाक्! क्या कहे? मौसी ने सलीम की तरफ बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देखा। सलीम से उसकी नजरें मिलीं। सलीम की आँखों में एक बेबसी या यूँ कहा जाय एक बेवकूफष्ी-सी झलकी। सलीम ने नजरें फेर लीं और उठकर जाने लगा।
बड़े भाई ने उसे हाथ पकड़कर बिठाते हुए कहा, ‘‘कहाँ जाते हो? भागने से काम नहीं चलेगा?’’
मौसी की नजरें अब भी सलीम पर टिकी हुई थीं। वह उसके मुँह से कुछ सुननेकी उम्मीद ही नहीं, विश्वास भी रखती थी। उसके साथ बिताई वे रातें उसकी आँखों के आगे घूमने लगीं। उसे लगा, उसकी जि़ंदगी का पहिया जैक पर टिके ट्रक के पहिए-सा अपने ही गिर्द घूम रहा है, जैसे उसमें आगे बढ़ने की कुव्वत ही नहीं है या ट्रक का गुल्ला ही टूट गया है। अब वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे लगा, उसकी जि़ंदगी थम गई है। बेन्दी के जंगल में आग लग गई है। पेड़ जल रहे हैं और वह आग की लपटों मेें घिर गई हैµसब रास्ते बन्द हैं। उसे लगा जैसे पहाड़ ही दरक गया है। मिट्टी भसक रही है। उसकी देह मिट्टी से ढँकी जा रही है। उसका दम घुट रहा है। उसे लगा जैसे सलीम वहीं बगल में खड़ा हैµवह मदद के लिए उसकी तरफ हाथ बढ़ा रही हैµपर सलीम ने उसका बढ़ा हाथ नहीं थामाµमुँह मोड़ लिया और अब वह दूसरी ओर चला जा रहा है।
बड़े भाई ने कुछ भाँपते हुए कहा, ‘‘जवानी के जोश में बहुत कुछ हो जाता है, हम नहीं समझते क्या? पर जि़ंदगी की हकीकत कुछ और होती है। सवाल है खानदान का। अब्बा हजूर घुट-घुटकर मरें, ऐसा तुम नहीं चाहोगे। हम किसी चीज़ की कमी न होने देंगे इनको। अब्बा की सेहत के लिए एक अदद औरत उनके साथ होना जरूरी है। उन्होंने हमारी अम्मा के साथ ही पूरी जि़ंदगी बिता दी। वह उसके जीते-जी तीन शादियाँ और कर सकते थे। हम उन्हें अब बुढ़ापे में औरत से महरूम रखें, ठीक नहीं। हम इनको माँ का पूरा रुतबा देंगे।’’
ऐसे लगता था जैसे फैसला उन्हीं को करना थाµमौसी की राय लेना जरूरी नहीं थाµउसे तो बस मानना भर था। ‘हाँ’ करनी थी बस। जैसे ‘मंजूर है’µका जुमला सुनने को आतुर था पूरा कुनबा! औरत पर हमेशा कुछ-न-कुछ थोपा ही जाता है। उसकी मरज़ी पूछने का एक रिवाज़, एक रस्म तो है मुस्लिम समाज में, पर यह सब बस सूचना के बतौर निभाई जाती है। निकाह से पहले औरत से हाँ या ना में जवाब लिया जाता है। पूर्व-निर्धारित फैसले के अनुसार औरत को ‘हाँ’ कहनी ही है क्योंकि उसके अब्बा-अम्मी, भाई और समाज की इज़्जत उसके साथ जुड़ी होती है। सबसे बड़ी चीज़ है उसकी अपनी जि़ंदगी की हिफाजतµसुरक्षा। वह भी उसकी इस ‘हाँ’ से जुड़ी होती है चंूकि वह खुद इसके काबिल न होती हैµन समझी जाती है और न ही उसे काबिल होने का मौका दिया जाता है। इसलिए ‘हाँ’ तो उसे करनी ही होती है। पूछना एक रस्म अदायगी भर होती है। मौसी तो आदिवासी समाज की मुक्त महिला थी। वह इससे बँधी न थी। औरत के नाते समर्पण का संस्कार तो उसमें भी था लेकिन उसके आदिवासी आदिम समाज के मूल्यों के नाते, आज उसके सामने एक बच्चे की जि़ंदगी का एक अहम् सवाल जुड़ गया था। उसने बच्चे को पालने की ज़बान दे दी थी। यह ‘जष्बान’, यह ‘वचन’ उसके लिए अहम् था। मूल्यों का आदर ही आदिवासी औरत की सादगी का परिचायक है। यही आदिवासी समाज को दूसरों से अलग करता है। उसे सलीम से भी जो उम्मीद थी वह भी बुझ गई थी। मनुष्यजन्य स्वभाव के नाते शायद निराशाजनक स्थिति में विराग की, त्याग की भावना भी उसमें भर गई थी। मौसी को निर्णय लेना था। उपर्युक्त तीनों मनःस्थितियों का दबाव उसे दबोच रहा थाµ‘ज़बान के दबाव’ का, ‘बच्चे की जि़ंदगी’ का, ‘सलीम की चुप्पी’ का। मौसी ने गोद में लिए बच्चे को देखाµउसमें सलीम का चेहरा फिर उभर आया।
सलीम उठकर चला गया। जहाँ वह बैठा था, वहाँ एक बड़ा-सा रहस्य प्रश्नवाचक चिद्द बनकर उभर गया। वह प्रश्नवाचक चिद्द फिर एक फाँसी के फँदे में बदल गया, जो मौसी की गर्दन में लटक गया। हिलने-डुलने से फँदा जोर से कस जाएगा और खत्म हो जाएगी वह, यह उसकी समझ में आ गया। इसलिए वह स्थिर हो गई ठहर गई उसकी जि़ंदगी वहीं की वहींµजैसे कि उसे अपने लिए जीना ही नहीं था। इसलिए स्थिर रहना था ताकि फँदा न कसे। और वह गले में ‘शहजादे’ के फँदे को लटकाए जीने लगी। सलीम अब शहजादे में बदल गया था।
छह
अगले दिन पाँच हजार मेहर का काग़ज़ लिखवा कर मौसी का निकषह अब्बा से करवा दिया गया। सलीम निकषह से पहले घर छोड़कर चला गया था। निकषह के दस दिन बाद लौटा। उसे समझ मेें नहीं आ रहा था कि वह उसे क्या कहकर पुकारे? किन नज़रों से देखे? मौसी भी दुविधा मंे थी। कितना प्यार दिया था सलीम ने उसे। वह भूल नहीं पा रही थी, न ही भूलना चाह रही थी। उस प्यार की याद उसे अकेलेे में सुख देती थी। उसने सलीम को देखा और गोद में लिए बच्चे को चूम लिया। दो बूँद आँसू टपक गए बच्चे के होंठों पर, जिसे वह चाटने लगा और मुँह बनाकर हँसने भी लगा। सलीम के लिए सारा प्यार उसने इस बच्चे पर ही उड़ेल दिया था।
उस रात जब अब्बा के कमरे में सोने गई तो उसे लगा कि जैसे वह किसी मकड़े के जाल में फँस गई है। मकड़ा अपने सूखे-सूखे, अकड़े-अकड़े तार सरीखे पंजे उसकी तरफ फैलाए बढ़ रहा था। वह जितना दूर भागती, उतना ही मकड़े का जाल उसे उलझाए जा रहा था। इस बीच बच्चा चिल्ला उठा। उसे चुप कराने के बहाने वह कमरे से बाहर निकल आई, लेकिन बकरे की माँ कितने दिन खै़र मनाएगी?
‘एक न एक दिन तो उसे जिबह होना ही है। जितने दिन टल जाएµवह घड़ी।’ सोचकर वह सिहर उठती।
उस रात भी वह इसी तरह बच्चे के रोने पर अब्बा के कमरे से बाहर खड़ी बच्चे को चुप करा रही थी। बच्चा रोए जा रहा था। वह उसे लेकर छत पर चली गई। चाँद पूरा-का-पूरा रोशन था। बच्चा चाँद को देखकर हँसने लगा। मौसी न जाने किसके इन्तज़ार में थी। उसका मन चाँद से नहीं भर रहा था। वह चाँद नहीं, सितारों की खोज में थी। सितारे! दो सितारेµध्रुव तारे की तरह चमकते। मंगल की तरह दहकते। दो सितारे जो आदिम आँखों की तरह चमकते हैं।
सीढ़ी के ऊपर वाली कोठरी में अँधेरा था। दो सितारे उसे घूर रहे थे। न जाने कौन-सी ताक़त उसे उसी ओर लिए जा रही थी, जहाँ से वे सितारे घूर रहे थे। जैसे-जैसे वह नज़दीक होती गई, वे सितारे एक माथे पर चिपके नज़र आए। माथा एक चेहरे पर चस्पाँ था और चेहरा एक आकृति परµजो दोनों बाँहें फैलाए उसे आगोश में भर लेने को बेचैन थी। वह खिंचती चली गई। बच्चा कन्धे से सटा, पीछे चाँद को देख कर मुस्करा रहा था। वह दो सितारों को देख मुग्ध-सी जड़ बनी जा रही थी। दो बलिष्ठ बाँहों ने उसे कस लिया। उसके दो होंठों पर दो आग के अंगारे चिपक गए।
‘‘ओह! मैंने क्या किया? ये गुनाह है! ओह! क्या करूँ मैं? बताओ न तुम!
जिस मुँह से तुम्हें महबूबा कह चुका हूँ, उसी से ‘माँ’ कैसे कहूँ? जाने दो मुझे। मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ और ख़ुदा का भी। मेरे लिए तो दोज़ख़ में भी जगह न मिलेगी। मैं ये शहर ही छोड़ कर चला जाउ$ँगा।’’ वह आकृति बुदबुदाई।
‘‘जे दिन आपन महबूबा के निकाह अपन बप्पा संग कराया रहा, क्या ऊ गुनाह नाय था? ई जो तू अब झेल रहल है, का तुमरे दोज़ख़ की आग से कम है? तुमरा ख़ुदा का करतै, हम नाय जानब? पर हम इतना जरूर जानत हैं कि हमर बोंगा तोके माफ नाय करब। ना तोकेµना हमर के। ई बच्चा मोर गोद में नाय देयल होते, ते हम घर से भाइग गेयल होती। हमर के तोर चेहरा ई बचवा में दीखे है, एही के (इसे ही) चूम के हम तोहरा चूम लेब हैं। एही हमर बेड़ी बन गेल है।’’
आकृति फिर झुकीµ‘‘तो क्या करूँ?’’
‘‘छोड़ा ई सब गुनाह के बातां। गुनाहगार तो तोर ख़ुदा भी है और हमर भी। एही खातर तो दुनिया ऐसे गुनाहों से भरल है। अब एक गुनाह औरो सही।’’ मौसी ने कहा। आकृति ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘ऐसा मत बोल, यह कुफ्र है। ये ख़ुदा के खि़लाफष् बगावत है, उसकी तौहीन है। हम पर कहर गिरेगा
ख़ुदा का।’’
‘‘छोड़ा ई कुफ्र-कहर की बातां। कल जब मोर बाप जैसन तोर बाप, हमनी से ओ करतै, जे ऊकर खून, उ$कर बेटा, करत रहे, तो तुमरे ख़ुदा के कहर किकरा पर गिरतै? तोर पर? तोर बाप पर? या हमर पर? गिरे के तो चाही तुमरे बाप पर या तुमरे भाइवन पर! ई सब में ना हमरी मरजी रहल, न तोरी। हमर के तो फँसा देले ऊ सबनी मिलके। पर न्याय नाय होत ई दुनिया में! ख़ुदा भी आपन (अपना) कहर या हम पर गिरौते (गिराएगा) या तोरा पर। हम ब्याहल हैं दोनों बाप और बेटा से एके साथ। तू भी तो चुप रह गेले। अब और का गिरते कहर। गिर तो गेलेय। हम दोनों झेल रहल हैं सज़ा! ऊ बूढ़ा के का फष्रक पड़तै? ऊ तो मजे़ में है। मर तो हमनी रहल हैं। खैर, तोर मरज़ी! गुनहगार समझ के हमर के हाथ मत लगा! हम कोउनो गुनाह नाय करले। हमर संग प्यार करेके होत तो बोल! गुनाहगार है तो आपन ख़ुदा से माफष्ी माँग और फष्कीर बन जा।’’ मौसी ने अलग होते हुए कहा।
आकृति चुप! फिर वह झुकी और मौसी को आगोश में भर लिया।
रात देर गए तक दोनों पुरानी यादों में खोए, नयी यादें गढ़ रहे थे। बच्चा बगल में सोया था। पौ फटने से पहले उठकर मौसी अब्बा के कमरे में चली गई।
‘‘कहाँ थी?’’ मौलवी ने पूछा।
‘‘बच्चा रो रहा था, इकरा छत पर ले गयल रही। ठण्डी हवा में आँख लग गेल। दोनों जन सो गेयल। अब नींद टूटले, तो चल अयले।’’ उसने सोए हुए बच्चे को पलँग पर लिटाते हुए कहा।
‘‘इधर आओ,’’ अब्बा ने जैसे फष्तवा सुना दिया।
वह बाँदी-सी उसके पास चली गई।
‘‘बैठो!’’ अब्बा ने दूसरा फष्रमान सुनाया। वह बैठ गई।
‘‘लेट जाओ!’’ अब्बा ने हुक्म दिया। वह लेट गई।
अपने कमज़ोर सूखे थरथराते हाथों से अब्बा ने उसकी सख्त-ठण्डी देह को छुआ। जैसे असंख्य चीटियाँ रेंग गईं उसकी देह पर। अब्बा के हाथ जैसे-जैसे उसकी देह पर दौड़ते, वह उतना ही सिकुड़ती जाती। हाथ तेज़ी से दौड़ने लगे थे अब। वह समझ रही थी कि उसके जिबह होने की घड़ी करीब आ रही है। बकरी आखिरी समय में मिमियाना बन्द कर कातर नज़रों से कसाई को देखती है। छुरी धीरे-धीरे उसकी गर्दन हलाकष् करती है। खून उसकी गर्दन से कतरा-कतरा टपककर उसके प्राण निचोड़ कर बाहर फेंक देता है लेकिन मौसी हलाकष् होने से पहले ही बर्फ की सिल्ली की तरह ठण्डी हो गई थी। अब्बा मरी हुई लाश को जिबह कर खर्राटे ले रहे थे।
हर चैथे-पाँचवें दिन वह दो सितारों की खोज में रात को छत पर पहुँच जाती और भोरे मुँह अँधेरे उन सितारों की छाँह में लौट आती। उनकी रोशनी उसके ठण्डे जिस्म में आग भर देती थी। जि़ंदगी इसी तरह चलने लगी। अब्बा की और बच्चे की देखभाल में वह कोई कोर-कसर न छोड़ती। सलीम इस दोहरी जि़ंदगी के अहसासऔर अपराध-बोध के बोझ से भागकर काम की खोज में असम चला गया। साल में एक बार छुट्टी पर आता। साल-भर मौसी उन सितारों को देखने छत पर हर तीसरे-चैथे दिन जाती, यह जानते हुए भी कि सितारे नहीं दिखेंगे। वह जब लौटता तो साल-भर की जलन पी लेता और भर देता फिर साल भर तक इन्तज़ार की कुव्वत।
इसी तरह दिन बीते, महीने बीते और साल बीत गए। शहजादा अब स्कूल जाने लगा था। घर पर मोहना को भी मौसी ने स्कूल में दाखिल करवा दिया था। मौसी की दोहरी जि़ंदगी एक त्रिकोण में घूमती रही। सलीम-अब्बा-शहजादा। त्रिकोण को मौसी अपने दिमाग में फिट करती तो सलीम का कोण ऊपर रहता, नीचे दोनों पायों पर अब्बा और शहजादा। एक बाप जैसा पतिµएक प्रेमी जैसा पुत्रा और ऊपर का कोण सलीमµप्रेमी जो पति न बन सका। प्रेमी जिसकी शक्ल पुत्रा जैसी थी। प्रेमी जो अब्बा का पुत्रा था। प्रेमी जो मौसी का था। दोनों पाये ऊपर के कोण में मिलते और ऊपर के कोण का दबाव दोनों नीचे के पायों पर पड़ता।
एक दिन अब्बा चल बसे। सलीम परदेस में ही था। खत लिखा, तार भेजाµ पर कोई जवाब नहीं। सलीम नहीं पहुँचा अब्बा की मय्यत पर! क्यों नहीं पहुँचा? एक दूसरे से तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे थे। लोग तरह-तरह के जवाब अपने- अपने ढंग से दे रहे थे। पर मौसी से कोई पूछने की हिम्मत न कर रहा था। मौसी किससे पूछे? सवाल भी अहम् था। मौसी खुद से पूछ रही थीµक्यों नहीं आया तेरा सलीम? खुद ही जवाब खोजती पर कोई जवाब नहीं मिलता। जवाब मे मिलती थी आशंका। उसका दिल धक्क-सा हो जाता कुछ सोचकर! क्या सोचकर? वह ज़बान पर न लातीµन दिल में किसी ऐसे-वैसे ख्याल को फटकने देती। पर ख्याल था कि कबूतर की तरह फड़फड़ाकर मन के इस रोशनदान से उस रोशनदान तक उड़-उड़ कर घूमता रहताµउसके मन की छत के इस पार से उस पार।
सलीम के इन्तज़ार में साल बीत गया। सिमरिया की जमीन पर वह कभी-कभी जाती। वह भाई-भाभी के पास भी जाकर कभी-कभी रहने लगी थी। मोहना को मिशन स्कूल में पढ़ने के लिए दाखिल करवा दिया था। उसकी स्कूल की ड्रेस भी सिलवा दी थी। अब्बा की मौत के बाद शहजादे को छोड़कर अब उसकी जरूरत किसी को न थी, इसका एहसास उसे हो रहा था। वह एक दाई नौकर बनकर उस घर में नहीं रहेगी, यह सब जानते थे। बिना कहे वह मालकिन थी। यह दर्जा उसे सलीम ने ही दिया था और दिलाया था घर में। पर अब तक सलीम ही नहीं आया था।
एक दिन सलीम तो आया पर साथ में एक खूबसूरत औरत भी लाया। मौसी के मन की शंका का कबूतर पंख फड़फड़ाने लगा।
‘‘कौन है ई साथ में?’’
सलीम मौसी के सामने नहीं आया। आई वह खूबसूरत औरत।
‘‘सलाम अम्मा!’’ वह बोली।
मौसी क्या जवाब दे? उसकी समझ में न आ रहा था।
‘‘तो यह सलीम की कनिया (दुलहिन) है?’’ पता नहीं उसने किससे पूछा।
उस खूबसूरत औरत ने जवाब दियाµ‘‘हाँ, अम्मा।’’
मौसी की गोद में शहजादा बैठा था। वह शहजादे को गोद से उतार कर खड़ी हो गई। उसकी आँखें सलीम को खोज रही थीं। मौसी ने उस खूबसूरत औरत से कहा, ‘‘बैठ! ले सँभाल! शहजादा अब तुमरे सुपुर्द है। ई घर में औते ही (आते ही) बेटा मिल जैते है। जब ई जन्मले तबे से हम पोसले रही इकराµअब तू इकरा
जवान कर।’’
फिर शहजादे से बोली, ‘‘देख, सुन्दर-सुन्दर माँ लायल है तोर भैया तोर खातर! हम तो काली-काली रहल न। ई तो गोरी है। जा अब उकरा पास रह।’’ मौसी ने निर्णय-सा देते हुए कहा।
शहजादा काली और गोरी का भेद न जानता था। उसने तो मौसी से हमेशा वह ममता पाई थीµजो न काली होती है, न गोरी। जो बस वश में कर लेती हैµ प्यार करती हैµप्यार पाती हैµप्यार बाँटती है। उसने तो मौसी की आँखों में हमेशा स्नेह की एक धारा ही बहती देखी थी, जिसकी कोई रंगत नहीं थी। उस खूबसूरत औरत की आँखों में वह धार शहजादे को नहीं दिखी।
आने के बाद सलीम कभी भी मौसी के सामने नहीं आया। वह रात को छत पर गई। घण्टों बैठने के बाद भी वह दो सितारों वाली आकृति नहीं दिखी। उस दिन तो चाँद भी नहीं था आकाश में। वह उतरी। कमरे में गई। अपनी पोटली उठाई और अपने गाँव चल दी। किसी ने टोका भी नहीं।
सलीम ने कहलाया था कि वह बतौर रखनी, अभी भी उसे रख सकता है पर निकाह कर घर में नहीं ला सकता।
मौसी हँसी और कहा, ‘‘हम कौनो के रखनी नाय बनब।’’
सलीम यह जानता था कि अब्बा की मौत के बाद चाह कर भी वह मौसी से शादी नहीं कर पाएगा। कर लेगा तो न समाज उसे कबूल करेगा, न खुद उसका मन। वे सब उसका मज़ाक उड़ाएँगे, जिनके बीच उसे रोज़ रहना-उठना-बैठना है। वह सोचता, काश! वह भी जंगल का जीव होताµया जंगल में रह रहा होता? जहाँ ये सब सवाल न पूछे जाते या उठाए जाते।
इसीलिए वह निकषह करके ही घर लौटा था ताकि मौसी के सवाल और उनके जवाबों और मौसी की उम्मीदों पर रोक लग जाए। सलीम की ब्याहता एक जवाब के रूप में मौसी के सामने खड़ी हो गई थी। मौसी एक प्रश्न थी। मौसी के गले में फाँसी-से लटकते प्रश्नों के फँदों को ‘जवाब’ के इस चाकू ने काट दिया था।
मौसी अब आज़ाद हो गई थी। उसकी स्थिर जि़ंदगी में हरकत आ गई थी। उसका ठहराव बह निकला था, इसलिए वह अब सवालों की दलदल में फिर से फँसना नहीं चाहती थी। बस, वह जीना चाहती थीµबहना चाहती थी, भले कोई चाहे या न चाहे। वह, घर के उस दायरे में बँधी एक पोखरी-सी जि़ंदगी नहीं जीना चाहती थीµजिसका पानी गाद से भरकर गँदला हो जाता हैµजिसके किनारेµगर्मी सेµधूप से सूखने लगते हैं। वह स्वतः स्फूर्त जल-òोत की धार बनकर नदी-सी अबाध बहना चाहती थीµ जो तटबन्धों को तोड़ देती है। इसलिए मौसी अब सवाल नहीं पूछना चाहती थी। उसका मन भी उसे कुछ पूछने से मना करता था। उसने कुछ भी नहीं पूछा।
एक अरमान खत्म हो गया था मौसी की जि़ंदगी का। बिना सवाल किए, बिना जवाब लिए, उसकी जि़ंदगी का एक वरक उलट गया था। दूसरा कोरा पन्ना सामने था, जिस पर लिखने को बहुत कुछ बाकी था! कौन लिखेगा? सवाल यही था! नया अध्याय शुरू होना था फिर से। अध्याय तो रोज़ बदलते हैं, हर औरत की जि़ंदगी में। एक के बाद एक आते हैंµजाते हैं! अपनी जि़ंदगी के वरक पर औरत स्वयं नहीं लिखती, दूसरे लिखते हैं।
वह तो लिखी जाती हैµपन्ने पलट जाते हैं। दूसरा अध्याय शुरू होता है। लिखने वाले बदल जाते हैं! कोई और आ जाते हैं! कलम-स्याही और हाथ भी और! पन्ना भर बस उसी की जि़ंदगी का होता है। वह खुद तो बस लिखी जाती है। वरक पर स्याही फेंककर लिखावट खत्म करने का प्रयास भी होता हैµया पन्ना फाड़कर ही लिखे हुए को भुलाने या मिटाने का भी।
औरत चाहे किसी भी वर्ग की हो, वर्ण की हो, कैसी भी धार्मिक, सामाजिक स्थिति की हैसियत वाली होµउसे अपना फैसला करने का हक देना, समाज अपनी तौहीन मानता है। वह उसका पीछा करता है, उसे झुकने पर मजबूर करता है। मध्यम वर्ग की औरतों में यह सब कुछ सामाजिक सुरक्षा के नाम पर होता है, तो बड़े वर्ग की औरतों में सुरक्षा के साथ-साथ अहम्, आन-बान, वंश, संस्कार और प्रतिष्ठा के नाम पर। निम्न वर्ग में आर्थिक परिस्थितियाँ उनकी मजबूरी होती हैं।
लेकिन सभी वर्गों में औरत को झुकाने में, उसे तोड़ने में, बाप-भाई के साथ-साथ माँ-बहन, सास-ननद भी शामिल होते हैं या कर लिए जाते हैं। औरत के समर्पण के लिए अपराध-बोध सबसे बड़ा हथकण्डा है।
सात
मौसी अब मोहना की देखभाल में व्यस्त रहने लगी। वह केवल ‘माँ’ बनकर रहने लगी थी पर उसके अन्दर की औरत उसे कचोटती रहती थी। मौसी के हाथ में जो पैसा था वह भी खर्च हो रहा था। आमदनी का और कोई स्रोत नहीं था। शहर जाकर मजदूरी करना भी अब उसके लिए मुश्किल था। बस स्टैण्ड, मुहल्ला, बाजार सब उसे ‘मालकिन’ की हैसियत से जानने लगे थे। वह दूसरी किसी हैसियत को कबूल नहीं कर पा रही थी। कैसे किसी और के घर नौकरी करे? सलीम के अब्बा के पैसे के कारण गाँव में मौसी की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई थी।
कई दिकू मनचले यह भी कहते थे, ‘‘बूढ़े को ज़हर देकर मार देगी और सब धन लूट लाएगी।’’
बिना माँ के बच्चे को पालने और खुद माँ बनने की आसक्ति की हद तक जा पहुँची उसकी भावना को समझने वाले कम ही थे।
‘‘चलो भटकने से तो अच्छा हुआ कि कहीं ठिकाने लग गई।’’ ज्यादातर लोग ऐसे ही कहते। जैसे कि नाव का ठिकाने लगना जरूरी है। चाहे मगरमच्छ और बाघों से भरे जंगल के किनारे ही क्यों न लगे नावµपर किनारे लगना तो चाहिए ही। डूबना ठीक नहींµप्यार से भरे शीतल जल में भी नहीं। भले जि़ंदगी-भर किनारों की खोज में भटकती रहे नाव! नाव भटकती रहेµकिनारे लगे, मँझधार में डोले, फिर तट पर आ लगे, उन्हें इसी में रस मिलता है।
इसी मानसिकता के लोग मौसी की ‘नाव’ को भाई-भाभी के किनारे लगी देख, अपने गाँव या समाज के तट पर खड़ी पाकर उसे फिर मँझधार में ठेले जाने के इन्तज़ार में थे। बड़ी शिद्दत से बाट जोह रहे थे वेµकि कब मँझधार में फँसे उसकी नाव ताकि जरूरत पड़ने पर वे भी दो-चार चप्पू चला कर या ठेल कर उसे चलता करेंµकि वह यह तट छोड़ किसी दूसरे तट की खोज में निकल जाए।
मौसी अब मोहना पर पूरा प्यार उड़ेलने लगी थी पर उसे अपना पेट भी पालना था। अपना भी और मोहना का भी। भाई-भाभी ने उसे कह दिया था कि वह अपना सहारा खुद खोजे। सिर्फ गाँव के महुआ पर गुज़र नहीं हो सकती थी। कई हिस्सेदार थे उसमेंµसिपाही, रेंजर, मुखिया, नेता और रंगदार। जमीन इतनी थी नहीं कि पेट पल जाए। किसी के खेत पर ही वह खट सकती थी। सो मौसी ने अपने गाँव के ठाकुरों के खेत पर खटना शुरू कर दिया था। गाँव के ठाकुर पहले जमीन वाले जमींदार थे, अब केवल ठाकुर भर थे। ‘मूँछ’ का ठाकुरµलाठी भँजाउ$ ठाकुरµजात का ठाकुरµठाकुर यानी राजपूत! खेत तो उनके लगभग सब आन-बान बचाने में
बक गए थे। थोड़ी बहुत ज़मीन बची थी पर बाकी थी ‘आन’ भरपूर आन! ‘बान’ अब जाती रही थी। कभी-कभी ‘आन’ ‘जुल्म’ बनकर उभर आती थी कमजोर पर जुल्म, औरत पर जुल्म, दलित पर जुल्म, मजूरा पर जुल्म!
घर-बाड़ी बची थी। बड़े-बड़े दालान थे। कुछेक महुआ-सखुआ के गाछ, बस यही रह गई थी ‘रजपूतन’ की पूँजी। राजपूत ‘महरारू’ (औरत) खेत पर खट नहीं सकती थी। जब राजपूत मरद ही खेत में हल नहीं नाद सकता, जाति चली जाने के डर से, तो उनके घर की महरारू कैसे रोपनी, कटनी, निकौनी करती? सो ‘बान’ (आदत) ने सहारा दिया। रखनी रखने की ‘बान’ तो पुरानी थी। रिवाज़ भी था। सो एक-एक रखनी रख ली। ऐश भी, खेत का काम भी। कोई माझी, कोई भुँइनी, तो कोई चमाइन, दुसाधिन या फिर मुण्डा। गाँव में जिस जाति के टोले, उसी जाति की रखनियाँ। इन रखनियों की औलाद भी बढ़ती जा रही थी। वह ठाकुरों की जमीन पर झोंपड़े ‘छान-छानकर’ बस रही थी। कुछ बाबुओं की अपनी मूल जाति के बाप की औलाद भी होती थी। बाकी सब मिली-जुली पर चेहरे फष्रक-फष्रक। यहाँ तक कि रंग भी फष्रक-फष्रक हो जाते थे। बाप का नाम मूल जाति के बाप का ही रहता। ठाकुर अपना नाम उस औलाद को न देते। उसके लिए उन्हें राजपूत माँ की कोख़ चाहिए। भला भुइयाँ या अन्य छोटी जाति की कोख़ से जन्मी औलाद को ऊँची जाति के बाप का नाम कैसे मिलता? उनके झोंपड़े में पूरी-पूरी रात बिताते थे बाबू साहब और रखनियाँ अपने-अपने मरदों के साथ इनके खेतों में अपना पूरा-पूरा दिन खटते-खटते गुज़ार देती थीं।
इसके साथ बाबू साहिबन का हँडिया-महुआ सब चलता था, बस उनके घर का पानी नहीं चलता था। माझी, मुण्डा, भुइयाँ, दुसाध आज भी इनकी ड्योढ़ी के अन्दर नहीं चढ़ सकते थेµपर औरत? जहाँ उसके भोग लगाने का सवाल हो, तो चीथड़ों में लिपटी, गन्दगी से सनी जटा-जूट औरत भी ग्राह्य हो जाती हैµइन बड़े लोगों के समाज में। मूल्यों को अपनी सुविधानुसार घटाने-बढ़ाने, चढ़ाने-उतारने, कसने और ढील देने में बहुत सक्षम है, यह उच्चवर्गीय, उच्चवर्णीय समाज।
इन बड़ी जाति वालों ने परिकथाएँ गढ़ रखी हैं। जिस औरत के हाथ का पानी पीना इन्हें धर्म से च्युत करता है, उसके हाथ से दारू, हँडि़या, महुआ पीने में इन्हें ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होती। शायद इसलिए कि वह पानी नहीं नशा है। धर्म भी तो एक नशा ही है। इनका धर्म पानी पर ही अपना पूरा रौब गाँठता है । पानी निःशुल्क है। प्रकृति-प्रदत्त है। जीवन देता है, जि़ंदगी बचाता है। इसीलिए वर्जनाओं के दायरे मेंµलक्ष्मण रेखाओं की सीमाओं में बाँध दिया गया है पानी।
शौक, ऐय्याशी तो सदैव ही धर्म के बन्धनों से मुक्त रहे हैं। बस, जि़ंदगी को ही धर्म ने अपनी बेडि़यों में जकड़ा है। उसी तरह औरत के सहवास को यह कैसे छोड़ देते भला? किसी भी जाति की औैरत हो, वह सर्वदा ग्राह्य रही है। उसके लिए केवल छूट ही नहीं, उसे तो इन्होंने अपने अधिकार के रूप में वर्णित किया है। हाँ, उससे पैदा औलाद को त्याज्य करार दिया है। वह माँ की जाति में ही रहेगी। उनके खेतों में कमिया बनकर खटेगी पर उसे उसके असली बाप की जाति में शामिल नहीं किया जायेगा। हालाँकि इनका पूरा समाज पितृ-प्रधान है। वह औलाद इनकी सम्पत्ति की भागीदार नहीं हो सकती। इसके लिए उसे सवर्ण-कोख़ ही चाहिए। अपने ही गोत्रा की, जाति की कोख़। अजीब दर्शन है यह, इन धर्म और समाज के लठधरों काµरंगरेजों, रंगबाजों, रंगधरों का! ये ठेकेदार भी नहीं हैं। ठेका लेने वाले तो व्यवसायी होते हैं। उन्हें जिम्मेवारी का एहसास भी होता है। पर रंगदार का तो बस अधिकार ही अधिकार होता है, अथाह अधिकार! दायित्व कुछ भी नहीं।
आठ
मौसी के लिए भी एक ऐसा प्रस्ताव आया। कोलियरी में खटने वाले एक नेताजी हैं। मजदूर भी हैंµऔर मजदूर-नेता भी। चैपारण के बाबू साहब हैं। पहले घाटों में टाटा कम्पनी में थे। उन्हांेने रेणुका जी के साथ यूनियन में, ठेकेदारी मजदूरों को स्थायी करने और गाँव के लोगों को जमीन के बदले नौकरी देने की लड़ाई लड़ी, तो कम्पनी ने उन्हें डिसमिस कर दिया। ‘राममनोहर लोहिया श्रमिक उच्च विद्यालय’, जिसे रेणुका जी ने मजदूरों के चन्दे से टाटा के खिलाफष् लड़कर टाटा की जमीन पर, रातों-रात बनवा दिया था, में उन नेताजी ने बड़ी मदद की थी। इसीलिए खदानें सरकारी होने पर झारखण्ड कोलियरी में बाबू शिवराम सिंह के मैनेजर सिंह साहब से कहकर रेणुका जी ने उनका नाम भी चढ़वा दिया था। सिंह साहब भी राजपूत ही थे। यूनियन ने लड़कर नेताजी को सी.सी.एल. में नौकरी करवा दी थी। अब वे ठाठ से सरकारी कम्पनी में नौकरी कर रहे थे और यूनियन के नेता भी बन गए थे। यूनियन भी बड़ी तगड़ी थी उनकी! वह मजदूरों की लड़ाइयाँ तो लड़ती ही थी, साथ में गाँव वालों की लड़ाइयाँ भी लड़ती थी। जब-जब उनकी यूनियन जुलूस लेकर हजारीबाग आती तो शहर का चप्पा-चप्पा ढक जाता। पन्द्रह-बीस हजार से कम लोग नहीं होते। नेताजी तो गाँव के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। क्या दुन्नी, क्या राहों, पंचमों, लइयो, करमा, रतबे, जरबा, दासोखाप, जगेशर, सभी में नेताजी ने रेणुका जी की पैठ कराई थी। रेणुका जी को लेकर वे गाँव-गाँव गए थे। जंगल की लड़ाई भी नेताजी की राय से ही लड़ी गई थी।
रेणुका जी ने क्या गजब नारे दिये थे? ‘लाठा-छावन और जलावन देना होगा’, ‘जोती जमीन बाहर करो’ और सबसे जोरदार नारा तो था ‘घूस नहीं अब घूँसा देंगे’। इसी नारे पर तो सब जंगल के सिपाही जंगल छोड़कर भाग गए थे। मानो आग लग गई थी इलाके में। घरे-घर छावन (घर छानने के लिए लकड़ी), जलावन और लाठा जमा हो गया था। कइयों ने तो ‘गोड़ा धान’ (टाँड़ जमीन में बोया जाने वाला धान, जो कम पानी में भी उपजता है) भी जहाँ-तहाँ ‘टाँड़’ (परती जमीन) में छींट दिया था। नदी-नाले में धान लहलहा गया था। कोई सिपाही ‘रोके’ खातिर जंगल में घुसता ही नहीं था। ठेकेदार का ट्रक भी जंगल में लकड़ी काटने के लिए नहीं जा सकता था। इसका लाभ यह हुआ कि जंगल से लकड़ी की चोरी बन्द हो गई, जो ट्रकों द्वारा सिपाही और रेंजर की मिली-भगत से होती थी।
गाँव के सफेदपोश लोग घाटोटाण्ड कोलियरी में टाटा के यहाँ किरानी बाबू का काम करते थे। उनका घाटो में बराबर आना-जाना लगा रहता था। कुछ लोग केदला में छोटी-मोटी ठेकेदारियाँ भी करते थे। वे शनिवार को अपने-अपने गाँव लौटते और सोमवार को वापिस चल देते थे। ये लोग साँझ को चैपाल में बैठकर अपने गाँव वालों को कोलियरी में हो रहे आन्दोलन से वाकिफ कराते रहते थे। लोग बड़ी श्रद्धा से उन्हें सुनते और नेताजी की मार्फत रेणुका जी को अपने गाँव में भी लाने के लिए उन बाबुओं की चिरौरी करते थे।
‘‘ई गाँवा में ले आव उनकर (उनको), कुछ हमरा गाँव के सुधार हो जैइतेµ जंगल के सिपहिया का मन बहुत बढ़ गेल है। ऊ भी ठण्डा हो जैते।’’
लाने का वादा कर, बाबू लोग फिर ड्यूटी पर लौट जाते। वे पुरानी, नयी बातों का घाल-मेल कर ग्रामीणों को कुछ-न-कुछ सुनाते रहते और चर्चा में बने रहते। अभिव्यक्ति की ताक़त तो आखि़र इन्हीं लोगों के पास थी, इसलिए गाँव पर इनकी पकड़ भी मजबूत थी। मजदूर आन्दोलन से जुड़ने के कारण इनमें व्याप्त निम्न जातियों के प्रति तिरस्कार की भावना कम हो रही थी। मजदूर अधिकतर निम्न जातियों के ही होते थे और मुंशी, स्टाफ उच्च जातियों के।
सवर्ण नेतृत्व को भी आन्दोलन कामयाब करने के लिए जन-समर्थन इसी निम्न वर्ग से ही पाना जरूरी था। विलासपुर का सतनामी मजदूर, हड़ताल करके अपनी पूरी कमाई गँवाने में भी कभी पीछे नहीं हटता था, भले वह लड़ाई उच्च जातीय मुंशी व स्टाफ के लिए ही क्यों न हो। ऐसे ही बाबू साहब (राजपूत) किरानी भी, जरूरत पड़ने पर उनका साथ देते थे, भले संस्कारवश वे अपनी शोषण करने की आदत छोड़ नहीं पाये थे। सामूहिक आन्दोलनों में नेताजी नेतृत्व सँभालते और सस्पैण्ड, डिसमिस होने से भी नहीं कतराते थे।
‘नेताजी’ भी बंदौत राजपूत हैं। केदला के सरकारीकरण के बाद अब वे मजदूर के साथ-साथ मज़दूर-नेता बन गए हैं, इसलिए सभी जाति के यहाँ जाकर खा लेते हैं। जरूरत पड़ने पर उनकी ‘घरुआ’ (घर की) बोली भी बोलते हैं। आन्दोलन छिड़ने पर वे अपना पूरा वेतन भी लुटा देने का साहस रखते हैं। इसलिए दलित जातियों के मजदूर या गाँव के विस्थापित, किसी अन्य नेता की बजाय इन्हीं की बात पर अधिक विश्वास करते हैं। फिर ये तो स्थानीय भी हैं और रेणुका जी के विश्वासी भी। तभी न उनकी नौकरी के लिए देवीजी ने भी दिल्ली और कलकत्ता एक कर दिया था।
हजारीबाग जिला में बहुत सारे बंदौत राजपूत हैं। इनके घर दूसरे राजपूत अपनी बेटी का रिश्ता नहीं करते। वे इनकी बेटी जरूर ब्याह कर ले जाते हैं, पर अपनी बेटी इन्हें नहीं देते। दरअसल वे इन्हंे असली राजपूत ही नहीं मानते। इस सब के बावजूद, ये राजपूत होने का अहंकार जरूर पालते हैं। इस क्षेत्रा में घटवार भी अपने को राजपूत ही कहते हैं हालाँकि कभी वे आदिवासी की श्रेणी में थे। इस क्षेत्रा के राजा रामगढ़ का परिवार घटवार ही था। राजा होने के कारण वे अपने को राजपूत कहने लगे। इनके परिवार का रहन-सहन, नाक-नक्शा आदिवासी का था पर नेपाल के राजघराने में शादी-ब्याह करने के चलते किसी का रंग गेहुँआ और किसी का गोरा था। ये अपने को सवर्ण मानते थे और बाकी जातियों से खुद को ऊँचा कहते थे। ये लोग एक अहम् पाले हुऐ थे। इनके पास दूसरों से अधिक जमीनें थीं। घटवार लोग राजा साहब के दरबारी थे, सो वे सामन्ती रंग-ढंग सभी से लैस थे। हुकूमत करना, हुक्म चलाना, लोगों को खटवाना, इन्हें खूब आता था। अभिव्यक्ति के साथ-साथ इनके पास लाठी की ताक़त खूब जबर थी और अभिजात होने का अहंकार भी। इनकी कोलियरी में यूनियन फटक नहीं सकती थी।
घाटों की टाटा कम्पनी में भी इण्टक छोड़ कर कोई अन्य यूनियन घुस नहीं सकती थी। यह तो ‘नेताजी’ ने ही वहाँ देवी जी की यूनियन बनवाई थी। टाटा कम्पनी ने इन्हें भले डिसमिस कर दिया था पर इन्होंने भी टाटा को नाकों चने चबवा दिए थे। बंजी के सूड़ी साव और दुन्नी के महतो, सभी इनके साथ थे। दुरू, बरसम, परसा और मुकुन्दबेड़ा के माझी तीर लेकर जुट जाते थे इनके बुलाने पर। हजारीबाग में रेणुका जी ने जो आदिवासी सम्मेलन किया, उसमें इतने होड़ (आदिवासी मरदों को होड़ कहते हैं) जुटे थे कि राजा साहब भी कभी एक साथ इतने न जुटा पाए होंगे। सब तीर-बीजर से लैस। उसी सम्मेलन में जंगल की लड़ाई का फैसला लिया गया था। गिरीडीह और बोकारो भी तब इसी जिले में थे। जेल जाने के लिए हफ्ते के दिनों के हिसाब से गाँवों को बाँट दिया था। रेणुका जी के पास एक ही गाड़ी थी। उन दिनों लोग पैदल या मोटरसाइकिल सेाना-जाना किया करते थे। उस क्षेत्रा में बस चालू नहीं हुई थी। पूरा घाटोटाँड़ का मजदूर, चाहे वह किसी राज्य या जिले का रहने वाला हो, जंगल की इस लड़ाई में उनके साथ खड़ा था। तन-मन-धन, तीनों साथ लेकर जंगल के संघर्ष का बिगुल फूँकने घाटों के मजदूर गाँव-गाँव में फैल गये थे। दो दिन में ही सरकार झुक गई थी और समझौता हो गया था। फैसला हजारीबाग के वन-विभाग के कार्यालय में हुआ। पटना से हाकिम आए। माँडू में गिरफ्तारी देने के लिए हफ्ते-भर तक लोग आते रहे। उन्हें खबर नहीं पहुँचाई जा सकी थी कि फैसला हो गया है, अब जेल जाने की दरकार नहीं है। सभी को यह बताने के लिए रेणुका जी और ‘नेताजी’ को वहीं माँडू में हफ्ता-भर तक रुकना पड़ा था। रेणुका जी ने चन्दे में माँगी गई मकई का आटा दलवा या पिसवा कर, उसकी रोटी व दर्रा खा-खा कर, पूरी लड़ाई लड़ी थी। इस मक्के के चन्दे से लड़ी लड़ाई ने आदिवासियों-मूलवासियों की आठ हजार एकड़ जमीन डिमार्केशन से बाहर निकलवा दी। जिस जंगल में लकड़ी के कूप नहीं बने थे, वहाँ सरकार ने डिपो खोल दिए और सस्ते दामों में लाठा उपलब्ध करवाया। छावन-जलावन की छूट मिल गई। वर्षों तक सिपाहियों की कड़ाई बन्द रही। संगठन कमज़ोर होने पर पुनः सख्ती शुरू हो गई।
नौ
फिर छेड़ी गई बंजी में पानी की लड़ाई। इन्हीं ‘नेताजी’ ने बंजी वालों को जगाया और रेणुका जी ने जैसे गोमिया में पानी की लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही लड़ाई बंजीवालों के लिए भी छेड़ दी थी।
‘‘चलो जी, आप भी निकलो जीµपानी तो आप भरकर लाती हो जी, चलो आज बी.डी.ओ. के घेरेंगे जी। टाटा में पानी अफरात बहता हैµबंजी के लोग पानी बिना मरते हैं। आठ कोस से पानी भर के लाना पड़ता हैµआखिर तो ‘जनी’ ही भर के लाती हैं न पानी। बंजी, दुन्नी, परसा, केदला, झरना, मुकुन्दाबेड़ा की जमीन पर घाटों कम्पनी इतना कमा रही है, तो वह हमें पानी क्यों नहीं देगी? यहाँ घर की औरतें पानी की लड़ाई के लिए नहीं निकलेंगी, तो कैसे सरकार जानेगी कि आपको पानी की दरकार है? अरे, रानी साहिबा वोट खातर महल छोड़कर निकल आती हैं, तो अब जब रेणुका जी आपको पानी खातर बुला रही हैं तो काहे ले चुपचाप खड़ी हो? चलिएµआप लोग भी चलिए। बिना रोये माय भी दूध न पिआए है।’’ कहकर भगवान बाबू ललकारते थे।
उनकी ललकार पर सभी औरतें घरों से निकल आई थीं। उनके प्राणों की रक्षा वे अपनी जान से बढ़कर करते थे। बाईस किलोमीटर चलकर जुलूस माँडू पहुँचा था। जुलूस में पाँव-पैदल, साइकिल-सवार, बैलगाड़ी-सवारµसभी के सभी, साथ-साथ चल रहे थे। दो दिन बिना अन्न-जल छुए रेणुका जी ब्लाॅक आॅफिस में आमरण अनशन पर बैठी रही थीं। बंजी वाली किसी भी औरत ने पानी तक नहीं छुआ था। बंजी के कई बच्चे भी हठ ठानकर अनशन पर बैठ गए थे। भैरो सावजी मुखिया भी डटे थे। कोई टस से मस नहीं हो रहा था। भगवान बाबू घूम-घूम के अगल-बगल की बस्तियों से भी लोगों को जुटा लिए थे। सरकार को तीसरे दिन समझौता करना पड़ा। पानी के टैंकर के साथ टाटा का ट्रक मँगाया गया। जब तक टाटा कम्पनी या सरकार चापाकल नहीं लगाएगी, तब तक वही टैंकर पानी लादकर दोनों टाइम बंजी वालों को देगा। खुशी की लहर फैल गई थी गाँव-भर में।
अगल-बगल के गाँव भी अब लड़कर पानी लेने की बात सोचने लगे थे। ‘पानी की रानी जिन्दाबाद’ का नारा ‘नेताजी’ उछल-उछलकर लगा रहे थे। लम्बे-चैड़े तो थे ही। जवान भी थे। खूब जस फैला रेणुका जी और ‘नेताजी’ का। अब कई नये नेता उनकी कतार में जुड़ रहे थे। कई नये लड़के नेतृत्व लेने को तैयार हो रहे थे। लोग नए-नए मुद्दे खोज रहे थे। छोटन, गोपाल, बीगन, द्वारिका साव बंजी से उभरे। भैरो साव मुखिया आगे आए। घाटो से इण्टक के नेताओं को छोड़कर निजाम बाबू के नेतृत्व में एक पूरी टीम नेताजी के साथ निकली। घाटो में भी टाटा की कोलियरी में यूनियन बन गई। नेताजी ने केदला में भी यूनियन बनाने की राय दी।
राजा साहब की कोलियरियों पर रिसीवर बैठ गया था। ठेकेदार अब रायल्टी का पैसा बिहार सरकार के अधिकारी, जो रिसीवर बने थे, को देने लगे थे। राजा साहब के सब अधिकार खत्म कर दिए गए थे। ‘नेताजी’ पहले राजा साब के साथ ही थे पर रेणुका जी से वे इतना प्रभावित हुए कि सब पुराने सरोकार छोड़कर राजा साहब के सब भेद और गुरों के साथ रेणुका जी की मदद में लग गए। नेताजी केे गाँव के संस्कार राजा का साथ देते, पर उनका मजदूर-जनित संस्कार, जो अब उन पर हावी हो गया थाµअब उन्हें मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करता। अब वे प्रतिबद्ध होकर सामने आ गए थे।
घाटो का मजदूर पहले भी एक इण्टक विरोधी यूनियन के नेतृत्व में अपनी लड़ाई लड़कर हार चुका था। उस लड़ाई का नेता टी.बी. की बीमारी से ग्रसित होकर मरा था। उस नेता का नाम मजदूर बड़े आदर, श्रद्धा और प्यार से रेणुका जी के सामने लेते थे। प्रायः मजदूर यह कहते थे कि उन्हीं की तरह रेणुका जी ने भी घाटों को फिर से जि़न्दा कर दिया है। भगवान बाबू उस नेता को याद कर रो दिया करते थे। उन्हे रेणुका जी में वही जोश, वही खरोश, वही चुनौती-भरा लहजा़, वही संकल्प नज़र आता थाµजो उनके अभिजात संस्कारों को भी सहलाता था और उन्हें नए डीक्लास्ड वर्ग में खुद को ढालने में मददगार होता था। आखिर कुर्बानी ही तो कर रहे थे वे। कुर्बानी का यह भाव, उन्हें विभोर कर देता था। यूँ तो कुर्बानी और कर्तव्य शब्द सदैव सामन्ती परिवेश से जुड़े रहे हंै, पर इसी के माध्यम से उनकी सामन्ती प्रवृत्ति ‘यश’ की प्राप्ति कर के, अपने अहम् की तुष्टी करती थी। मजदूर-किसान संगठन बनने के बाद ये प्रवृत्ति अब आम आदमी, मेहनतकश मज़दूर व किसान के हिस्सेेेे का हथियार भी बन गई थी। मध्ययुगीन इतिहास में झाँकें तो पता चलता है कि युद्धों में पराजित कई उच्च जातियाँ अपनी आर्थिक स्थितियों के कारण भी निम्न वर्ग में शामिल होती रही हैंै। फलतः यह डि-क्लास्ड वर्गµसामन्ती रुझान रखते हुए भीµजो भारत के निम्नतर वर्ग में भी मौजूद हैµअपनी जमातांे व समाज के लिए, कुर्बानी व त्याग का निर्वहन करने लगे। निम्न वर्ग द्वारा अनेक कुर्बानियाँ दी गईं, जो पहले उच्च वर्ग को स्वीकार्य नहीं थीं, अब वे स्वीकारी जाने लगी हंै। ‘नेताजी’ उसी श्रेणी में आते थे।
ऐसे इस क्षेत्रा के मजदूर कोलियरियों में इण्टक के साथ थे। राजा साहब की कोई यूनियन नहीं थी। राजा साहब व्यापार की राजनीति करते थेµमजदूरों की या गरीब जनता की नहीं। वोट की बिसात के लिए गरीब जनता उनकी मोहरा थी। उनकी भलाई उनका लक्ष्य नहीं था। इसलिए जब माँडू में पानी के लिए बंजी वाले संघर्ष के दौरान पहुँचे, तो माँडू वालों को इसका अहसास हुआ। राजा साहब चुनाव की मीटिंगों में भाषण देने बाजार-हाट (वे हाटों में ही मीटिंग करते थे) में आते, तो असले-अमले के पीने की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए, पद्मा से पानी का एक टैंकर भरकर अपने साथ लाते थे। चुनाव में भी नेताजी रेणुका जी के साथ थे। उन्होंने माँडू की चुनाव सभा मंे माँडू वालों से पूछ ही लिया थाµ
‘‘काहे नहीं माँडू में आज तक कोई चापाकल, कोई कुआँ कुड़वाया राजा साहब ने चुनाव जीतने के बाद भी? यह तो राजा साहब की अपनी सीट थी न। अपने लिए तो वे पद्मा से पानी ले आते हैं। क्या माँडू की जनता के हर रोज पद्मा के महल से पानी लाकर पिलाएँगे वे?’’
सवाल ने ठिकाने पर वार किया था। माँडू से राजा साहब को उनके निश्चित वोट भी नहीं मिले। घाटों में तो मात्रा इक्कीस वोट मिले थे उन्हें। रेणुका जी को इक्कीस सौ मिले थे।
तो उन्हीं ‘नेताजी’ के लिए प्रस्ताव आया था मौसी के लिए। पत्नी मर गई है। तीन-तीन बेटियाँ हैं। सबका ब्याह हो गया है। सभी अपने-अपने घर हैं। बेटा कोई है नहीं। भतीजे हैं। क्वार्टर में रहते हैं ‘नेताजी’। बिजली-पानी सब की सुविधा है। बस, एक औरत नहीं है घर में। औरत जो खाना बनातीµरात को या रात की ड्यूटी के बाद भोर को थककर घर आने पर हाथ-गोड़ चापती (दबाती), तेल मालिश करती। मालिश करते-करते ‘नेताजी’ की मर्दानगी जग जाती तो, उस भूख को भी शान्त करती।
अब पुरानी बात तो रही नहीं । पुराने आन्दोलन भी नहीं हैं। ‘नेताजी’ यूनियन के आह्नान पर घेराव करने हजारों की भीड़ लेकर जाते थे। लोग मधु-मक्खियों के छत्ते की तरह जुटे रहते थे उनके गिर्द, जैसे कि वह स्वयं मधुमक्खियों का छत्ता हों। अब तो भिड़ के छत्ते की तरह बिखर गए हैं सब। मधु तो है नहीं कि जुट जाएँ। सब जहाँ-तहाँ भिनभिनाते हैं, अपने-अपने स्वार्थ में। ढेर नेता हो गए हैं और सभी अपनी-अपनी मिठाई की दुकान खोल लिए हैं। सभी के यहाँ मँडराते हैं वे बर्रे। सब नौकरी पा गए हैं। अब तो बस दूसरे की तरक्की मारकर, अपनी तरक्की करवाने के लिए रोज़ यूनियन बदलते रहते हैं। जि़ंदगी की लड़ाई तो ‘नेताजी’ की मदद से रेणुका जी ने लड़ ही दी थी। अब तो दुकानदारी है। अब भला अनपढ़ ‘नेताजी’, सिक-लीव, घर-छुट्टी, ग्रुप-ग्रेड ग्रैच्यूटीµसी.एम.पी.एफ., कैसे पहचानें? रेणुका जी भी विधायक बन गई हैं। अब वे कोलियरी कम आती हैं। अब ‘नेताजी’ के गिर्द भीड़ नहीं जुटती। बस कुछ लोग ज़रूर, जो उन्हीं के क्वार्टर में हैं, उनके यूनियन आॅफिस में जुट जाते हैं।
कहीं पी.ओ. से झगड़ाµकहीं मैनेजर से, तो कभी दूसरी यूनियन वालों से बहसा-बहसीµयही उनकी दिनचर्या है। अब तो बस घर में उनका गुस्सा सहने के लिए एक अदद घरवाली यानी एक औरत चाहिए, जो उनका निहोरा भी सहेµउनकी मार भी और वह उनसे वारिस भी नहीं माँगे। जायदाद में हिस्सा माँगने वाली औरत की भी उन्हें दरकार नहीं। जायदाद तो भतीजों की रहेगी। हाँ, खाना-पीना पूरा-पूरा मिलेगा। कपड़ों की भी कमी न रहेगी। वह उनके साथ बैठकर पियेगी भी। अंग्रेजी दारू भी गाहे-बगाहे मिलेगी।
वे मोहना का भी भार उठाएँगे। पढ़ाएँगे भी उसेे। सारा घर इसी के जिम्मे रहेगा। रसोई, खाना-पीना सब कुछ। वे अपना पूरा का पूरा वेतन उसी को सौंप देंगे। वही चलाए घर-बार। मगर जब बेटी-दामाद घर आएँगे तो रसोई से बाहर आना होगा उसे। तब रसोई भाई-भतीजा या बेटी-दामाद को सौंपनी होगी। वह इसके हाथ का पका खाना न खाएँगे। ‘नेताजी’ तो सभी जगह खाते हैं। उन्हें परहेज नहीं है पर कुटुम्ब का लिहाज करना तो जरूरी है न। हाँ, उसे सोने का कमरा खाली नहीं करना होगा। सोने में भला कैसा परहेज?
मौसी सोच में पड़ गई। नेताजी उमर में मौसी से ड्यौढ़े हैं पर हैं तन्दुरुस्त। गाँव के दामाद ने बताया था कि अभी भी चार-छह औरत रख सकते हैं नेताजी! इसक्षेत्रा में मरद की मर्दानगी का मापदण्ड औरतों को रखने की संख्या एवं क्षमता होता है। ऐसे औरत मरने के एक साल बाद नेताजी एक चैदह बरस की लड़की को लिवा लाए थे। कोलियरी में सबने उनका मजाक उड़ाया-‘‘क्या बुढ़ारी में बेटी जैसी महरारू ले आए?’’ सबसे बड़ी समस्या नेताजी के लिए यह हो गई थी कि कइयों ने उस लड़की पर डोरे भी डालने शुरू कर दिए थे। जो घर में आता उनसे ऊटपटाँग सवाल पूछता।
‘‘क्या बेटी आई है आपकी?’’
एक दिन तो हद ही हो गई। रेणुका जी आई हुई थीं। उस बच्ची को देखकर उन्होंने पूछ ही लिया, ‘‘क्या नतनी है यह आपकी? किस बेटी की बेटी है?’’
अब क्या कहें नेताजी! काटो तो खून नहीं। टाल गए जवाब।
दूसरी तरफ अगल-बगल के संगी-साथी मजदूरों के लड़के ताक-झाँक तो करते ही थे, खुद उनके घर के भतीजे, दामाद भी उसके पास आकर बैठने लगे थे। ‘नेताजी’ को हमेशा ड्यूटी पर भी चिन्ता लगी रहती थी, कि कहीं ‘रबिया’ (उनका भतीजा) घर में न जा घुसा हो! कहीं उनका दामाद बजरंगिया न पहुँच गया हो घर में! सब घुर-घुर आते हैं घर में। रात को जाने का नाम ही नहीं लेते। देर तक गप्प हाँकते हैं। आजकल तो वे सब भी ‘नेताजी’ की मुट्ठी-चापी कर देते हंै! इसी सोच में पड़े रहते थे ‘नेताजी’। एक दिन बड़का दामाद आया। वह भी नइकी माई (माँ) के पीछे-पीछे घूमने लगा। नेताजी कई दिन तक परेशान-परेशान रहे।
एक दिन वह लड़की ही घर से भाग गई। कहा तो गया कि वही छोड़ आए हैं। जग-हँसाई के डर से यह नहीं बताया गया था कि दरअसल उनकी वह ‘नइकी महरारू’ उनके ही भगिना के साथ भाग गई थी।
तब से उन्होंने फैसला कर लिया था कि अध-वयस औरत ही लाएँगे और लाएँगे तो कोई माझी या मुण्डा ही। वे ज्यादा वफादार होती हैं। वे या तो आएँगी ही नहीं, आ गईं तो सेवा खूब करती हैं। साफ-सुथरी अपने भी रहती हैं, घर-बार भी साफ रखती हैं। जो गछवाना हो पहले गछवा लेती हैं-बाद में लूट-लाट के मायके का घर नहीं भरतीं। ज्यादा इधर-उधर भी नजर नहीं दौड़ातीं।
दस
नेताजी के पास मौसी की चर्चा, सिमरिया के रहने वाले मजदूर हरिया ने चलाई थी। हरिया की बहन मौसी के गाँव में ब्याही थी। हरिया बहन को लाने गया था तो मौसी से मुलाकात हुई थी। उसे वह बड़ी अच्छी लगी थी। मौसी ने उसे अपने हाथ की बनी हँडिया भी पिलाई थी। पूरी जवान-उम्र ‘तीसेक’ बरस- देह-काठी कड़ी व सुघड़, काली पर चमकती चमड़ी। चपटी नाक पर दूर तक सूँघ लेने में सक्षम, आदमी और जानवर दोनों की गन्ध पहचानने वाली। जमीन की गन्ध से वाकिफ, पैसों की गिनती-सीखी हुई, जोड़-घटाओ में भी माहिर। इतनी ‘उमिर’ तक अपना बच्चा नहीं हुआ था। अब क्या होगा? सो जिसके घर जाएगी उसे वारिस का खतरा नहीं होगा। ऐसे भी छोटानागपुर में रखनियों की औलाद को लोग वारिस नहीं मानते।
‘‘पर आज के ‘जुग’ में सब होने लगा है। क्या पता कोर्ट में दावा ठोक दे बाद में कोई? इसलिए पहले ही ‘नक्की’ करना ठीक होता है।’’ ‘नेताजी’ ने हरिया की मार्फत कहलाया था।
मोहना को तो ‘नेताजी’ खुशी-खुशी पढ़ा देंगे। दूसरों का काम तो ‘नेताजी’ जिंदगी-भर करते ही आए हैं, इसका भी कर देंगे। ऐसे भी आदिवासी औरतें दूसरा मरद करते वक्त, पहले मरद की औलाद को साथ ले जाती हैं। उसे दूसरा मरद ही पोसता है। बड़ा होने पर वह अपने असली बाप की जायदाद लेने लौट आता है।
‘‘कोलियरी में तो अब बेटे, दामाद, पत्नी, विधवा बहू या विधवा बेटी को ‘नाइन फोर थ्री’ (9.4.3) में (कोयला खदानों में हुए राष्ट्रीय समझौते की धारा 9.4.3 के तहत आश्रित को नौकरी देने का निर्णय) नौकरी भी मिल रहल है।’’ हरिया ने मौसी को बताया था।
सो मौसी ने पूछवाया-‘‘रिटायर होने से पहले नौकरी हमर के देय के तैयार हैं ‘नेताजी’, तो हमर के उनकर संग रहेके मंजूर है।’’
‘नेताजी’ ने तुरन्त जवाब भेजा-‘‘तैयार हैं।’’
मौसी को अंदेशा था कि सात-आठ बरिस बाद जब नेताजी रिटायर हो जाएँगे, तो अपने गाँव चलने को कहेंगे। तब सवाल उठेगा-‘मौसी कहाँ रहे?’ राजपूत गाँव में उसे कोई मालकिन बनकर घर में रहने न देगा। रखनियाँ तो सब बाबू साहब लोग रखते हैं पर दिन में उनका दर्जा नौकर का-सा ही रहता है, भले रात को पत्नी से ज्यादा चिरौरी करते हों उनकी। औरतें मरद के घर रखनी बनकर बैठती हैं, पत्नी बनकर ‘आती’ हैं-रहती हैं। पत्नियाँ छोड़ दी जाती हैं या मरकर निकलती हैं। रखनियाँ जिन्दा रहते हुए ‘उठा दी’ जाती हैं। वह कहीं और जाकर ‘बैठ’ सकती हैं। वह प्रायः निम्न वर्णों की ही होती हैं। इधर सवर्ण वर्णों की औरत रखनी नहीं होती। फिर यहाँ किसी भी औरत का दूसरा ब्याह भी नहीं होता। दूल्हा बस बारात लेकर पहली बार ही आता है। फिर तो वह मर्दों की मर्जी पर ‘बैठती’ और ‘उठती’ रहती है। कभी अपनी मजबूरी या कमजोरी के कारण भी ‘बैठ’ या ‘उठ’ जाती है। कभी-कभी किसी और से मन मिल गया, तो वह स्वतन्त्रा है ‘दण्ड भर के’ दूसरे के यहाँ ‘बैठ’ जाने को। इस ‘बैठने’ या ‘उठने’ पर ईष्र्यावश द्वन्द्व भी होते हैं।
पता नहीं ‘बैठ जाना’ मुहावरा इनके लिए किस भाषाविद् ने गढ़ा था। वह जरूर कोई पुरुष ही होगा। अजीब-सी बात है, वेश्या के यहाँ औरत पर पुरुष ‘बैठता’ है, जैसे भँवरा फूल पर। पर रखनियों का बैठना किस पर? कहाँ? हाँ, वे मध्यम वर्ग के यहाँ चोरी-छिपे, किसी ‘बड़के’ या ‘नीच’ कहलाने वाली जाति के मर्द के यहाँ खुल्लमखुल्ला ‘बैठती’ हैं। बड़े वर्ग में उनके घर ही के सामने बने पुराने झांेपड़े मंे अथवा रुआब-दुआब के साथ दूरदराज किसी का बना-बनाया घर लेकर या ‘दाब’ कर भी वे ‘बैठाई’ जाती हैं। निम्न वर्ग में तो उनके घर के अन्दर-कभी-कभी ‘पहलकी’ औरत के साथ ही ‘बैठ’ जाती हैं वे।
बड़े और निम्न वर्ग मंे ऐसे मामलों में केवल शानोशौकत के सिवा बहुत कुछ समान होता है। बड़े और छोटे लोग चोरी नहीं करते। बड़ों को समाज की परवाह ही नहीं होती या कहें समाज उनके सौ खून भी क्षम्य मानता है और तथाकथित नीच के यहाँ उच्चवर्गीय वर्जनाएँ ही लागू नहीं हैं। इसलिए वे जो करते हैं खुल्लमखुल्ला करते हैं।
मध्यम वर्ग ही चोरी में माहिर है। बड़े लोग पत्नी और रखनियों में दूरी बनाए रखता है। वे उन्हें अलग-अलग स्थान पर ही रखते हैं। पर पत्नी दूसरी औरत के बारे में सब जानकर भी अनजान बनी रहती है। मध्य और निम्न वर्ग गरीबी के चलते पत्नियों के साथ ही रखनियाँ भी रख लेता है। इन मर्दों के घर में सम्पत्ति की तरह एक और सामान की वृद्धि या एक बीघा जमीन की वृद्धि की तरह एक अदद औरत भी बढ़ जाती है।
मोहना को लेकर मौसी नेताजी के यहाँ क्वार्टर में आ ‘बैठी’। मौसी बहुत अच्छा मिर्च-मसाले वाला खाना बनाती थी। पहली बार जब नेताजी मौसी को लाए तो साथ में उसके भाई-भाभी और बहन की बेटी बिन्दु भी आई थी। बिन्दु उसे मौसी बुलाती थी, तो कोलियरी में भी पूरी काॅलोनी वाले उसे मौसी बुलाने लगे। बिन्दु की माँ के मरने पर, उसके बाप ने दूसरा ब्याह कर लिया था। ‘नइकी’ के ‘पहलके’ की औलाद में, एक बेटा था। उसने उसका जिम्मा भी ‘गछ’ लिया था। बिन्दु का ब्याह जिससे किया था, वह किसी दूसरी से ‘फँसल’ (फँसा हुआ) था, इसलिए वह बिन्दु का गौना ही कराके नहीं ले गया। बिन्दु ब्याही तो गई थी पर कुँवारी ही रह गई थी। गैर-आदिवासी मध्यम वर्ग में सौतेली माँ की परम्परा है, तो आदिवासियों में सौतेले बाप का चलन है। बड़े होने तक पहले की औलाद माँ के साथ, दूसरे बाप द्वारा पाली जाती है। सौतेली माँ की तरह आमतौर से सौतेले बाप जालिम नहीं होते। वे अधिक उदार और सहिष्णु होते हैं।
‘नेताजी’ ने तो बिन्दु के लिए भी राजपूत वर खोजना शुरू कर दिया था। इसमें भी दो-एक हजार रुपया उनको दलाली में मिल ही जाता। (आदिवासी लड़कियाँ खरीदी जाती हैं।) पर बिन्दु नहीं मानी। मोहना को स्कूल में भर्ती करवा दिया गया। स्कूल की पूरी यूनिफार्म और नये जूते ले दिए गए। मौसी को नेताजी ‘ऐजी’ कहकर बुलाते थे। बहुत आदर देते थे।
ज्यों-ज्यों नेताजी के रिटायर होने की तिथि नजदीक आ रही थी, मौसी बेचैन होती जा रही थी। उसने अपनी जवानी के दिन गला दिए थे उस बूढ़े मौलवी की सेवा में या शहजादे को पालने तथा सलीम के इन्तजार में। ऐसे तो बड़ा परहेजी था मौलवी पर उसे औरत से परहेज न था। बेटी के बराबर औरत मिल गई थी न। जरूर कोई सबाब का काम किया था उसने कि उसे उस जैसी औरत मिल गई। जन्नत की हूर भी उसे इतना सुख और तवज्जो न दे पाती, जितनी मौसी ने दी। मौसी सोचकर कटुता से भर जाती। उसे घर-वापसी की पुरानी यादें कचोट जातीं।
घर में लौटी तो बिरादरी में बात उठ गई। जब उसका पैसा आता था, तो सभी मिलकर खाते थे। तब वह न तो अपराधी थी, न ही पापी। जब मौसी मौलवी के यहाँ से वापिस घर लौटी तो नैतिकता-अनैतिकता के सब मूल्य एक-एक कर खड़े हो गये! मौसी के मौलवी के घर बसने की खबर सुनकर पापों की तो कतार ही लग गई थी। भाई-भाभी ने उसका भोज-भात कर दिया था। भोज-भात यानी उनकी तरफ से वह मर गई थी। पर जब वह सामान-पत्तर लेकर घर मिलने आती तो भोज-भात बिसर जाता। मौसी पुनः जिन्दा हो उठती। शायद मौलवी के घर से लाये उपहार- पैसा-कपड़े-लत्ते-मुर्दार में प्राण फूँक देते थे। पूरा परिवार मौसी के साथ बैठ कर उपहारों का उपभोग करता था। हालाँकि रस्मों-रिवाज के तहत वह मरी हुई ही रहती।
जब वह मौलवी के मरने के बाद पुनः घर लौटी तो उसे जिन्दा होने के लिये फिर भोज कराना पड़ा था। बिरादरी में मिलने या मिलाने के लिए भोज-भात की रस्म जरूरी होती है, तभी सामाजिक बहिष्कार समाप्त माना जाता है। भोज-भात-यानी खाना-पीना मनुष्य को जिन्दा भी करता है और मारता भी है। कितना सच भी है यह बिरादरी में! मनुष्य से अधिक महत्त्व है भोजन का। ‘मरल’ (मरी हुई) मौसी भोज के बाद फिर जिन्दा मान ली जाती। बिरादरी के धर्मराज के सामने जाने कितनी बार जीते-जी, मरती और जीती हैं ये आदिवासी लड़कियाँ!
अब जब वह भगवान बाबू के यहाँ आई तो फिर भोज-भात हुआ। भाई-भाभी ने घोषणा की कि वह उनकी तरफ से मर गई, भले वे खुद ही उसे ‘नेताजी’ के यहाँ आकर बैठा गए थे। उन्होंने उनसे पैसा भी लिया थाय पर बिरादरी तो बिरादरी होती है न! बिरादरी के धर्मराज का काँटा तो बोलेगा ही। उसे चुप कराना लाजिमी होता है।
कैसी विडम्बना है यह? इसे चुप कराने के लिए भोज का पासंग ही काफी होता है। ऐसे भी भोजन एक पासंग का काम करता है बिरादरी और व्यक्ति के बीच। ऐसे भी जीने के लिए भी तो भोजन जरूरी होता है। है न?
ऐसे मौसी का मन तो मर्दों से ही ऊब गया था। मौसी को लगता था कि उसका कोई नहीं है। बस एक मोहना है, जिसे इसने पैदा होते ही भाभी से अँचरा में ले लिया था। दूध नहीं था उसकी छातियों में पर ममता के घूँट जरूर थे, उसकी ‘चूचियों में।’ मोहना बड़ा हो रहा था। उसके साथ-साथ मौसी की इच्छाएँ भी बड़ी होती रहीं। यहाँ आकर भी मौसी कभी-कभी अपने अतीत में चली जाती या भविष्य की गाँठें खोलती।
‘का होते? नेताजी नौकरी देते कि नाय? कहीं ठग तो नहीं रहल हय? सभी मरद एक जैसन होत हय। एके जात हैं सभेµहिन्दू होवे कि मुसलमान। कोई फरक नाय है। बस सभै के एक अदद औरत चाही। बेटी बरोबर हो या माय बरोबर, का फरक पड़त है उनकर? काम करे और औरत बनकर रहेµबस मरद की बरोबरी न करे। आपन हक नाय माँगे। आपन फैसला खुद अपने नाय करे।’
रेणुका जी जब भी कोलियरी में आतीं, मौसी उनसे कहती, ‘‘हमर नौकरी करवाय दे दीदी, रिटैर होवे के बाद भाई-भतीजा छीन के ले जैते सब पैसा-कौड़ी। हम फिर रोड पर आ जायब।’’
रेणुका जी ने बहुत कोशिश भी की थी, पर मौसी की नौकरी के खिलाफष़् पूरा का पूरा जातितन्त्रा खड़ा हो गया था। पुरुष समाज का तन्त्रा भी उसकी नौकरी के पक्ष में न था। दो-दो तन्त्रों से जूझ रही थी मौसी! रेणुका जी को भी मात खानी पड़ी थी उन तन्त्रों से। पहले तो नेताजी ने ही मूर्खतावश या जान-बूझकर अपनी सेवा पुस्तिका में नाम तो मौसी का नामिनी में लिख दिया, पर उसकी उमर लिखा दी 35 वर्ष। कोलियरी के नियमानुसार 35 वर्ष से ज्यादा आयु वाले या वाली को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की श्रेणी के नियमों के अन्तर्गत नौकरी नहीं मिल सकती। इसलिए ‘नेताजी’ के रिटायर का फार्म भरने के समय तक मौसी की उमर 39 वर्ष हो गई थी। ‘नेताजी’ अनफिट भी हो जाते तो भी आयु के चलते मौसी योग्यता में खरी नहीं उतरती। उस फार्म को ठीक करवाने में काफी समय लगा रेणुका जी को। कोलियरी के जितने राजपूत भाई थे, रेणुका जी की अपनी यूनियन समेत, सबके सब मौसी की नौकरी के विरोधी थे। कोई दामाद को, तो कोई भतीजे को नौकरी देने के पक्षधर थे। मौसी की नौकरी का कागज वे लोग, केदला परियोजना के कार्यालय से बढ़ने ही नहीं देते थे। बहुत जद्दोजहद के बाद कागज जेनरल मैनेजर के कार्यालय चरही पहुँचा।
इसी बीच रेणुका जी को पार्टी के काम से बाहर जाना पड़ गया। लौटने पर पता चला कि भगवान बाबू ने गोल्डन शेक-हैंड की योजना के तहत नौकरी से इस्तीफा देकर अपनी ग्रैच्युटी की जमा राशि का चेक मँगवा लिया है और दो दिन बाद वे पैसा उठा लेंगे। रेणुका जी ने उन्हें बहुत डाँटा-फटकारा। अब नौकरी तो वापस मिल नहीं सकती थी। ग्रैच्युटी का भुगतान कराने में प्रायः दो-तीन महीना लग जाता है। उनके पीछे से परियोजना से लेकर जी.एम. आॅफिस चरही के सभी बाबुओं, किरानियों ने मिलकर 15 दिन में ग्रैच्युटी का चैक भी तैयार करवा दिया। उनकी गोल्डन शैक-हैण्ड की अरजी तो सभी राजपूत किरानियों ने मिल कर हाथों-हाथ जाकर मंजूर करवा ली। दो सप्ताह का काम एक दिन में हो गया। भगवान बाबू रेणुका जी के सामने पड़ने से कतराने लगे। यूनियन के नेतागण भी कभी इस पर, तो कभी उस पर जिम्मेदारी टालने लगे और अपनी अनभिज्ञता जताने लगे।
दरअसल भगवान बाबू उस क्षेत्रा में यूनियन के एक जन-नेता थे। वे थे तो अनपढ़ पर उनकी बोली की टंकार सुनकर मजदूरों का, खासकर ग्रामीणों का हौसला बुलन्द हो जाता था। वे मरने-मारने पर उतारू हो जाते थे। बाकी नेता खाली कानून ‘बतियाते’ थे। पार्टी से आए नेता पार्टी की लाइन की बात करते थे पर मजदूरों के झोंपड़े में जाने से कतराते थे। मार-पीट की बात हो तो भगवान सिंह की तरह भिड़ नहीं जाते थे।
‘‘चलो जी, हम रहेंगे आगे! हम खाएँगे गोली।’’ कह कर भगवान बाबू आगे हो लेते थे। दूसरे लोग कन्नी काटकर निकल जाते या खड़े-खड़े तमाशा देखते, नहीं तो बहाना बनाकर हट जाते थे।
ज्यादातर नेतागण दो तरफी बात करके, दोनों पक्षों को खुश करने की नीति अपनाते थे। एक पक्ष का समर्थन करना वे बेवकूफी समझते थे, चूँकि उससे उन्हें दूसरे पक्ष की दुश्मनी मोल लेनी पड़ती थी। ये दुश्मनी व्यक्तिगत तौर पर भी हो सकती थी।
यूनियन में हर रोज समीकरण बदलते रहते हैं। आज का दुश्मन कल का दोस्त, कल का दोस्त आज का दुश्मन भी बन सकता है चूँकि उनके स्वार्थ, जिनकी टकराहट हर रोज होती रहती हैµहरदिन बदलते रहते हैं। जो बहुमत के स्वार्थ को, एकसाथ जुटाकर मुद्दा बना ले, वही जन-नेता हो सकता है। जो व्यक्तियों के सवाल में उलझ जाए, वह धन्धा करने वाला व्यापारी नेता हो जाता है।
कभी-कभी व्यक्ति भी समूह का हित बना दते हैं। इसमें ‘नेताजी’ माहिर थे पर बाकी लोग नहीं। ऐसे कामों में साहस, खतरा मोल लेने की क्षमता, आत्मविश्वास चाहिए, जो ‘नेताजी’ में था, तभी तो इतने बड़े विस्थापितों केे आन्दोलन और ठेकेदारों की लड़ाई के समय ‘नेताजी’ हरदम जोखिम उठाकर रेणुका जी के साथ रहे।
‘‘ये आज के नेता तब दिखते न थे। कोलियरी सरकारी होने के बाद तो अब पत्थर उठाओ तो एक नेता मिल जाएगा। ढेर नेता पैदा हो गए हैं रेणुका जी। सब दूध पिए वाले मजनूँ हैंµमगर खून देने वाला कोऊ न है’’ नेताजी कभी-कभी गुस्सा होकर बोलते।
बाकी सभी यूनियन की फौज ने मिलकर भगवान बाबू को रास्ते से हटा ही दिया। एक पन्थ दो काज। जस भी ले लिया कि ‘नेताजी’ का काम 15 दिनों में करवा दियाµपैसा मँगवा दिया और मौसी को नौकरी भी नहीं मिलने दी और कोलियरी में रेणुका जी की यूनियन का एक स्तम्भ भी गिरा दिया।
‘नेताजी’ गोल्डन शेक हैण्ड ले कर रिटायर न होते तो वे कोलियरी में यूनियन का नेतृत्व करते रहते। तब दूसरी पाली के नेतागण ‘नेताजी’ का स्थान कैसे लेते? अच्छी तरह सब सोच-समझ कर ही रेणुका जी की यूनियन के ही छुटभैया नेताओं ने ‘नेताजी’ को रास्ते से हटा कर, बागडोर अपने हाथ में सँभाल ली।
‘‘रेणुका जी की यूनियन में इस ब्राँच में बाकी सब तो लुंज-पुंज नेता हैं। चुटकी मारो तो भागने वाले, धाकड़ तो ‘नेताजी’ ही थे, सो चले गए। अब कैसे रहेंगे ‘नेताजी’ कोलियरी में? क्वार्टर भी तो छिन ही जाएगा?’’ दूसरी यूनियन वाले टिटकारी भरते। रेणुका जी की यूनियन के जूनियर कैडर ‘मने-मन’ खुश थे कि भगवान बाबू फील्ड छोड़कर चले जाएँगे तो वे उनका स्थान ले लेंगे।
‘‘इन्हीं के घर देवीजी टिकती हैं, इन पर ज्यादा भरोसा करती हैं, जो चन्दा होता है भगवान बाबू जाकर उन्हें पूरी रिपोर्ट कर देते हैं। हम लोग कुछ माँग भी नहीं पाते।’’ वे कहते।
रेणुका जी भगवान बाबू के घर आईं तो मौसी खूब रोई। अब वह क्या करे? भगवान बाबू का बड़ा भाई सब सामान ढोकर गाँव भिजवाने के लिए घाटों से आकर उनके यहाँ जम कर बैठे गया था। रेणुका जी ने कहा भीµ‘‘दोनों इसी क्वार्टर में रहें, यूनियन चलाएँ, भगवान बाबू होल टाइमर हो जाएँ, मौसी मुर्गी फार्म खोल ले, गाय है तो दूध भी होगा ही। अच्छी बिक्री हो जाएगीµसिलाई सीख ले तो सी.सी.एल. की ट्रेनिंग योजना में कहीं काम मिल जाएगा।’’ पर भगवान बाबू का भाई एक दिन रातों-रात ट्रक लेकर आया और गाय, मुर्गी, समेत सब सामान लादकर गाँव ले गया।
भगवान बाबू को मौसी मना करती रहीµ‘‘गाय रहने दो, मैंने पाली है, बाछी से बड़ी किया है मैंने इसे।’’
भगवान बाबू का मन हुआ कि गाय छोड़ दें पर उनका भाई क्यों मानने लगा? सो सब सामान चला गया। मोहना आकर रेणुका जी को हजारीबाग सब खबर दे गया।
तीन दिन बाद भगवान बाबू लौटे। यूनियन के नेतागणों ने भगवान बाबू को होल टाइमर रखने से इन्कार कर दिया।
‘‘कौन देगा उनके रहने-खाने का खर्चा?’’
दरअसल सवाल यही था। चन्दा माँग कर खाने की आस लगाए बैठे कैडर की दूसरी पंक्ति ने भगवान बाबू को ‘होलटाइमर’ का वेतन देना नहीं स्वीकारा।
‘‘कौन देगा इन्हें इतना वेतन? यह तो पढ़े-लिखे भी नहीं हैं कि अरजी लिख दें। खाली हल्ला करना जानते हैं। मैनेजमेण्ट को गाली ही देने से क्या यूनियन चलेगी? अब ठेकेदारी नहीं है। कानून से भी बात करना उन्हें आना चाहिए।’’ लक्ष्मी सिंह ने सवाल उठाया।
लक्ष्मी सिंह सफेदपोश नेता था। जल्दी ही आफिसर बनने वाला था। प्रबन्धन की नज़रों में अच्छा बना रह कर प्रमोशन जल्दी मिल सकती थी, इसलिए सदैव संघर्ष को टालता रहता था। भगवान बाबू के बिल्कुल विपरीत था वह। हालाँकि वह भी राजपूत थाµपर अपनी प्रमोशन का स्वार्थ जाति का लिहाज़ नहीं करता था।
मौसी को गाँव ले जाने का प्रस्ताव भगवान बाबू ने पुनः रखा। मौसी नहीं मानी। रेणुका जी द्वारा हस्तक्षेप करने पर उन्होंने हजारीबाग की यूनाइटेड बैंक में 15 हजार रुपया मौसी के नाम से जमा करा दिया। सी.एम.पी.एफ. की राशि का संयुक्त खाता खोलने का फैसला हुआ। उसमें भी मौसी को ठग लिया यूनियन के नेताओं ने। खाता तो ज्वाइण्ट खोला पर निकासी के लिए किसी भी एक के हस्ताक्षर से निकासी का अधिकार लिखवा दिया। मौसी इस मुगालते में रही कि उसके हस्ताक्षर के बिना तो पैसा निकलेगा ही नहीं। वह पास-बुक को बँदरिया की तरह हमेशा ब्लाउज के भीतर छाती से चिपकाए रही। पर पैसा निकलता रहा। मौसी को तब पता चला जब कुल सात हजार रुपया बचा खाते में।
भगवान बाबू के भतीजे को ट्रक ‘किनना’ था। पैसा दिया भगवान बाबू ने। भले कर्ज ही दिया। पर कर्ज लौटाने की नीयत से लिया गया हो, तब न कर्ज का पैसा लौटता! वह तो ठगने की नीयत से लिया गया था। पैसा भी गया, ट्रक भी नहीं आया, जिससे दोनांे को मिलकर कमाई करनी थी। गाय भी मर गई। मुर्गियाँ सब की सब, भतीजों के बच्चों ने एक-एक कर खा डालीं। बस सामान बचा थाµभगवान बाबू के कपड़े, बरतन-बासन सब थे।
‘‘इतने सारे बरतनों की भला बुढ़ऊ को क्या जरूरत?’’ छोटी भाभी ने कह ही दिया था।
बस एक दिन छोटी भाभी की रसोई में जा टिके सब बरतन। भगवान बाबूके कमरे में, रात-बिरात पानी पीने के लिए गिलास-जग जरूर रह गए। मच्छरदानियाँ भी बच गई थीं दो-तीन ठो! एक भतीजा ले गया, एक दामाद ने ले ली। अब भगवान बाबू ठहरे ‘भैसुर’ (पति का बड़ा भाई)। भैसुर के नाते भला वे छोटी को क्या बोलते?
ग्यारह
मौसी मोहना को लेकर भाई के पास अपने गाँव, लौट गई।
‘‘देखो रुपया बरबाद मत करना। मशीन खरीद लेना या गाय ले लेना। कुछ काम अपने बल पर करो कि कमाई हो जाए। भाई-भाभी ज्यादा दिन नहीं रखेंगे। पैसा खत्म हो गया तो निकाल देंगे या ऐसे तंग करेंगे कि तुम अपने ही भाग जाओ। जब तुम्हारे मन माफिक मरद मिल जाए तो ब्याह कर लेना, पर तब भी कमाना मत छोड़ना। कमाओगी तो सब पूछेंगे, नहीं तो कोई नहीं पूछेगा।’’ रेणुका जी ने मौसी को गाँव जाते वक्त ताकीद की।
मौसी को रुपया क्या मिला, उसे लगा कि वह उस रुपये से गाँव-भर का प्यार और इज्ज़त, दोनों किन (खरीद) लेगी। भाई-भाभी का आदर किन लेगी। हर हफ्ता खस्सी (बकरा) कटने लगा। बिरादरी का भोज-भात हुआ। पूरा का पूरा पाँच हजार रुपया खाने-पीने में ही चला गया। नाम तो खूब हुआ कि मौसी ने मन भर कर दम तक खिलाया। इससे मौसी को क्या मिलाµबिरादरी का बन्धन? बिरादरी के निषेध? बिरादरी का हुक्म? ‘यह करोµयह न करो’ की आचार-संहिता? कैसे जियो? कैसे कमाओ? मौसी अपने बाकी दिन कैसे काटेµइसका न उपाय, बताया, न ढँग। इससे भला बिरादरी को क्या मतलब?
हाँ, अगर किसी से प्रेम हो जाए और बिरादरी को लगे कि उसकी नाक कट रही है, तो वह जरूर टाँग अड़ाएगी! अगर मौसी मुसीबत में है या मर रही है, तो किसे फुरसत है, उसे बचाने की? यह बिरादरी अब पुरानी बिरादरी नहीं है कि बाघ ने जंगल में किसी को पकड़ लिया तो पूरा गाँव उठकर बाघ से लड़ने चल दिया। अब तो जंगल के सिपाहियों के व्यवहार और बेकारी ने, इन्हंे भी स्वार्थी बना दिया है।
‘मेरी लकड़ी छूट गई! उसकी लकड़ी फँस गई! हमें क्या मतलब?’ यही मानसिकता पनपने लगी है।
‘औरतों के बारे में भी अब वैसा ही कुछ हो रहा है। नहीं तो आदिवासी औरत को कोई ‘दिकू’ (गैर-आदिवासियों को आदिवासी ‘दिकू’ कहकर पुकारते हैं।) छू तो दे भला? अब तो ‘दिकुओं’ की आदतें ही सीख रहे हैं आदिवासी भी। उनके भी मूल्य बदल रहे हैं। ढेर कारखाने अब ‘बजबजा’ रहे हैं इर्द-गिर्द। जंगल के भीतर घुसे आ रहे हैं क्रशर और ईंट-भट्ठे। आदिवासी का मन और मूल्य, दोनों ईंट-भट्ठे-सा धुआँ रहा है। भीतर-भीतर जल रही है देह।
जंगलों में तो आग रोज़ ही लगती। देखता था आदिवासी समाजµपर अब सब मने-मन जल रहे हैंµधुआँ रहे हैं। भीतर लगी यह आग इन्हें लील जायेगीµअगर ये चुप रहेंगे। सब ने मिल कर अगर अपने भीतर लगी आग को बाहर उगल दिया तो धूँ-धूँ कर जल उठेगाµजंगल और जहान।
‘‘बस ‘जिनगी’ (जि़ंदगी) ढँकल है जंगल की बचल-खुचल, कटल-फटल पातर-सी पतली परत से। बाकी तो गाछ-बृछ, लतर-पतर-विहीन हो रहल है सब जंगल! हमरी ‘जिनगी’, सपाट बंजर धरती-सी, बिन जोते रह जात है।’’
ऐसी बातें प्रायः घर-बाहर, दर-दुकान, सड़क-चैराहों पर बड़े-बूढ़े, जवान-बुतरू अपनी-अपनी समझ के माफिक करने करने लगे हैं। शायद धुँआ धधकने की तैयारी मंे है।
एक मशीन किन ली मौसी ने। मौसी की खबर बिन्दु, जो रेणुका जी के घर रहने लगी थी, देती रहती थी।
‘‘मौसी ने भाई-भाभी के और उसके बच्चों को नये कपड़े खरीदे हैं, मौसी ने एक पलंग खरीदा है, मौसी ने मोहना और भाई के लिए एक-एक घड़ी भी खरीद दी है, मौसी ने फिर गाय ले ली है।’’ आदि-आदि। जब वह बाजार जाती सब्जी लाने, तो बेन्दी से सब्जी बेचने या लकड़ी बेचने आई औरतें उसे खबर दे जातीं।
भगवान बाबू आते रहते थे, रेणुका जी के पास उनके हजारीबाग यूनियन आॅफिस में। वे कहतेµ‘‘चलिए देवीजी पद्मा। जमीन का आन्दोलन कीजिए। सड़क के लिए लडि़ए।’’
रेणुका जी का मन अब खट्टा हो गया थाµऊब गया था। वे टाल जातीं। पहले तो उन्हें भगवान बाबू से ही चिढ़ हो गई कि उन्होंने मौसी को धोखे में क्यों रखा और इसे अकेला छोड़कर अपने गाँव क्यों चले गए? फिर धीरे-धीरे गुस्सा और चिढ़ कम होने लगे। उन्हें अब भगवान बाबू पर पहले जैसा विश्वास नहीं रहा था। पता नहीं कब क्या कर दें? इसलिए उन्होंने भगवान बाबू को अधिक प्रोत्साहन नहीं दिया। पहले जैसी स्थिति होती तो वे उनके कहने पर तुरन्त आन्दोलन करने को तैयार हो जातीं। मौसी के साथ किए गए बर्ताव से वे क्षुब्ध थीं और सशंकित भी, इसलिए वे भगवान बाबू से कटने लगीं थीं। भगवान बाबू भी अब आॅफिस में ‘चोर की नाई’ आते और चुपके से बिन्दु से मौसी का हाल-समाचार लेकर चले जाते।
उस दिन बिन्दु ने बताया, मात्रा एक हजार रुपया रह गया है मौसी के खाते में, सब खर्च हो गया है। मौसी को बुलाकर रेणुका जी ने पूछा, ‘‘अब क्या करोगी?’’
मौसी ने कहा, ‘‘देखो! क्या होता है, अभी तो भाई-भाभी पर भरोसा है। मोहना पढ़ ही रहा है। कल की कल देखेंगे!’’
रेणुका जी चुप हो गईं। क्या कहें? बिन्दु खतरा भाँप रही थी पर मौसी कबूतर की तरह बिल्ली देखकर भी आँखें बन्द किए बैठी थी। ऐसे भी मजदूर वर्ग खासकर आदिवासी लोग ‘कल’ की योजना बनाने के आदी नहीं होते। वे प्रकृति और उसकी बनाई योजना पर निर्भर करते हैं। प्रकृति की ही नाईं उन्हें अपनी मेहनत पर भी पूरा विश्वास रहता है। इनकी खेती, महुआ-सखुआ, जंगल-कटाई, सब का समय प्रकृति द्वारा निर्धारित है। समय पर महुआ-सखुआ फूलेगा-फलेगा-टपकेगा। समय पर बरखा आएगीµधान रोपेंगे या छीटेंगे। कटनी-निकौनी करेंगे। घर धान से भरेगा और बाड़ीµलौकी, कद्दू और निनुआ या भिण्डी से। गाय, बकरी, बियायेगी। दूध और माँस मिलेगा।
प्रकृति की तरह ही सब नियमबद्ध-सा चलता है। उनका जीवन भी केवल आज पर निर्भर करता हैµकल पर नहीं। वे नहीं सोचते कल सूरज उगेगा या नहीं, आज वर्षा हुई हैµचलो, हल जोतेंगे। इस वर्ष वर्षा नहीं हुईµअकाल पड़ा हैµभूखे मरना है या देश छोड़कर परदेश में काम की खोज में जाना है, सवाल उठता है तो फैसला ले लिया जाता हैµ‘चलो परदेश चलेंगेµसखुआ (एक पेड़) के फूल या बीज बीन लेंगे पर जिन्दा जरूर रहेंगे।’
दिनचर्या में खलल पड़ जाए तो भी उन्हंे स्वीकार्य है। ख़लल तो रोज़ ही पड़ता है। प्रकृति भी तो अपनी चाल-ढाल कभी-कभी बदल ही देती है। सो ऐसे ख़लल को स्वीकार करना उनकी आदत है।
कल काम नहीं मिलेगा तो भूखे-उपासे लौट आएँगे पर भीख नहीं माँगेंगे! जंगल से जड़ें उखाड़ कर खाएँगेµमर भी जाएँगेµजैसे जंगल में गाछ मरता है और खेत में ओले पड़ने पर ‘खड़ी’ फसल। बादलों के लिए आकाश अगोरेंगे, जैसे जानवर और पंछी अगोरता हैµपपीहा और मोर अगोरता है। बादल बरसेगा तो ये भी चहकेंगे, फुदकेंगेµजैसे चिडि़या चहकती हैं, फुदकती हैं।
पर कल क्या होगा वे यह नहीं सोचते! जंगल का शेर-हाथी भला कभी यह सब सोचता है?
खतरा होता है तो हरिण की नाईं इनके भी कान खड़े हो जाते हैंµऔर पाँव कुलाँचें भरने लगते हैं। पास में हरबा-हथियार होता है, तो ये भी हाथी की तरह चिंघाड़ते हैं। तीर सध जाते हैंµटाँगी तन जाती हैं बस। जैसा समय वैसी इनकी जीवन-शैली! चिन्ता-मुक्त हैं! ‘कल क्या होगा’ इन्हें इसकी फिक्र नहीं। आज अस्तित्त्व है, बस आज जियोµइसे सुरक्षित रखो। कल बाद में आएगा, उसकी सोच, आज क्यों?
मौत के बारे में नहीं सोचते ये लोग। मौत आती हैµआनी हैµआएगी। उस पर सोचना बेकार है। सम्भवतः इसी सोच के चलते आदिवासियों में ‘बिरसा’ से विद्रोही तो हुए, ‘सिद्धु-कान्हु’ से वीर तो हुए पर कोई सन्त-साधु-फकीर-वैरागी नहीं हुए।
दलितों और पिछड़ों में सन्त-फकीर पैदा हुए जो साहित्य, दर्शन दोनों में दखल रखने के साथ-साथ विचारक थेµविचार के स्तर पर विद्रोही थे। ये सब देश की संस्कृति के अंग थे। उसी में सुधार, जोड़-घटाव करते थे।
इसके विपरीत आदिवासी समाज जंगलों के भीतर अपनी ही संस्कृति जीता रहा और जीता है, देश की संस्कृति और धर्म के भीतर वास्तविक रूप में वह कभी भी नहीं रहा।
देश की संस्कृति मनुवादी सोच पर आधारित शोषणमुखी थी। आदिवासी समाज ने इसे कभी नहीं माना। वह कबीला संस्कृति में रहता रहा। सरना के पेड़ों को पूजता रहा, सभी को बराबरी के दर्जे पर रखता रहा। उसी में सुधार करता रहा। बाहरी हमलों को रोकता रहा, झेलता रहा, देखता रहा। अपना ‘सरना’ पूजनाµअपने पाहन को प्रतिष्ठित कर के रखना, उसकी दिनचर्या का बस यही एक अंग है। वह बाहर जाता हैµवह बाहरी संस्कृति में रहता हैµजीता हैµपर अपने घर लौटने पर वह सरहुल-सरना-हँडि़या कभी नहीं भूलता। बाहरी दबाव का विरोधµवह ‘बिरसा’ बनकर करता हैµभीतरी दबाव से आदिवासी औरतें अभी भी ‘जनी शिकार’ पर निकलती हैं। वह सरना के लिए लड़ता हैµसखुआ और महुआ पर आश्रित है। वह बैरागी बनकर विमुख नहीं होताµन अपने से, न अपने परिवार और समाज से, न दुनिया से। वह भाग्यवादी सोच का शिकार भी नहीं बना, इसीलिए हमलावर लोग उसे गुलाम नहीं बना सकेµन देश पर हमला करने वालेµन संस्कृति पर वार करने वाले। मिशनरियों या धार्मिक मठों व आश्रमों के माध्यम से धार्मिक हमला करने वाले भी, उसे उसकी जीवन-शैली, प्रकृति-प्रेम या अस्तित्त्ववादी सोच से विमुख नहीं
कर पाए।
इधर अपसंस्कृति का हमला बड़े जोश-खरोश से सर उठा रहा है। माफिया भाँज रहा है। माफिया और रंगदारों को झेलते-झेलते, उनके खिलाफष् लड़ते-लड़ते, आदिवासी युवा पीढ़ी भी अब स्वयं रंगदारी के रुआब-दबाव, उसकी पैंतरेबाजी अपनाने लगी है। आदिवासियों के नाम पर, उन्हें अपना-अपना मोहरा बनाकर, राजनीतिक दल अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं, इसका उन्हें एहसास हो रहा है। इसलिएे अब अपने मोहरा बनने की कीमत लगाने और वसूलने लगे हैं।
वे अभी स्वयं एक शक्ति बनकर तो नहीं उभर पाएµपर वे दूसरों का सन्तुलन बनाने व बिगाड़ने की औक़ात रखते हैं, इसका एहसास उन्हें हो गया है। यह एक शार्टकट रास्ता है और शार्टकट रास्ते की यही ललक उन्हें संगठित नहीं होने देती। वे दलालों, रंगदारों से होड़ बदने लगे हैं।
कुछ लोग तो अपने समाज के विकास के लिए संगठित न होकर, निजी लाभ के लिए समाज को भी दाँव पर लगा रहे हैं। आगे बढ़े हुए अधिकांश लोग मौक़ा मिलने पर अपने ही समाज का शोषण भी करने लगे हैं।
‘औरतें’ इस समाज में हमेशा ही ज्यादा खटती रही हैं। अब थोक माल में उन्हें सस्ते मजदूर के रूप में सप्लाई करना या व्यक्तियों के हाथ बेचना या अन्य गलत पेशों में लगाना भी शुरू हो गया है। बाहरी दलालों की तरह इनके समाज में भी एक दलाल जमात पनप गई है।
यह दलाल जमात बाहर के शहरी सपने समाज को दिखाकर, पुराने मूल्यों को नष्ट कर रही है।
सपने तो सपने ही होते हैं, जिन्हें पाना सम्भव नहीं पर सपनों से भटकाव भयंकर रूप से पनपता है। भटकाव से उपजती है निराशा और फ्रस्ट्रेशन, जो अपराध-वृत्ति की जननी हैं।
लोग समूह से हटकर व्यक्ति बन रहे हैं। आदिवासी समाज की खासियत उनका समूह में जि़न्दा रहना ही है। उनका सामूहिक आचरण और समूह जब टूटता है, बिखरता है, तो उसका हश्र बहुत बुरा होता है। समाज के साथ-साथ उनके मूल्य भी बिखर जाते हैं।
आदिवासी समाज के साथ यही हादसा घट रहा है। उनका सामूहिक जीवन टूट रहा है। बढ़ता औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, उनकी ग्रामीण सामूहिकता को नष्ट कर रहा है। हालाँकि खदानों, कारखानों में दंगलों के रूप में एक साथ रहकर खटनाµएक झोंपड़पट्टी के धौड़ों में एक ही स्थान पर रहना (दूसरी संस्कृति वाले लोगों के साथ उनके दबाव में या बराबर के दर्जे पर भी) सामूहिक तो हैµपर यह अलग कि़स्म की सामूहिक जि़ंदगी है।
दरअसल यह सामूहिकता अर्थवाद से अधिक जुड़ी है। ग्रामीण या जंगल का सामूहिक जीवन जि़ंदगी से जुड़ा होता है। उनके लिए अर्थ यानी पैसा उतना महत्त्व नहीं रखता जितने रिश्ते या सम्बन्ध रखते हैं।
बारह
बहुत दिनों तक खबर नहीं आई मौसी की। एक दिन वह बिन्दु को माधो के साथ बाजार में मिली थी। वह दारू चुआने का सामान किन रही थी। फिर एक दिन आधी रात में माधो सर से खून टपकते-टपकते रेणुका जी के कार्यालय में अपने दो-तीन साथियों और घायल भाई के साथ लाया गया। रात को ही उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया और पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई गई। काफी चोटें लगी थीं उसे। दोनों भाइयों के सर में आठ-आठ टाँके लगे थे। खून भी चढ़ाना पड़ा था। मोहना और उसके भाई-भाभी घर से भाग गए थे। पुलिस जाँच में गई। एफ.आई.आर. में नामजद थे मोहना और भाई एवं अन्य कई लोग। पर मौसी ने न मोहना का नाम धरा, न किसी और का। वह कहती रही, ‘भीड़ ने आकर मारा।’ जबकि वह जानती थी मार करने में कौन-कौन थे।
मोहना अपनी बात रेणुका जी को आकर बता गया था। मौसी डर या शर्म सेµजो भी समझोµउनके पास नहीं आ रही थी। हालाँकि मार-पीट के केस में वह उन्हीं से पूरी मदद ले रही थी।
मौसी सोच की दुनिया से वापस अपने झोंपड़े की दुनिया में लौटी। दारू चुआने का सामान एक कोने में रखा था। आज भी मन नहीं हुआ कोई काम करने का। मोहना रात को छिपकर आता तो है पर बिना बात किए सो जाता। भाई-भाभी कभी कुछ पूछने नहीं आते। माधो अस्पताल में है। पुलिस माधो के बारे में पूछताछ करने आई थी और मौसी से तफतीश करके लौट गई थी। मौसी ने किसी का नाम नहीं धरा था। उसकी जबान पर मोहना का ताला लटक गया था। मौसी फिर से माधो और उस दिन के घटनाक्रम में गुम हो गई।
‘आखिर क्या खराबी थी माधो में?’ वह सवाल करती थी अपने से! दरअसल उसका यह सवाल पूरे समाज से था।
कोलियरी से लौटने पर रुपये खत्म होते ही, भाई-भाभी ने कह दिया था, ‘‘कोई काम खोजो या कोई दूसरा मरद करो, जे तोर खर्च चलाय सके। हमनी में ताकत नाय है तोर खर्च चलाए के।’’
वह हाट में माथे पर हँडिया लेकर बेचने जा रही थी तभी उसे बस अड्डे पर माधो मिला था। कुछ दूर तक माधो उसके साथ-साथ ही गया था। उसे माधो अच्छा लग रहा था। गठा बदन, साँवली देह, सरू-सरीखा लम्बा। लाल-लाल पतले होंठ। छोटी पर तेज़ आँखें। तीखी नाक। ऐसी नाक गाँव में किसी की न देखी थी उसने। वह उसे किसी और धरती का दिखता था। अभी तक उसे ‘बूढ़े मर्दों’ की सेवा का ही मौका ही मिला था। हाँ! सलीम की महक जरूर सूँघी थी उसने! कितनी सुखद थी वह महक!
माधो को भी देखकर वह व्याकुल हो जाती थी। सलीम की नाक भी ऐसी न थी। बस रंग ही तो साँवला था न इसका। वह कौन गोरी हैै? वह काले साँवले रंग के समर्थन में तर्क जुटाती। सलीम से किसी बात में कम न था माधो। मौसी के प्रेम को पाने का अधिकारी आदर्श पुरुष सलीम ही था अभी तक। उसी कसौटी पर वह अपने मन के मीत को परखती थी। बाकी तो मौलवी की तरह थेµजो जबरन उस पर लादे गए थे। नेताजी के पीछे उसका नौकरी का स्वार्थ और सुरक्षा का भरोसा था, प्रेम न था। प्रेम उसने सलीम से ही किया था।
अब वह फिर से प्रेम ही करना चाह रही थी। अब वह चालीस पार कर रही थी। इस उमर में अकेलापन अधिक खलता है। अपना कोई बच्चा भी न था। मोहना पर जान देती थी पर मरद तो चाहिए ही था! उसकी भावनाओं के लिएµ उसकी देह के लिएµउसकी आर्थिक मदद के लिएµउसकी सुरक्षा के लिए और बिरादरी को ठेंगा दिखाने के लिए भी, मरद का होना उसके लिए जरूरी हो गया था।
भाई-भाभी को यह बताने के लिए भी तो चाहिए था कोई किµ‘‘देखो हम तुमरेई भरोसे पर न हैं, हमें चाहे वाला भी कोई है, जिससे जिनगी के दुख-सुख बतिया सकें।’’
मौसी भी, दिकुओं की तरह दूर तक की सोचने लगी थी। लेकिन तत्काल उसे माधो ही की जरूरत थीµउसकी दारू चुआने के काम में मदद करने, दारू के ग्राहक लाने और दारू बेचने के साथ-साथ उसकी रूह, उसके मन का मीत बन करµउसके साथ जीने के लिएµप्यार के लिए। खाली हँडिया बेचने से ही पेट नहीं चल सकता था, न ही मोहना की पढ़ाई का खर्च चल सकता था। इसलिए महुआ से दारू चुआना भी जरूरी था, जिसके लिए पुलिस को भी पटाने की दरकार थी। अब वह दूसरा रोज़गार भी नहीं कर सकती थी। जंगल मंे लकड़ी काटने जाने में भी उसे शर्म लगती थी। कोलियरी के नेता के साथ रहने पर नेता की बीवी यानी नेताइन होने का अहम् उसमें भी आ गया था। ऐसे भी ज़रा-सा पैसा हाथ में आने पर सबसे पहला हमला गरीब मरद अपनी औरत पर ही करता है। अपना दूसरा ब्याह करके और औरत सबसे पहला हमला करती है, अपनी मेहनत की क्षमता परµयानी उसे काम से मुक्ति मिले, खासकर घर के काम सेµइसलिए वह अपने लिए एक कमिया रख लेती हैं। मरद का हमला श्रम पर भी होता है, पर वह प्राथमिकता में दूसरे नम्बर पर आता है। श्रमµयानी हाथ से काम करने, शारीरिक श्रम करने में उसे लाज लगने लगती है। तब उसमें भी कोई ‘हौला-हलुक’ (हल्का) काम करने की चाह जगती है।
उसे कुछ आराम की दरकार भी महसूस होने लगती है। यह काम के बाद आराम की चाह नहीं होती बल्कि बिना काम किए हल्का काम कर के कमाने की चाह होती है।
जब तक पैसा हाथ में रहता है, कोई खटने ही नहीं जाता। पैसा ‘खलास’ होने पर वह काम करने निकलता है। अगर कहीं ढेर सारा पैसा हाथ लग जाए तो वह कोई और काम करेगा, खटाली वाला काम करना नहीं, यानी छोटा काम नहीं। मेहनत का काम यानी शारीरिक श्रम केवल छोटे लोग करते हैंµयह धारणा छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सवर्ण-असवर्ण, सबके मन में बँधी हुई है। इसी के चलते काम करने वाले भी न काम करने वालों की जमात में शामिल होने का सपना पालने लगते हैं।
खुशहाली का मतलबµ‘बिना खटे पैसा पाना’ ही माना जाता है। यह धारणा दिकुओं से मेलजोल के बाद उस आदिवासी समाज में भी आ रही थी। आदिवासी समाज के लोग काम को छोटा नहीं मानते। शारीरिक श्रम इन्हें कचोटता नहीं। दरअसल कल की कल सोचने की आदत, इन्हें दो दिन की कमाई एक दिन में पा जाने पर दूसरे दिन नागा करने या दारू पीकर ‘सूतने’ के लिए प्रेरित करती रही है। श्रम की उपेक्षा की मानसिकता इनमें आमतौर से नहीं पनपी।
सो मौसी अब कैसे टोकरी ढोएगी? वह तो मौलवी की बीवी, नेताजी की ‘नेताइन’ रह चुकी है। सलीम की प्रेमिका तक वह एक खटने वाली, एक सबल खुदसर औरत थी, फिर वह परजीवी बन गई। अब माधो को वह अपने धन्धे का साथी बनाकर, जीवन का साथी भी बनाना चाह रही है। काम करेगी पर काम का रूप दूसरा होगा।
सो माधो हर रोज़ सवेरे आ जाता। दोनों मिलकर दारू बनाते। मोहना भी साँझ में आकर मदद करता। ग्राहक आते। मौसी दारू गिलास में ढाल-ढाल कर देती। घर में कलाली खुल गई। पुलिस वाले, फोरेस्टर-रेंजर भी गाहे-बगाहे रुककर, एक-आध गिलास चढ़ा लेते। माधो और उसका भाई हरदम लाठी लेकर तैयार रहते ताकि, कोई बेजा हरकत न करे। मोहना चुपचाप देखता रहता पर वह बोलता नहीं था। उसे माधो से नफष्रत थी।
माधो मौसी के बहुत नज़दीक हो रहा था। भगवान बाबू तो रात को ही या कभी दिन में ड्यूटी के बाद घर आते और मौसी उनकी सेवा करती थी। बाकी समय मौसी मोहना की देखभाल करती। मोहना को भगवान बाबू फुआ के मरद कम, बाप या दादा ज्यादा नज़र आते थे। वे मौसी और मोहना के प्यार के बीच में नहीं आते थे। पर माधो तो हरदम मौसी पर छाया रहता था। मोहना के लिए समय कहाँ है मौसी के पास! स्कूल की फीस देने या किताबें और ड्रेस दे देने से क्या सब पूराो जाता है? उसे मौसी से जो तवज्जो पहले मिलती थी, उसमें कमी आई थी।
मोहना बड़ा हो गया था-पर मौसी का प्यार पाने के लिए उसकी सोच अभी भी बच्चे की सोच ही थी। वह प्यार पाना चाहता था। मौसी भी प्यार ही पाना चाहती है। मौसी ने केवल प्यार बाँटा था जीवन-भर। अब उसे खुद प्यार की दरकार थी। अब उसे भी प्यार चाहिए था। उसे भी चाहिए था कोई, जो उसकी चिन्ता करे और कहे-‘‘चल, तू थक गई होगी-जा आराम कर, जा के? बाकी काम मैं देख लूँगा।’’
मोहना तो हमेशा कहता-‘‘यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ।’’ जो काम हो जाता उसका वह नाम ही नहीं लेता।
माधो हमेशा मौसी की हर बात पर जान देने को तैयार रहता। शायद ईष्र्या पनप रही थी प्यार और मनुहार के बीच। बेटा मनुहार चाहता था। मौसी प्यार चाहती थी। मौसी को प्यार दे रहा था माधो और मौसी से मनुहार माँग रहा था मोहना! यहीं विवाद की जड़ थी। मनुहार-प्यार, सब गड्डमगड्ड हो रहा था।
अब हर रोज माधो उसके घर आने लगा था। मुर्गा कटता था। हमेशा की तरह ही ‘चखना’ लाने मोहना को जाना पड़ता था। देर रात गए ग्राहक निपटाने के बाद महुआ का दौर चलता था। पहले तो माधो ही दारू लेकर बाहर जाकर बेच देता था और हिसाब लाकर साँझ में मौसी को दे देता था।
शुरू-शुरू में मौसी उसे ‘बलजबरी’ (जबरदस्ती) रोक लेती थी। माधो भी रात को दो-तीन घण्टा उसके साथ पिए और बिताए बिना न रहा पाता था! अब तो घर में ही ग्राहक आने लगे थे। कई बार रात को माधो वहीं रुक जाता। माधो का भाई काम-काज करके अपने घर लौट जाता। मोहना बाहर ‘सूत’ जाता।
माधो और मौसी को रात गए खाते-पीते, हँसी-ठट्ठा करते बीत जाता। मोहना बाहर बरामदे में कुढ़ता रहता। कई बार मौसी देर रात गए माधो को घर से बुला लाने मोहना को ही भेज देती थी।
मोहना ने एक-दो बार मौसी से कहा भी था, ‘‘फुआ तू मुझे प्यार नहीं दे सकती, तो माय-बाबा के पास ‘घुरा’ (लौटा) दे मुझे। मैं तुझे प्यार कर सकता हूँ फुआ, पर मुझे अब कोई और नया फूफा मंजूर नहीं है। फिर माधो तो छोट-जात है। भगवान बाबू तो ठाकुर थे। ‘नेताजी’ थे। ई छोट जात, ई सुअर पालने वाला खेत का कमिया-जिसके पास न जमीन, न खेत, न रोजगार, न गोरू, न हल-बैल, ई जो तोर पर आश्रित है, कैसे मोर फूफा हो सकत है?’’
दारू के धन्धे में माहिर और उसका धन्धे का हिस्सेदार-अच्छा-खासा देहदार माधो, मौसी का हकदार हो जाएगा-उसे रखने का सपना पालने लगेगा-यह उसकी सोच के बाहर था।
‘मौसी को भी क्या हो गया? वह क्यों इस ‘दुसधवा’ पर मरती है? बिरादरी में भी बात उठ रही है। ठाकुर या मियाँ की बात दूसर थी पर दुसाध के साथ हमनी होड़ (आदिवासी) लोगन की औरत...?’
सोच-सोचकर मोहना गुस्से से भर उठता। वह मौसी और माधो के सम्बन्ध के खिलाफष्, तर्क के तीर गढ़-गढ़कर अपनी तरकस में जमा करता जाता। वक्त आने पर छोड़ेगा, अपनी तरकस में जमा सभी तीर, जिन्हें वह बिरादरी के विष में बुझा-बुझाकर जहरीला भी बनाता जा रहा था।
तेरह
माधो दुसाध था। शहर में आने-जाने से वह जान गया था कि वह छोट-जात है तो क्या! हरिजन है वह। सरकार ने हरिजन-आदिवासी को गांधी बाबा के हुक्म से बड़े अधिकार दिए हैं। अगर कोई नेता या मुखिया-सरपंच उसकी मदद कर दे या ब्लाॅक का बाबू दया कर दे, तो उसे जमीन भी मिल सकती है। पर वे सब तो, काम करवाने के लिए घूस माँगते हैं। मदद मिलती तो है पर आधा पैसा कर्मचारी खा जाते हैं। सरकारी कर्ज लेकर कारोबार करने का मतलब है घर के दरवाजा, चैखट, खटिया, हँडिया की एक न एक दिन लीलामी करवाना। अब इस पचड़े में कौन पड़े? इसलिए सबसे सस्ता सुविस्ता काम है दारू चुआना, खेतिहर मजदूर बनकर दूसरे के खेत पर खटना या जंगल से लकड़ी चुराकर लाना और बेचना।
अब बेन्दी में राजपूतों का रुआब पहले जैसा न था। एक ब्राह्मण सबके हाथ जोड़-जोड़कर मुखिया बन गया था। उसने राजपूतों से उनका जजमान बनकर वोट लिया, तो दुसाध-चमार के सामने गरीब ब्राह्मण बनकर वोट ठगा। आदिवासी को तो ‘पाहन’ बनकर अपने पक्ष में पोट लिया। सभी जात का आपस में झगड़ा कराने में माहिर था वह। उसने एक ट्रक भी किन लिया था। माधो ने खलासी का काम माँगा तो नहीं दिया। बाहर से लाकर किसी को रख लिया।
‘‘गाँव की ट्रक और नौकरी बाहर वाला पावेगा। वाह! अगली बार एको वोट देने नहीं देंगे आपन जात के।’’ माधो ने बार-बार संकल्प किया। बड़ी चर्चा रही माधो के इस संकल्प की। सभी ने मुखिया को ‘दूसा’। पर ब्राह्मण जात है। क्या फरक पड़ता है? ब्राह्मण का दोष तो हो ही नहीं सकता कभी। वह तो शाप दे सकता है। उसे कोई शाप लगता थोड़े ही है। हाँ, वोट के दिन जरूर फँसेगा वह अगली बार।
गाँव में प्राइमरी स्कूल है। माधो उसी स्कूल में पाँचवीं तक पढ़ा था। अब उस स्कूल की छत गिर गई थी। मुखिया जी मरम्मत का पैसा भी खा गए थे।
‘‘सार (साले) दुसाध-चमार पढ़ जैते, तो हमनी के खेत के जोतते? के हमनी के कहवै-पाँव लागो बाबाजी’’, वे प्रायः कहते।
अब पेड़ के नीचे पढ़ते थे बच्चे। मास्टर कभी आता, कभी आता ही नहीं। हरिजन, आदिवासी बाहुल्य होने के नाते इस पंचायत को यह स्कूल हरिजन कोष से मिला था। एक बार हरिजन शिक्षक आया था। वही बटोर-बटोरकर हरिजनों लड़कों को स्कूल में बिठाता था।
‘बाकी कौनो ध्यान ही ना देयल रहे। हम पढ़ गेयल हैं कुछो, तो आज हिसाब-किताब करके जान गेयल हय। नाय तो ई ‘सरवन’ सब ठग-ठग के हमर से दुगना सूद तो लेते रहल। महाजन तो जो हैं सो हइये ही हैं। ई बामन भी कोनो कम नाय हैं। जमीन बेच-बूच के सब राजपूत की महरारू भी अब सूदे का धन्धा शुरू कर देयल है। आपन कमिया के सूदे पर पैसा देत हैं और डबल पैसा उगाहत हैं। अब ठकुराइन और बभनी (भूमियार औरतें) सब कमाई सूदे में धरा लेत है। कोलियरी में कुछ बाबू साहब ढेर सारा पैसा कमाय के ले आयले हैं। अब उकरे पर ही हीरो होंडा पर घूमे लगल हैं। फू-फाँ करत हैं। किसी को कुच्छो नाय समझत हैं। पर ‘मौसी’ के कोई ना ठग सके है। ऊ भी तो कोलियरी में नेताजी के संग रहके सब सीख गयल है।’ माधो मन ही मन सोचता रहता।
यही सब सोचकर माधो का मन मौसी के प्रति आदर से भर जाता। मौसी न केवल उसे सुन्दर लगती थी बल्कि बहादुर भी लगती थी। माधो का उसके घर आना-जाना हुआ तो कई लोगों ने टीका-टिप्पणी की कि छोट-जात है। पर मौसी ने टका-सा जवाब दे दिया था, ‘‘मोर मन, जो हम चाहब वहीये करब। तू कौन है हमर बाप बने वाला?’’
माधो मौसी की हर बात को वरदान के रूप में लेता था। मौसी द्वारा मांगी गई मदद को भी वह अपने पर एहसान मानता था।
‘‘कौन कमी है मौसी पास? फिर भी हमर से प्यार करत है ऊ?’’
इसी सवाल का जवाब खोजने की उधेड़बुन में फँसा रहता माधो। जब मौसी के पास जाता तो उसे वह साक्षात् देवी दुर्गा या काली नजर आती! वह उसका भक्त था और ‘प्रेमी’ भी। पर पता नहीं क्यों उसने कभी ‘पारवती’ का ‘शिव’ बनने का सपना नहीं पाला। पारवती की लाश अपने पर कन्धे पर लादकर, तांडव करने वाला शिव का कन्धा उसके पास नहीं था और न ही था शिव-हस्त। वह उसे, अपनी औकात की हद में भी नहीं मानता था। उसने शिव-सती की कथा भी नहीं सुनी थी। यह सब सुनना तो ‘बड़कन’ धनी लोगों का काम है। वह तो वर्जित जमात से है न। ऐसे छोटानागपुर झारखण्ड में चैपाल पर चैता गाने या रामायण पढ़ने का चलन नहीं रहा कभी। इधर तो करमा में कदम गाछ काटकर, ‘सखुआ खोंछ’ कर सब जनी-मरद नाचते हैं। सरहुल मनाते हैं। रामनवमी की झाँकी निकलती है, रामनवमी और मुहर्रम का झण्डा उठता है। राम ने भिलनी के घर बेर खाए थे, ये कथा प्रचलित है। अब कोई-कोई इन्हें यह भी बताता है कि यहाँ के आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं, जिन्हें आर्य असुर कहते थे। यह झारखण्ड है। दिकुओं ने इसे बरबाद कर दिया है। आरा-छपरा वाले लोगों ने लूटा है। अब अपना राज लेकर रहेंगे झारखण्डी सब। उनका चिद्द मुर्गा था-अब तीर और नगाड़ा हो गया है। मौसी में उसे माँ, बड़ी बहन और पत्नी के रूप दिखते थे। उस पर वह मुग्ध था, मोहित था-पर लट्टू या आशिक नहीं था। उसकी आशिक बनने की औकात कहाँ थी? मजनूँ का किस्सा उस जैसे लोगों की सोच के बाहर था। वह उस पर मुग्ध था पर उसका प्यार उस रिश्ते को हिकारत से भरकर नहीं देखता था। भयभीत जरूर था चूँकि अपनी औकात का एहसास उसे था। उसकी औकात सूरदास की भक्ति जैसी थी। इसलिए बस वह मुग्ध था-मोहित था मौसी के रूप पर, जिसे वह सबके सामने आँख भरकर देख भी न सकता था। उस रूप के उपयोग की कामना भी नहीं पाली थी उसने, चूँकि उसमें उसके उपयोग की हिम्मत न थी शायद। या उसने कभी दैहिक रूप में उसे पाने की कामना ही नहीं की थी। बस वह मुग्ध था उस पर।
शायद इतनी नफषसत तक उसकी कल्पना नहीं जा सकती थी। उसके डैने छोटे थे। उसकी जाति और अशिक्षा ने उसके पंख कुतर दिए थे। मौसी उसे पाने के लिए उद्यत थी-कटिबद्ध थी। वह मीरा के रूप में ‘माधो’ की दीवानी नहीं थी-वह उसे पाना भी चाहती थी और उसके सहारे जीना भी। वह उससे सुरक्षा भी पाना चाहती थी चूँकि वह औरत थी। ऐसे समाज की औरत जहाँ, वह केवल एक ‘जिन्स’ (चीज) समझी जाती है-मनुष्य नहीं! हर ‘जिन्स’ को सँभालकर रखने वाले बलिष्ठ हाथों की जरूरत उसे होती है, जो उसे साफ-सुथरा रखें, उसे टूटने-फूटने से बचाएँ, गुम होने, लूटने-लुट जाने से बचाएँ, उसे निखारे-सँवारे और प्रेम करें, भोगें और अपने कब्जे में रखें भी, अपना कहे, अपनाएँ।
यह तो आदमी की फितरत है कि वह खुद सोच सकता है, निर्णय ले सकता है पर औरत को सोचने की क्या जरूरत? वह तो बस औरत है न! उसके लिए तो सोचने के लिए बाकी सब मादवन हैं ही। वह तो ‘जिन्स’ है न और जिन्स अपने बारे में सोचा नहीं करती।
ठीक उसी तरह इसी समाज में माधो की बिरादरी वालों की स्थिति है, जिन्हेंसदियों से, अपने से सोचने की मनाही रही है, जो केवल सेवा के लिए बने थे। मौसी और माधो का यह रिश्ता भी उन्हें करीब ला रहा था। दोनों परजीवी हैं। औरत होने के नाते मौसी पर बिरादरी, भाई-भाभी-भतीजा सब हावी थे। उसके विधाता थे।
दलित होने के कारण माधो को समाज की तीन सीढि़यों यानी जातियों का भार अपने माथे पर सहारना पड़ता था। वह अपने बारे में सोचे, कहाँ फुरसत थी उसे? इसकी इजाज़त भी तो नहीं थी?
‘मुझे आदमी कब समझा है समाज ने? आज भी तो गाँव में हमारे टोले में कोई हमारे नल से पानी नहीं पीता। बस, वोट के दिनों में जरूर सबसे ज्यादा हमारे टोले में भीड़ लगती है। दंगा हो तो धर्म की खातिर हम ही लोगों को मार करने के लिए ले जाते हैं। यह धर्म ही तो हमें न तो सटने देता है और न ही फटकने। अब भले कानून बदल गए, पर इस बड़ी जात वाले ‘मनुष्यों’ के मन अभी भी नहीं बदले। मज़ाल है कि ‘बड़कन’ की टोली में कोई दुसाध या चमार अपना झोंपड़ा छान ले। हमनी तो गाँव के बाहर ही रहते आए हैं सदियों सेµगाँवों के ‘बड़कन’ की बेगारी करने खातिर।’ माधो सोचने लगा था।
चैदह
उस साँझ माधो अपने भाई के साथ रोज़ की तरह ग्राहक निपटाने आया था। पता नहीं क्यों माधो को आज कुछ फष्रक लग रहा था। कुछ दूसरी तरह देख रही थीं उसे नज़रें। उसे देखकर सब कोई अपने साथी के कान में कुछ फुसफुसाने लगता। मोहना भी आज न जाने कहाँ गायब हो गया था! माधो सब अनदेखा कर के, सबकी तीख़ी नज़रों को झेलते हुए, ग्राहकी का हिसाब-किताब देकर जल्दी लौटना चाह रहा था। मौसी के लिए वह अपने से भी ज्यादा चिन्तित था।
‘‘आज रात हमर के घर जाए दे तू। आज कुछ ठीक नाय लगे है। सब खुसुर-फुसुर कर रहल है। तोर बिरादरी वाला तोरा दिक (तंग) करतै तो हम आईज रात के तोर संग रह जायब। हमर के कुछ गड़बड़ लग रहल है?’’ माधो ने कहा भी और पूछा भी। ‘‘का कर लेब कोई? मोर मन है। हम राजी तो दूसर के का मतलब? बिरादरी के कम पैसा नाय खिलाया है? अब मोर पास सब पैसा सिराय (खत्म) गेल, तो हम तो आपन गुजर-बसर और जिनगी खातर सोचबै-सोचबै? हम तो सबनी के देख-भाल कर ले। आखिर कोई हमरो देखे वाला चाही न? जे हमर मान देतै, हम उकरे संग रहब। हम तोर नाय जाय देब आज, चाहे हमरा के मार-मार के मोराय दे सब।’’ मौसी ने हठ करते हुए कहा।
मौसी मरने को तैयार है तो माधो कैसे पीछे रहेगा? वह तो मौसी की खातिर ही लौट जाना चाह रहा था। मौसी की बातों से उसका साहस बढ़ गया। पहले खबर होती तो अपने टोले वालों को जुटा कर ले आता पर अब तो समय नहीं है। रात तो काटनी पड़ेगी। फिर भी सावधानी के लिए उसने अपने छोटे भाई को बाहर बिठा दिया। मोहना तो ‘साँझ’ से ही बाहर था।
रोज़ की तरह ‘चख़ना’ और दारू का दौर चल ही रहा था कि बाहर से माधो का भाई चिल्लाया, ‘‘मार डाला रे बचावा-बचावा।’’
ओढ़का हुआ दरवाजा ठेल कर कई लोग अन्दर आ गए। इनमें कई लोग तो अभी-अभी वहाँ से दारू पीकर गए थे। मोहना सबसे आगे था। मौसी को मोहना के इस रुख और रूप पर विश्वास नहीं हो रहा था। मोहना जिसे आँचर में लिया, जिसका गू-मूत किया, पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, जवान किया, वही आज...?
‘‘नाक काट दी है फुआ ने हमारी।’’
माधो पर लाठी का वार करते हुए मोहना चिल्लाया, ‘‘मार साले को, चला है फूफा बनने... मोहना का फूफा!’’
माधो पर तड़ातड़ लाठियाँ बरसने लगीं। मौसी ने माधो को बचाने के लिए अपनी देह से उसकी देह झाँप ली। फिर तो मोहना ने लाठी रोककर लप्पड़-थप्पड़, घूँसा-मुक्का, लात-जूता, जो हाथ में आया उससे माधो को पीटा। साथ में मौसी भी पिटती रही थी, पर उसने अपनी देह माधो से अलग नहीं होने दी। माधो बुरी तरह घायल हो गया था।
माधो का भाई, पहले ही खून से लथपथ दुसाध टोला में जा पहुँचा था। दुसाध टोले के सभी जवान लड़के जुटकर भागते-भागते आ गए थे।
मौसी पिटती जा रही थी पर माधो पर वार न होने दे रही थी।
पहली लाठी की चोट से ही वह लहू-लूहान हो गया था। उसका सर फट गया था।
दुसाध टोला लाठी, टाँगी, ढेला से तैयार होकर गया था। मुण्डा लोग लाठी और तीर से लैस थे। सवाल औरत का नहीं था। सवाल था समाज की कटने वाली नाक का।
नाक, जो भोज-भात करने पर जुड़ जाती है। कोई समर्थ सामने आ जाए तो नाक कटती ही नहीं। दबी नाक भी ऊँची हो जाती है या कटकर तुरन्त आ जुड़ती है, जैसे कभी कहीं कुछ हुआ ही न हो। कटने का निशान तक बाकी नहीं रहता। कमज़ोर लोगों की नाक ज्यादा और जल्दी कटा करती है। समर्थ की नाक सख्त और समर्थ होती है न।
जमकर मार हुई। दोनों तरफ लोग घायल हुए। मौसी ने माधो को, उसके साथियों के साथ रात को ही रेणुका जी के यहाँ भेज दिया। वह काफी घायल था। थाना- पुलिस-अस्पताल सब-कुछ हुआ। आदिवासी आमतौर से अस्पताल अपने से नहीं जाते। फिर वह तो मार करने वाले दल के थे, इसलिए भी वे थाना नहीं गए कि पकड़े जाएँगे। उलटा केस (काउण्टर केस) करने की बुद्धि या क्षमता अभी उनमें नहीं थी। ये सब तिकड़म तो बड़ी जाति वाले करते हैं, जो मारते भी हैं और थाना में मार खाने की सन्हा भी दायर करवा देते हैं।
रेणुका जी ने एफ.आई.आर. दर्ज करवा दी थी। उसमें मोहना नामजद था। पर जब पुलिस मौसी से पूछने आई, तो उसने न मोहना का नाम लिया न गाँव वालों में से किसी का।
‘भीड़ आई, मारने लगी’ वह यही कहती रही। मोहना जिसे उसने पाला था, उसी ने उसे मारा था, जो अब बेटा नहीं मरद बन गया था। उसे अब मोहना से डर लगने लगा था चूँकि वह अब माधो से इसलिए चिढ़ने लगा था कि उसने मोहना के हिस्से का प्यार बाँट लिया।
माधो अभी अस्पताल में ही था। माधो का पूरा टोला उस पर ख़फष था।
‘औरतिया के चक्कर में जान गँवाए जात रहल। औरतिया गवाही तक नाय देलके। खून-खून होत है ना। मोहना को और आपन सब बिरादरी के बचाय लेलके। हमर के काहे ले उ$ बचैते? जेहल में सड़ते रह जायब।’
अब माधो कैसे उन्हें समझाता कि मौसी ने सारी मार अपनी देह पर झेली थी। यह तो वह पहली लाठी धोखे से खा गया था। फिर भी माधो को कहीं कुछ कचोटता जरूर था।
‘काहे मोहना का नाम नाय बोलले एतन मार खाय के बाद भी!’ माधो के होंठ हिलकर फुसफुसाते हुए अपने से ही पूछते रहते।
‘मोहना के बचपन से पालले थी न!’ कोई आवाज़ उसके भीतर से जबाव देतीµपर वह सन्तुष्ट नहीं होता इस जवाब से।
‘छोट-जात हूँ मैं..., क्या इसलिए नाय बोली उ$? कि ऊ कमजोर भय गेल है?µहौसला हार गेल है?’ मन ही मन वह सवाल करता जाता, जिनका जवाब उसे नहीं मिलता!
शंका और मजबूत होकर सर उठातीµ‘हमर खातर बिरादरी नाय छोड़ सकत है ऊ शायद। ऐही खातर आपन सब लोगन के बचाय लेलके।’
इन्हीं सब प्रश्नों-उत्तरों से जूझता माधो अस्पताल की छत की कडि़याँ गिनता रहता। पंखे ने कितने चक्कर काटेµवह हिसाब रखता।
फिर भी मन काबू में न रहता।
‘काहे ऊ गवाही नाय देलके? मोर से बढ़के था का मोहना? बिरादरी जादा थी? हमनी दोनों कौनों देश भाइग जैते। इहाँ नाय रहते। अब कौन मुँह लेके टोला-मुहल्ला वालों से कहब उकरा (उसे) घर ले आयब, ब्याह करब!’ यह सवाल वह मन ही मन दोहराता। उसका मन होता कि वह घर जाकर मौसी से यह सवाल पूछेµपर कैसे जाए उसके घर? टोले वाले हँसेंगे उस परµ‘बड़ा चला था मजनूँ बनने?’
लाठी की मार और सिर के घाव से अधिक गहरा उसके मन का यह घाव था, जो भरता ही नहीं था। सिर जुड़ गया थाµखून जो बहा था फिर से शरीर में बन भी गया था पर मन जो फटाµकैसे जोड़े उसे वह। चाहकर भी जोड़ न पा रहा था।
अस्पताल से खारिज होते ही वह गाँव के बदले परदेश भाग गया। मोहना भी फुआ का घर छोड़कर अपने माय-बप्पा के यहाँ रहने लगा। भाई-भाभी ने मौसी को टोकना भी बन्द कर दिया। मौसी का पैसा भी खत्म हो चुका था। मार के बाद दारू के ग्राहकों का आना भी अभी चालू नहीं हुआ था। फिर से मौसी ने दारू चुआना भी शुरू नहीं किया था। वह दिन-भर मुँह ढाँपे पड़ी रहती। मन होता तो रात को ‘राँध’ लेती और बासी भात खा लेती। दिन भर ‘भूखले’ रहती।
दोनों तरफ के लोग पकड़ाए। गवाही के अभाव में केस खारिज हो गया। लोग छूट गए। कुछ सिर फूटे थे, कुछ हाथ-गोड़ टूटे थेµकुछ तीर के घाव पके थे। फटे सिर टाँकों से जुड़ गएµकुछ लाठी के फूले घाव, हल्दी-नमक के लेप से ठीक हो गए। कुछ हड्डियाँ टूटी थींµकुछ प्लस्तर से, कुछ बिना प्लस्तर जुड़ गई थीं। कुछ सीधी और कुछ मार की याद ताज़ा कराने के लिए हमेशा के लिए टेढ़ी ही रह गई थीं।
पन्द्रह
भगवान बाबू इधर कई दिनों से हजारीबाग नहीं आए थे। एक दिन बिन्दु ने रेणुका जी को बताया, ‘‘आए हैं भगवान बाबू।’’
‘‘बुलाओ तो ज़रा’’ रेणुका जी ने कहा।
भगवान बाबू आए। कुछ मुरझाए-से, उदास-से।
‘‘क्या हुआ?’’ रेणुका जी ने पूछा।
‘‘महज गलती हो गई देवीजी, जो हम आपकी बात नहीं माने। मेरा सब पैसा भतीजों ने ले लिया। भाई मर गया। अब गाँव में कोई नहीं गदानता है। सारा पैसा ख़लास हो गया है जी। भाई जि़न्दा था तो हमसे उसने ट्रक किनने के लिए पैसा उधार लिया था, पर अब कोई कर्जा लौटाने को तैयार ही नहीं है। भतीजे को काॅलेजमें भर्ती करवाना था, सो भी मैंने गछ लिया था। आखि़र किसके लिए था मेरा पैसा? बहुएँ भी बचवन को भेज-भेजकर इस-उस बहाने पैसे माँगती रहीं और हम देते भी रहे। काहे ले कंजूसी करेंगे। अब जब पैसा खत्म हो गया तो हमने फसल में हिस्सा माँगा। अब सबने आँखें फेर ली हैं जी। आवभगत खत्म हो गई, सो अलग। अब हमरा के ‘खाली बैठे वाला’, ‘खाने वाला’, ‘डकारने वाला बुढ़ऊ’, कहने लगा है सब। कर्जा लौटाने की बात तो दूर, खाना देने में भी आनाकानी करते हैं। हमने उनकी बात न मानकर बड़ी गलती की।’’ ‘उनकी’ से उनका अर्थ मौसी से था।
उनके मुँह पर पछतावा पुता हुआ था। परिवार के लोगों की हिकषरत-भरी नज़रों ने उनका शरीर गलाकर आधा कर दिया था। मौसी की याद अब उन्हें बराबर आने लगी थी। रेणुका जी से बात चलाने के लिए उन्हें डर लगता था। इसलिए वह बिन्दु को माध्यम बनाकर मौसी से बात चलाने की कोशिश में थे।
कभी वे सोचतेµक्यों नहीं उसकी (मौसी की) बात मानी?
...काहे नहीं मोहना का ही ब्याह करके घर में बहू ले आए?
घर में बहू आ जाती तो वह ज्यादा सेवा करती हमारी।...
...कहाँ साथ दिया जात या जात की बहुओं ने?...
...कहाँ भाई या भाई की औलाद ने लिहाज किया?...
...कहाँ परहेज़ किया भतीजों ने अपने चाचा को धोखा देने से?...
...जात से तो वह कुजात मौसी ही भली थी, जो उनकी सेवा तन-मन से करती थी। एक नौकरी ही तो माँग रही थी वह...!
...वह खटती तो भी तो मुझे ही खिलाती-पिलाती, सेवा करती! एक मोहना के ही तो पालना था।...
...मेरे घर नहीं जाना चाहती थी वह तो इसमें क्या गलत था?...
...ठीके तो कहती थी। जब मेरी नहीं देखभाल की सबने, तो उसे कौन पूछता? उसे तो मार ही देते वे लोग। भगवान बाबू सोच-सोचकर विचलित हो जाते।
वे बिन्दु से मौसी को मनाने के लिए कई बार कह चुके थे। इस बार मौसी की दुर्गति का हाल सुना तो सीधे बेन्दी जा पहुँचे। माधो के बारे में बस से उतरते ही मुखिया की दुकान और बाबू साहब के टोले में सुन लिया था। उन्हें माधो से कोई मलाल न था।
ऐसे तो चलता ही है जी। औरत है न! आखि़र लतर को चढ़ने के लिए गाछ (पेड़) तो चाहिए ही। चाहे वह हरा-भरा जवान पेड़ हो, चाहे सूखा-खूँसट ठूँठ। हरा-भरा होगा तो लतर ऊपर की फुनगी तक चढ़कर फूलेगी-फलेगी, डाल-डाल, पात-पात को हरा-हरा कर देगी। दोनों इक-दूजे को हरियाते रहेंगे। सूखा होगा तो उसी अधनंगे ठूँठ को ऊपर से नीचे तक दोहरी-तिहरी होकर अपने को तोड़-मरोड़ कर ढँक देगीµउसी के सहारे जिन्दा रहेगी। अब जो अगल-बगल होगा, उसी पर चढ़ेगी न। कोई न मिले तो ‘जमीने’ पर पसर जाएगी। लतर के लिए दोनों में कोई फष्रक नहीं। वह तो कमज़ोर है न। अपने बूते गाछ की तरह थोड़ई (थोड़े ही) खड़ी रह सकती है। आखिर हमने कब बनने दिया है औरत को गाछ? जब-जब वह गाछ बनने की सोचने लगती है तो मार-मार कर लोग उसकी रीढ़ तोड़ देते हैं। उसे बिना रीढ़ के जीने को मजबूर कर देते हैं। बिना रीढ़ वालों को सहारा तो चाहिए ही न! माधो का हो या मेरा। माधो उसे सँभार सकता था, इसलिए उसे मारकर भगा दिया सबने। मैंने भी तो वक्त पर साथ नहीं दिया। जब वह मेरे साथ थी तो वह कहाँ वह किसी माधो की खोज में निकली थी? ओह, कितना दुख पाया उसने?
भगवान बाबू अपने को कोस रहे थे, धिक्कार रहे थे, जैसे मौसी की दुर्गति के वही जिम्मेवार हों। ‘न वह गाँव जाते न मौसी यहाँ आती’µयही सोच-सोचकर वे बेचैन हो रहे थे।
सोलह
भगवान बाबू गाँव पहुँचे। मौसी हँडिया तैयार कर रही थी। अँगना में बैठी, सूनी आँखों से भगोने (पतीले) से उठती भाप को देख रही थी, जो बूँद-बूँद बन हँडिया में टपक रही थी। यह ‘बूँद-बूँद’ अर्क थी। भात का निचोड़µजो नशा हैµ‘मातल’ (मस्त) बना देता है। भात ‘मातल’ नहीं बनाताµपेट भरता है। आदमी भात खाके अघाता है, पर यह बूँद-बूँद अर्क? यह रस, जो मीठे भात से निकलकर, तीता हो जाता है, उसे जो भी पीता है उसके होश पी जाता है वह। मौसी को महसूस हो रहा था, समाज ने इसे अघा कर पिया और पचा लिया। अब वह जो बची है, वह उसका भी अर्क निकालकर परसना चाहता है, समाज उसे मिल बाँट के खाना-पीना चाहता है, पर वह अपने को न तो बँटने देगी और न ही परसने। वह समाज का गम भुलाने के लिए नशा बनकर नहीं छाएगी। वह तो भात ही बनकर रहेगी। पेट भरेगी अपनी मेहनत से अपना भीµसबका भी।
कब चुपके से भगवान बाबू आकर बैठ गए उसके पास, उसे पता ही न चला।
‘‘कैसी हो बिन्दु मौसी? मोहना कहाँ है? खाना खाया?’’ भगवान बाबू ने तीन प्रश्न एक साथ पूछ डाले।
‘‘नहीं।’’ मौसी ने जैसे रोजमर्रा की तरह किसी को उत्तर दिया। फिर वह चैंकी। किसने पूछा था यह सवाल इतने प्यार से? भगवान बाबू को देख मौसी और उदास हो गई।
‘‘पकाओगी नहीं कुछ? अभी भी गुस्सा हो क्या?’’
‘‘गुस्सा कैसन? के है हमर जिकरा पर गुस्सा करब? कोई नाय है हमर, कोई नाय है।’’ कहकर मौसी फफक पड़ी।
‘‘घर चला बिन्दु मौसी। वह भी तोहरा ही घर है। हमर दोनों के घर। कोई नाय आपन। ना भाय, ना भाभी, ना बेटा, ना दामाद, ना मोहना, ना बिन्दु। चलो जी! छोड़ो इन सबका ख्याल अब। हम ही तोर भाई-भाभी, बेटा-दामाद, और तेरा मोहना। तू हमर भाई-भतीजा, बेटी-बहू, माय-बाप, सभै कुछ है। औरत-मरद का रिश्ता ही पक्का होता है जी। दूसरा कोई रिश्ता नाय है। चला आपन घर। हमर पैसा लुटाय गेल। तोर पैसा सिराय (खत्म) गेल। यह ‘सार’ (साला) पैसा ही सब फसाद के जड़ हय। चल अब हम दोनों जन एके साथ रहबµदोनों मिलके खटब (काम करेंगे)।’’
थोड़ी देर चुप रह कर, भगवान बाबू, फिर बोले, ‘‘चलो उठो जी अब! बड़ी जोर भूख लगल है। कुछ पकाइए।’’
मौसी सोच रही थी, पता नहीं उसे माधो के बारे में कुछ मालूम भी है या नहीं। उसने बात नहीं छेड़ी, पर वह चाह रही थी कि वह उसे सब बताए।
मौसी उठी। मुण्डी मरोड़कर मुर्गी उबालने रख दी। पंख नोच-नोचकर बोटी-बोटी काटी। मसाला पीसने लगी। भगवान बाबू खटिया पर बैठकर उसे देखते रहे। माधो के बारे में सब बातें बिन्दु ने उन्हें बता दी थीं।
‘‘बड़ा बुरा किया जी उसके साथ सबने। मोहना ऐसा करेगा, बिसवास ही नहीं हुआ। पर जब ‘लरिका’ (लड़का) जवान हो जात है, तो बाप बन जात है जी।’’ भगवान बाबू बोल रहे थे।
मौसी भगोना चूल्हे पर चढ़ाकर मसाला भूँजने लगी।
‘‘मुझे माधो से कोई मलाल ना हय। आखिर हम भी तो ऐन बख्त पर तोरा छोड़ देयल रहे। जो आप किये, कोई भी औरत ऐसने करती। मैं भी ऐसने करता। गलती तो हमरी थी ना!’’ कहकर भगवान बाबू चुप हो गए।
मौसी भगोने में मुर्गी सीझने के लिए पानी डालकर बगल की दुकान से ‘चख़ना’ ले आई। भगवान बाबू को कोलियरी का क्वार्टर याद आ गया। वह मुस्करा दिए। रोज साँझ को ऐसे ही दोनों अँगना में चूल्हे के पास बैठते थे। मौसी खाना बनाती थी। भगवान बाबू कोलियरी की या यूनियन की बातें चलाते और फिर शुरू कर देते अपने पुराने किस्से सुनाना। फिर चख़ने के साथ दोनों दारू पीते और देर रात गए खाना खाते।
‘‘ले खा!’’ मौसी ने खाना परसा।
तुम नहीं खाओगी? हम पराए हो गए क्या? हम वहीं हैं जी। अब गलती माफ करो।’’ भगवान बाबू ने हाथ पकड़कर उसे साथ खाने के लिए बिठाते हुए कहा। दोनों ने साथ-साथ खाना खाया।
मौसी सोच रही थी उस मुर्गी से जिसे उसने अभी-अभी काटकर राँधा था, कहाँ फष्रक है वह? कोई-न-कोई मरद हर औरत की मुण्डी मुर्गी की तरह ही मरोड़ने को तैयार रहता है। पंख नोचता है कि उड़े नहीं, बोटी-बोटी काटता हैµपकाता है कि खा सके, पचा सके। अपने से कुछ भी तो नहीं है औरत।
वह तो बस दूसरों के खाने के लिए ही बनी है! बस एक पकवान है वह। कटोरी में परसा शोरबा हैµजिसके आगे कटोरा परसा जाता है वह उसे चटख़ारे लेकर चख़ता हैµपीता है। वह तो मात्रा चख़ना है, जो दारू के नशे को और तेज़ करता हैµस्वाद को बढ़ाता है। वह स्वयं कुछ नहीं है शायद। मरद के हाथों की कठपुतली है। चाहे सलीम नचाये, चाहे उसका बाप मौलवी, चाहे भगवान बाबू, चाहे मोहना।
उसे माधो चुनने का, उसे अपने मन माफिक अपना साथी चुनने का, जो अपने सुख-दुःख में मददगार बन सकेµअधिकार नहीं है। सभी को उससे नफष्रत करने का हक जरूर प्राप्त है। पूरी दुनिया को उस पर दया करने की भी छूट है, लेकिन उसे बराबर मानने का दस्तूर नहीं है।
उसे याद आया गाँव का वह कुत्ता जो पड़ोसिन की कुतिया के लिए काँऊ-काँऊ करता, उसे सरे आम घसीटता फिर रहा था। उसे याद आए बाड़े के वे साँड़, वे भैंसे जो दिन दिहाड़े गाय या भैंस को दौड़ाते फिरते हैं!
‘कहाँ फरक है मरद जात और इन जानवरों में।’ मौसी ने मन-ही-मन अपने सवालों का जवाब दिया।
उसने चुपचाप खाना खाया और भगवान बाबू को खिलाया।
भगवान बाबू को सोया छोड़ कर, अगले दिन भोरे-भोरे मौसी बस पकड़कर शहर में काम की तलाश करने सड़क पर आ गई। वह तय नहीं कर पा रही थी कि वह भगवान बाबू के घर में जाकर बैठी रहे, जैसे गाय बाड़े में बैठ जाती है या खुदसर होकर मजूरी करे! खटे-खाए!
न रहेगा मोहना तो न सही। वह बच्चे के बदले बिलार पोस लेगी। कुत्ता पोस लेगी। अगर कोई खतरा होगा, तो वह मौके पर भौंकेगा तो सही। मोहना की तरह काटेगा तो नहीं। नहीं तो सुग्गा पाल लेगीµबोलने बतियाये खातिर।
किसी बुढ़उ$ की टर्र-टर्र तो नहीं सुननी पड़ेगी उसे। सुग्गा उससे बार-बार सवाल ही तो पूछेगा! भले एक ही सवाल पूछेगाµपन पूछेगा तो सही। बोल-बोलकर सूते से जगाएगा भी तो!
‘वह भले एकेई बात घुर-घुर के दोहराएगा, आखि़र चहचहाएगा तो हमरेई घर अँगना न। अपने मन की मैं खुदेई मालिक होउ$ंगी। मालिकµहाँ अपनी देह की मालिक भी।’
सोच थमती ही न थी। बाइस्कोप की तस्वीरों का रूप ले रहे थे विचार। जो नये संकल्पों को जन्म दे रहे थे। नहीं बनना है उसे अब किसी बुढ़उ$ की जि़ंदगी का सहारा। ना ही उसे किसी बच्चे के भविष्य का सम्बल बनना है।
खुद वह ही गढ़ेगी अपना भविष्य। औरत जात का भविष्य। वह तो जन्मजात माँ है न। ममता उसकी रग-रग में भरी है। वह आज तक सभी को पोसती आ रहीे है। अब वह उन्हें पोसेगी, जिन्हें उसकी जरूरत है।
नहीं लगाएगी वह मरद की मर्दानगी से होड़। वह अपनी पहचान खुद बनाएगी! मरदों का क्या विश्वास? सलीम डर गयाµभाग गया, मौलवी जबरन गले मढ़ दिया गयाµवह भी मर गया! भगवान बाबू की बात और थी उनसे तो खैर सौदा किया था उसने। उनके साथ उसका अपना स्वार्थ भी था, इसलिए दोनों मिले थे। भगवान बाबू का स्वार्थ सध गया, तो वह उसे अकेला छोड़कर चल दिया था।
आज उसका सब कुछ लुट-पुट गया है। वह अकेला रह गया है। किसी ने उसे अपना नहीं माना, ना भाई ने, ना भाभी ने, ना बेटी-दामाद ने, तो वह उसके पास लौट आया है।
सवाल-दर-सवाल हहराते चले आ रहे थे उसके मन के समुद्र में। वह फुसफुसाईµ‘पन माधो क्यों चल गेल? काहे नहीं लौटा वह मोर ठिन (मेरे पास)? एको बार तो आता हमर से पूछे खातिर? हमर गलती बताता! हमनी मान लेत आपन गलती। कि जाने उ$ हमर के कभियो आपन मानले कि नायµजे ऐसन चुपके से चल देल हमर जि़ंदगी से बाहर? उ पूछतै तो कि हम केस में पुलिस के सामने काहे नहीं धरा मोहना, भाईवन या बिरादरी वालों का नाम? उ$ त कुछो पूछले ही नाय! उ$ हमर के मार लेता, हमनी के धिक्कारता, पर ऐसन नाय जाता, जैसन हमनी से कोई वास्ता ही नखे।’
पता नहीं वह कितनी देर तक ऐसे ही सोचती रहती अगर भगवान बाबू की आवाज उसे टोक कर न चैंकाती, ‘‘उतरो जी, बस से उतरोµदेखो हम पहलेई पहुँच गए हैं, आपको लिवाय खातिर।’’
भगवान बाबू की आवाज़ ने उसे चैंकाया। बस कब की, हजारीबाग पहुँचकर खड़ी थी। सवारियाँ उतर कर जा चुकी थीं। वह अकेली बस में बैठी सोच रही थी।
‘‘चल बिन्दु मौसी, चल। तू अपनी ही शर्त पर रह। जैसन तू कहब हम करब। ना जायके चाहे है हमर गाँव, तो ना जा। जहाँ तू रहब हमहु होन्हें (वहीं) रहब।’’ भगवान बाबू बोले।
मौसी एक पल के लिए सोच में पड़ गई। फिर झटके से एक फैसला सुनाती- सी बोली, ‘‘तो चल, तू और हम दोनों मजूरी करके, खटके खायब! न तू ठाकुरµन हम मुण्डा। न तू बड़ जातµन हम छोट जात। दोनों मजूर। हम तोर कमाई पर न रहब। हम अपनेई कमायब। मंजूर हय तो बोला। हम न तोर गाँव में रहब, ना आपन गाँव में। दोनों जन मिल के काम करबµकमायब होनेई रहब।’’
छन भर को भगवान बाबू हिचके। जन्मजात संस्कारों को तोड़ने से कुछ डरे, कुछ सहमे! ‘टाटा कम्पनी की कोलियरी में भी तो हमनी शुरू में झोड़ा ही ढोते थे न! तब केन चल गेले हमर ठकुरैती?’ उन्होंने मन ही मन अपने से सवाल किया।
‘अब गाँव के खेतों पर क्या गुमान?’ वे अपने से ही सवाल पूछते और कुछ हकलाते हुए बोले, ‘‘चल तोर बात ही ठीक! ला, दे गमछा! हम हूँ ईंटा ढोयब! कल से हम लकड़ी काटब, तू बेचा। हम खेत में हल नादबे, तू रोपा। हम आज से मुण्डा बन गेल। हमरा अब कौनो घर नाय है, कौनो खेत नाय है, ना ही कोनो गाँव है, जेने पाबे होन्हें खटब। हमर कोऊ जाति न है। हम दोनों एक जात हैं। बस मजूरा हैं हम दोनों जन।’’
मौसी ने बड़े विश्वास से उसे देखा और मनुहार से कहाµ‘‘एक औरो जात है हमनी के! की भुलाय गेल है तू? तू मरदµहम औरत! चल जनी-मरद बन के खटब। मजूरा बनके कमायब...! हम माय बनके तोरा पोसबµतै बाप बनके हमर के रख्या करµदेखभाल कर! चल आइज से तू ही हमर मोहनाµतू ही हमर माधोµतू ही हमर सलीम।’’ और दोनों जन चैक पर अपना श्रम बेचने के लिए मजदूरों की कतार में खड़े हो गए। दोनों के सिर पर टोकरी थी। टोकरीµजिसकी कोई जात नहीं होती!
ख्2.5.1994 लेखन किया और मैंने अपने भाई रवि के घर दिल्ली में उपन्यास की शुरुआत की। 1996 में बनारस के ‘आज’ अख़बार में धारावाही प्रकाशित हुआ। 1997 में नीलकंठ प्रकाशन, नई दिल्ली से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। 2010 में ज्योतिलोक प्रकाशन, दिल्ली से ‘सीता मौसी’ शीर्षक पुस्तक में संकलित हुआ।,