ईमानदारी Asha Ashish Shah द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ईमानदारी

" ईमानदारी"

काले घने बादलो नें घेरा डाल रखा था। बीजली ज़ोरों से चमक रही थी। बरसात आने के पूरे पूरे आसार नज़र आ रहे थे। सूरज और बादलों के बीच जैसे लुक्का-छुप्पी का खेल खेला जा रहा था। वैसे तो ऐसा नज़ारा पिछले आठ दिनों से था मगर, आज का दिन कुछ अलग सा ही प्रतीत हो रहा था, गोपालदासजी को। छोटे सेठजी ने अपने बंगले पर उन्हें युँ अचानक ही मिलने के लिए बुलवाया, ये बात वे हज़म ही नहीं कर पा रहे थे।

सोच-विचार में डूबे गोपालदासजी बंगले में दाखिल हुए। विलायती झुम्मर, राजस्थानी सोफासेट, कश्मीरी कालीन और बड़े सेठजी की सुनहरी फ्रेम वाली तसवीर दिवानखाने की शोभा बढ़ा रहे थे।

"छोटे सेठजी, कया मैं अंदर आ सकता हुँॽ" "हा.. हा.. पधारिए पधारिए। आप ही का तो इंतज़ार हो रहा है।" विवेकने व्यंग भरे स्वर में कहा।

बड़े सेठजी जब तक जीवित थे तब की बात ओर थी, तब वे गोपालदासजी को अपनें व्यक्गित काम और नीज़ि विचार बतानें के लिए अक्सर बुलाते थे। लेकिन उनके गुज़र जाने के बाद इन पाँच महिनोंमें पहेली बार विवेकने युँ अपने घर पर मिलने के लिए बुलवाया इसलिए वे आश्चर्य चकित होकर पूछ बैठे, "ऐसी कया वजह है जिसके लिए आपने मुझे यहाँ बुलवाया हैॽ"

"बात ही कुछ ऐसी है चा..चा..जी.., वैसे तो ये बात मैं आपको ओफिस के सब लोगों के बीच में भी कह सकता था लेकिन आपके बालों की सफेदी और मेरे पिताजी के आपके प्रति अंधे विश्वास के कारण ही मैंने आपको यहाँ बुलवाया है।" कहते कहते विवेक का सूर बदलने लगा।

इतनें में बड़ी सेठानीजी कमरें में दाखिल हो चूके थे। वही तेजस्वी मुखमुद्रा, बालो में बड़ा सा झुड़ा, गले में तुलसी की माला, सुना ललाट, सुनहरी किनारी वाली सफेद साड़ी और भीगी सी आँखे.... सिर्फ आँखो के इशारों से गोपालदासजी का स्वागत करते हुए वे आरामकुर्सी में सहज कर बैठ गये।

"चाचाजी, ये सब क्या हैॽ" नीले रंग की फाइल आगे करते हुए विवेक ने कहा।

"................................."

"देखिए चाचाजी, युँ चूप रहेने से कुछ नहीं होगा। पीछले पाँच महिनों से मैं देख रहा हुँ, जब से मेरे पिताजीका देहांत हुआ है तब से लेकर अब तक हर महिने की पहली तारीख को आपकी तनख्वाह के अलावा एक निश्चित राशि आपके खाते में डाली जाती है और उसी दिन विड्रो भी हो जाती है। भगवान के लिए आप मुझे बताने का कष्ट करेंगें कि, किसकी इजाज़त से ये सब हो रहा हैॽॽ एन्ड प्लीझ... टेल मी ध ट्रुथ.... " विवेक ने फरमान करते हुए कहा।

गोपालदासजी को अंदेशा तो था ही कि, एक ना एक दिन तो ये बात सामने आ ही जायेगी मगर.... ये सब बड़ी सेठानीजी के सामने हुआ, इसलिए वे विचलित हो गये। उन्होंने विवशता से बड़ी सेठानीजी की ओर देखा। उनकी तेजोमय आँखो में उन्हें लाचारी स्पष्ट दिखाई दे रही थी। फिर भी सेठानीजी ने कलेजा मजबूत करके विवेक से कहा,

"बेटे, इस तरह तुम किस व्यक्ति के साथ बात कर रहे हो ये तुम्हे पता भी हैॽॽ जिन पर तुम्हारे पिताजी सबसे ज्यादा विश्वास करते थे उनकी ईमानदारी पर तुम कैसे शक़ कर सक्ते हो...ॽ

"माँ, ये बीझनेस की बातें है जो आपके पल्लें नहीं पड़ने वाली इसलिए, महेरबानी करके आप उपर चले जाईये। और रही इनकी ईमानदारी वाली बात, तो वह इन्हें खुद ही साबित करने दीजिए। अगर वे ऐसा न कर पाए तो.... ( गोपालदासजी की ओर देखते हुए) तो आपको इस्तीफ़ा देना पड़ेगा... गोट इट..ॽॽ" गुस्सेमें लाल-पीले होकर विवेक ने कहा।

इस्तीफ़ा देनेकी बात सुनकर गोपालदासजी भौचक-सा रह गये। बड़ी सेठानीजी का तो दिल ही बैठ गया। घर का माहोल अचानक से तंग हो गया।

दुविधा में डूबे गोपालदासजी की नज़र बड़े सेठजी की तसवीर पर ठहर गई। उनकी आँखो में आँखे पिरोते ही उन्हें वह दिनकी याद आ गई, जब बड़े सेठजी ने अपने निधन के चार महिनें पूर्व इसी बंगले पर सेठानीजी और विवेक की गैरहाज़री में बुलवाया था।

"देखिए गोपालदासजी, मुझे ऐसा आभास हो रहा है जैसे मेरा सुरलोक सिधारने का समय आ गया है। इसलिए मेरे मन की बात मेरे मनमें ही न रह जाए और मेरे जाने के बाद आप ये ज़िम्मेदारी सही तरह से निभा सके इसलिए ये बात मैं आपको और सिर्फ आप ही को बता रहा हुँ क्योंकि, आपकी ईमानदारी पर मुझे खुद से भी ज्यादा विश्वास हैं। बात......" बाकी के शब्द खाँसी की आवाज़ में विलीन हो गये।

"कौन सी बातॽ कौन सी ज़िम्मेदारी सेठजीॽॽ" बोतल से दवाई निकालते हुए गोपालदासजी ने पूछा। "देखिए, बात कुछ ऐसी है कि... विवेक के अलावा भी मेरी एक और संतान है... और इस बात का पता मुझे विवेक के इस दुनिया में आने के बाद ही चला कि, उसका एक बड़ा भाई भी है और जिसकी परवरिश अनाथालय में हो रही हैं। इसलिए कई बरसों से उसके पालनपोषण के लिए मैं एक निश्चित राशि वहाँ पहुँचा रहा हुँ। मेरी दिल्लि तमन्ना हैं कि, मेरे जाने के बाद भी यह सिलसिला युँ ही ज़ारी रहना चाहिए। आपकी ईमानदारी पर मुझे पूरा भरोसा है इसलिए ये काम आपको सोंपकर मैं चैन की साँस ले सक्ता हुँ। लेकिन आप मुझसे वादा कीजिए, यह बात केवल आप तक ही सीमित रहेगी इसके बारे में किसी को भनक भी नहीं लगने देंगे। वादा कीजिए वादा....."

बड़े सेठजी से किया हुआ वादा याद आते ही गोपालदासजी बड़ी ही संयत आवाज़ में बोले, "छोटे सेठजी, आप मेरे बारे में क्या सोच रहे है और क्या नहीं वह आपका व्यक्गित मामला है उसी तरह यह मेरा भी व्यक्गित मामला है। मैं अपनी ईमानदारी के वचन से बंधा हुँ इसलिए इस विषय पर मैं कोई स्पष्टता आपको नहीं दे सक्ता। यदि आपको ऐसा लग रहा है कि, मैने अपनी नौकरी पर बट्टा लगाया है तो मैं अपना इस्तीफा देने के लिए भी तैयार हुँ। और एक बात सेठजी, मेरी नौकरी रहे ना रहे पर... हमेंशा की तरह इतनी ही राशि हर महिने की पहली तारीख को मेरे खाते में जमा ज़रुर हो जायेगी.... यह मेरा खुद से वादा है।" गोपालदासजीने कृत्कृत्य होकर कहा।

"ठीक है जैसी आपकी मर्ज़ी, आइ डोन्ट केर अबाउट इट। आज शाम तक आपका रेज़ीग्नेशन लेटर मुझे मिल जाना चाहिए।" रुखे शब्दों से अपनी माँ और गोपालदासजी का दिल कचोट कर विवेक बंगले के बाहर निकल गया।

"गोपालदासजी, आपने सही बात क्यों....."

"... सेठानीजी, अब तो यह बात मेरी चिता के साथ ही जायेगी। ठीक हैं, मैं चलता हुँ। आप अपनी सेहत का ख्याल रखना। अगर उपरवाले की दया होगी तो फिर कभी मिलेंगे इसी जनम में....।

बड़ी सेठानीजी गोपालदासजी की पीठ को ताक्ते रह गये। ईमानदारी का बोज अपने बूढे कंधो पर लाधकर जा रहे गोपालदासजी पर उनकी नज़रे जम गई और उनके आंतरमन से आवाज़ आई....

"गोपालदासजी, आपने तो अपनी ईमानदारी दिखाई भी और अच्छी तरह से उसे निभाई भी... लेकिन... मैं अपनी ईमानदारी शायद कभी भी नहीं निभा पाउंगी और विवेक से कभी कह भी नहीं पाउंगी कि.... तुम्हारे पिताजी के साथ शादी करने से पहले मुझसे जो गलती हो गई थी उसके कारण तुम्हारा एक बड़ा भाई भी इस दुनिया में है जिसे तुम्हारे पिताजी ने अपनी पूरी जिंदगी तक उसकी अपनी संतान की तरह ही ज़िम्मेदारी उठाई और अपने जाने के बाद गोपालदासजी को वह ज़िम्मेदारी निभाने के वचन में बाँधकर गये ......।" उनका दिल कचोट गया और गला भर आया इसलिए सिसक-सिसक कर वे रो पड़ी और जैसे उनका साथ देने के लिए ही बादल भी अनराधार बरस पड़े।

..........................................अस्तु.............................................