दास्ताँ -ए-जुगनूँ Vipin Choudhary द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दास्ताँ -ए-जुगनूँ

दास्ताँ -ए-जुगनूँ

विपिन चौधरी

शायद मनुष्य का हठीला स्वभाव ही है जिसके चलते प्रदीप और शारदा दोनों को ही यह स्वीकार करने के दिक्कत का सामना करना पड़ा कि पिछले कुछ सालों वे टूटे-बिखरें हुए उस सामान की तरह दिखाई देने लगा हैं, जिनके बदन का गोश्त यहाँ-वहाँ से बाकायदा थमक गया हो। नियति में विश्वास करने वाले लोग इन दोनों के घायल जीवन को शायद इनके दुर्भाग्य से जोड़ कर देखे या फिर प्रेम को महज़ एक मायावी प्रपंच समझने वाले दुनियादार लोग इन्हें खुद के हाल पर ही छोड़ कर यह भ्रम पालें रहे कि देर-सवेर बच्चुओं को खुद-ब-खुद अकल आ जाएगी, और बड़े-बुजुर्ग इनके प्रेम को लाख नौटंकी टाईप मामला समझते रहें लेकिन अभी आपको शारदा और प्रदीप के बीच पनप रहे रिश्ते की इस नयी परिभाषा को समझने के लिए उनके शयन कक्ष में लिए जा रहे हैं। शयन कक्ष के नाम पर आप चौंकिएगा नहीं क्योंकि हमारा यह निजता की धज्जियां उड़ाने वाला समय अब चौंकने की इजाजत नहीं देता।

अब आप खुद ही देख सकते हैं दूरियन के महंगे स्लीपिंग बैड पर बैठे धानी रंग का कुरते और सफ़ेद रंग की पजामे में दूल्हा प्रदीप कैसा तो फब रहा है और प्रदीप के करीब सुर्ख लाल रंग के आँगन में हरे किनारे वाली साड़ी में बैठी शारदा परिणीता फिल्म की नायिका मीना कुमारी का हूबहू नवीनतम संस्करण लग रही है ।

अभी-अभी प्रदीप उठ कर कमरे के दाईं तरफ रखी हुई स्टडी टेबल के पास जा कर रुका है। वह अपनी मनपसंद स्टडी-टेबल के नीचें लगी दराज़ को बार-बार खोल बंद कर रहा है। मनोविज्ञान यहाँ ईशारा कर रहा है कि प्रदीप में मन में विचारों की तेज़ लहरें गिर-उठ रही है। वाकई प्रदीप का मन हो रहा है कि शारदा से सामने उसी पंक्ति को दोहरा दे जो उसके मस्तिक्ष में पिछले बीस मिनट से चक्रव्यहू रचती चली जा रही है।

लेकिन प्रदीप कम से कम आज तो शारदा को गम के छींटे नहीं परोसना चाहता। अक्सर इधर- उधर चीज़े भूलने वाले प्रदीप की यादाशत इन दिनों खासी दुरुस्त हो चली है । उसके ज़हन के ऊपरी परत में यह बात जम चुकी है कि अपने पहले प्रेम के घमचक्कर से शारदा भी हाल- फिलाहल बमुश्किल ही बाहर निकल पाई है सो उसे किसी सूरत में परेशान करना कदापि ठीक नहीं।

वह 'अभी आता हूँ शारदा' कह कर वह कमरे की चौखट से बाहर की ओर गया है, शायद रसोई की तरफ।

हाँ, प्रदीप ने रसोई का स्लाइडिंग डोर खोल कर दाईं तरफ की दीवार पर लगे स्विच बोर्ड से लाइट ऑन की है।

सोने से पहले शारदा को ब्लैक-टी पीना पसंद है और प्रदीप को एकदम चिल्ल्ड दूध। वैसे वह मानता है कि आदमी अपनी आदतों का गुलाम बन जाता है एक दिन। फिर वह उसी के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता है। चाय में चीनी मिलाते हुए प्रदीप यही सब तो सोच रहा है।

जब तक प्रदीप चाय बना रहा है तब तक हम अपनी कहानी की नायिका शारदा से रूबरू होते हैं। शारदा, जिसकी सवेंदनशीलता इतनी है की एक चींटी को मारते हुए भी उसे पसीना आ जाए. भावुकता, एक इंसान को जितना नुक्सान पहुंचा सकती है उतना उसने शारदा को पहुंचा दिया है।

शारदा इस वक़्त सोच रही थी, जो गलतियां हमारे भविष्य ने की हो उसकी सज़ा हम अपने वर्तमान को क्यों दें, पुरानी ईंटों से हम अपने नए घर की नींव नहीं डाल सकते।

शारदा कुछ उदास जरूर है पर चाहती है की उसकी उदासी प्रदीप को नज़र न आये. आज वह हर हाल में प्रदीप को खुश देखना चाहती है, वह बेचारा अपने पुराने प्रेम की मज़ार पर बैठ कर कितना तो रोया है. दोनों एक दूसरे के ख्यालों से सहानुभूति रखते हैं, शायद सहानुभूति की उसी मखमली राह पर चल कर प्रेम, दोनों के घायल दिलों पर दस्तक दे बैठा।

किस्सा वही पुराना, मिजाज़ दूसरा था मगर

अब जबकि प्रदीप भी पहले वाला प्रदीप नहीं रहा जो अपने दोस्तों के बीच अपनी जिन्दादिली के लिये प्रसिद्ध हुआ करता था। अब तो वह एक शरीर है जहाँ सांसों की गुजर-बसर हो रही हैं।

प्रेम के एक ही दंश ने उसके शांत जीवन की गति को तितर-बितर कर दिया।

उसकी बेरुखी से चलते पिछले कई सालों से यह सलोना सा घर, घर जैसा नहीं रह गया था। अपने पहले प्रेम रेणू, की याद अब एक साये की तरह मंडराती है तो कभी इस बड़े से घर के हर कोने बड़े-बड़े जाले बन अटकी रहती है और इन जालों में मकड़ी की तरह लटका हुआ प्रदीप। पूरे दस साल जीवन यूँ ही चला, कहते हैं कि उसकी भी कुछ मजबूरियाँ रही होंगी यूँ कोई बेवफा नहीं होता

बेवफा, इस शब्द से घिन आने लगी है प्रदीप को अब।

हद हो गयी लोग प्यार भी करते हैं और डरते भी हैं. रेणू समाज से डर गयी थी अपने पिता अपने चार भाईयों और माँ के कभी न थमने वाले आंसुओं से। उसकी बड़ी बहन का प्रेम-विवाह असफल रहा था और इस बार दूसरे नंबर की रेणू को अपनी पसंद के चुनाव की कतई इज़ाज़त नहीं थी।

तो प्रदीप के प्रेम का घरौंदा यूँ टूटा और फिर यह प्रेम कुछ वक़्त तक यह एक बवंडर की तरह चक्कर काटता रहा और एक एक दिन टूटा हुआ तारा बन गया।

इधर प्रेम की रेखा प्रदीप की हथेली पर से धुंधली हुयी उधर प्रदीप का यह घर एक धर्मशाला बनने की कागार पर आ गया। कितने अरमानों से बनाया था यह घर जिसकी हर ईंट पर पिता के श्रम की मोहर लगी थी और अब यहाँ चिड़ियों, बिल्लियों ने अपने छोटे-छोटे बच्चों को जन्म दे दिया हैं अब यही जीव-जंतु घर के अहम् सदस्य हैं और प्रदीप इस घर में एक मेहमान की तरह आता-जाता है।

यह तो नयी दुल्हन शारदा ही थी जिसने पहली नज़र में ही इस घर की थाह पा ली थी और इसे नए सिरे से बसाने की ठान ली थी।

खुद शारदा ने भी तो बहुत ना- नुकुर किया था प्रेम के इस नए शिशु रिश्ते को धरती पर लाने से पहले। शारदा और प्रदीप, दोनों ही दूध के जले हुए इंसान की तरह थे जो प्रेम के इस छाछ को फूंक-फूंक कर पीने का जोखिम उठा रहे थे। पुराना प्रेम तो कब का दोनों की देह से अपना अस्तर समेट चुका था। अब तो वे दोनों अपने नए प्रेम की ताज़ा-ताज़ा उठती हुई भांप के नज़दीक बैठे थे। यह समझते-मानते हुए कि इस नए रिश्ते की लौ के करीब ही अब उन दोनों को अपना जीवन पकाना है।

दोनों ही धीरे-धीरे यह मान रहे थे कि प्रेम का पिछला भूत उनकी गर्दन पर अपने दांत गडा कर काफी खून पी चूका है। अब वे अपनी फटी आँखों से अपनी दुनिया के शामिल होने वाली भावी घटनाओं के साक्षी बनने की जुगत में थे। पहले प्रेम ने दोनों को सिरे से निढाल कर दिया था ।

जीवन का एक बड़ा हिस्सा प्रेम में गुज़ार चुकने के बाद वे अनुभवी प्रेमी बन चुके थे और यह बात समझ चुके थे कि सब अपने पहले प्रेम में, भुगत-भोगी बन कर निकलते हैं। अपने गुज़रे हुए अनुभवों से जटाजूट प्रेमी, जो सरे राह चलते हुए अच्छी तरह से जानते हैं कि कहाँ गड्ढे हैं और कहाँ दूर तक फैला हुआ समतल मैदान है।

ट्रे में चाय और दूध का मग लिए प्रदीप, कमरे में आ चुका है। दोनों कुछ देर यूँ ही बैठे-बैठे चाय सुड़कते रहे। बहरहाल आज शादी की पहली रात शारदा और रोहित के पास आपस में बातचीत करने को कुछ नहीं था,यह उच्च शिक्षित विवाहित जोड़ा न तो इस वक़्त देशों के आपसी रिश्तों पर बात कर सकते थे, ना राजधानी में बढते बलात्कारों पर ना टेलीविज़न पर लागातार बढते जा रहे धारावाहिकों पर, ना अनिल कपूर की चिरयुवापन पर, आज इन दोनों का पहला प्रेम अपना आखिरी दांव खेल रहा था सो पुरानी यादों ने दोनों को कस कर पकड़ लिया था।

यदि इस समय प्रेम पर कोई इन दोनों से लम्बा साक्षात्कार लेता तो दोनों ही काफी-कुछ कह गुजरते क्योंकि शारदा और प्रदीप आज भी अपने पहले प्रेम के घुमडते बादलों की छत्रछायाँ के नीचें खडे थे यदि कोई पूछ बैठता

आप दोनों पहली बार कब मिले

आप पता चला कि प्रेम में तुम्हारे दिल पर दस्तक दी है

आप उस में क्या अच्छा लगा

कैसे एक दूसरे को कैसे प्रपोस किया, आदि आदि

लेकिन इस सवाल में अंत में आते ही दो पूर्व प्रेमियों के भीतर का मौसम बदल जाता जब यह पुछा जाता कि

'आप दोनों का ब्रेकअप कैसे हुआ'

तब दोनों ही एक साथ पीड़ा से भर उठते और एक लम्बी आह भर कर बोल उठते, नहीं ब्रेकअप नहीं बस हम दोनों की परिस्तिथियाँ बदल गयी थी।

इस बार बहुत देर की चुप्पी के बाद प्रदीप ने ही बोलने की पहल की।

जानती हो शारदा, अपना यह कमरा मुझे हमेशा से सकूंन देता रहा है। बहुत बचपन से मेरी माँ का बिस्तर यहीं लगता था। मेरा जन्म भी इसी कमरे में हुआ और बाद में मैं, माँ से लिपट कर सोया करता था और अपनी दोनों बड़ी बहनों को माँ के पास फटकने भी नहीं देता था।

घर में तीन धूरियां थी एक पर अपने आप में ही मस्त मम्मी घूमती, एक पर युवा प्रदीप और तीसरे में उस लड़की को अक्सर याद करते पिता जिससे उनकी शादी होते- होते रह गयी थी पापा उस धूरी पर घूमते हुए थक जाते तो प्रदीप को अपने पास बिठा लेते और उस सितारें की ओर इशारा करते जो अभी-अभी टूट रहा था। तब माँ का लाडला प्रदीप पापा के बहुत नज़दीक आ गया इतना नज़दीक की पिता की याद को अक्सर अपनी याद समझ बैठता। उसी युवास्था के दिनों में रेणू उसके आस-पास बिखरे झाड-फूस को एक ओर करते हुए उसके सामने आ खड़ी हुयी। तब जाकर ही प्रदीप प्रेम के उस तूफ़ान से परिचित हुआ जो अब तक उसके पिता की झोली में खेलता आया था।

फिर जब पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद माँ ने मिस्टर खन्ना से दूसरी शादी की तब प्रदीप अपनी माँ से बहुत दूर चला गया। माँ सामने होती और वह किसी दूसरी दुनिया में पहुंचा होता। जब माँ दूसरी शादी के महज़ एक साल बाद ही चल बसी तो उसे खुद पर बहुत पछतावा हुआ। माँ की क्या गलती थी लेकिन वहअपनी माँ को बाँट नहीं सका था। माँ, तो सिर्फ अपनी होती है न उसे किसी और का होते नहीं देख सका मैं।

आज इस घर की यादों में डूबते-उतरते हुए प्रदीप ने अपने मन का पूरा मानचित्र शारदा की आँखों में उतार दिया।

तुम भी कुछ बोलो शारदा,

प्रदीप, शारदा को कुछ बोलने को उकसा रहा था लेकिन काठ की गूंगी गुड़िया बोलती तो शायद वह भी बोल उठती। प्रदीप की दर्द में भीगी हुई आवाज़ ने उसे भीतर तक घायल कर दिया था।

वह सोच रही है, जिस शादी के सपने देखती आयी वह क्या यही थी इतनी उदास। सपनों और हकीक़त में घोर अंतर कैसा ?

यह शादी उसकी अपनी मर्ज़ी से हुई है। फिर, आर्य समाज मंदिर में सदा सा समारोह और साथ जीने की रस्मों की अदायगी के बाद वह और प्रदीप दोनों हंसी-ख़ुशी घर आ गए।

शारदा बार-बार सुदर्शन को भूलना चाहती हैं, बार -बार सुदर्शन याद आता है। उन दोनों के बीच कदम ताल करता हुआ पांच साल के प्रेम का रिश्ता उस मोड़ पर आकर अचानक से मुड़ गया जब एक दिन सुदर्शन के कहा, मेरे मामा ने मेरे लिए एक लड़की पसंद कर ली हैं और तुम तो जानती हो हम अपने मामा के अहसानों के तले दबे हुए हैं। पिता से तलाक़ के बाद माँ के थैलेसिमिया की वजह से नौकरी छूट जाने के बाद बड़े मामा ने ही हम तीन की परवरिश की ,बड़ी बहन की शादी की। और हम दोनों भाईयों को पढाया- लिखाया। आज मैं जो कुछ भी हूँ अपने बड़े मामा की वजह से।

और मैं, क्या मेरी कोई जगह नहीं है तुम्हारे नज़दीक , शारदा की ओर से यह आखिरी सवाल था।

तुम मेरा प्रेम हो लेकिन

बस सुदर्शन का जवाब उसी स्थान पर जड़ हो गया। बागीचे वाले हनुमान मंदिर के सामने।

शारदा के पास कोई चारा नहीं था सिवाए रोने के।

वह ठीक उसी तरह रोई जिस तरह संसार की सभी लड़कियां प्रेम के टूट जाने की स्थिति में रोया करती हैं।

पर जीवन को तो आगे बढ़ना ही था सो वह बढ़ा और बढ़ता ही चला गया।

शारदा के जीवन में प्रेम ने एक बार फिर से आवेदन किया। इस बार कोई शब्द नहीं, बस एक कौंध आगे आयी जिसे शारदा ने अपने नए सहकर्मी प्रदीप की आँखों में देखा । ऑफिस की प्रोफेशनल मीटिंग्स के दौरान एक दिन 'दिनमान' के रेस्तेरा में शारदा ने प्रदीप की आँखों में एक हिंसक चमक देख ली और खुद को शिकार बना हुआ पाया। वह चमक प्रेम की थी.

प्रेम का दूसरा कायदा, वो दिन और ये दिन और

शादी के कुछ महीनों तक एक भूतपूर्व रिश्ता बार- बार शारदा और प्रदीप के पैरो से लिपटता रहा।

जब कोई पुराना और अज़ीज़ रिश्ता दलदल में तब्दील हो बदल जाता है, तो हम उसके छींटों से भी बचते हैं। प्रदीप अपने पुराने प्रेम से काफी दूर आ चूका था और शारदा के भीतरअपने पुराने प्रेम की किरचें अब यदा-कदा ही चुभा करती थी। दोनों के प्रेम ने अपना ठिकाना बदल लिया था। लेकिन पुराने प्रेम का वह फ़रिश्ता अब भी जब-तब उनके आंगन में फडफडाने लगता था। तब शारदा और प्रदीप अपने आँगन में पानी का कटोरा ले कर आते। पक्षी का रूप धरे फ़रिश्ता अपनी प्यास से मुक्ति पा शांत हो जाता यह सिलसिला लगभग दस साल चला। दस साल कम नहीं होते।

शारदा कभी अपने पहले प्रेम से दूर नहीं जाना चाहती थी, उस प्रेम के चलते कोई दूसरा प्रेम का रिश्ता उसके करीब नहीं आ सका था,

सच है इंसान खुद को पहले बंधन में बाँधता हैं और फिर खुद ही तोड़ता चलता हैं, प्रेम के दिनों में गुज़रे चिन्हों पर प्रेमी बार- बार चक्कर काटते हैं। शारदा उन चिन्हों से बार बार गुज़रती लेकिन वे चिन्ह भी शायद अब इस परिक्रमा से थक गए थे और उनकी अंतरधवनियाँ फीकी पड़ गयी थी।

इन सबके बीच कहीं कोई संकरी सी गली थी जहाँ से चलते हुए प्रदीप शारदा तक आ पहुंचा था और ठीक उस वक़्त शारदा के पहले प्रेम ने अपने वस्त्र भी नहीं समेटे थे और उसके आस-पास सब कुछ बिखरा छितरा सा था। प्रेम की लतरें, मिलन की शाखाएं, उम्मीद के बेल-बूटे सुदर्शन के ढेरों पत्र, उसकी लम्बी बातें, उसकी हिदायते, उसकी पसंद-नापसदं वह अपनी सभी चीज़े बटोर भी नहीं सकी थी कि प्रदीप ने दस्तक दी.

प्रेम के दोहरे संकट

स्त्री, वह होती है जो अपने प्रेम में और दोहरी हो जाती है और पुरुष वह जो प्रेम और समाज के बीच चौसर बिछाता रह जाता है।

प्रेम और शादी दोनों अलग अलग चीज़ें हैं, प्रदीप के पिता अक्सर यही कहा करते थे. जब स्वयं प्रदीप के जीवन में यह बात खरी उतरी तो उसे अपने पापा कुछ-कुछ उस देवता की तरह दिखे जो भविष्य को वर्त्तमान में ही आईना दिखा देते थे।

बहरहाल यदि इस कहानी में आप शुरू से हमारे साथ रहे हो तो आपने जान ही लिया होगा कि शारदा और प्रदीप का विवाहित जीवन अब चल निकला है। पहले प्रेम की पटरियों पर सरपट भागता दूसरा नया जीवन जिसके हर डिब्बे में उम्मीद बैठी थी।

कुछ समय बाद की खींच-तान के बाद दोनों के जीवन की दशा और दिशा एक हो गयी है। दोनों के बीच में न जाने जब एक मूक समझौता हो गया था कि दोनों एक साथ गाड़ी में ऑफिस जायेंगे, एक दूसरो की जरूरतों का ख्याल रखेंगे । अखबार की दोहन की हुई ख़बरों की चुटकियाँ लेंगे और लास्ट बट नोट लीस्ट, पहले प्रेम की कोशिकाये जब मरने लगेंगी तो उन्हें चुपके से प्रवाहित कर देंगे।

यदि दुबारा उनके पहले प्रेम ने फिर उनके दरवाज़े पर दस्तक दी तो वे कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। नादान प्रदीप अभी भी अपने पिता की वैवाहिक जीवन के प्रति बेरुखी से दूर नहीं जा पाया था. बाकी रिश्तों की तरह इस रिश्ते ने भी दुनियादारी की राह पकड़ ली थी और शादी का दस्तूर निभाने की लत दोनों को लग गयी. दोनों जिये चले जा रहे थे इस सच को स्वीकारते हुए कि पहला प्रेम कहीं दूर चले जाने के लिए अपने जूते कभी नहीं पहनेगा ।