Bisvi Sadi ki Urdu Nazme Anuradha Sharma द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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Bisvi Sadi ki Urdu Nazme

बीसवीं सदी

की

उर्दू नज़्में

(एक झलक)

संकलन

अनु आर. शर्मा

Anursharma216@gmail.com

अनुक्रम

हफ़ीज़ जालंधरी

अभी तो मैं जवान हूँ

मख़दूम मुहिउद्दीन

मुलाक़ात

आज की रात न जा

चाँद तारों का बन

असरार उल हक़ मजाज़

आवारा

तआरुफ़

मज़दूरों का गीत

अली सरदार जाफ़री

मेरा सफ़र

प्यास भी एक समंदर है

नींद

अब भी रौशन हैं

निवाला

बम्बई

जाँ निसार अख़्तर

आख़िरी मुलाक़ात

मज़दूर औरतें

हसीं आग

साहिर लुधियानवी

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें

नाकामी

मुझे सोचने दे

मेरे गीत तुम्हारे हैं

आज

एक वाक़िआ

ख़ूबसूरत मोड़

  • - -
  • हफ़ीज़ जालंधरी

    हाफ़िज़ जालंधरी का जन्म 14 जनवरी 1900 ई. को जालंधर में हुआ| पाकिस्तान के राष्‍ट्रगीत के रचियता हाफ़िज़ जालंधरी हिंदुस्तान के हर कोने में अपनी शायरी और ख़ास तरन्नुम के लिए मशहूर रहे, अपने ख़ास अंदाज़ और शैली की कारण अँग्रेज़ी हुकूमत ने उन्हें खानबहादुर का ख़िताब दिया था.

    निधन: 21 दिसंबर 1982

    अभी तो मैं जवान हूँ

    हवा भी ख़ुश गवार है

    गुलों पे भी निखार है

    तरन्नुम ए हज़ार है

    बहार पुर बहार है

    कहाँ चला है साक़िया

    इधर तो लौट इधर तो आ

    अरे ये देखता है क्या

    उठा सुबू सुबू उठा

    सुबू उठा प्याला भर

    प्याला भर के दे इधर

    चमन की सम्त कर नज़र

    समाँ तो देख बे ख़बर

    वो काली काली बदलियाँ

    उफ़ुक़ पे हो गईं अयाँ

    वो इक हुजूम ए मय कशाँ

    है सू ए मय कदा रवाँ

    ये क्या गुमाँ है बद गुमाँ

    समझ न मुझ को ना तवाँ

    ख़याल ए ज़ोहद अभी कहाँ

    अभी तो मैं जवान हूँ

    इबादतों का ज़िक्र है

    नजात की भी फ़िक्र है

    जुनून है सवाब का

    ख़याल है अज़ाब का

    मगर सुनो तो शैख़ जी

    अजीब शय हैं आप भी

    भला शबाब ओ आशिक़ी

    अलग हुए भी हैं कभी

    हसीन जल्वा रेज़ हों

    अदाएँ फ़ित्ना ख़ेज़ हों

    हवाएँ इत्र बेज़ हों

    तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हों

    निगार हा ए फ़ित्नागर

    कोई इधर कोई उधर

    उभारते हों ऐश पर

    तो क्या करे कोई बशर

    चलो जी क़िस्सा मुख़्तसर

    तुम्हारा नुक़्ता ए नज़र

    दुरुस्त है तो हो मगर

    अभी तो मैं जवान हूँ

    ये गश्त कोहसार की

    ये सैर जू ए बार की

    ये बुलबुलों के चहचहे

    ये गुल रुख़ों के क़हक़हे

    किसी से मेल हो गया

    तो रंज ओ फ़िक्र खो गया

    कभी जो बख़्त सो गया

    ये हँस गया वो रो गया

    ये इश्क़ की कहानियाँ

    ये रस भरी जवानियाँ

    उधर से मेहरबानियाँ

    इधर से लन तरानियाँ

    ये आसमान ये ज़मीं

    नज़ारा हा ए दिल नशीं

    इन्हें हयात आफ़रीं

    भला मैं छोड़ दूँ यहीं

    है मौत इस क़दर क़रीं

    मुझे न आएगा यक़ीं

    नहीं नहीं अभी नहीं

    अभी तो मैं जवान हूँ

    न ग़म कुशूद ओ बस्त का

    बुलंद का न पस्त का

    न बूद का न हस्त का

    न वादा ए अलस्त का

    उम्मीद और यास गुम

    हवास गुम क़यास गुम

    नज़र से आस पास गुम

    हमा बजुज़ गिलास गुम

    न मय में कुछ कमी रहे

    क़दह से हमदमी रहे

    नशिस्त ये जमी रहे

    यही हमा हमी रहे

    वो राग छेड़ मुतरिबा

    तरब फ़ज़ा, अलम रुबा

    असर सदा ए साज़ का

    जिगर में आग दे लगा

    हर एक लब पे हो सदा

    न हाथ रोक साक़िया

    पिलाए जा पिलाए जा

    अभी तो मैं जवान हूँ

    मख़दूम मुहिउद्दीन

    मख़दूम मुहिउद्दीन का जन्म 4 फ़रवरी 1908 को हैदराबाद में हुआ. शायरी के साथ साथ समकालीन राजनीति और आज़ादी की लड़ाई में भी भाग लिया. हिन्दुस्तानी फीचर फिल्म्स में भी गीतकार क तौर पर भी सक्रिय रहे.

    निधन : 1969

    मुलाक़ात

    मैं आफ़्ताब पी गया हूँ

    साँस और बढ़ गई है

    तिश्नगी ही तिश्नगी

    तू सर ज़मीन ए इत्र ओ नूर से उतर के

    आफ़्ताब बन के आ गई

    बिलोर का जहाज़

    अब्र से परे

    रवाँ रवाँ

    इधर अँधेरी रात है

    शफ़क़ की तेग़ ए सुर्ख़ उस तरफ़

    तमाम आसमाँ

    शहाब ही शहाब है

    गुलाल ही गुलाल है

    सितारा हम नशीं है

    माह हम नफ़स है

    साज़ ए जाँ नवाज़ साथ है

    गुरेज़ पा सफ़र का

    एक एक पल है

    जावेदाँ

    इलाही ये सफ़र कभी न ख़त्म हो

    आज की रात न जा

    रात आई है बहुत रातों के ब'अद आई है

    देर से दूर से आई है मगर आई है

    मरमरीं सुब्ह के हाथों में छलकता हुआ जाम आएगा

    रात टूटेगी उजालों का पयाम आएगा

    आज की रात न जा

    ज़िंदगी लुत्फ़ भी है ज़िंदगी आज़ार भी है

    साज़ ओ आहंग भी ज़ंजीर की झंकार भी है

    ज़िंदगी दीद भी है हसरत ए दीदार भी है

    ज़हर भी आब ए हयात ए लब ओ रुख़्सार भी है

    ज़िंदगी ख़ार भी है ज़िंदगी दार भी है

    आज की रात न जा

    आज की रात बहुत रातों के ब'अद आई है

    कितनी फ़र्ख़न्दा है शब कितनी मुबारक है सहर

    वक़्फ़ है मेरे लिए तेरी मोहब्बत की नज़र

    आज की रात न जा

    चाँद तारों का बन

    मोम की तरह जलते रहे हम शहीदों के तन

    रात भर झिलमिलाती रही शम ए सुब्ह ए वतन

    रात भर जगमगाता रहा चाँद तारों का बन

    तिश्नगी थी मगर

    तिश्नगी में भी सरशार थे

    प्यासी आँखों के ख़ाली कटोरे लिए

    मुंतज़िर मर्द ओ ज़न

    मस्तियाँ ख़त्म, मद होशियाँ ख़त्म थीं, ख़त्म था बाँकपन

    रात के जगमगाते दहकते बदन

    सुब्ह दम एक दीवार ए ग़म बन गए

    ख़ार ज़ार ए अलम बन गए

    रात की शह रगों का उछलता लहू

    जू ए ख़ूँ बन गया

    कुछ इमामान ए सद मक्र ओ फ़न

    उन की साँसों में अफ़ई की फुन्कार थी

    उन के सीने में नफ़रत का काला धुआँ

    इक कमीं गाह से

    फेंक कर अपनी नोक ए ज़बाँ

    ख़ून ए नूर ए सहर पी गए

    रात की तलछटें हैं अंधेरा भी है

    सुब्ह का कुछ उजाला भी है

    हमदमो!

    हाथ में हाथ दो

    सू ए मंज़िल चलो

    मंज़िलें प्यार की

    मंज़िलें दार की

    कू ए दिलदार की मंज़िलें

    दोश पर अपनी अपनी सलीबें उठाए चलो

    असरार उल हक़ मजाज़

    असरार-उल-हक़ मजाज़ का जन्म उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में 19 अक्टूबर 1911 में हुआ. मजाज़ तरक्की पसन्द तहरीक के इन्कलाबी शायर रहे. गीतकार जावेद अख़्तर इनके भांजे हैं. इनकी शायरी में आज़ादी के लिए छटपटाहट, जद्द ओ जेहद के साथ साथ रोमानियत का भी पुट है जो इनकी शैली को अलग रंग देता है. नज़्म की रिवायत को मजाज़ ने ख़ास रंग से नवाज़ा

    निधन : 1955

    आवारा

    शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ

    जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ

    ग़ैर की बस्ती है कब तक दर ब दर मारा फिरूँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी

    रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी

    मेरे सीने पर मगर रखी हुई शमशीर सी

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल

    जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल

    आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    फिर वो टूटा इक सितारा फिर वो छूटी फुल जड़ी

    जाने किस की गोद में आई ये मोती की लड़ी

    हूक सी सीने में उठ्ठी चोट सी दिल पर पड़ी

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    रात हँस हँस कर ये कहती है कि मय ख़ाने में चल

    फिर किसी शहनाज़ ए लाला रुख़ के काशाने में चल

    ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    हर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ रानाइयाँ

    हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयाँ

    बढ़ रही हैं गोद फैलाए हुए रुस्वाइयाँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    रास्ते में रुक के दम ले लूँ मिरी आदत नहीं

    लौट कर वापस चला जाऊँ मिरी फ़ितरत नहीं

    और कोई हम नवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    मुंतज़िर है एक तूफ़ान ए बला मेरे लिए

    अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए

    पर मुसीबत है मिरा अहद ए वफ़ा मेरे लिए

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    जी में आता है कि अब अहद ए वफ़ा भी तोड़ दूँ

    उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ

    हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर ए हवा भी तोड़ दूँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब

    जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब

    जैसे मुफ़्लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आख़िर क्या करूँ

    मेरा पैमाना छलक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ

    ज़ख़्म सीने का महक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    जी में आता है ये मुर्दा चाँद तारे नोच लूँ

    इस किनारे नोच लूँ और उस किनारे नोच लूँ

    एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने

    सैकड़ों सुल्तान ए जाबिर हैं नज़र के सामने

    सैकड़ों चंगेज़ ओ नादिर हैं नज़र के सामने

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    ले के इक चंगेज़ के हाथों से ख़ंजर तोड़ दूँ

    ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ

    कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ

    उस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ

    तख़्त ए सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र ए सुल्ताँ फूँक दूँ

    ऐ ग़म ए दिल क्या करूँ ऐ वहशत ए दिल क्या करूँ

    तआरुफ़

    ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं

    जिंस ए उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं

    इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी

    फ़ित्ना ए अक़्ल से बे ज़ार हूँ मैं

    ख़्वाब ए इशरत में हैं अर्बाब ए ख़िरद

    और इक शाइर ए बेदार हूँ मैं

    छेड़ती है जिसे मिज़राब ए अलम

    साज़ ए फ़ितरत का वही तार हूँ मैं

    रंग नज़्ज़ारा ए क़ुदरत मुझ से

    जान ए रंगीनी ए कोहसार हूँ मैं

    नश्शा ए नर्गिस ए ख़ूबाँ मुझ से

    ग़ाज़ा ए आरिज़ ओ रुख़्सार हूँ मैं

    ऐब जू हाफ़िज़ ओ ख़य्याम मैं था

    हाँ कुछ इस का भी गुनहगार हूँ मैं

    ज़िंदगी क्या है गुनाह ए आदम

    ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं

    रश्क ए सद होश है मस्ती मेरी

    ऐसी मस्ती है कि हुश्यार हूँ मैं

    ले के निकला हूँ गुहर हा ए सुख़न

    माह ओ अंजुम का ख़रीदार हूँ मैं

    दैर ओ काबा में मिरे ही चर्चे

    और रुस्वा सर ए बाज़ार हूँ मैं

    कुफ़्र ओ इल्हाद से नफ़रत है मुझे

    और मज़हब से भी बे ज़ार हूँ मैं

    अहल ए दुनिया के लिए नंग सही

    रौनक़ ए अंजुमन ए यार हूँ मैं

    ऐन इस बे सर ओ सामानी में

    क्या ये कम है कि गुहर बार हूँ मैं

    मेरी बातों में मसीहाई है

    लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं

    मुझ से बरहम है मिज़ाज ए पीरी

    मुजरिम ए शोख़ी ए गुफ़्तार हूँ मैं

    हूर ओ ग़िल्माँ का यहाँ ज़िक्र नहीं

    नौ ए इंसाँ का परस्तार हूँ मैं

    महफ़िल ए दहर पे तारी है जुमूद

    और वारफ़्ता ए रफ़्तार हूँ मैं

    इक लपकता हुआ शोला हूँ मैं

    एक चलती हुई तलवार हूँ मैं

    मज़दूरों का गीत

    मेहनत से ये माना चूर हैं हम

    आराम से कोसों दूर हैं हम

    पर लड़ने पर मजबूर हैं हम

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    गो आफ़त ओ ग़म के मारे हैं

    हम ख़ाक नहीं हैं तारे हैं

    इस जग के राज दुलारे हैं

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    बनने की तमन्ना रखते हैं

    मिटने का कलेजा रखते हैं

    सरकश में सर ऊँचा रखते हैं

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    हर चंद कि हैं अदबार में हम

    कहते हैं खुले बाज़ार में हम

    हैं सब से बड़े संसार में हम

    मज़दूर में हम मज़दूर हैं हम

    जिस सम्त बढ़ा देते हैं क़दम

    झुक जाते हैं शाहों के परचम

    सावंत हैं हम बलवंत हैं हम

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    गो जान पे लाखों बार बनी

    कर गुज़रे मगर जो जी में ठनी

    हम दिल के खरे बातों के धनी

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    हम क्या हैं कभी दिखला देंगे

    हम नज़्म ए कुहन को ढा देंगे

    हम अर्ज़ ओ समा को हिला देंगे

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    हम जिस्म में ताक़त रखते हैं

    सीनों में हरारत रखते हैं

    हम अज़्म ए बग़ावत रखते हैं

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    जिस रोज़ बग़ावत कर देंगे

    दुनिया में क़यामत कर देंगे

    ख़्वाबों को हक़ीक़त कर देंगे

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    हम क़ब्ज़ा करेंगे दफ़्तर पर

    हम वार करेंगे क़ैसर पर

    हम टूट पड़ेंगे लश्कर

    मज़दूर हैं हम मज़दूर हैं हम

    अली सरदार जाफ़री

    अली सरदार जाफ़री का जन्म 29 नवम्बर, 1913 को बलरामपुर में हुआ. उनकी नज़्मों में अपने दौर की तत्कालीन जीवन की पेचीदगी साफ़ झलकती है| उन्होंने लेखन के अलावा संपादन का भी बहुत बेहतरीन काम किया। उनके द्वारा संपादित मीर, ग़ालिब और कबीर की पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हुईं। उन्हें भारतीय साहित्य के सर्वोच्च सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से नवाजा गया।

    निधन: 2000

    मेरा सफ़र

    ''हम चू सब्ज़ा बार हा रोईदा एम''

    (रूमी)

    फिर इक दिन ऐसा आएगा

    आँखों के दिए बुझ जाएँगे

    हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे

    और बर्ग ए ज़बाँ से नुत्क़ ओ सदा

    की हर तितली उड़ जाएगी

    इक काले समुंदर की तह में

    कलियों की तरह से खिलती हुई

    फूलों की तरह से हँसती हुई

    सारी शक्लें खो जाएँगी

    ख़ूँ की गर्दिश दिल की धड़कन

    सब रागनियाँ सो जाएँगी

    और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर

    हँसती हुई हीरे की ये कनी

    ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं

    इस की सुब्हें इस की शामें

    बे जाने हुए बे समझे हुए

    इक मुश्त ए ग़ुबार ए इंसाँ पर

    शबनम की तरह रो जाएँगी

    हर चीज़ भुला दी जाएगी

    यादों के हसीं बुत ख़ाने से

    हर चीज़ उठा दी जाएगी

    फिर कोई नहीं ये पूछेगा

    'सरदार' कहाँ है महफ़िल में

    लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा

    बच्चों के दहन से बोलूँगा

    चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा

    जब बीज हँसेंगे धरती में

    और कोंपलें अपनी उँगली से

    मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी

    मैं पत्ती पत्ती कली कली

    अपनी आँखें फिर खोलूँगा

    सरसब्ज़ हथेली पर ले कर

    शबनम के क़तरे तौलूँगा

    मैं रंग ए हिना आहंग ए ग़ज़ल

    अंदाज़ ए सुख़न बन जाऊँगा

    रुख़्सार ए उरूस ए नौ की तरह

    हर आँचल से छिन जाऊँगा

    जाड़ों की हवाएँ दामन में

    जब फ़स्ल ए ख़िज़ाँ को लाएँगी

    रह रौ के जवाँ क़दमों के तले

    सूखे हुए पत्तों से मेरे

    हँसने की सदाएँ आएँगी

    धरती की सुनहरी सब नदियाँ

    आकाश की नीली सब झीलें

    हस्ती से मिरी भर जाएँगी

    और सारा ज़माना देखेगा

    हर क़िस्सा मिरा अफ़्साना है

    हर आशिक़ है 'सरदार' यहाँ

    हर माशूक़ा 'सुल्ताना' है

    मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ

    अय्याम के अफ़्सूँ ख़ाने में

    मैं एक तड़पता क़तरा हूँ

    मसरूफ़ ए सफ़र जो रहता है

    माज़ी की सुराही के दिल से

    मुस्तक़बिल के पैमाने में

    मैं सोता हूँ और जागता हूँ

    और जाग के फिर सो जाता हूँ

    सदियों का पुराना खेल हूँ मैं

    मैं मर के अमर हो जाता हूँ

    प्यास भी एक समंदर है

    प्यास भी एक समुंदर है समुंदर की तरह

    जिस में हर दर्द की धार

    जिस में हर ग़म की नदी मिलती है

    और हर मौज

    लपकती है किसी चाँद से चेहरे की तरफ़

    नींद

    रात ख़ूब सूरत है

    नींद क्यूँ नहीं आती

    दिन की ख़शम गीं नज़रें

    खो गईं सियाही में

    आहनी कड़ों का शोर

    बेड़ियों की झंकारें

    क़ैदियों की साँसों की

    तुंद ओ तेज़ आवाज़ें

    जेलरों की बदकारी

    गालियों की बौछारें

    बेबसी की ख़ामोशी

    ख़ामुशी की फ़रियादें

    तह नशीं अंधेरे में

    शब की शोख़ दोशीज़ा

    ख़ार दार तारों को

    आहनी हिसारों को

    पार कर के आई है

    भर के अपने आँचल में

    जंगलों की ख़ुशबुएँ

    ठण्डकें पहाड़ों की

    मेरे पास लाई है

    नील गूँ जवाँ सीना

    कहकशाँ की पेशानी

    नीम चाँद का जोड़ा

    मख़मलीं अंधेरे का

    पैरहन लरज़ता है

    वक़्त की सियह ज़ुल्फ़ें

    ख़ामुशी के शानों पर

    ख़म ब ख़म महकती हैं

    और ज़मीं के होंटों पर

    नर्म शबनमी बोसे

    मोतियों के दाँतों से

    खिलखिला के हँसते हैं

    रात ख़ूब सूरत है

    नींद क्यूँ नहीं आती

    रात पेंग लेती है

    चाँदनी के झूले में

    आसमान पर तारे

    नन्हे नन्हे हाथों से

    बुन रहे हैं जादू सा

    झींगुरों की आवाज़ें

    कह रही हैं अफ़्साना

    दूर जेल के बाहर

    बज रही है शहनाई

    रेल अपने पहियों से

    लोरियाँ सुनाती है

    रात ख़ूब सूरत है

    नींद क्यूँ नहीं आती

    रोज़ रात को यूँही

    नींद मेरी आँखों से

    बेवफ़ाई करती है

    मुझ को छोड़ कर तन्हा

    जेल से निकलती है

    बम्बई की बस्ती में

    मेरे घर का दरवाज़ा

    जा के खटखटाती है

    एक नन्हे बच्चे की

    अँखड़ियों के बचपन में

    मीठे मीठे ख़्वाबों का

    शहद घोल देती है

    इक हसीं परी बन कर

    लोरियाँ सुनाती है

    पालना हिलाती है

    अब भी रौशन हैं

    अब भी रौशन हैं वही दस्त हिना आलूदा

    रेग ए सहरा है न क़दमों के निशाँ बाक़ी हैं

    ख़ुश्क अश्कों की नदी ख़ून की ठहरी हुई धार

    भूले बिसरे हुए लम्हात के सूखे हुए ख़ार

    हाथ उठाए हुए अफ़्लाक की जानिब अश्जार

    कामरानी ही की गिनती न हज़ीमत का शुमार

    सिर्फ़ इक दर्द का जंगल है फ़क़त हू का दयार

    जब गुज़रती है मगर ख़्वाबों के वीराने से

    अश्क आलूदा तबस्सुम के चराग़ों की क़तार

    जगमगा उठते हैं गेसू ए सबा आलूदा

    टोलियाँ आती हैं नौ उम्र तमन्नाओं की

    दश्त ए बे रंग ए ख़मोशी में मचाती हुई शोर

    फूल माथे से बरसते हैं नज़र से तारे

    एक इक गाम पे जादू के महल बनते हैं

    नद्दियाँ बहती हैं आँचल से हवा चलती है

    पत्तियाँ हँसती हैं उड़ता है किरन का सोना

    ऐसा लगता है कि बे रहम नहीं है दुनिया

    ऐसा लगता है कि बे ज़ुल्म ज़माने के हैं हाथ

    बेवफ़ाई भी हो जिस तरह वफ़ा आलूदा

    और फिर शाख़ों से तलवारें बरस पड़ती हैं

    जब्र जाग उठता है सफ़्फ़ाकी जवाँ होती है

    साए जो सब्ज़ थे पड़ जाते हैं पल भर में सियाह

    और हर मोड़ पे इफ़्रीतों का होता है गुमाँ

    कोई भी राह हो मक़्तल की तरफ़ मुड़ती है

    दिल में ख़ंजर के उतरने की सदा आती है

    तीरगी ख़ूँ के उजाले में नहा जाती है

    शाम ए ग़म होती है नमनाक ओ ज़िया आलूदा

    यही मज़लूमों की जीत और यही ज़ालिम की शिकस्त

    कि तमन्नाएँ सलीबों से उतर आती हैं

    अपनी क़ब्रों से निकलती हैं मसीहा बन कर

    क़त्ल गाहों से वो उठती हैं दुआओं की तरह

    दश्त ओ दरिया से गुज़रती हैं हवाओं की तरह

    मोहर जब लगती है होंटों पे ज़बाँ पर ताले

    क़ैद जब होती है सीने में दिलों की धड़कन

    रूह चीख़ उठती है हिलते हैं शजर और हजर

    ख़ामुशी होती है कुछ और नवा आलूदा

    सर कशी ढूँढती है ज़ौक़ ए गुनहगारी को

    ख़ुद से शर्मिंदा नहीं औरों से शर्मिंदा नहीं

    ये मिरा दिल कि है मासूम ओ ख़ता आलूद

    निवाला

    माँ है रेशम के कार ख़ाने में

    बाप मसरूफ़ सूती मिल में है

    कोख से माँ की जब से निकला है

    बच्चा खोली के काले दिल में है

    जब यहाँ से निकल के जाएगा

    कार ख़ानों के काम आएगा

    अपने मजबूर पेट की ख़ातिर

    भूक सरमाए की बढ़ाएगा

    हाथ सोने के फूल उगलेंगे

    जिस्म चाँदी का धन लुटाएगा

    खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन

    ख़ून उस का दिए जलाएगा

    ये जो नन्हा है भोला भाला है

    सिर्फ़ सरमाए का निवाला है

    पूछती है ये उस की ख़ामोशी

    कोई मुझ को बचाने वाला है

    बम्बई

    सब्ज़ ओ शादाब साहिल

    रेत के और पानी के गीत

    मुस्कुराते समुंदर का सय्याल चेहरा

    चाँद सूरज के टुकड़े

    लाखों आईने मौजों में बिखरे हुए

    कश्तियाँ बादबानों के आँचल में अपने सरों को छुपाए हुए

    जाल नीले समुंदर में डूबे हुए

    ख़ाक पर सूखती मछलियाँ

    घाटनें पत्थरों की वो तरशी हुई मूरतें

    एलीफैंटा के ग़ारों से जो रक़्स करती निकल आई हैं

    रातें आँखों में जादू का काजल लगाए हुए

    शामें नीली हवा की नमी में नहाई हुई

    सुब्हें शबनम के बारीक मल्बूस पहने हुए

    ख़्वाब आलूद कोहसार के सिलसिले

    जंगलों के घने साए

    मिट्टी की ख़ुश्बू

    महकती हुई कोंपलें

    पत्थरों की चट्टानें

    अपनी बाँहों को बहर ए अरब में समेटे हुए

    वो चटानों पे रक्खे हुए ऊँचे ऊँचे महल

    चिकनी दीवारों पर

    क़त्ल, ग़ारत गरी, बुज़दिली, नफ़आ ख़ोरी की परछाइयाँ

    रेशमी सारियाँ

    मख़मलीं जिस्म, ज़हरीले नाख़ूनों की बिल्लियाँ

    ख़ून की प्यास खादी के पैराहनों में

    जगमगाते हुए क़ुमक़ुमे, पार्क, बाग़ात और म्यूजियम

    संग ए मरमर के बुत, धात के आदमी

    सर्द ओ संगीन अज़्मत के पैकर

    आँखें बे नूर, लब बे सदा, हाथ बे जान

    हिन्द की बेबसी और महकूमी की यादगारें

    सैकड़ों साल के गर्म आतिश कदे

    ज़र ओ संदल की आग

    ऊद ओ अम्बर के शोले

    ''चालें'' अफ़्लास की गर्द, तारीकियाँ

    गंदगी और उफ़ूनत

    घूरे सड़ते हुए

    रहगुज़ारों पे सोते हुए आदमी

    टाट पर, और काग़ज़ के टुकड़ों पे फैले हुए जिस्म, सूखे हुए हाथ

    ज़ख़्म की आस्तीनों से निकली हुई हड्डियाँ

    कोढ़ीयों के हुजूम

    ''खोलीयाँ'' जैसे अंधे कुएँ

    गर्म सीनों, मोहब्बत की गोदों से महरूम बच्चे

    बकरीयों की तरह रस्सियों से बंधे

    उन की माएँ अभी कार ख़ानों से वापस नहीं आई हैं

    चिमनियाँ भुतनीयों की तरह बाल खोले हुए

    कार ख़ाने गरजते हुए

    ख़ून की और पसीने की बू में शराबोर

    ख़ून सरमाया दारी के नालों में बहता हुआ

    भट्टियों में उबलता हुआ

    सर्द सिक्कों की सूरत में जमता हुआ

    सोने चाँदी में तब्दील होता हुआ

    बंक की खिड़कियों में चराग़ाँ

    सड़कें दिन रात चलती हुई

    साँस लेती हुई

    आदमी ख़्वाहिशों के अंधेरे नशेबों में सैलाब की तरह बहते हुए

    चोर बाज़ार, सट्टा, जुआरी

    रेस के घोड़े, सरकार के मंत्री

    सिनेमा, लड़कियाँ, ऐक्टर, मसख़रे

    एक इक चीज़ बिकती हुई

    गाजरें, मूलियाँ, ककड़ियाँ

    जिस्म और ज़ेहन और शायरी

    इल्म, हिकमत, सियासत

    अँखड़ियों और होंटों के नीलाम घर

    आरिज़ों की दुकानें

    बाज़ुओं और सीनों के बाज़ार

    पिंडलियों और रानों के गोदाम

    देश भगती के दलाल खादी के ब्योपारी

    अक़्ल, इंसाफ़, पाकीज़गी, और सदाक़त के ताजिर

    ये है हिन्दोस्ताँ की उरूसुल बिलाद

    सरज़मीन ए दकन की दुल्हन बम्बई

    एक जन्नत जहन्नम की आग़ोश में

    या इसे यूँ कहूँ

    एक दोज़ख़ है फ़िरदौस की गोद में

    ये मिरा शहर है

    गो मिरा जिस्म इस ख़ाक दाँ से नहीं

    मेरी मिट्टी यहाँ से बहुत दूर गंगा के पानी से गूंधी गई है

    मेरे दिल में हिमाला के फूलों की ख़ुश्बू बसी है

    फिर भी ऐ बम्बई तू मिरा शहर है

    तेरे बाग़ात में मेरी यादों के कितने ही रम ख़ूर्दा आहू

    मैं ने तेरे पहाड़ों की ठंडी हवा खाई है

    तेरी शफ़्फ़ाफ़ झीलों का पानी पिया है

    तेरे साहिल की हँसती हुई सीपियाँ मुझ को पहचानती हैं

    नारियल के दरख़्तों की लम्बी क़तारें

    तेरे नीले समुंदर के तूफ़ान और क़हक़हे

    तेरे दिलकश मज़ाफ़ात के सब्ज़ा ज़ारों की ख़ामोशियाँ

    रंगतें, निकहतें, सब मुझे जानती हैं

    इस जगह मेरे ख़्वाबों को आँखें मिलीं

    और मेरी मोहब्बत के बोसों ने अपने हसीन होंट हासिल किए

    बम्बई

    तेरे सीने में सरमाए का ज़हर भी

    इंक़लाब और बग़ावत का तिरयाक़ भी

    तेरे पहलू में फ़ौलाद का क़ल्ब है

    तेरी नब्ज़ों में मज़दूर ओ मल्लाह का ख़ून है

    तेरी आग़ोश में कार ख़ानों की दुनिया बसी है

    सेवरी, लाल बाग़ और परेल

    और यहाँ तेरे बेटे तिरी बेटियाँ

    इन की दिखती हुई उँगलियाँ

    सूत के एक इक तार से

    मुल्क के क़ातिलों का कफ़न बुन रही हैं

    जाँ निसार अख़्तर

    जां निसार अख़्तर का जन्म 18 फ़रवरी 1914, ग्वालियर में हुआ. तरक्कीपसंद शायरी में सीधा दखल रखते थे फिर भी बुनियादी तौर पर एक रूमानी लहजे के शायर थे.

    निधन: 1976

    आख़िरी मुलाक़ात

    मत रोको इन्हें पास आने दो

    ये मुझ से मिलने आए हैं

    मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

    कुछ इतने धुँदले साए हैं

    दो पाँव बने हरियाली पर

    एक तितली बैठी डाली पर

    कुछ जगमग जुगनू जंगल से

    कुछ झूमते हाथी बादल से

    ये एक कहानी नींद भरी

    इक तख़्त पे बैठी एक परी

    कुछ गिन गिन करते परवाने

    दो नन्हे नन्हे दस्ताने

    कुछ उड़ते रंगीं ग़ुबारे

    बब्बू के दुपट्टे के तारे

    ये चेहरा बन्नो बूढ़ी का

    ये टुकड़ा माँ की चूड़ी का

    ये मुझ से मिलने आए हैं

    मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

    कुछ इतने धुँदले साए हैं

    अलसाई हुई रुत सावन की

    कुछ सौंधी ख़ुश्बू आँगन की

    कुछ टूटी रस्सी झूले की

    इक चोट कसकती कूल्हे की

    सुलगी सी अँगीठी जाड़ों में

    इक चेहरा कितनी आड़ों में

    कुछ चाँदनी रातें गर्मी की

    इक लब पर बातें नरमी की

    कुछ रूप हसीं काशानों का

    कुछ रंग हरे मैदानों का

    कुछ हार महकती कलियों के

    कुछ नाम वतन की गलियों के

    मत रोको इन्हें पास आने दो

    ये मुझ से मिलने आए हैं

    मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

    कुछ इतने धुँदले साए हैं

    कुछ चाँद चमकते गालों के

    कुछ भँवरे काले बालों के

    कुछ नाज़ुक शिकनें आँचल की

    कुछ नर्म लकीरें काजल की

    इक खोई कड़ी अफ़्सानों की

    दो आँखें रौशन दानों की

    इक सुर्ख़ दुलाई गोट लगी

    क्या जाने कब की चोट लगी

    इक छल्ला फीकी रंगत का

    इक लॉकेट दिल की सूरत का

    रूमाल कई रेशम से कढ़े

    वो ख़त जो कभी मैं ने न पढ़े

    मत रोको इन्हें पास आने दो

    ये मुझ से मिलने आए हैं

    में ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

    कुछ इतने धुँदले साए हैं

    कुछ उजड़ी माँगें शामों की

    आवाज़ शिकस्ता जामों की

    कुछ टुकड़े ख़ाली बोतल के

    कुछ घुँगरू टूटी पायल के

    कुछ बिखरे तिनके चिलमन के

    कुछ पुर्ज़े अपने दामन के

    ये तारे कुछ थर्राए हुए

    ये गीत कभी के गाए हुए

    कुछ शेर पुरानी ग़ज़लों के

    उनवान अधूरी नज़्मों के

    टूटी हुई इक अश्कों की लड़ी

    इक ख़ुश्क क़लम इक बंद घड़ी

    मत रोको इन्हें पास आने दो

    ये मुझ से मिलने आए हैं

    मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

    कुछ इतने धुँदले साए हैं

    कुछ रिश्ते टूटे टूटे से

    कुछ साथी छूटे छूटे से

    कुछ बिगड़ी बिगड़ी तस्वीरें

    कुछ धुँदली धुँदली तहरीरें

    कुछ आँसू छलके छलके से

    कुछ मोती ढलके ढलके से

    कुछ नक़्श ये हैराँ हैराँ से

    कुछ अक्स ये लर्ज़ां लर्ज़ां से

    कुछ उजड़ी उजड़ी दुनिया में

    कुछ भटकी भटकी आशाएँ

    कुछ बिखरे बिखरे सपने हैं

    ये ग़ैर नहीं सब अपने हैं

    मत रोको इन्हें पास आने दो

    ये मुझ से मिलने आए हैं

    मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ

    कुछ इतने धुँदले साए हैं

    मज़दूर औरतें

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    चेहरों पे ख़ाक धूल के पोंछे हुए निशाँ

    तू और रंग ए ग़ाज़ा ओ गुलगूना ओ शहाब

    सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    मैले फटे लिबास हैं महरूम ए शास्त ओ शू

    तू और इत्र ओ अम्बर ओ मुश्क ओ अबीर ओ ऊद

    मज़दूर के भी ख़ून की आती है इस में बू

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    तन ढाँकने को ठीक से कपड़ा नहीं है पास

    तू और हरीर ओ अतलस ओ कम ख़्वाब ओ परनियाँ

    चुभता नहीं बदन पे तिरे रेशमी लिबास

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    चाँदी का कोई गंझ न सोने का कोई तार

    तू और हैकल ए ज़र ओ आवेज़ा ए गुहर

    सीने पे कोई दम भी धड़कता है तेरा हार

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    सदियों से हर निगाह है फ़ाक़ों की रहगुज़र

    तू और ज़ियाफ़तों में ब सद नाज़ जल्वा गर

    किस के लहू से गर्म है ये मेज़ की बहार

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    तारीक मक़बरों से मकाँ इन के कम नहीं

    तू और ज़ेब ओ ज़ीनत ए अलवान ए ज़र निगार

    क्या तेरे क़स्र ए नाज़ की हिलती नहीं ज़मीं

    गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें

    मेहनत ही उन का साज़ है मेहनत ही उन का राग

    तू और शुग़्ल ए रामिश ओ रक़्स ओ रबाब ओ रंग

    क्या तेरे साज़ में भी दहकती है कोई आग

    गुलनार देखती हैं ये मज़दूर औरतें

    मेहनत पे अपने पेट से मजबूर औरतें

    हसीं आग

    तेरी पेशानी ए रंगीं में झलकती है जो आग

    तेरे रुख़्सार के फूलों में दमकती है जो आग

    तेरे सीने में जवानी की दहकती है जो आग

    ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

    तेरी आँखों में फ़रोज़ाँ हैं जवानी के शरार

    लब ए गुल रंग पे रक़्साँ हैं जवानी के शरार

    तेरी हर साँस में ग़लताँ हैं जवानी के शरार

    ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

    हर अदा में है जवाँ आतिश ए जज़्बात की रौ

    ये मचलते हुए शोले ये तड़पती हुई लौ

    आ मिरी रूह पे भी डाल दे अपना परतव

    ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

    कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम

    कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम

    कैसी धुँदली मिरी राहें हैं तुझे क्या मालूम

    ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

    आ कि ज़ुल्मत में कोई नूर का सामाँ कर लूँ

    अपने तारीक शबिस्ताँ को शबिस्ताँ कर लूँ

    इस अँधेरे में कोई शम्अ फ़रोज़ाँ कर लूँ

    ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

    बार ए ज़ुल्मात से सीने की फ़ज़ा है बोझल

    न कोई साज़ ए तमन्ना न कोई सोज़ ए अमल

    आ कि मशअल से तिरी मैं भी जला लूँ मशअल

    ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

    साहिर लुधियानवी

    साहिर लुधियानवी का जन्म 8 मार्च 1921 को लुधियाना में हुआ. बेहतरीन संजीदा गीतकार होने के साथ ही शायर के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई. उनके गीतों में प्रेम, अलगाव, देशप्रेम और मानवीय संवेदनाओं का हर पहलू दिखाई देता है. साहिर वे पहले गीतकार हैं जिन्हें अपनी रचनाओं के लिए रॉयल्टी मिलती थी

    निधन: 1980

    आओ कि कोई ख़्वाब बुनें

    आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते

    वर्ना ये रात आज के संगीन दौर की

    डस लेगी जान ओ दिल को कुछ ऐसे कि जान ओ दिल

    ता उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें

    गो हम से भागती रही ये तेज़ गाम उम्र

    ख़्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र

    ज़ुल्फ़ों के ख़्वाब होंटों के ख़्वाब और बदन के ख़्वाब

    मेराज ए फ़न के ख़्वाब कमाल ए सुख़न के ख़्वाब

    तहज़ीब ए ज़िंदगी के फ़रोग़ ए वतन के ख़्वाब

    ज़िंदाँ के ख़्वाब कूचा ए दार ओ रसन के ख़्वाब

    ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे

    ये ख़्वाब ही तो अपने अमल की असास थे

    ये ख़्वाब मर गए हैं तो बे रंग है हयात

    यूँ है कि जैसे दस्त ए तह ए संग है हयात

    आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते

    वर्ना ये रात आज के संगीन दौर की

    डस लेगी जान ओ दिल को कुछ ऐसे कि जान ओ दिलता उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकीं

    नाकामी

    मैं ने हर चंद ग़म ए इश्क़ को खोना चाहा

    ग़म ए उल्फ़त ग़म ए दुनिया में समोना चाहा

    वही अफ़्साने मिरी सम्त रवाँ हैं अब तक

    वही शोले मिरे सीने में निहाँ हैं अब तक

    वही ब सूद ख़लिश है मिरे सीने में हनूज़

    वही बेकार तमन्नाएँ जवाँ हैं अब तक

    वही गेसू मिरी रातों पे हैं बिखरे बिखरे

    वही आँखें मिरी जानिब निगराँ हैं अब तक

    कसरत ए ग़म भी मिरे ग़म का मुदावा न हुई

    मेरे बेचैन ख़यालों को सुकून मिल न सका

    दिल ने दुनिया के हर इक दर्द को अपना तो लिया

    मुज़्महिल रूह को अंदाज़ ए जुनूँ मिल न सका

    मेरी तख़य्युल का शीराज़ ए बरहम है वही

    मेरे बुझते हुए एहसास का आलम है वही

    वही बे जान इरादे वही बे रंग सवाल

    वही बे रूह कशाकश वही बेचैन ख़याल

    आह इस कश्मकश सुब्ह ओ मसा का अंजाम

    मैं भी नाकाम मिरी सई अमल भी नाकाम

    मुझे सोचने दे

    मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़

    अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना

    ज़िंदगी तल्ख़ सही ज़हर सही सम ही सही

    दर्द ओ आज़ार सही जब्र सही ग़म ही सही

    लेकिन इस दर्द ओ ग़म ओ जब्र की वुसअत को तो देख

    ज़ुल्म की छाँव में दम तोड़ती ख़िल्क़त को तो देख

    अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना

    मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़

    जल्सा गाहों में ये दहशत ज़दा सहमे अम्बोह

    रहगुज़ारों पे फ़लाकत ज़दा लोगों के गिरोह

    भूक और प्यास से पज़ मुर्दा सियह फ़ाम ज़मीं

    तीरा ओ तार मकाँ मुफ़लिस ओ बीमार मकीं

    नौ ए इंसाँ में ये सरमाया ओ मेहनत का तज़ाद

    अम्न ओ तहज़ीब के परचम तले क़ौमों का फ़साद

    हर तरफ़ आतिश ओ आहन का ये सैलाब ए आज़ीम

    नित नए तर्ज़ पे होती हुई दुनिया तक़्सीम

    लहलहाते हुए खेतों पे जवानी का समाँ

    और दहक़ान के छप्पर में न बत्ती न धुआँ

    ये फ़लक बोस मिलें दिलकश ओ सीमीं बाज़ार

    ये ग़लाज़त पे झपटते हुए भूके नादार

    दूर साहिल पे वो शफ़्फ़ाफ़ मकानों की क़तार

    सरसराते हुए पर्दों में सिमटते गुलज़ार

    दर ओ दीवार पे अनवार का सैलाब ए रवाँ

    जैसे इक शायर ए मदहोश के ख़्वाबों का जहाँ

    ये सभी क्यूँ है ये क्या है मुझे कुछ सोचने दे

    कौन इंसाँ का ख़ुदा है मुझे कुछ सोचने दे

    अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना

    मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़

    मेरे गीत तुम्हारे हैं

    अब तक मेरे गीतों में उम्मीद भी थी पसपाई भी

    मौत के क़दमों की आहट भी जीवन की अंगड़ाई भी

    मुस्तक़बिल की किरनें भी थीं हाल की बोझल ज़ुल्मत भी

    तूफ़ानों का शोर भी था और ख़्वाबों की शहनाई भी

    आज से मैं अपने गीतों में आतिश पारे भर दूँगा

    मद्धम लचकीली तानों में जीवट धारे भर दूँगा

    जीवन के अँधियारे पथ पर मिशअल ले कर निकलूँगा

    धरती के फैले आँचल में सुर्ख़ सितारे भर दूँगा

    आज से ऐ मज़दूर किसानो मेरे गीत तुम्हारे हैं

    फ़ाक़ा कश इंसानो मेरे जोग बहाग तुम्हारे हैं

    जब तक तुम भूके नंगे हो ये नग़्मे ख़ामोश न होंगे

    जब तक बे आराम हो तुम ये नग़्मे राहत कोश न होंगे

    मुझ को इस का रंज नहीं है लोग मुझे फ़नकार न मानें

    फ़िक्र ओ फ़न के ताजिर मेरे शेरों को अशआर न मानें

    मेरा फ़न मेरी उमीदें आज से तुम को अर्पन हैं

    आज से मेरे गीत तुम्हारे दुख और सुख का दर्पन हैं

    तुम से क़ुव्वत ले कर अब मैं तुम को राह दिखाऊँगा

    तुम परचम लहराना साथी मैं बरबत पर गाऊँगा

    आज से मेरे फ़न का मक़्सद ज़ंजीरें पिघलाना है

    आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊँगा

    आज

    साथियो! मैं ने बरसों तुम्हारे लिए

    चाँद तारों बहारों के सपने बुने

    हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा

    आरज़ूओं के ऐवाँ सजाता रहा

    मैं तुम्हारा मुग़न्नी तुम्हारे लिए

    जब भी आया नए गीत लाता रहा

    आज लेकिन मिरे दामन ए चाक में

    गर्द ए राह ए सफ़र के सिवा कुछ नहीं

    मेरे बरबत के सीने में नग़्मों का दम घुट गया

    तानें चीख़ों के अम्बार में दब गई हैं

    और गीतों के सुर हिचकियाँ बन गए हैं

    मैं तुम्हारा मुग़न्नी हूँ नग़्मा नहीं हूँ

    और नग़्मे की तख़्लीक़ का साज़ ओ सामाँ

    साथियो! आज तुम ने भस्म कर दिया है

    और मैं अपना टूटा हुआ साज़ थामे

    सर्द लाशों के अम्बार को तक रहा हूँ

    मेरे चारों तरफ़ मौत की वहशतें नाचती हैं

    और इंसाँ की हैवानियत जाग उठी है

    बरबरियत के ख़ूँ ख़ार इफ़रीत

    अपने नापाक जबड़ों को खोले

    ख़ून पी पी के ग़ुर्रा रहे हैं

    बच्चे माओं की गोदों में सहमे हुए हैं

    इस्मतें सर बरहना परेशान हैं

    हर तरफ़ शोर ए आह ओ बुका है

    और मैं इस तबाही के तूफ़ान में

    आग और ख़ूँ के हैजान में

    सर निगूँ और शिकस्ता मकानों के मलबे से पुर रास्तों पर

    अपने नग़्मों की झोली पसारे

    दर ब दर फिर रहा हूँ

    मुझ को अम्न और तहज़ीब की भीक दो

    मेरे गीतों की लय मेरा सुर मेरी नय

    मेरे मजरूह होंटों को फिर सौंप दो

    साथियो! मैं ने बरसों तुम्हारे लिए

    इंक़लाब और बग़ावत के नग़्मे अलापे

    अजनबी राज के ज़ुल्म की छाँव में

    सरफ़रोशी के ख़्वाबीदा जज़्बे उभारे

    और उस सुब्ह की राह देखी

    जिस में इस मुल्क की रूह आज़ाद हो

    आज ज़ंजीर ए महकूमियत कट चुकी है

    और इस मुल्क के बहर ओ बर बाम ओ दर

    अजनबी क़ौम के ज़ुल्मत अफ़्शाँ फरेरे की मनहूस छाँव से आज़ाद हैं

    खेत सोना उगलने को बेचैन हैं

    वादियाँ लहलहाने को बेताब हैं

    कोहसारों के सीने में हैजान है

    संग और ख़िश्त बे ख़्वाब व बेदार हैं

    उन की आँखों में तामीर के ख़्वाब हैं

    उन के ख़्वाबों को तकमील का रूप दो

    मुल्क की वादियाँ घाटियाँ खेतियाँ

    औरतें बच्चियां

    हाथ फैलाए ख़ैरात की मुंतज़िर हैं

    इन को अम्न और तहज़ीब की भीक दो

    माओं को उन के होंटों की शादाबियाँ

    नन्हे बच्चों को उन की ख़ुशी बख़्श दो

    मुल्क की रूह को ज़िंदगी बख़्श दो

    मुझ को मेरा हुनर मेरी लय बख़्श दो

    आज सारी फ़ज़ा है भिकारी

    और मैं इस भिकारी फ़ज़ा में

    अपने नग़्मों की झोली पसारे

    दर ब दर फिर रहा हूँ

    मुझ को फिर मेरा खोया हुआ साज़ दो

    मैं तुम्हारा मुग़न्नी तुम्हारे लिए

    जब भी आया नए गीत लाता रहूँगा

    एक वाक़िआ

    अँध्यारी रात के आँगन में ये सुब्ह के क़दमों की आहट

    ये भीगी भीगी सर्द हवा ये हल्की हल्की धुंदलाहट

    गाड़ी में हूँ तन्हा महव ए सफ़र और नींद नहीं है आँखों में

    भूले बिसरे अरमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आँखों में

    अगले दिन हाथ हिलाते हैं पिछली पीतें याद आती हैं

    गुम गश्ता ख़ुशियाँ आँखों में आँसू बन कर लहराती हैं

    सीने के वीराँ गोशों में इक टीस सी करवट लेती है

    नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है

    वो राहें ज़ेहन में घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूँ

    कितनी उम्मीद से पहुँचा था कितनी मायूसी लाया हूँ

    ख़ूबसूरत मोड़

    चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों

    न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिल नवाज़ी की

    न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से

    न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से

    न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से

    तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश क़दमी से

    मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जल्वे पराए हैं

    मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरे माज़ी की

    तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं

    तआरुफ़ रोग हो जाए तो उस का भूलना बेहतर

    तअल्लुक़ बोझ बन जाए तो उस को तोड़ना अच्छा

    वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

    उसे इक ख़ूब सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा

    चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों