उपभोक्‍तावाद और प‍रिवार Pramod Ranjan द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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उपभोक्‍तावाद और प‍रिवार

उपभोक्तावाद और परिवार

प्रमोद रंजन


एक भारतीय मां ने संपत्ति के लिए जवान पुत़्र की हत्या कर दी!! पिछले दिनों पटना से निकली इस खबर को तर्कसंगत बनाने के लिए मीडिया को मां के अवैध प्रेम संबंध की तलाश करनी होगी या फिर पुत्र के दुष्‍चरित्र होने की उपकथा ढूंढनी होगी। ऐसा संभव न हो सका तो अखबार और टीवी चैनल संपत्ति विवाद की इस कथा को ज्यादा नहीं बेच पाएंगे। भारत में यौन शुचिता और चरित्र समानार्थी हैं। यहां किसी को बेईमान होने, धूसखोर होने, जातिवादी होने, ब्लैकमार्केटियर होने, असमानता का व्यवहार करने से या फिर हत्या करने पर भी दुष्चरित्र नहीं कहा जाता। अगर हत्यारी माता 'सचरित्र` पाई जाती है तो भारतीय मीडिया के पास भी इसे अपवाद मान कर मौन हो जाने के अलावा कोई चारा नहीं।

भारतीय समाज मौजूदा दशक में तेजी से बदल रहा है। हालांकि यह प्रक्रिया इससे काफी पहल आरंभ हो गई थी, लेकिन सुविधा के लिए इसे १९९० के आसपास से माना जाता है। यह बदलाव प्राथमिक रूप से आर्थिक रहे हैं। आर्थिक उछाल और शिक्षा दर की बढ़ोत्तरी ने एक ऐसे तबके को निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग में ला दिया जिनके लिए इंदिरा गांधी के समय चलाए गए बड़े नोटों को देखना भी सपना रहा था। लेकिन सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर बढ़े कदमों ने भारतीय समाज की संलिष्‍ट संरचना में बाहरी तौर पर ही हस्तक्षेप किया। जातिगत वर्चस्व के समीकरण बदले, वंचित तबकों की जुबान पर भी सत्ता-स्वाद की कुछ बूंदें टपकीं। किन्तु इससे समाजिक संरचना की मूल ईकाई परिवार अप्रभावित ही रहा। पूंजीवाद जैसे बाहरी उपकरण के लिए यहां तक पहुंच पाना संभव भी नहीं था। (पूंजीवाद की ही तरह कम्यूनिज्म़ भी समाज की आंतरिक संरचना को प्रभावित करने में विफल रहता है, रूस के कम्यूनिस्ट काल में चर्च की लोकप्रियता इसका उदाहरण है) वास्तव में भारतीय संदर्भ में जिस १९९० को हम विभाजक रेखा मानते हैं वह पूंजीवाद के आगमन का नहीं बल्कि भूमंडलीकरण के कारण पूंजीवाद के तेज होने तथा उपभोक्तावाद के आगमन का काल है। यही उपभोक्तावाद अब भारतीय परिवारों के सामंती दरवाजों पर अपने जूतों से ठोकर मार रहा है। मूल्य दरक रहे हैं और अजीबो-गरीब लगने वाली घटनाएं घट रही हैं। 'सचरित्र` हत्यारिन मां या 'दुष्‍चरित्र` मटुकनाथों की अपवाद लगने वाली घटनाएं इस विध्वंस के आरंभिक संकेत हैं। उपभोक्तावाद परिवार की सामंती संरचना पर मर्मांतक प्रहार कर रहा है। बेशक, यह ऐतिहासिक कार्य है। लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों को अपवाद मानकर उपेक्षित कर देना या इतिहास को घटते हुए महज देखते रहना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में कानूनों के माध्यम से इसके दुष्‍प्रभावों को नियंत्रित किए जाने की कोशिश की जानी चाहिए।

मध्‍यवर्ग और परिवार

मध्यवर्ग में माता-पिता और संतान के पारंपरिक संबंध त्रासद स्थिति में पहुंचने लगे हैं। शहरों का तो निम्नमध्यवर्ग भी इससे अछूता नहीं रहा है। पूंजीवाद के आगमन के कारण सामंती जकड़न से आजाद हुई जातियों की पहली पीढ़ी के लोग भी बड़ी संख्या में इस विध्वंस के शिकार हुए हैं। बल्कि थोड़ी सी समृद्ध की पहली बरसात के साथ-साथ टेलीविजन के पर्दे से आती उद्दाम लालसाओं की आंधियों को रोक पाने की अक्षमता ने उनके साथ ही ज्यादा तोड़-फोड़ की है। एक स्थूल उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। वर्ष 2005 की घटना है। चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारी के एकलौते बेटे ने लगभग दो वर्षों पहले अपने दाहिने हाथ पर किरोसीन छिड़क कर आग लगा ली थी। जब मैं उससे मिला तो उसने बताया कि उसकी मां ने उस पर पीटने का आरोप लगाया था। मामला कुछ इस तरह था कि उस लड़के ने मां से पच्चास रुपए मांगे थे। नहीं देने पर माता से उसकी झड़प हुई। लेकिन उसका कहना था कि उसने मां पर हाथ नहीं उठाया। कि वह ऐसा सोच भी नहीं सकता। हां, इतना जरूर था कि वह मां को उस पैसे के खर्च का हिसाब नहीं बताना चाहता था। इस पर उसका बाप अपना सिर मुंडा कर मुहल्ले (पटना सिटी) भर में यह कहता घूमता रहा कि मेरा बेटा मर गया। लड़के ने क्षोभ से भर कर उस हाथ को ही पूरी तरह नष्‍ट कर देना चाहा था जिस हाथ पर माता को पीटने का आरोप था। उसने बताया था कि उसे पैसे पत्नी के अंत:वस्‍त्रों व और गर्भनिरोधक उपायों के लिए चाहिए थे। मां को कैसे बताता? मैंने कहा, तुम खुद कुछ करते क्यों नहीं? तो उसने बताया था कि दहेज से बचे ३० हजार रुपयों से मुर्गी पालन का धंघा अपने आधा कट्ठा के मकान की छत पर आरंभ किया था। लेकिन चल नहीं सका। दहेज वाले पैसे भी पिता ने बहुत हुज्जत करने पर दिए थे। अब वे कुछ भी न देंगे। कोई पैतृक संपत्ति है नहीं। पटना शहर में बना दो कमरों का वह मकान मां के नाम है। नौकरी मिलती नहीं। मजदूरी मैं कर नहीं सकता।

जाहिर है उद्दाम लालसाओं की गिरफ्त दोनों ओर थी। कम साधन के बावजूद अधिकाधिक उपभोग की प्रवृत्ति माता-पिता में थी तो पुत्र भी अपनी आर्थिक वास्तविकता को समझने को तैयार न था। पिछले सप्ताह वह सुदर्शन युवक मुझे विक्षिप्तावस्था में मिला।

घटता पारिश्रमिक

यदि किसी में शहरी बेरोजगार लड़कों से मिलने का माद्दा हो तो उसे अधिकांश जगह कमोबेश ऐसी ही कहानियां मिलेंगी। मेरी जानकारी में कम-ज्यादा ऐसी पच्चासों घटनाएं हैं। और मुझे नहीं लगता कि राजनीति, साहित्य अथवा किसी अन्य प्रकार की अकादमिक दुनिया के प्रतिभाशाली युवाओं के रूझानों के आधार पर समाज की मति-गति का आकलन करना किसी भी दृष्टि से उचित निष्‍कर्ष की ओर ले जाएगा। अपवाद वे प्रतिभाशाली युवा हैं, बहुसंख्या इन सामान्य लोगों की है, इन्हें ही सामाजिक प्रवृति के रूप में समझा जा सकता है। इस बहुसंख्या में अर्ध-रोजगार भी शामिल हैं। तकनीक ने श्रम को बेहद सस्ता कर दिया है। महंगे से महंगे शहरों में भी १ हजार से 5 हजार तक की नौकरी करने वाले युवा हर जगह अंटे पड़े हैं। वर्ष 2005 से इस परिदृश्‍य में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। कंम्प्यूटर आपरेटर, रिसेप्निस्ट, नर्सें, सेल्स मैन, कूरियर पहुंचाने वाले, सूपरवाइजर नुमा लोग और अन्य नई सेवाओं में लगे इन युवाओं को भविष्‍य में भी अच्छा वेतन मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। सेवा प्रदाता क्षेत्रों में श्रम लगातार और सस्ता होता जा रहा है। मीडिया में काम करते हुए वर्ष 2002 में मैंने देखा था कि शिमला जैसे मंहगे शहर में ७० फीसदी पत्रकार १ से १.५ हजार रूपए वेतन पा रहे थे। लगभग २० फीसदी जो उत्तरांचल, बिहार और उत्तरप्रदेश से पलायन कर वहां पहुंचे थे, हाड़-तोड़ मेहनत कर ३ से ४ हजार तक पाते हुए सपरिवार गुजारा कर रहे थे। हिन्दी के जिस 'इंडियाज नं वन डेली` में मैं काम कर रहा था उसमें अनुसेवक को वर्ष २००१ में २५०० हजार रुपया वेतन दिया जाता था। उस अनुसेवक ने काम छोड़ा तो नए को १८०० पर रखा गया। २००५ आते-आते दो और अनुसेवक बदले। जब मैं वहां पहुंचा तो नया अनुसेवक ८०० रुपए पर बहाल हुआ था, वह भी 'इंटरव्यू` के बाद। शायद विश्वास न आए पर आज हिन्दी समाचार पत्रों में तो ऐसी स्थिति हो गई है कि मुफ्त काम करने वाले पत्रकारों को भी 'बर्खास्त` किया जाता है। यानी श्रम का मूल्य तो दूर, काम करने का अवसर देना भी अब एक अनुकंपा है। प्राय: सभी संस्थानों में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनसे काम सीखने के नाम पर २-२ वर्ष तक मुफ्त काम करवाया जाता है। कथित रूप से काम सीखने तक टिके रहे तो वही ८००-१००० रुपए मासिक वेतन।

पैतृक संपत्ति और वंचित तबके

इस तरह के अर्ध-रोजगार लोग भी पैतृक संपत्ति पर निर्भर रहने के लिए अभिशप्त हैं। लेकिन पहली बार समृद्धि का स्वाद चखने वाले परिवारों में पैतृक संपत्ति नाम की कोई चीज प्राय: नहीं होती। वंचित समुदायों से आनेवाले इन लोगों ने अपनी शिक्षा से कुछ हासिल कर शहरों में एकल परिवार बसाया होता है। उत्तराधिकार कानूनों (भारतीय उत्तदाधिकार अधिनियम तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम) के तहत उनकी संतानों को महज खेती योग्य भूमि में हिस्सा मिल सकता है। जबकि इनके पास देहात में जो थोड़ी बहुत जमीन होती है, वह अक्सर पहले ही बिक चुकी होती है। अगर कुछ बची भी रह गई तो शहर के नगदी जीवन के सामने उनका कोई मोल नहीं। अगर जायज-नाजायज कुछ कमाया-बचाया भी तो उपभोग की असीम इच्छाओं के सामने खेती योग्य जमीन जोड़ने की फिक्र किसे? यह भी एक कारण है कि जहां शहरों में जमीन के भाव आसमान छू रहे हैं वहीं गांवों में आज खेत मिट्टी के भाव बिक रहे हैं । भारतीय गांवों से पैसों का शहरों की ओर आना अनवरत जारी है, शहरों से गांवों की ओर यह प्रवाह ठप है। उपभोक्तावाद ने बाहरी चमक-दमक के साथ-साथ देह और स्वास्थ तक को उपभोग के दायरे में ला दिया है। आखिर उपभोग तो इस नश्वर देह को ही करना है। और यह तभी संभव हो सकता है जब आप अधिकाधिक स्वस्थ, चिर युवा रहें। ब्यूटी पार्लर, जिम से लेकर बाबा रामदेव जैसों के धंधे इसी कारण फल-फूल रहे हैं। इन नव स्वास्थ केंद्रों में जाने वाला शायद ही कोई यह सोचता हो कि, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिक का वास होता है। विज्ञापनी दुनिया उन्हें लगातार बताती रहती है कि 'स्वस्थ शरीर में मंहगे वस्‍त्राभूषण फबते हैं।` बहरहाल, अनेक कारणों से भारतीयों की औसत आयु, उनका यौवन काल बढ़ा है। निश्चित रूप से इस औसत के बढ़ने में नव मध्यम वर्ग के ही बेहतर होते स्वास्थ का योगदान रहा है। अच्छे स्वास्थ ने उनकी लालसाओं की अवधि को लंबा कर दिया है। उपभोग के उत्‍कर्ष को छूते हुए उन्हें बुढ़ापा कभी न आने वाले दु:स्वप्न की तरह लगता है, तो आश्चर्य नहीं। बुढ़ापे का पारंपरिक सहारा मानी जाती रही संतान भी उन्हें अपने तात्कालिक सुखों में कटौती करती प्रतीत होती है। भारतीय उत्तराधिकार विधान भी उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि उनकी पूरी संपत्ति (स्वयं द्वारा अर्जित तथा संयुक्त परिवार से मिला हिस्सा भी) सिर्फ उनके उपभोग के लिए है। अपनी संतान (पुत्री अथवा पूत्र) के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं है।

उपभोक्‍तावाद : एक यथार्थ

भूमंडलीकरण की तरह उपभोक्तावाद भी एक यथार्थ है। इसे किसी धार्मिक नैतिकता या भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर रोका नहीं जा सकता। न इसे अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान आदि में इस्लामिक तालिबान रोक पाए न ही भारत के हिन्दू तालिबानों में यह कुव्वत है। अक्सर मुगालते में रहने वाले कम्यूनिस्ट मित्र चाहें तो चीन घूम कर आ सकते हैं। वहां के शहरों में महज कुछ वर्ष में यूरोपिय शहरों से कहीं अधिक आलीशान मॉल, शापिंग काम्पलेक्सों ने आकार ले लिया है। जैसे समाजवाद के पूर्व पूंजीवाद का आना प्रक्रिया का हिस्सा है उसी तरह उपभोक्तावाद परिवार के आंतरिक सामंतवाद की समाप्ति में अपना ऐतिहासिक अवदान देने को उद्धत है। वस्तुत: यह कुछ और नहीं परिवार का आंतरिक 'पूंजीवाद` ही है। इसलिए जनतांत्रिक परिवार (अथवा कहें समतामूलक) के बड़े स्वप्न के संदर्भ में उपभोक्तावाद पर बात करते हुए यह आवश्यक है कि हम सिर्फ इसकी लानत-मानत करने की बजाय इसके गुण-दोषों को तटस्थ होकर समझें। इसके दुष्‍प्रभावों को कम करने के लिए देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जो भी कानून संभव हो बनाएं। यह किसी नैतिकता के रोके नहीं रूकने वाला। इसके जिम्मे एक नया समाजशा गढ़ने की जिम्मेवारी है। इसने जहां नए मध्यवर्ग में अभिभावक और संतान के संबंधों को कटूतापूर्ण बना दिया है वहीं इस तबके की महिलाओं के लिए आर्थिक मुक्ति के द्वार भी खोले हैं। यह छोटी उपलब्धि नहीं है। यौन शुचिता संबंधी दुराग्रहों की समाप्ति की राह भी आने वाले समय में यहां से निकलेगी। दूसरी ओर, यह भी देखने की बात है कि अभिजात तबके में इसका असर कुछ अलग तरह का है। वहां इसने अभिभावक-संतान के संबंधों को मित्रतापूर्ण बनाया है। कौमार्य के बंधनों को ढीला किया है। तात्कालिक उदाहरण के तौर पर अमिताभ-जया और अभिषेक बच्चन के संबंधों तथा सलमान, विवेक ओबराय और ऐश्वर्या राय के त्रिकोणात्मक प्रेम संबधों के बाद अभि षेक बच्चन से उसकी शादी को समझा जा सकता है। पूंजीपति परिवारों के बदलावों को पेज थ्री पार्टियों का निरंतर अध्ययन करते हुए भी देखा जा सकता है। वे अब तोंदियल सेठ-सेठानियां नहीं रहे हैं। अंधानुकरण की नकारात्मक प्रवृति पर पलने वाला उपभोक्तावाद भूल वश ही सही, अनेक सकारात्मक प्रवृतियों को भी मध्यमवर्ग तक पहुंचा रहा है, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।

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(15 वर्षो से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय प्रमोद रंजन विचारों की त्‍वरा और मौलिक विश्‍लेषण के लिए जाने जाते हैं। रंजन ने उत्‍तर भारत के समाज, राजनीति, मीडिया के आंतरिक जनतंत्र आदि विषयों पर अपने शोधपूर्ण लेखन के माध्‍यम से हिंदी प‍त्रकारिता को समृद्ध बनाया है तथा हिंदी पत्रकारिता में हाशिए पर रहे दलित-ओबीसी मुद्दों को विमर्श के केंद्र लाने में योगदान किया है। पत्रकारिता के अलावा, हिंदी आलोचना में भी उन्‍होंने सशक्‍त हस्‍क्षेप किया है।)