घूंघट के पट् खोल रे Upasna Siag द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

घूंघट के पट् खोल रे

उपासना सियाग

नई सूरज नगरी

गली नंबर -- 7

9वां चौक

अबोहर ( पंजाब )

पिन -- 152116

फोन नंबर -- 8054238498

मेल आई डी -- upasnasiag@gmail.com

घूंघट के पट् खोल रे


गली के चौकीदार की रात के सन्नाटे को चीरती हुई तेज सीटी की आवाज़ ने माधव जी को जैसे खीज़ा दिया हो । चादर हटा कर बिस्तर से उठ गए।

" अरे भई, जाग ही तो रहा हूँ ! आधी रात को भी चैन नहीं इन लोगों को !" आदतन बड़बड़ा दिये।

"चौकीदार का काम भी तो यही है माधव जी ! कोई जागे ना जागे ! " राधिका जी की आवाज़ गूंजी।

पत्नी की आवाज़ सुन कर चौंक कर उन्होंने लाईट जलाई। हैरान हो देखने लगे। लेकिन पत्नी कहाँ थी वहां !उसे तो दो साल हुए गुज़रे हुए। हाँ, जब वह थी तब यही तो कहा करती थी।

याद कर के उनका मन भर आया। सामने तस्वीर थी उसकी चंदन की माला चढ़ी।

" देख लेना जब मैं ना रहूंगी, तुम मेरी तस्वीर को देख कर रोया करोगे ! "

"क्यों रोऊंगा ! मैं पहले जाऊंगा तुमसे !"

" अजी रहने दीजिये ! भगवान भी डरता है आप जैसे खतरनाक पुलिस वाले से ! "

तब माधव जी मूंछो ही मूंछो में मुस्कुरा दिया करते थे तारीफ सुन कर।

" लेकिन राधिका मैं तुम्हारे साथ तो हमेशा अच्छे से ही रहा था, फिर तुम क्यों मुझे छोड़ कर चली गई ?" गला भर्रा गया।

"आपके साथ मैं ही तो रह सकती हूँ, और कोई नहीं ! बच्चों पर रोब जमाना छोड़ कर दोस्ताना व्यवहार करना सीखिये। घर को तो पुलिस विभाग मत समझिए। बच्चे तो घोंसले की चिड़ियाँ है आज पास हैं, कल उड़ जाएंगे अपने दाने -पानी की तलाश में। आपका प्यार ही याद रहेगा इनको। "

राधिका जी अक्सर समझाती थी। लेकिन माधव जी में तो एक अहम् ने सा घर किया हुआ था जो उन्हें किसी के भी आगे झुकने को रोकता था। यह तो राधिका जी थी जो ढाल बनी रहती।बच्चों और रिश्तेदारों के आगे।

राधिका को भी एक दिन भगवान के घर से बुलावा आ गया। उनको जाना पड़ा। ना साथ कोई आया है ना ही साथ कोई जायेगा। चली गई वह भी । कहाँ तो वह माधव जी की आज्ञा बिना कही भी नहीं जाती थी और अब बिन कहे ही राम जी के घर चल दी । जाने की उम्र भी थी उसकी। तब 68 साल की थी वह और माधव जी से दो साल ही छोटी थी।

बच्चे अपने ठौर -ठिकानो पर व्यस्त थे। माँ के मरने पर सभी आये। माधव जी को भी साथ चलने को कहा। मना कर दिया उन्होंने।

"नहीं जाऊंगा मैं ! रह सकता हूँ अकेला, यहाँ मैं सदा से रहता आया हूँ ,मेरे दोस्त हैं, परिचित हैं ! "

"लेकिन बाबूजी आखिर में तो हम ही काम आएंगे ना ! आप साथ रहोगे तो बच्चों को भी अच्छा लगेगा। आप जिस के साथ रहना चाहे बता दीजिये, पर चलिए आप हमारे साथ ! यह घर नहीं बेचेंगे, जब आपका मन हो दो-चार दिन के लिए रहने आ जाया करेंगे। "

"बाबूजी आप भाई लोगों के साथ नहीं जाना चाहते तो आप मेरे साथ चलिए। आप बेटी के यहाँ भी रह सकते हैं। "

" मुझे अपने बेटों से कोई शिकायत नहीं है लेकिन मैं किसी के भी साथ जाना नहीं चाहता !"

बेटी - बेटे सभी ने बहुत अनुरोध किया लेकिन माधव जी ने तो मानना ही नहीं था। वह किसी का सहारा लेना अच्छा नहीं समझते थे। बच्चों के जाने बाद वह सच में ही अकेले हो गए। पहले पत्नी थी तो अहसास नहीं हुआ कि वह अकेले हैं।

एक बहादुर था उनके काम करने को। सुबह-शाम तो बाहर घूम कर समय निकल जाता लेकिन लम्बी दोपहरी और रातें कैसे निकालते। टीवी पर समाचार देखने के अलावा कुछ भी पसंद नहीं था। धारावाहिक और मूवी देखना वह वाहियात समझते थे। एक-आध बार कोशिश भी की थी। लेकिन रंगबिरंगे पुते हुए चेहरे और उनकी साजिशे देख मन उकता गया।

किसी मित्र ने सलाह दी कि कुत्ता ही पाल लो। वह भी उनको पसंद नहीं था।

"आप भी ना कैसे इंसान है !ना जाने किस घडी और किस मिटटी से आपको परमात्मा ने बनाया है, कोई चीज़ पसंद ही नहीं है, हर बात -चीज़ हम अपनी शर्तों के अनुसार तो नहीं कर सकते। कभी वक्त के साथ बह भी तो देखो कितना अच्छा लगेगा।" राधिका जी कई बार नाराज़ हो उठती थी। उनको सुनाते हुए गुनगुना उठती थी कि 'घूंघट के पट् खोल रे तुझे पिया मिलेंगे !"

राधिका जी की तस्वीर देखना और बातें करना ही उनका पसंद का काम बन गया था। आज भी खड़े थे कि टेलीफोन की घंटी ने तन्द्रा भंग कर दी।

"आधी रात को किसका फ़ोन आया है।" फोन की तरफ बढ़े।

समय ज्यादा नहीं था, रात के ग्यारह ही बजे थे.शहर में रात को नौ बजे शाम शुरू होती है। यह तो माधव जी के लिए कुछ करने को नहीं था और वह शहर के जिस हिस्से में रहते हैं वहां ज्यादा आबादी भी नहीं है।

" हेलो !" रौबीली आवाज़ गूंजी माधव जी की।

"आप कौन ?"

" फोन तो आपने किया है, मैं क्यों बताऊँ कि मैं कौन हूँ ? "

" मैं अनमोल बोल रहा हूँ !"

" हाँ तो बोलो, लेकिन मैं तो किसी अनमोल को नहीं जानता ! काम क्या है ? मुझे जानते हो क्या तुम ?"

" नहीं जानता !"

" फिर आधी रात को किसी की परेशान करने का क्या मतलब है ?"

" परेशान तो मैं हूँ !"

उधर से बहुत प्यारी और मासूम आवाज़ थी। शायद कोई बच्चा बोल रहा था। माधव जी को वह आवाज़ बहुत प्यारी और आत्मीय सी लगी, पूछ बैठे ,"क्या परेशानी है ?"

"आपकी उम्र क्या है अंकल ?"

"मेरी उम्र से तुम्हारी परेशानी से क्या लेना है ?"

" इसलिए कि मैं जिन से बात कर रहा हूँ वह अंकल है या दादा जी की उम्र के हैं, यह मालूम होना चाहिए !"

"हा हा ! बहुत बढ़िया !मैं तो तेरे दादा की उम्र का हूँ फिर तो ?"

माधव जी को हंसी आई तो कुछ हल्का पन सा महसूस हुआ। कभी किसी से आत्मीयता से बात की होती तो मालूम होता न !

" तो मैं आपको दादा जी बोलूं ?"

"हाँ बोलो !"

"तो दादा जी ! मेरे मम्मा और पापा तो पार्टी में गए हैं। भैया सो गया है। और मेरा कल गणित का टेस्ट है स्कूल में, तो मुझे कोई पढ़ाने वाला ही नहीं हैं। हमेशा तो मम्मा तैयारी करवा देती है पर आज तो वह देर से आएगी। "

" ओह गणित !" गणित तो उनका पसंद का विषय था।

" अच्छा मुझे बताओ कि कौनसा सवाल नहीं आता, जरा रुको ! मैं कागज़ -पैन लाता हूँ, फिर मुझे लिखवाना। "

कागज़ पर लिख कर अनमोल से कहा कि वह थोड़ी देर में फोन कर के समझाते हैं।

चौथी कक्षा के सवाल उनके लिए मुश्किल नहीं थे। झट से हल कर दिए। लेकिन उनको हैरानी के साथ ही गर्व भी हुआ कि अब तक वे गणित के सवाल हल कर सकते थे। मूंछों में से होठ कुछ ज्यादा ही मुस्कुरा पड़े, गर्वीले अंदाज़ से राधिका जी की तस्वीर की और देखा।

तभी फोन बज उठा। अनमोल को अच्छी तरह से समझा दिया और यह भी कि बाकी विषय भी वह समझा सकते हैं। वह जब चाहे फोन कर के पूछ सकता है।

" थैंक यू दादा जी ! "

"अरे थैंक यू मत बोल, दादा को भी कोई थैंक यू बोलता है ! जीता रह ! जब मर्ज़ी फोन कर लेना !" दिल से ख़ुशी महसूस हो रही थी लेकिन गला भर आया था। हैरान थे कि वह इतना कुछ एक अनजान बच्चे से बोल कैसे गए।

दिल को सहलाते हुए कुर्सी पर बैठे रहे। आँखों के कोने नम हो गए थे।

भूख सी लग आई उनको। उन्होंने शाम को खाना भी नहीं खाया था। सारा दिन अकेले चुप रहते उनकी भूख जैसे मर सी गई थी। फ्रिज खोला तो बहुत सा सामान था जो खाया जा सकता था। समय देखा तो साढ़े -बारह बज चुके थे इसलिए सिर्फ दूध ही पिया।

बहुत अच्छी नींद आई। सुबह सैर से लौट कर आते ही बहादुर से पूछा कि कोई फोन तो नहीं आया। यह उनकी दिनचर्या में शामिल था, हालाँकि बच्चों से बात कम ही करते थे तो उनका फोन भी रविवार को ही आता था। आज तो उनको अनमोल के फोन का इंतज़ार था।

"दादा जी ! आपको बाबूजी ने मोबाईल फोन ला कर दिया हुआ तो है, वह साथ क्यों नहीं ले जाते ! रोज़ आते ही पूछते हो मुझसे। कोई फोन आया क्या ?"

" क्यों !तुझे कोई परेशानी है क्या ?"

"मुझे क्यों परेशानी होगी दादा जी ! लो चाय पियो। आज खाने में क्या बनाऊँ ? रात को भी आपने नहीं खाया !"

"आज तू अपनी पसंद का बना कर खिला !"

"मेरी पसंद का ?"

" हाँ !!"

बहादुर ने देखा दादा जी खुश है तो रेडियो की आवाज़ जोर से कर दी,रोज़ उसे इस बात पर डाँट पड़ती है। यह मानव का स्वभाव है कि वह अकेले रह नहीं सकता है। घर में और कोई तो था नहीं दादा जी के अलावा तो रेडियो ही उसका साथी था ।

माधव जी आज ख़ुशी-ख़ुशी सारा काम कर रहे थे। जैसे जोश आ गया हो। बार -बार फोन की तरफ ध्यान था। मोबाईल फोन भी था उनके पास और बेटे ने खास हिदायत दी थी कि चाहे फोन ना करे लेकिन बिस्तर के पास रखे कभी कोई जरूरत हो, तबियत खराब हो तो बता तो सकते ही हैं। और नहीं तो बहादुर को ही जगा दे। लेकिन नहीं ! उनको तो अपने मन की ही करनी थी। दरअसल उनको नयापन जल्दी से स्वीकार ही नहीं होता है। समय के साथ नहीं चलना आता, समय को हाथ में पकड़ना चाहते हैं। समय भी रुका है कभी !

आज उनको अनमोल के फोन का इंतज़ार क्यों था ? सोचने वाली बात यह भी थी कि रात को यूँ ही किसी बच्चे ने ऐसे ही रोंग नम्बर मिला कर बात कर लेने से माधव जी को यूँ उत्साहित तो नहीं होना चाहिए था। लेकिन मन का क्या कीजिये। सब कुछ होते हुए भी अकेला पन महसूस करता है। अकेला हो कर भी मन भरा-भरा महसूस कर सकता है। ऐसा ही आज वे महसूस कर रहे थे।

दो-तीन बार बहादुर से भी कहा कि अगर वो सोये हों और कोई फोन आ जाये तो उनको जगा देना। इंतज़ार की घड़ियाँ कितनी तकलीफ देह होती है यह वह आज जान रहे थे। उनको याद आया कि कैसे वह ड्यूटी से देर से आते थे और कितनी बैचेनी से राधिका जी को इंतज़ार करते हुए पाते थे।

"इतनी देर तक जागने की क्या जरूरत है राधिका ! मेरी तो ड्यूटी है, देर तो होना ही है, तुम सो जाया करो।"

"मुझे भी चैन कहाँ पड़ता है तुम बिन ! कह कर हंस पड़ती थी राधिका जी !"

" राधिका ! तुम क्यों चली गई अब इस उम्र में मुझे अकेला छोड़ कर ?" आँसू ढलक गए आँखों के किनारों से।

आँखे पोंछते हुए आँख खोली, धीरे से करवट ली।

बच्चों से ज्यादा लगाव ही नहीं था। बच्चे कम ही याद आते थे। कुछ गलती राधिका जी की भी थी। उनको पिता और बच्चों में ढाल नहीं बनना चाहिए था और ना ही संदेशवाहक ही। कोई भी काम या जरूरत होती तो बच्चों को ही प्रेरित करना चाहिए था। इस से उनमें आपस में खाई तो नहीं बनती।

माधव जी शाम की चाय पी कर पास ही के पार्क में चले जाते हैं। आज जाऊँ या ना जाऊँ वाली मनस्थिति में थे कि कहीं फोन आ गया तो !

"दादा जी आप जाओ और घूम कर आओ नहीं तो रात को नींद नहीं आएगी, ऐसे ही उदास बैठे रहोगे !"

बहादुर की बात में भी दम था। फिर अनमोल के फोन का क्या, आये ना आये।

पार्क में आज मौसम सुहाना लग रहा था। सच भी है जब मन में ख़ुशी हो तो बाहर भी अच्छा ही लगता है। वैसे यह बात हैरान नहीं करती कि थोड़ी सी देर बात करने पर माधव जी इतना बदलाव महसूस कर रहे थे ! वह उकता गए थे अपने नीरस जीवन से। ना अकेले रहना बन रहा था और ना ही बच्चों के पास जा कर बंदिश भरा जीवन जीने को तैयार थे।

रात होने को थी, थोड़ा सा अँधेरा मन में भी छाने लगा था। थोड़ी देर टीवी देखा, खाना खाया और अपने बिस्तर पर लेट गए। घड़ी की ओर देखा साढ़े-नौ बजे थे। तभी फोन की घंटी घनघना उठी। घंटी की आवाज़ कितनी मधुर लग रही थी माधव जी को, यह तो माधव जी ही बता सकते थे या जो अकेलेपन के भुक्तभोगी हैं वो बता सकते हैं। यह भी कोई जरुरी नहीं था कि यह अनमोल का ही फोन होगा। लेकिन यहाँ तो सच अनमोल ही बोल रहा था।

"हैलो दादा जी ! मैं अनमोल बोल रहा हूँ !" यह दुनिया की सबसे प्यारी और कीमती आवाज़ थी उनके लिए।

"ओह्हो अनमोल ! कैसे हो मेरे बच्चे ? कहते हुए गला भर आया। एक रात की बात में ही इतना प्यार -दुलार एक अनजान बच्चे के लिए ! यह थोड़ी ना मानने वाली बात तो लगती है लेकिन असम्भव भी नहीं था। बियाबान जंगल से मन में ऐसा होना अचरज भी नहीं है।

" मेरा टेस्ट अच्छा ही हुआ आज !पर पूरे नम्बर नहीं मिले। सिर्फ 12 नम्बर ही आये 25 में से। "

"कोई बात नहीं, अगली बार अच्छे से पढ़ना !"

"अच्छा अनमोल तुम इतनी रात को फोन कर लेते हो, तुम्हारे मम्मी -पापा डांटते नहीं क्या ?"

"नहीं डांटते !"

वे हैरान हुए कि मात्र दस साल का चौथी कक्षा का बच्चा, और इस तरह फोन इस्तेमाल करता है। यह तो बहुत गलत है ! जैसे इसने मुझसे एक अनजान आदमी से फोन मिला कर बात कर ली। ऐसे ही अगर वह किसी और से बात करता और अगर वह कोई असामाजिक तत्व होता तो ! बहुत नुकसान भी तो हो सकता है, कितने लापरवाह माँ-बाप है इसके !

"यह तो गलत बात है बेटा, तुम्हें यूँ किसी अनजान आदमी से बात नहीं करनी चाहिए। "

"अनजान कहाँ, आप तो मेरे दादा जी हैं ! "उधर से बहुत प्यारी सी हंसी उभरी।

" मैं तुम्हारा दादा !" एक बारगी तो चौंक पड़े वे।

"आपने ही तो कहा था कि आप मेरे दादा की उम्र के हो !"

"ओह, हा हा !!"

"अच्छा हां ! अब तुम बताओ कि तुमने आज क्या-क्या किया। तुम पढाई के अलावा खेलते भी हो क्या ?"

बहुत सारी बातें हुई दोनों में। फोन हाथ में लिए थकने लगे थे माधव जी, पर उत्साह बरक़रार था।

"अच्छा अनमोल बेटा अब मैं थक गया हूँ, सोना चाहता हूँ, कल बात करेंगे। "

उस रात बहुत हल्का -हल्का सा महसूस हुआ जैसे मन का बोझ हट सा गया हो। नींद भी सुकून की आई।

"जिस रात आप टेंशन फ्री हो कर सोते हो उस रात आपके चेहरे पर एक मुस्कान होती है। " सुबह उठते ही राधिका जी की बात याद हो आई। उदास होना चाहते तो थे पर सामने तस्वीर की ओर देख कर मुस्कुरा दिए।

सैर से आते ही बहादुर से मोबाईल वाला डब्बा मंगवाया और फ़ोन चलाना सीखा। कई महीनों से उपेक्षित मोबाईल अब उनके दिल के करीब था मतलब कि जेब में रख लिया गया था। अनमोल को मोबाईल नंबर भी दे दिया गया।

अब तो अनमोल दिन में एक बार तो फोन करता ही था, रविवार को दो बार कर ही लेता था।

एक दिन उन्होंने पूछ लिया कि उसके दादा-दादी कहाँ है। अनमोल ने बताया कि वे लोग उनके साथ नहीं रहते हैं।

" तुमको उनकी याद नहीं आती क्या ?"

" नहीं आती !"

" मैंने उनको कम ही देखा है !"

"कमाल है ! दादा-दादी को कम देखा है ? कहाँ चले गए वो लोग ?"

"पता नहीं !"

"ओह कैसे दादा-दादी हैं बच्चों को उनकी जरूरत है और वो उनके साथ ही नहीं !क्या जमाना है !"

" अच्छा तो फिर आप कैसे दादा हैं माधव जी ?" राधिका जी की आवाज़ गूंज उठी। चौंक कर तस्वीर की तरफ देखा। थोड़ा सा व्यंग्य सा था नज़रों में। गर्दन झुका कर अपने दिल या गिरबान में झाँकने लगे, क्यूंकि आवाज़ तो असल में आई ही वहां से थी। मन जाने कैसा हो आया। बिन कहे फोन रख दिया।

मन में उथल -पुथल सी मच गई। उसके पोते-पोती भी तो ऐसे अकेले रहते होंगे। बेटे-बहुएं तो नौकरी करते हैं। तो क्या वो भी ऐसे हर किसी को फोन कर लेते होंगे। कोई गलत इंसान उनको बरगला ले तो। यह तो कभी सोचा ही नहीं उन्होंने। इस बार रविवार को जब फोन आएगा बच्चों का तो बात करूँगा यह सोच कर आँखे मूँद ली सोने की कोशिश करने लगे । "क्यों ? रविवार से पहले अगर आप बात कर लेंगे तो क्या हो जायेगा ! " राधिका जी बोल पड़ी।

" हाँ -हाँ कर लूंगा बात, सुबह तो होने दो !" थोड़ा सा नाराज़ होकर घुटने सिकोड़ कर करवट ले कर लेट गए, मानो राधिका जी को जता रहे हों कि वे भी तो अकेले हैं।

अगले दिन सुबह होते ही फोन मिलाया बेटे को। दूसरी ओर आवाज़ से आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी झलक रही थी। बेटे की आवाज़ पहली बार दिल को छू गई। बच्चों ने तो हमेशा मान ही दिया था उनको। यह तो वे ही 'मान ' किये रहते थे मन में, कभी मन के दरवाज़े कभी खोले ही नहीं। यहाँ वहां की बात कर के बात बंद कर दी। बाद में दूसरे बेटे और बेटी से भी बात की। मन में था कि उनके पास चले जाएँ। फोन पर बात तो सभी ने बहुत प्यार से की लेकिन किसी भी ने एक बार भी आने को नहीं कहा। थोड़े मायूस हो गए वे।

" देखो राधिका, मैंने सभी से बात कर ली फिर भी किसी के यहाँ मेरे लिए जगह ही नहीं है ! किसी ने भी अपने यहाँ नहीं बुलाया !"

"बुलाने पर आप गए भी थे क्या ? बच्चों ने कितनी मिन्नतें की थी।" तस्वीर में राधिका जी जैसे बोल पड़ी हो।

"यह भी सही है !" चुप से कुर्सी पर बैठ गए। तभी अनमोल का फ़ोन आ गया। उनको थोड़ी सी राहत महसूस हुई।

"दादा जी आपका जन्म दिन कब आता है !" अनमोल उनसे पूछ रहा था।

" पता नहीं बेटा ! उस ज़माने में कोई जन्म दिन तो मनाता नहीं था।" थोड़े थके हुए से बोल रहे थे वे।

राधिका जी उनका जन्म राम नवमी को मनाया करती थी कि जब जन्म दिन पता ना हो तो खुद ही अच्छा सा दिन जान कर जन्म दिन मना लेना चाहिए। बात तो आखिर ख़ुशी की ही है कभी मना लो। राधिका के जाने के बाद बच्चे रामनवमी को आ जाते थे। छुट्टी भी तो होती थी उनकी ! सोचते हुए मन जाने कैसे हो गया। कान तो अनमोल की तरफ ही थे। बात करते करते कई बार मन कहाँ का कहाँ पहुँच जाता है फिर उनकी तो उम्र का तकाज़ा भी तो था।

" तुम्हारा जन्म दिन कब आता है !"

" चार दिन बाद है ! मैं आपको लेने आऊं ?"

"नहीं ! मैं क्या करूँगा बच्चों में !"

"प्लीज़ दादा जी, मना मत कीजिये ! थोड़ी सी देर की तो बात है, मैं आपको लेने आजाऊंगा और छोड़ भी जाऊंगा !"

" ठीक है बेटा। " इतनी प्यारी आवाज़ वाले बच्चे से वह मिलना चाहते थे। प्यारी आवाज़ ही नहीं थी बल्कि उनमें नव जीवन का संचार भी तो उसने किया था। फोन बंद कर कई देर तक फोन को ताकते रहे।

"अपने बच्चों से तो पराये ही अच्छे हैं !" तल्खी से राधिका जी को देखा। राधिका जी भी थोड़ी उदास लग रही थी। अनमोल ने तो चार दिन बाद आना था। इस बीच दोनों में बातचीत भी होती रही थी।

अनमोल के जन्म दिन पर उन्होंने उसे सुबह ही आशीर्वाद दे दिया। दोपहर में दो बजे आने को कह अनमोल ने फोन बंद कर दिया। अब छह घंटे इंतज़ार के थे। उसकी प्यारी बातें याद कर के ही मुस्कुराते रहे वह। इस बीच उसके लिए पास के बाजार से एक सुन्दर सा तोहफा भी ले आये।

दो बजे के करीब मुख्य दरवाज़े के पास कुछ आवाज़ें सी सुनाई दी तो वे समझ गए कि अनमोल आ गया है। वह उठ कर कमरे के दरवाज़े तक आये ही थे कि अनमोल उनके सामने था। दादा जी कह कर लिपट गया।

माधव जी तो जैसे रो ही पड़े। झुक कर गले से लगा लिया। प्यार से सर पर हाथ फिराते रहे। कलेजे में जैसे ठंडक सी पड़ रही थी। आंसुओं को बह जाने दिया, मानो दिल पर पड़ी बरसों से जमी बर्फ पिघल रही हो।

" बाबूजी !"

जानी पहचानी आवाज़ सुन कर आँसू पोंछते हुए सर उठाया था तो देखा उनका बड़ा बेटा था। आँखों में पानी भरे मुस्कुरा रहा था। आगे बढ़ कर गले लग कर रो पड़ा। सारा दुःख, सारी शिकायतें आंसू में बह गए। बेटे ने बताया कि यह सब उसके कहने पर ही हुआ था। अनमोल को फोन पर बात करने को उसने ही कहा था।

" बाबूजी मुझे यह नहीं मालूम था कि यह इतना बड़ा कलाकार भी निकलेगा और इतनी सारी बातें आपसे करेगा।"

" इसकी बातों ने ही तो मुझे मोह लिया था। लेकिन इसका नाम अनमोल है, यह मुझे क्यों नहीं मालूम ? क्यूंकि इसका निक नेम तो गुड्डू है और आप इसको इस नाम से ही तो जानते हैं !"

"ओह, हा हा ! तभी मुझे बुद्धू बना दिया गया !" माधव जी के दिल से हंसी निकल रही थी आज। कितना खुश थे।

"दादा जी, अब आप मेरे साथ ही रहेंगे ! "

"हाँ बाबूजी आप अब हमारे साथ नहीं बल्कि हम आप के साथ रहेंगे।"

माधव जी ने भी हाँ भर दी। घर से चलने लगे तो बोले कि रुको तुम्हारी माँ को भी साथ ले चलो नहीं तो वह भी अकेली हो जाएगी। अंदर से तस्वीर ले आये। उनको लगा की राधिका जी गा रही है कि घूंघट के पट् खोल रे तुझे पिया मिलेंगे

Upasna siag