लघु कथाओं का संसार भाग —2
प्रदीप कुमार साह
Email : psah2698@gmail.com
© COPYRIGHTS
This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.
विषय—सुची
क्रम संख्यारचनाविधा
1अछूतलघुकथा
2चरित्रहीनकहानी
3जिज्ञासालघुकथा
4जीवन और जमीरकहानी
5नैतिकतालघुकथा
6परपोते का जन्म—दिनलघुकथा
7पुरस्कारलघुकथा
8स्वाध्यापनलघुकथा
प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार, भाग—2 सर्वाधिकार लेखकाधीन
सभी रचनाएँ पूर्णतया काल्पनिक और केवल मनोरंजन हेतु हैं.यह किसी भी समसामयिक घटनाओं का समर्थन अथवा विरोध नहीं करता.
अछूत(लघुकथा)—प्रदीप कुमार साह
एकबार किसी कस्बे में सत्संग—प्रवचन आयोजित हुआ.ईशकथा रस प्रेमी श्रोता बडे उत्साह से प्रवचन सुनने आए. बडेे से मंच से एक सुप्रसिद्ध कथावाचक भगवान श्रीराम के कथा कह रहे थे. उनके द्वारा माता के आज्ञापालन हेतु स्वेच्छा से वनस्थ जीवन अंगीकार किये राजकुमार श्रीराम द्वारा निषादराज के आतिथ्य एवं दीन—हीन भीलनी शबरी के बेर सादर,सस्नेह ग्रहण करने के प्रसंग कहे गये. सामाजिक समरसता,नैतिकता एवं सांस्कृतिक मुल्यों पर मार्मिक विचार रखा गया. श्रोता उनके प्रवचन से काफी प्रभावित हुए. श्रोता कथा—समापणोरांत बेहद आदर एवं श्रद्धा से कथावाचक को सप्रेम भेंट अर्पित करते हुए उनके चरण स्पर्श करने लगे. कथावाचक सस्नेह भेंट स्वीकार रहे थे. तभी प्रवचन स्थल की सफाई करने वाला कथा—प्रेमी व्यक्ति (भंगी)भी श्रद्धा से कथावाचक के पैर छुए. किंतु इस बार कथावाचक बिफर पडा,अछूत, मुझे छुने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई!
वैसा सुन व्यक्ति आवाक् रह गया कि वे महानुभाव वही हैं जो अभी समरसता की बातें कर रहे थे. किंतु वस्तु—स्थति के मद्देनजर उसने हाथ जोड कर विनती करना ही उचित समझा और कहने लगा,क्षमा महाराज, मेरे मन में आपके प्रति आदर एवं प्रेम इतना अधिक था कि छुने से आपके भावी कष्ट का पुर्वानुमान मुझे बिल्कुल ही नहीं हुआ.
इसपर कथावाचक रुष्ट होकर वहॉ उपस्थित कथा—प्रेमी श्रोता से कहने लगा,इस अछूत ने मुझे छुकर अपवित्र करने की चेष्टा की है. कोई सज्जन इसे इसके सीमाओं का बोध करा सकता है.
वह व्यक्ति भयाक्रांत हो क्षमा याचना करते हुए कहा,महाराज, समदर्शी भगवान की सौगंध! ईश्वर कण—कण में, चराचर में समरस व्याप्त हैं. ऐसा समझ कर सर्वत्र उनके अनुभुति,प्रेम एवं दर्शन हेतु सतत् चेष्टा करना चाहिये. इस बात की उत्प्रेरण आपके प्रवचन से हुआ .उसी चेष्टा में मुझसे भुलवश वे गलतियॉ बन गई. नादान समझकर मुझे क्षमा करें.
किंतु कथावाचक का क्रोध शांत न हुआ. उसने कहा,ष्यह तो उतनी ही जहरीली बातें कहता है, जितना दुध पीकर सर्प.
वहसब देख एक सज्जन बढकर कथावाचक से क्रोध शांति हेतु प्रार्थना किया,ष्आप दया के सागर और विशाल हृदय महापुरुष हैं. वह(भंगी) भावातिरेक में बहने वाला एक नासमझ, वैसा समझकर उसे क्षमा प्रदान करें.
इससे भी कथावाचक का संतुष्टि न हुआ. उसने कहा,ष्धर्म भ्रष्ट लोगों से कुछ कहना ही व्यर्थ है.
महाराज,वह भुमि धन्य हो जाती है, जहॉ कुछ समय सत्संग होता है. वह इसलिये कि कथा सुनने से प्रेम,सद्भावना,समरसता और सांस्कृतिक एवं मानवीय मुल्यों का समझ आता है. वैसे पवित्र भुमि पर भेदभाव और विद्वेष का बीज बोना सर्वथा अनुचित है. फिर व्यर्थ क्रोध करना भी उचित नहीं है.ष्श्रोता हाथ जोडकर निवेदन कियेे.
यह समय का दोष है कि लोगों का चरित्र इतने गिर गये हैं कि उन्हें एक मर्मज्ञ और अछूत में अंतर समझ नहीं आता. कथावाचक भिनभिनाए.
किसी इंसान के वचन,विचार और आचरण को उसके पेशा के आवरण में ढक देना उचित नहीं है.फिर कोई अछूत है, इस बात का विनिश्चय किस तरह किया जाये? वह जो शास्त्रोक्त वचन केवल कहता है, स्वयं उन बातों को हृदय से लगाते नहीं. जिस कारण उनका मन पवित्र नहीं हो पाता और स्वयं अछूते रह जाते हैं. वे जो शास्त्रोक्त आचरण कहते हैं किंतु अपनाते नहीं.अथवा उन्हें जो मन,वचन,आचरण और व्यवहार से पवित्र हैं और स्वछता हेतु सफाई कर्म करते हैं?ष्कथा रस प्रेमियों के प्रश्न सुनकर कथावाचक हक्का—बक्का रह गया.
चरित्रहीन (कहानी)—प्रदीप कुमार साह
दिसम्बर का अंतिम पखवाडा था और सुबह के साढे पाँच हो रहे थे. कडकडाती ठंड और घना धुंध फिर इतने सुबह—वातावरण में एक अजीब ठिठुरन और सन्नाटा था. किन्तु सुन्दर अपने नियमित दिनचर्यानुरूप टहलने निकला. साथ में घनिष्ठ मित्र श्याम था. दोनों टहलकर टीले के पासवाले रास्ते से लौट रहे थे कि उन्हें श्बचाओ—बचाओश् की आवाज सुनाई दिए. आवाज सुनकर पहले तो दोनों डर गए कि कही वह किसी बुरे आत्मा का भ्रमजाल तो नही ? किन्तु सहायता हेतु किसी के लगातार चिल्लाने की आवाज सुनाई देने पर दोनों साहस जुटाकर खोज—बीन करने लगे. वहाँ वातावरण में इतने धुंध थे की टॉर्च की रौशनी में भी दूर की वस्तु नजर नही आती थीं. किन्तु उन्होंने खोज जारी रखे और आवाज आने की दिशा में बढते रहे.
टीले पर आकर उन्होंने देखा कि आवाज बगल में खाई से आ रही है. आवाज भी जाना—पहचाना मालूम हुआ. उन्होंने खाई में टॉर्च की रौशनी फेंकी. खाई में घुप अँधेरा था. वह काफी गहरा और घने कँटीली झाडियों से भरा मालूम पडा. झाडियों की वजह से खाई में कोई नजर नही आया किन्तु सहायता हेतु अधिकाधिक चिल्लाने की तेज आवाज आने लगी.
आवाज सुनकर दोनों चौंक गए. श्याम ध्वनिस्वादन करते हुए बोला,वह तो कोकिला है. यह तो वही कुलटा है जिसने साजिश कर झूठे मुकदमें में तुम्हें सजा भुगतवाये.इसे बचाने के क्या फायदे? चलो वापस चलते हैं.
नही मित्र, वैसा मत कहो. इसने बेसक सबकुछ मेरे प्रति गलत किए किन्तु इसे अभी इस परिस्थिति में छोड जाना मनुष्यता के नाते उचित नही है. सुन्दर बोला.
मनुष्यता?.......या लगाव! इसने जो आरोप तुम्हेँ लगाए कहीं वह सच तो नही थे. श्याम चिढ कर बोला.
मित्र, यह वक्त बातों में निकाल देने का नही है. मैं तुम्हारे हाथ जोडता हूँ, जल्दी में गाँव से मेरे खातिर एकबार मदद लेकर आओ. मैं तुम्हारा इन्तजार यही करूँगा.
श्याम बात मानकर मदद हेतु बोझिल मन से गाँव की ओर चल दिए. इधर सुन्दर खाई में टार्च की रौशनी फेंक कर कोकिला को ढूंढने लगा. कोकिला को वह वर्षो पहले से जनता था. वर्षो पहले गाँव में बेहद सीधे—सादे हिरामन भाई रहते थे, कोकिला उन्हीं की मीठे बोल बोलनेवाली हँसमुख पत्नी है. वह जितने सीधे थे, कोकिला उतनी ही धूर्त, चालक और लालची थी. उसमें काम—वासना भी बहुत थे. सुन्दर का उनलोगों से केवल औपचारिक सम्बन्ध ही थे तथापि मौका देख कर एकदिन कोकिला बेवजह उससे इश्क जताने की कोशिश किये.उसके मना करने पर बुरा अंजाम भुगतने के धमकियाँ दिए.
उन दिनों वह एक प्रसिद्ध स्थानीय कॉलेज का छात्र था.वह कॉलेज पास वाले शहर में अवस्थित था. इसलिए उसका प्रायः शहर आना—जाना रहता था. एकदिन वह पढाई कर घर लौट रहा था की उसी शहर में रास्ते में कोकिला भाभी मिली. उसने आवाज देकर सुन्दर को पास बुलाया. सुन्दर जैसे ही कोकिला के पास पहुँचा उसने सुन्दर को जोरदार तमाचा लगाया और चिल्लाने लगी,ष्बद्तमीज—चरित्रहीन, राह चलते औरतों को छेढते हो.
कोकिला के शोर—शराबे पर भीड जम गए. सुन्दर भीड से अपनी सफाई में कहता रहा. किंतु उसकी सफाई कोकिला के तेज आवाज और अक्रामकता में दब जाती. फिर भीड ज्यादा सोच—विचार किये बिना ही सुन्दर की बुरे तरीके से पिटाई कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया. पुलिस संज्ञान लेकर केस दर्ज किये और उसे तत्कालिन कठोर प्रावधानानुसार जेल भेज दिये. उक्त मामले में अंततरू अदालत से उसे सजा मुकर्र हुए. कालांतर में उस गम में और गाँव वालों के ताने सुन—सुनकर उसके माता—पिता भी अकाल गुजर गए. उस अघटित अपराध की सजा भुगतने के वावजूद सुन्दर के आज—तक समाज में पूर्वत स्थान प्राप्त न हुए.
किन्तु उस घटना के बाद कोकिला के असंयमित मनोबल बढते गए.कालान्तर में उसके लालच और वासनायुक्त व्यवहार से गाँव के अन्य लोग परीशान रहने लगे. अंततः हिरामन भाई लोक—लज्जा और उसके विश्वासघात के वजह से उसे त्याग कर चुपके से अन्यत्र चले गए. गाँव वालों के उपेक्षा के पात्र बन चुकी कोकिला अपना भरण—पोषण हेतु देह व्यापार में उतर गयी. वह इस सब का कारण गाँव वालोँ को मानने लगी. अपने उस धारणा के वजह से जब उसके सम्बन्ध कुख्यात डाकुओं से बने तो उनलोगों के निमित्त मुखविरी करने लगी. इससे गाँव वाले उससे नफरत करने लगे.इधर कुछ दिनों से वह गाँव में अनुपस्थित थी तो गाँव वाले सकून महशुश कर रहे थे.
काफी ढूंडने पर सुन्दर का नजर झाडी के एक झिरमुठ में फँसी एक स्त्री पर पडा. वह कोकिला ही थी. वह बेहद कातर स्वर में प्राण रक्षा हेतु सुन्दर से गुहार लगा रही थी. कोकिला को देखकर उस क्षण सुन्दर का मन विषाक्त हो गया. किंतु उसने मन को बडी चतुराई से नियंत्रित किया और कोकिला को धैर्य बनाए रखने हेतु प्रोत्साहित करने लगा. तभी कुछ गाँव वालों के साथ श्याम वहाँ मदद हेतु पँहुचा. ग्रामवासी रस्सी की एक सिरा कोकिला के तरफ फेंके और उसे अच्छे से पकडने बोला. इस तरह रस्सी के सहारे कोकिला को खाई से बाहर निकाला गया. खाई से बाहर आने पर ग्रामीण उससे जानना चाहा कि वह खाई में किस तरह गिर गई?
उसने रोते हुए आपबीति बताये कि उसके मर्जी के खिलाफ किस तरह रात में डाकू उसे घर से उठा ले गए और उसका कितने क्रुरता से यौन शोषण कितने दिनों से किये. उस शाम वह डाकुओं के चंगुल से किसी तरह निकल भागी तो उन्हें इस बात की भनक लग गई. भनक लगते ही ऊनलोगों ने उसका पीछा किया. उनलोगों से छिपकर भागते—भागते वह बुरी तरह परीशान हो गई. अंततः उसे उसका मन धिक्कारने लगा कि वैसे नारकीय जीवन का त्यागना ही भला. मन में ऐसे विचार आते ही यहाँ उसने खाई में छलांग लगा दिये. किंतु वह झाडी में फँस गई और चिल्लाने लगी. उसके शोर मचाने से ग्रामीणों के भय से डाकू भाग गये. किंतु वह पूरी रात खाई में झिरमुठ में फँसी असहाय ठिठुरती रही.
सब तुम्हारे कमोर्ं के ही फल हैं. एक दिन वैसा ही होना था.ष् ग्रामीण एकमत होकर बोले.
मैं वैसे नारकीय जीवन नहीं जी सकती. इसलिए आत्म हत्या कर रही थी, तुमलोग मुझे बाहर क्यों निकाले?ष् कोकिला रुष्ट होकर बोली.
यह तो बताओ कि पहले आत्महत्या हेतु छलांग लगाती हो फिर प्राण रक्षा हेतु गुहार. लोगों को परिशान करने हेतु वही नये काम चुने हैँ? ग्रामीण नाराजगी जताए.
आफत में फँसे लोग गुहार लगाते ही हैं. किसी की गुहार सुनो, यह किसने तुमसब से कहा? कोकिला बडे बेशर्मी से बोली. ग्रामीण एक—दूसरे के मुँह तकने लगे.
मनुष्य आदि काल से सामाजिक प्राणी रहा है. सुख—दुरूख में एक—दूसरे का साथ देना मनुष्यता है. फिर आत्महत्या किसी समस्या का निवारण किस तरह हो सकता है? आत्महत्या करना महज कायरता है. यदि तुम अब भी वैसा करना चाहती हो, तो कोई तुम्हें कबतक रोक सकता. सुन्दर बोला.
पिछली बातों के लिए कोकिला सुन्दर से मांफी मांगते हुए पुछने लगी कि अब वह क्या करे?
ईश्वर की मर्जी समझने की कोशिश करो. सोचो कि खाई में छलांग लगाकर भी किस हेतु तू बच गई? निरूसंदेह तुम्हें अपने बुरे कमोर्ं का प्राश्चित करने हेतु अभी अवसर मिले हैं. इसलिए सच्चाई को स्वीकारते हुए शेष जीवन प्राश्चित के प्रयत्न और सत्कर्म करो. सुन्दर बोला.
मुझे पता है कि मेरी कैसी भलाई तुम सोच सकते हो. मेरे सुख कभी सहन कर ही नही सकते, क्योकि तुम्हारे जैसा चरित्रहीन सदैव दूसरों को दुरूखी देखकर स्वयं प्रसन्न होना चाहता है. वह तुनकर बोली.
फिर उस चरित्रहीन को अपना कर उसके चरित्र सुधार क्यों नहीं देते अथवा स्वयं पर दया कर अपना जीवन ही सफल कर लो. श्याम ने कोकिला को टके सा जवाब दिया.
इसके प्रति मुझे कभी किसी तरह के लगाव नहीं रहे फिर इसका साथ तो मैं सौ जन्मों तक कबूल ना करुँ. मैं वापस उन्हीं लोगो के पास जा रही हूँ. मेरे पीछे कोई मत आना. इतना कहकर कोकिला तेजी से वापस डाकुओं के पास चली गयी.
मैंने कहा था ना,उसे बचाने के कोई फायदा नहीं. श्याम ने सुन्दर से कहा तो सभी ग्रामीणों ने उसमें सहमति जताई. सुन्दर सबको समझाते हुए कहने लगा,ष्यह सभी जानते हैं कि कर्म—फल अकाट्य होता है. सब कुछ जानते हुए भी बुरे संगति में पडे लोगों की प्रवृत्ति जिस तरह सत्कर्म की तरफ होना अति कठिन है, उसी तरह सच्चे मनुष्य की प्रवृत्ति मनुष्यता के रक्षा के प्रति होनी चाहिए. उसे सदैव विवेक पुर्वक निर्णय लेने हेतु सतर्क और प्रयत्नशील होने चाहिए.
ग्रामीण हँस कर सुन्दर से बोले,तुम्हें चरित्रहीन कहते हुए हमें दुरूख होता है, किंतु आनंद इस बात की आती है कि ऐसा करने से उत्तरोत्तर तुम्हारा विवेक अधिकाधिक सबल होता है. फिर हमलोग तुम्हारे प्रति आश्वस्त हैं कि तुम किसी का कभी अहित नहीं कर सकते. चलो गाँव चलते हैं. अभी समाज और संसार में तुम्हारा काफी परीक्षा होना भी तो शेष हैं.
जीवन स्वयं ही एक परीक्षा है. श्याम ने सुन्दर का हौसला अफजाई किया और सभी खुशी—खुशी वापस गाँव लौट आये.
जिज्ञासा (लघु कथा )—प्रदीप कुमार साह
किसी पेड़ पर एक कौआ रहता था. एक दिन उससे मिलने उसका मित्र तोता आया. दोनो मित्र मिलकर बडे आनंदित हुए, काफी देर तक एक—दूसरे का कुशल—क्षेम पुछते रहे. तभी दूर कहीं से पंक्षियों के जोर—जोर से चिल्लाने (चहचहाने) की आवाज आयी तो कौआ जिज्ञासावश अपने मित्र तोता से श्क्या माजरा हैश् चलकर देखने—सुनने का आग्रह किया. तोता थके होने का बहाना कर कौआ से बोला कि वह स्वयं जाकर देख आए. तब कौआ चला गया. कुछ समय बाद कौआ वापस आया और तोता से वहाँ के घटना के सम्बन्ध में बताने लगा. तोता बेमन से कौआ की बातें सुनता रहा. जब कौआ चुप हुआ तो तोते ने कहा,ष्अबतक इतने जिज्ञासु हो?
तोते की बात सुनकर कौआ को अपने परम मित्र के रुष्ट होने का आभाष हुआ. उसे यह आभाष भी हुआ कि तोते ने अपना जिज्ञासा कुंठित कर लिया है. जिज्ञासा को कुंठित कर देना तो एक बडा मानसिक विकार है. ऐसा विचार कर कौआ तोता से एक पुर्व घटना बताने लगा,एकबार अपने गुरु जी के साथ मैं एक पौराणिक महत्व के स्थान देखने गये. हमने उस जगह के बारे में बहुत कुछ सुन रखे थे. किंतु वहाँ जाकर हमें केवल जिर्ण—शिर्ण किले का खंडहर दिखा. मेरे गुरु जी जिज्ञासावश उस खंडहर का निरक्षण करने लगे.वैसा करते शाम हो गया. हम रात बिताने (गुजारने) वहीं एक पेड पर ठहर गये. अपने गुरु के पैर दबाते हुए मैंने उनके समक्ष प्रश्न रखे कि उस खंडहर में देखने वाली क्या बात थी ?
गुरुजी समझाये,वह पौराणिक खंडहर है, उसे खंडहर मात्र समझकर उससे संबंधित जिज्ञासा शांत कर लेना अच्छी बात नहीं थी. जिज्ञासा जीवमात्र का प्राकृतिक गुण है. ईश्वर जीवमात्र में इसे जन्म के साथ प्रदान किये हैं. सोचो कोई अबोध बच्चा भी आसपास के चीजों का निरक्षण क्यों करने लगते है? सांसारिक माया से मुक्त महापुरुष में जगत् कल्याण की भावना किस तरह आती है?
मैं गुरू जी की बातें ध्यान से सुन रहा था. थोडा ठहर कर गुरु जी पुनः समझाने लगे,जीवमात्र स्वयं जब आवश्यकता अथवा दुःख का अनुभव करते है तब इच्छा—पुर्ति अथवा उस कष्ट से मुक्ति हेतु उसमें मानसिक ऊर्जा अर्थात भाव जगता है अथवा यह भाव जगता है कि चिर सुख किस तरह प्राप्त किया जाए. मन में भाव जगना जीवमात्र के जीवित होने अथवा प्राणी के जीवन का द्योतक है.
इसी तरह किसी समस्या के कारण समझने तथा उसके निवारण जानने हेतु किसी जीवित प्राणी में स्वभावतरू भाव जगना अथवा मानसिक ऊर्जा सक्रिय होना ही जिज्ञासा है. जिज्ञासा जगना उस बात का प्रतीक है कि जीवमात्र सतत् सक्रिय और बदलाव एवं विकास केलिए स्वतरू उद्यमशील है. जिस तरह आवश्यकता अविष्कार की जननी है उसी तरह जिज्ञासा सामाधान का. इसलिये जिज्ञासा का जीवन में अत्यंत महत्व है क्यों कि जिज्ञासा ही मूलतरू सभी उन्नति और प्रगति के सुक्ष्म बीज हैं और उसे कभी दबाना या कुंठित नहीं करना चाहिये.गुरू जी द्वारा इस प्रकार समझाने से मेरी सारी अज्ञानता दूर हो गई.
जीवन और जमीर (कहानी)—प्रदीप कुमार साह
धीरज रसोईघर में उपयोग के छोटे—छोटे काष्ट उपकरण का फेरीवाला था. उसके दोनों पाँव पोलियो ग्रस्त होने से अक्षम था, किंतु वह बहुत साहसी था. वह ह्वील—चेयर से गाँव—गाँव जाता और घुम—घुमकर घोटनी—बेलन जैसी छोटी—मोटी चीजें बेचकर अपनी आजिविका कमाता था.
उस दिन स्टेशन वाले रास्ते से गुजरते हुए सुबह—सुबह बिक्री का अच्छा शकुन हुआ तो उसने शाम तक उसी रास्ते पर ठहर कर व्यापार करने का निश्चय किया.यद्यपि वह कम भीड—भारवाला रास्ता था, किन्तु ट्रेन आने—जाने के समय मेँ लोगों की चहल—पहल बड जाती थी.अभीतक के व्यापार से धीरज खुश था. थोडी देर बाद एक भिखारी वहाँ आया और उसके बगल में थोडा हटकर भीख मांगने बैठ गया. वह नित्य वही भीख मांगा करता था. भिखारी हृष्ट—पुष्ट था, किन्तु उसके पुरे शरीर पर खून रिसते कोड का घाव मालूम होता था. उसे देखकर किसी के भी जी भन्ना जाता. किन्तु धीरज उसपर विशेष ध्यान दिए बगैर अपना व्यवसाय करता रहा.
दोपहर का वक्त हुआ, रास्ते में लोगों की चहल—पहल कम हो गयी थी. धीरज को तेज भुख लगा.उसके पास दोपहर के भोजन के लिए रोटियाँ थी.वह भोजन करने बैठा तो भिखारी को कुछ रोटियाँ खाने दिए. किन्तु भिखारी ने रोटी लेने से मना कर दिया. खैर, धीरज भोजन किया और पानी पिया. उसके पश्चात् एक नजर भिखारी पर डाला तो देखा की वह कही चला गया है. अकेले होने के वजह से वह सुस्ताने लगा. अभी थोडी ही देर हुआ था की सामने से भिखारी किसी मंहगे दुकान से खाना खरीद कर मुस्कुराते हुए वापस आते नजर आया.
भिखारी वापस अपने जगह पर बैठते हुए सुना कर कहने लगा,मेरे ताउम्र दरिद्रगी रहेगी ही. इसलिए अच्छा भोजन करने का मौका क्यों गँवाऊ? खाना—पीना और बेफिक्र रहना यही तो जीवन के असली मजे हैं.
धीरज को वह सब अटपटा लगा,उसे अब उस भिखारी से घृणा हो रहा था. किन्तु उसने कोई जवाब न दिये. भिखारी भोजन करने लगा. भोजन करने के बाद उसने लंबी डकार ली और मुस्कुराते हुए धीरज से कहा,ष्यार, तुम्हारी रोटी तो बडी अच्छी थी. तुम्हारी पत्नी बनती है न ?
इसबार धीरज उसकी बातें अनसुनी कर दिया, किन्तु दुबारा पूछने पर झल्ला गया,नहीँ भाई, अपनी वैसी किस्मत कहाँ. अपना रसोई खुद ही तैयार करता हूँ.
क्यों,घर में और कोई नही हैं?
मेरी माता हैं. वह बेहद कमजोर है और बिमार रहती है.
हा! उसकी बातें सुनकर भिखारी के मुँह से आह निकला. स्टेशन पर कोई ट्रेन आई. वहाँ के वातावरण में ट्रेन—इंजन के आवाज से शोर हो गया. फिर स्टेशन से बाहर आते यात्रीगण दिखे. दोनों अपने—अपने जीविकोपार्जन हेतु तत्पर हो गए. थोडी देर बाद वहाँ पूर्व की भाँति यात्रियों का चहल—पहल कम हो गया.वहाँ का वातावरण शांत हो गया. काफी देर की शांति के बाद भिखारी धीरज से पूछा,रोज कितने कमा लेते हो?
महाजन को उसके पैसे देकर पचास—साठ रूपये बचा पाता हूँ.
बस इतना ही !श् भिखारी आश्चर्य से बोला. थोडा ठहर कर उसने धीरज से पूछा,मुझसे दोस्ती करोगे?
धीरज को भिखारी के आचरण से पहले ही घृणा हो गया था, अब भिखारी पर क्रोध भी आ गया. किन्तु वह शांत रहा,उसे जवाब न दिया. भिखरी भी धीरज के मनोभाव को समझ कर चुप हो गया. थोडी देर की चुप्पी के बाद भिखारी पुनः धीरज से कहने लगा,मैं एक आदमी को जनता हूँ. उसे तुम्हारे जैसे ईमानदार व्यक्ति की जरूरत है. शायद वहाँ तुम्हें कोई अच्छा काम मिल जाए. मेरी सलाह मानकर चलोगे तो काफी फायदे में रहोगे.
मुझ विकलांग को कोई नौकरी में भला क्यों रखेगा ? धीरज शंका जताया.
मेरी बात मानकर चलो तो सही. भिखारी ने अश्वासन दिया. अच्छा काम मिलने के आशा में धीरज ने भिखारी का विश्वास किया. दोनों मिलकर शाम में उस धनाढ़य से मिलने जाना तय किया. सामने स्टेशन से बाहर आते यात्रीगण दिखे. दोनों पूर्व की भाँति अपने—अपने जीविकोपार्जन हेतु प्रयत्न करने लगे. जब शाम हुआ तो धीरज भिखारी के उस धनाढ़य व्यक्ति से मिलवाने के वादे का स्मरण कराया. तभी वहाँ एक मंहगी गाडी आकर रुकी और उसका ड्राईवर भिखरी को एक बैग दे गया. भिखारी अपना सारा सामान समेटते हुए धीरज को चलने के लिए तैयार होकर रहने बोला और स्वयं एक तरफ चल दिया.धीरज झटपट तैयार होकर उसका इतंजार करने लगा.
धीरज के सामने तभी एक भद्र पुरुष आकर खडा हो गया. उस भद्र पुरुष के चेहरे पर धीरज का बरबस नजर पडा तो वह हतप्रभ रह गया. वह वही भिखारी था. वह तो बिलकुल भला—चंगा था और मुस्कुरा रहा था. उसने धीरज से चलने के लिए कहा. धीरज के दिमाग काम नही करने लगे. उस व्यक्ति ने धीरज से दुबारा कहा तो वह आगे—पीछे कुछ सोचे बिना उसके साथ इस तरह हो गया मनो एक बेजुवां यंत्र केवल आज्ञा पालन कर रहा हो. ड्राइवर गाडी का दरवाजा खोलकर दोनों को बैठाया और गाडी चल पडी.
गाडी एक आलीशान बिल्डिंग के अहाते में आकर रुका. गाडी के रुकते ही कुछ लोग उन्हें अंदर ले जाने आए. सभी उतर कर बिल्डिंग में चले गए. धीरज को एक हॉल में बैठाया गया. वह एक आलीशान हॉल था जहॉ उसके जैसे कुछ लोग पहले से बैठे साहब का इन्तजार कर रहे थे. धीरज भी अपने बारी का इंतजार करने लगा. वहॉ बैठकर हॉल के सजावट देखकर धीरज को स्वर्ग सा अनुभव हो रहा था. थोडी देर बाद उसने देखा की प्रतिभागीयों को साहब के पास एक—एककर भेजा जाने लगा. उसने देखा की अन्दर से मिलकर जो प्रतिभागी बाहर आता, वह प्रसन्नचित होता. तथापि वे सब पूरी गोपनीयता बरत रहे थे. इससे साहब से मिलने हेतु धीरज का बेसब्री भी बडता गया. सबके अंत में धीरज की बारी आई,उसे अंदर बुलाया गया.अंदर जाते हुए धीरज की बेचौनी और बड गया. उसका दिल जोर—जोर से धडकने लगा.
अंदर जाने पर सामने कुर्सी पर साहब बैठे थे,उसने शिष्टाचारवश उनका अभिवादन किया.अॉफिस स्टाफ उसे बैठा कर बाहर आ गए. सामने वाली कुर्सी पर बैठकर धीरज एक चोर निगाह साहब पर डाला तो एकदम से चौक गया,आप ?
हाँ तो ! तुम्हें अच्छे काम की तलाश है न?
कैसा काम मिलेगा मुझे ?
वही जो काम मैं करता हूँ, बिलकुल उसके योग्य हो.
किन्तु मुझे वह काम मंजूर नही.
क्यों ,क्या बुराई है उसमें ?
वह कोई काम कदापि नही हो सकता, बल्कि धोखेबाजी और छल—कपट है.
संसार में बहूत एक—दूसरे से छल—कपट रचते रहते है. जो थोडे सीधे—सादे लोग है उनके जीवन काफी संघर्षमय हैं.
संघर्षमय ही तो है, नामुमकिन नही. यदि वैसा होता तो वैसे जीवन का विकल्प चुनने से अच्छा उसका त्यागना है. मैं अपना जमीर खोना नही चाहता.
ज्यादा हठ ठीक नही. सोचो किसी के पास पैसे हों तो अपने बीमार माँ का अच्छे से इलाज करवा सकता है. घर—गृहस्ती बसाने के आनंद भी प्राप्त कर सकता है.
मेरे सारे संस्कार मेरे माँ की देन है, मेरा जमीर मेरी माँ है. उसने अबतक बहुत कष्ट झेले, किन्तु मुझे वैसे कर्म से हमेशा दूर रखी. उसे जिस दिन मालूम होगा कि मैने कपट से धन कमाए हैंय वह जीते—जी मर जायेगी. किन्तु वैसा मैं किसी कीमत पर होने ना दूँगा. फिर वैसा गृहस्ती बसाना भी क्या, जबकि आदमी खुद की नजरों में इतना गिर जाये की आगे की जिंदगी नर्क बन जाये.
तुम्हारे नजर में मेरी जिंदगी क्या है ?
आपके जिंदगी के बारे में मुझे कुछ नही कहना. मैं लोगों की नजर में हठी हो सकता हूँ. मेरे दींन—हीन अवस्था से कोई मेरे प्रति उदासीन रह सकता है, मेरी जिंदगी कोई जीना नही चाहेगा. किन्तु मेरे जीवन के बारे में जानकर कोई घृणा तो कतई नही करेगा. अब मुझे जाने की इजाजत दें.
धीरज के जवाब पर उसने कुछ नही कहा. घडी देखते हुए बोला,काफी समय हो गए हैं,भोजन का समय हो रहा है. तुम्हें भी भूख लग गए होंगे, चलकर भोजन कर लो.
मुझे क्षमा करें, रात में माताजी के सामने बैठकर भोजन करने की आदत है, यदि हो सके तो मुझे घर भिजवाने के प्रबन्ध कर दें . आपकी बडी मेहरवानी होगी.
मैं स्वयं उस माता के दर्शनाभिलाषी हूँ जिसके कोख में तुम्हारे जैसे रत्न हुए. इस पापी पर इतनी कृपा तो आवश्य करो.
साहब धीरज को उसके घर छोडने स्वयं साथ हो लीये.धीरज के घर में उसकी बीमार माँ चारपाई पर लेटी उसका इंतजार कर रही थी. साहब उसके माता की सेवा किये और उनलोगों को सप्रेम भोजन कराए. लौटते वक्त माता को प्रणाम किये और मना करने के वावजूद कुछ धन माता को अर्पित किये. साहब के बारम्बार आग्रह करने पर माता ने उसका अर्पण स्वीकार किया तो उसने स्वयं को अहोभाग्य समझा और वापस लौट गया.
नैतिकता (लघुकथा)—प्रदीप कुमार साह
कौआ और तोता दोनों मित्र बैठे गपशप कर रहे थे. तभी उसी पेड़ के नीचे एक कुत्ता हाँफता हुआ आया. यह अपने दुम से जमीन के उस हिस्से की सफाई करने लगा जहाँ इसे बैठना था. कुत्ते का कार्य—व्यवहार देखकर तोता कौआ से कहा,देखो,यह कितना नियमबद्घ है. काफी थके होने पर भी स्वच्छ्ता का कितना ध्यान रखता है.
नियमबद्ध तो सभी पशु—पंक्षी होते है,किन्तु यह तो नैतिकता, वफादारी और कर्तव्यपरायणता का प्रतिमूर्ति है.कौआ बोला.
पशु—पंक्षियों में कोई और जीव भी हैं जिसे स्वच्छ्ता का महत्व पता है ? तोता का जिज्ञासा हुआ.
वैसे जीवों की कमी नही हैं जिसे स्वच्छ्ता पसन्द हैं. भैंस और हाथी नित्य स्नान करते हैं, तुम्हें भोजन की स्वच्छता पसन्द है और बिल्ली मौसी, उसे तो यह भी पता होता की मल—त्याग कहाँ करना चाहिए. यह कहते हुए कौआ उड़ चला.
अरे मित्र, कहाँ जा रहे हो ? तोते ने आवाज दी. किन्तु कौआ कुछ कहने के वजाय आगे बढकर उस रास्ते से गुजर रहे एक राहगीर पर ऊपर से विष्टा कर दिया. राहगीर गुस्से में आकर कौआ पर ढेला दे मारा. पहले से सतर्क कौआ भाग गया और दूसरे पेड़ पर जा बैठा. ढेले का रुख अपनी तरफ देखकर तोता बेहद डर गया. अपने प्राण बचाने वह भी भागा. कौआ के पास जाकर गुस्से में कहा,मित्र, तुमने वह क्या किया ?
कौआ बोला,मैंने स्पष्ट किया कि मुझे भी स्वच्छ्ता के अहसास हैं. यदि हम स्वयं सफाई करने में असमर्थ हैं तो यह आवश्य ही कर सकते हैं कि नियत स्थान (गन्दे जगह) पर ही गंदगी डालें.
तुम्हारा दिमाग फिर तो नहीं गये. वह मनुष्य था. मनुष्य—रूप में कई बार तो ईश्वर भी अवतार लिए. तोता गुस्से में बोला.
समस्त योनियों मे निरूसन्देह मनुष्य योनी सर्वश्रेष्ठ है. ईश्वर उसे सर्वाधिक प्रतिभावान, सर्वगुण सम्पन्न और सर्वार्थकार्य—समर्थ बनाये. उसमें विवेक दिये. इस तरह उसे प्रकृति का सिरमौर बना दिए. इतना ही नहीं, समय—समय पर स्वयं उनके मार्ग—दर्शन एवम् उनके आदर्श स्थापन हेतु मनुष्य—रूप में विविध अवतार लिए और विविध लीलाओं और उपदेश द्वारा उनके कल्याण हेतु विविध नियम प्रतिपादित किये.
थोड़ा ठहर कर कौआ पुनरू कहने लगा,किन्तु मनुष्य! वह लोभवश अज्ञानी बने रहते हैं. लोभ—पूर्ति नही होने पर क्रोधी बन जाते हैं और हिंसक भी. इस तरह उनका विवेक खो जाता है. विवेक नष्ट हो जाने से नैतिकता भी चली जाती है. तब वह मनुष्य अनैतिक—अधम हो जाता है. ईश्वर प्रदत्त प्रतिभाओं और सर्वार्थकार्य समर्थ शक्तियों का दुरूपयोग करने लगता है. फिर वही अधमाधम इस प्रकृति हेतु अभिशाप बन जाता है.मनुष्य का जीवन उतना ही है जबतक उसमें विवेकशीलता और नैतिकता है. नैतिकता से रिक्त वैसे अधम शरीर और गन्दे जगह में क्या फर्क हो सकता है ?
कौआ की बात सुनकर तोते का क्रोध शांत हो गया. साथ ही पुनरू जिज्ञासा भी जग गयाष्प्रकृति क्या है, उसके गुण—धर्म क्या हैं और मनुष्य के क्या कर्तव्य हैं?
सृष्टि और सृष्टि में दृष्टिगोचर प्रत्येक चीज—वस्तु प्रकृति है. प्रकृति में एक विलक्षण क्षमता है. प्रकृति के सभी चीज सहअसितत्व पर निर्भर हैं. प्रकृति नीरा भोग्य वस्तु नही है. यहॉ प्रत्येक चीज वह जड़ अथवा चेतन जो कुछ है प्रकृति के हिस्सा हैं,और प्राकृतिक सन्तुलन बनाकर अपने विकास के मार्ग स्वयं प्रशस्त करते हैं.
कौआ लंबी साँस लेता हुआ आगे बताया,मनुष्य सर्वाधिक प्रतिभाशील, विवेकवान और सर्वार्थकार्य—समर्थ जीव हैं.उसका अस्तित्व भी प्रकृति पर आश्रित है. अतरू उसका भी कर्तव्य है कि प्रकृति का केवल दोहन ना करें, प्रकृति से उतना ही ले जितना उसे दे सके. प्रकृति का बिना हानि पहुँचाए सन्तुलित उपभोग करे. वह मनुष्य मात्र का नैतिकता है.
परपोते का जन्मदिन (लघुकथा)—प्रदीप कुमार साह
शाम का समय था, किन्तु अभी घोसला में लौटने का वक्त नहीं हुआ था. कौआ अपने पत्नी और बच्चों के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त था. तभी कौआ की नजर आसमान की तरफ गया. आसमान से एक धवल प्रकाश—पुँज तेजी से नीचे आ रहा था. सभी सतर्क हो गए और एकटक उस पुँज को देखने लगे. वह प्रकाश—पुँज गाँव के उस घर के आँगन में उतरा जहाँ उत्सव मनाये जा रहे थे. पत्नी की सहमति से कौआ कौतूहलवश वहाँ गया. वहाँ पहुँचकर उसने देखा की उस घर में धूम—धाम से बर्थ—डे पार्टी मनाया जा रहा है और वह धवल प्रकाश—पुँज एक आत्मा थी. आत्मा वहाँ मौजूद लोगों से पूछ रहा था,ष्अरे मेरा परपोता कहाँ है, आज तो उसके जन्म—दिवस हैं?
पर कोई उसके जवाब न दीये. वह आत्मा दुबारा पूछा,ष्यहाँ, अरे यह भीड कैसी है? इसबार भी किसीने कोई जवाब न दिये. फिर आत्मा ने तीसरे व्यक्ति को रोककर पूछने की कोशिश किये. किन्तु वह रुका ही नहीं. अब आत्मा झल्लाकर बोला,मेरी बात अरे, कोई सुनते क्यों नहीं?
कौआ से रहा नही गया. वह आत्मा से कहा,ष्यहाँ आपकी आवाज सुनने में कोई समर्थ नहीं हैं. उन्हें तो आपकी मौजूदगी के अहसास भी नहीं हैं. इसलिए आपका किसी से कुछ कहना व्यर्थ है.
काक,अरे तुम तो मुझे देख और सुन सकते हो. तुम्हीं मेरी मदद करो. मुझे मेरे परपोते दिखला दो, आज उसके आठारहवीं जन्म—दिवस हैं. आत्मा बोला.
वह जो केक काट रहा है, वही आपका परपोता है. कौआ बताया.
क्या बकते हो,अरे वह तो सर्कस का कोई जोकर मालूम होता है. फिर अपने जन्म—दिन के अवसर में मेरा प्रपौत्र पूजा—अर्चना और स्वयं के दीर्घायु होने की कामना करने के वजाय स्वयं जोकर जैसा तमाशा क्यों करेगा? आत्मा नाराज होकर कहा.
मालूम होता है, आप मृत्यु—प्राप्ति पश्चात् अपने स्वजन को देखने इससे पूर्व कभी नही आये? कौआ उस आत्मा से पूछा.
क्यों?...ऐसी क्या बात हो गई? अरे मैं यहाँ आता तो था. किन्तु अपने पुत्र—पौत्रों के वेवकूूफियों से यहाँ आकर मुझे हमेशा दूरूखी होना पडा. पिछली बार अपने इस परपोते के जन्म के समय आया, तब मैं बहुत खुश हुआ. तभी मैंने निश्चय किया कि मेरा यह प्रपौत्र जब समझदार और स्वंनिर्णय लेने योग्य होगा तभी दुबारा आऊँगा. आत्मा बताया.
आपके पुत्र—पौत्रों में क्या कमी थी? कौआ पूछा.
अरे क्या पूछते हो. वे सब संसय में सारा काम ही बिगाड देते थे. उन्हें अपने विवेक का कभी स्वयं उपयोग करना आता ही नही था. उनमें इस बात की पूरि समझ न थी कि जो अपने सभ्यता, संस्कृति और देश की रक्षा करने में असमर्थ हैं वे विश्व कल्याण की बातें सोच ही नही सकते. जिन्हें उन बातों का ज्ञान नहीं, वे केवल स्वार्थ की बातें ही कर सकते हैं. उनका विश्वकल्याण की बातें करना बेमानी है. उनका जीवन पृथ्वी पर भार है. वास्तव में सभी सभ्यता—संस्कृति अपने भौगोलिक वातावरण एवं परिवेश के अनुरूप अनेक पन्थों में बंटे हैं. यदि उनके पंथाई भावों को हटाकर देखा जाय तो सभी के एकमत से यही स्वीकारोक्ति है कि सभी जीवों में सद्भावना, प्रेम, कृतज्ञता और बुजगोर्ं के प्रति सम्मान होना चाहिए. आत्मा बोला.
मनुष्य में वेसब गुण क्यों होनी चाहिये? कौआ पूछा.
ये सत्गुण सृष्टि के संपोषक और संरक्षक हैं. इससे मनुष्य को आत्म—संतुष्टि और जीवन—शक्ति मिलता है.कृतज्ञ होने से देव, पितृ ऋण इत्यादि से मुक्ति और आशीर्वाद मिलता है .इससे मन प्रोत्साहित, प्रफुल्लित और विकासोन्मुख होता है अत्एव जीवन में सफलता प्राप्ति होता है. स्वस्थ और सुखी मनुष्य ही स्वस्थ मन और विचार प्राप्त करने योग्य हो सकता है. स्वस्थ विचार ही से जगत कल्याण होता है. आत्मा बताया. थोडा ठहर कर आत्मा पुनरू अपने प्रपौत्र को देखने की इच्छा कौआ के समक्ष व्यक्त किये.
आप जिसे सर्कस का जोकर समझ रहें हैं, वास्तव में वही आपका प्रपौत्र है. कौआ बताया.
वही मेरा परपोता है? अरे देखो, लोग कितने बदल गये हैं. मनुष्य कृतज्ञता और विवेक खोकर कैसे—कैसे बने पडे हैं! कहाँ स्वास्थ्यवर्धक स्वर्गभोग क्षिर के स्वाद और कहाँ यह केक. कहाँ कृतज्ञता, प्रेम, दयालूता और परोपकार का उत्सव और कहाँ यह उपहार हेतु उत्सव का व्यापार. कहाँ भाव,श्रद्धा और त्याग—विवेक युक्त जीवन और कहाँ यह कृतघन जीवन. कहाँ बुजुगोर्ं का सम्मान और कहाँ यह स्वाभिमान की रक्षा में असमर्थ लोग.आत्मा सोचा.
वह आत्मा दुरूखी होकर बोला,यहाँ धर्म भी है, कर्म भी है, किंतु श्रद्धा, विश्वास और सत्भाव रहित महज एक क्रुर खेल में.यहाँ अपने इस आगमन को अंतिम सुनिश्चित करते हुए अपने प्रपौत्र को आशीष और मुबारकवाद देता हुँ. ऐसा कहते हुए दुरूखी आत्मा आत्मग्लानी—युक्त निज स्वधाम पितृलोक हेतु विदा लिया.
पुरस्कार (कथा)—प्रदीप कुमार साह
कौआ काफी परिशान था. दरअसल उसके कई दिन से अपने घनिष्ठ मित्र तोता से मुलाकात नहीं हुई थी. उसे अपने मित्र को सुनाने के लिए खुशबरी थी और वह था कि मिलने आया ही नहीं. कौऐ को बडी चिंता हुई कि उसका मित्र कहीं किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गया है. कहते हैं की सच्चे मित्र की कसौटी संकट के समय होता है. वैसा सोचकर कौआ तोते से मिलने गया.वहाँ पहुँच कर कौआ देखता है कि उसका मित्र तो सचमुच उदास बैठा था.
अरे मित्र, क्या हुआ? इस तरह उदास क्यों हो? कौआ हैरान होते हुए पूछा.
पंक्षी साहित्य अकादमी द्वार मेरे नाम का चयन पंक्षी कवि—सम्राट के सम्मान से सम्मानित करने हेतु किया गया है. मेरे दुरूखी होने का वही वजह है. तोता बोला.
मित्र, अकादमी द्वारा पंक्षी कथा—सम्राट हेतु मेरे भी नाम के चयन हुए हैं. वह तो हम दोनों के लिये खुशखबरी है.फिर तुम किस हेतु दुरूखी हो?ष् कौआ आश्चर्य चकित हुआ.
मित्र वह आवश्य खुशखबरी होता, यदि मुझे यह खबर न होती. तोता बुझे मन से बोला.
कैसी खबर है? कौआ थोडे उत्सुकता से और थोडा आशंकित होकर पुछा.
खबर यह है कि पंछी अकादमी द्वारा सम्मान हेतु कुछ चयनित हस्ति एक—एककर सम्मान लेना कुछ इस तरह अस्वीकार कर रहें हैं कि बाकी हस्तियों के लिये उसे स्वीकार करना संकोच की बात हो सकती है. इस तरह एक समय अकादमी और सम्मान दोनों के औचित्य पर प्रश्न—चिन्ह लगना संभावित है. तोता बताया.
वह तो वास्तव में बुरी खबर है. मेरे विचार से किसी उच्च—कोटि हस्ती को सम्मानीत कर कोई सम्मान अथवा पुरस्कार स्वयं ही सम्मानीत होता है. क्योंकि कोई तभी उस मुकाम को छू सकता है जब वह पुरे दिलो—जान से अपने कार्य क्षेत्र में पुरा तल्लीन होता है. इस तरह उनका लक्ष्य बिना किसी प्रलोभन के—निरूस्वार्थ अपने क्षेत्र का विकास करना होता है,क्योंकि स्वार्थी किसी कार्य में तल्लीन हो ही नहीं सकते. सम्मान अथवा पुरस्कार तो उसके कर्म का दास है, क्योंकि कर्मफल अकाट्य होता है. फिर वैसे पहुँचे हस्तियों द्वारा सम्मान अस्वीकार करना निश्चय ही बेवजह अथवा महज एक छिछला स्वार्थ नहीं हो सकता. कौआ चिंतित होते हुए कहा.
मित्र, किसी आशंका,संभावना या किसी बात से पुर्णतया इंकार भी तो नहीं किया जा सकता कि वह छिछलापन न हों. क्योंकि संसार में कुछ वैसे स्वार्थी भी होते हैं जो अपने सामर्थय का दुरुपयोग करते हैं. फिर कुछ वैसे भी हो सकते हैं जो अयोग्य होकर भी सम्मान अथवा पुरस्कार हेतु नामित हो जाते हों. तोता चिंता जताया.
वह किस तरह संभव हो सकता मित्र! कौआ आश्चर्य से पुछा.
वह सब बिलकुल असंभव क्या हो सकता? यदि बिना मिहनत के कोई मुफ्त सम्मान प्राप्ति हेतु अथवा बेजा स्वार्थ पुर्ति हेतु केवल ख्याति प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रलोभन देकर कोई सम्मान की उपाधि अर्जित सके अथवा कुछ अपनी राजनैतिक पहुँच के प्रभाव से, तो कोई दबंगता से इसे हासिल कर सके तो वैसे में यह तय करना बेहद कठिन होगा कि वे सचमुच योग्य हैं और उनके सभी निर्णय विवेकपुर्ण है. तोता बोला.
वह तो वाकई हमारे पंक्षी सभ्यता हेतु प्रतिकूल बातें होंगी. हमारी सभ्यता में गणमान्य सम्मानित इसलिए किये जाते हैं कि समाज उनकी कृतज्ञता व्यक्त कर स्वयं उपकारित हो. सम्मान अथवा पुरस्कार की राशि सम्मानित गणमान्य हेतु उक्त क्षेत्र में आगे शोध कार्य में सहायक प्रयोज्य हों. किंतु किसी सम्मान का उपाधि की तरह धारण करने या प्रदान करने की प्रवृत्ति वाकई चिंता जनक हो सकती है. इससे सम्मानित हस्ती,अकादमी और सम्मान सभी संदेहशील हो सकते हैं और एक स्वच्छ संस्कृति पर प्रतिकूल असर पड सकता है. इससे एक सभ्यता के अस्तिव और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पडे बिना नहीं रहेगा. वैसे संभावित समस्या से निवृत्ति का क्या उपाय हो सकता है.ष् कौआ पुछा.
अकादमी के कार्य शैली की समीक्षा हो, सम्मानित हस्ती के नाम के चयन प्रक्रिया का मानक तय,पारदर्शी और स्पष्ट हो. यदि ऐसा करना संभव नही है तो समानता से यह तय किया जाय कि किसी जिवित हस्ती को सम्मानित न किया जाय. इससे श्रेष्ठ हस्ती अपेक्षा, उपेक्षा अथवा संसय मुक्त रहकर निरूस्वार्थ अपने क्षेत्र का विकास कर सकेंगे. यद्यपि इसके कुछ प्रतिकूल प्रभाव आवश्य हो सकते हैं किंतु किसी सम्मान का अनादर अथवा उपाधि रूप में धारण करने या त्यागने की प्रवृत्ति पर आवश्य ही अंकुश लगेगा. इससे योग्य श्रेष्ठ हस्ती का बिना भेद—भाव से सम्मान होना सुनिश्चित और संभव हो सकेगा. तोता बोला.
किंतु अभी सम्मान अस्वीकार करने वाले गणमान्य के अस्वीकरण के पीछे क्या विचार हैं ? कौआ पुछा.
उनका उद्देश्य निर्थक नहीं हैं. उनका सरकार से अपेक्षा है कि साहित्यकार—पत्रकार की सुरक्षा भी सुनिश्चत हो. फिर समाजिक सहयोग से साधारण जन—मानस की सुरक्षा के दायित्व भी तो मुख्यतरू सरकार के हैं. असमाजिक तत्वों पर इतना अंकुश तो आवश्य हो कि उसे कुछ भी करने की आजादी न मिल जाय. इन कलम के सिपाहियों का महत्व किसी भी तरह सीमा की सुरक्षा में तैनात जवानों से कमतर नहीं हैं. इनके जोखिम भी उतना ही हैं.
इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं कि देश,काल,संस्कृति और समाज में इनकी सेवा भी सराहनीय रही है. राष्ट्र के धुर विरोधियों ने किसी युद्ध बंदी के माफिक इनके भी दमन की चेष्टा किये. एक जाबांज की तरह सदैव समाजिक स्तर से वे भी देश हित में अपने प्राण निछावर करने ततपर रहते हैं. किंतु इनके समक्ष भी पारिवारिक मामले की वही मसले, वही समस्या है जो सीमा सुरक्षा में लगे जवानों की होती है. समाज और सरकार से उन्हें भी वही विश्वास दिलाना क्या आवश्यक नहीं है जो किसी सीमा सुरक्षा में लगे जवान को दिलाये जाते हैं. तोता अपने विचार रखे.
मित्र,वह सब तो ठीक है. किंतु ऐसा होने से साहित्यकार किसीके अहसान तले दब तो नही जायेगे? इस तरह भीष्म पितामह की धर्म निष्ठा की भाँति साहित्य—सृजनता पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पडेगे! उससे तो अच्छा यही है कि इस धर्म का स्वतंत्र,निष्पक्ष तथा यथा—साध्य पालन किया जाय. लेखनी वैसी हो जो शसक्त किंतु संयमित, खरा किंतु सृजनात्मक हो. उसमें सभी पक्षों के लिए उचित स्थान देय हो. स्वयं के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार किसी दूसरे के मौलिक अधिकार का हनन न करता हो. यह विषय विशेष गंभीर और चर्चा के विषय हैं, किंतु मुल तथ्य यह है कि समृद्ध साहित्य सृजनता हेतु इन बुद्धिजीवियों का स्वतंत्र, भयमुक्त और निष्पक्ष होना आवश्यक है. किंतु यह भी कि किसी भी बुद्धिजीवि द्वारा उचित रीती वो सही समय में सही जगह और सम्बंधित संस्थान से ही विरोध प्रकट करना चाहिए.केवल विरोध हेतु विरोध अर्थात् अंधविरोध नहीं होनी चाहिए. ताकि नये सृजन जो हो सकते हैं, वह आवश्य हो. वह भी पुर्व के विशुद्ध सृजन की बलिदान के बगैर.
अब दोनों मित्र निर्णय ले चुके थे कि एक स्वस्थ परंपरा की शुरूआत स्वयं से करते हैं. दोनों पंक्षी अकादमी को पत्र द्वारा नम्र निवेदित करते हुए स्वयं को अयोग्य ठहरा कर ताउम्र सम्मान स्वीकार न करने के संबंध में लिखे. ताकि स्वयं, सम्मान और पंक्षी अकादमी जैसे सृजनात्मक संस्थान के अस्तीत्व और गरिमा बनी रहे और प्रत्येक अन्याय के प्रति उनका विरोध भी सदैव मुखरित रहे.
स्वाध्यापन (लघुकथा)—प्रदीप कुमार साह
कौआ के बहुविध तर्क से सृष्टि के सिरमौर मनुष्य का अधमाधम श्रेणी में निरुपण होने से तोता चिंतित हो गया. वह सोचने लगा कि जिस योनी के प्राप्ति हेतु सृष्टि के सभी देहधारी प्रतीक्षारत और ललायित रहते हैं उसके प्राप्ती का फिर क्या लाभ? तोता का मनोभाव समझ कौआ हँसकर बोला,ष्विविध श्रुति में तो यहाँ तक कहे गये हैं कि सृष्टि से परे सक्रसुतादिक देवता भी अपने मूल गुण—धर्म, विवेकादि खो देने पर अधोगति प्राप्त किये.
मित्र, मनुष्य विवेकशील प्राणी हैं, फिर उनके आचरण और सत्कर्म निमित्त श्रुति में अनेक साधना और नियम उपदेशित हैं. इसके वावजूद वे अधोगति प्राप्त होते हैं. देवता भी अपने गुण—धर्म से विरक्त होकर अधोगति प्राप्त होते हैं. यह तो बडे आश्चर्य की बात है. इसके वास्तविक कारण क्या हो सकते हैं?ष्तोता अधीरता से पुछा.
इसमें आश्चर्य की बात तो कुछ भी नहीं, विवेक रहित होने से वैसा ही होता है. कौआ जवाब दिया.
आखिर विवेकवान् प्राणी अविवेकी किस तरह हो जाते हैं? तोता बडे आश्चर्य से पुछा.
जब मनुष्य चिर सुख प्राप्ति,सृष्टि संरक्षण और संवर्धन के उन साधना,उपायों और नियमों का एकाग्रचित्त मनन और पालन नहीं करते तब उनका मन सत्य—बोध नहीं कर पाता. इससे मन उच्छृंखल, अनियंत्रित और भ्रम में पडा रहता है. भ्रमित मन सत्य को अस्वीकार करता है और सदैव लोभ—कामादि से घिरा रहता है. इससे मन अत्यधिक अशांत हो जाता है और जीवन से ऊर्जा शक्ति का ह्रास होने लगता है. उसका अंतरूकरण पुकारता है. किंतु अविवेकी मनुष्य उसका पुकार सुन नहीं पाते. अंततः अंतरूकरण मंद पड जाता है और सारी प्रतिभा मृतप्राय हो जाती है. तब वह विवेकहीन मनुष्य भयावह तरीके से सृष्टि दोहन और विनाश की ओर अग्रसर होता है. वस्तुतः प्रकृति में सभी अन्योश्रित हैं और मनुष्य भी प्रकृति पर आश्रित है. इस तरह मनुष्य जाने—अनजाने स्वयं के नाश के रास्ते पर चल पडता है. श्रुति में देवताओं के अधोगति प्राप्ति का वही कारण बताया गया है. कौआ बोला.
फिर वेद, उपदेश और कथा की क्या उपयोगिता रह जाती है? उसकी क्या आवश्यकता और मुल्य रहता है? तोता मुँह बनाकर बोला.
ईश्वर समरस सृष्टि के चराचर में व्याप्त हैं तथा समस्त सृष्टि उनकी संतान हैं. इस हेतु वही समस्त सृष्टि के सच्चे हितैषी और समर्थ गुरू हैं. वे ही प्रकृति स्वरुप हैँ, वही प्रकृति रक्षण और संवरर्धन हेतु देव, गुरु इत्यादि रूप में अवतरित होते हैं. प्रणव रूप में वे ही वेद—पुराण हैं. उन रूपों में वे करूणानिधान ही कृपा कर अपने संतानों के हितार्थ ज्ञान प्रदान करते हैं. किंतु जिसके अंतरूकरण जागृत नहीं हैं अर्थात् जो अज्ञानी हैँ वह ज्ञान ग्रहण करने में किसी भी तरह असमर्थ होते हैँ. यदि किसी भाँति थोडा समझ में आ भी जाय तो वह एक—दूसरे से स्वयं के बडा ज्ञानी ठहराने हेतु उपदेश केवल कहने में नष्ट कर देते हैं. स्वयं उसका समुचित लाभ ले नहीं पाते.
समुचित लाभ किस तरह प्राप्त किया जा सकता है? तोता कौआ से पुछा.
समुचित लाभ हेतु अंतरूकरण जागृत करना होता है. अंतरूकरण तभी जागृत हो सकता है जब स्वाध्यापन का सेवन किया जाय. स्वाध्यापन से विवेक और बुद्धि दृढ होता है तथा हृदय निष्कलंक और निष्पक्ष. वैसे हृदय में सत्य—बोध होता है. श्रद्धा,विश्वास और विवेक आता है. तब स्वयं प्रकृति बोध होता है.बोध होता है कि प्राणी पंचतत्व और ऊर्जा शक्ति से बना स्वयं एक लघु सृष्टि है.उसके शरीर के विभिन्न तत्व परसपर अन्योश्रित, सहस्तीत्व और सहभागिता में अवस्थित और बंधे हैं. इस तरह वह अपना समुचित स्थान प्राप्त कर सकता है. स्वाध्यापन से तातपर्य है—चिंतन, मनन और आत्मनिरक्षण, ततपश्चात मन को तथ्य से अवगत कराना. यह अप्रत्यक्ष किंतु श्रेष्ठ और प्रभावशाली संत्संग है.ष् इतना बता कर कौआ भ्रमण हेतु चला गया.