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प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार

प्रदीप कृत लघुकथाओं का संसार

भाग-5

प्रदीप कुमार साह

विश्वसनीयता (लघुकथा)

एक शिक्षक अपने छात्र को साहित्य विषयक पाठ का पठन-पाठन कराए. तत्पश्चात छात्र को संबोधित अपनी टिप्पणी में कहा,"तो बच्चों, पाठ के माध्यम से आपने जाना कि एक अच्छी साहित्यिक पुस्तक किस तरह उचित मार्गदर्शन प्रदान करता है और किसी आदमी की जिंदगी बदल सकता है."

तभी शिक्षक की अनुमति से एक छात्र नम्रतापूर्वक अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखा, "श्रीमान, एक अच्छी साहित्यिक पुस्तक का उचित मानदंड क्या है?"

शिक्षक स्नेहपूर्वक उसे समझाया,"एक पुस्तक को तभी अच्छी साहित्यिक पुस्तक की मान्यता मिल सकती है जबकि उसके पाठक के आयुवर्ग के मद्देनजर उसमें रोचक और शिक्षाप्रद रचनाओं का समावेश हो तथा वह सकारात्मक उद्देश्य प्राप्त कराने में सहायक हो."

सीधा-सादा छात्र मासूमियत भरे शब्द में पुनः पूछा,"श्रीमान, अच्छी और शिक्षाप्रद साहित्यिक पुस्तक में संकलित रचना की गुणवत्ता में विश्वसनीयता-स्थापन की आवश्यकता क्या नहीं है, यथा एक शिक्षक और उनके छात्र तथा एक माता-पिता एवं उनकी संतति के मद्ध्य विश्वसनीयता सदैव स्थापित रहती है?"

शिक्षक सहजता से बोले,"हाँ, वह तत्व तो बेहद आवश्यक है."

छात्र पुनः पूछा,"श्रीमान, किसी रचना की विश्वसनीयता क्या उसके पात्र पर निर्भर नहीं होता?"

छात्र के बहुविध प्रश्न से शिक्षक को आश्चर्य हुआ, तथापि वह स्नेहपूर्वक बोले,"हाँ, यह तथ्य भी सत्य है कि किसी रचना की विश्वसनीयता उसके पात्र पर पूर्णरूपेण निर्भर है."

छात्र निर्भीकतावश पुनः अपने शिक्षक से पूछा,"श्रीमान, जब एक साहित्यिक पुस्तक में कोई भी रचना वह प्रतीत नहीं होता कि उसके पात्र की वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई संबंध है, तब वह पुस्तक अपने उद्देश्य-पूर्ति में सफल क्या हो पाता है?

उक्त परिस्थिति में एक पुस्तक और उसमें समाहित रचना पाठक के समक्ष सकारात्मक चुनौती स्वीकार करने से संबंधित लक्ष्य रखने में सफलता हासिल क्या करता है? उक्त पुस्तक की विश्वसनीयता क्या तब भी अक्षुण्ण रहती है? पुनः जिसकी स्वयं की विश्वसनीयता संदिग्ध है, वह एक जिंदगी बदल सकने में कदाचित समर्थ क्या हो सकता है?"

छात्र के एकाधिक प्रश्न से शिक्षक की भृकुटि तन गई. तथापि वह संयत रहकर कुछ समय तक विचार किया. फिर अनायास ही बोल पड़ा,"वास्तव में संसार की सबसे बड़ी चीज किसी विषय-वस्तु की विश्वसनीयता होती है. संसार में विश्वसनीयता-रहित बड़ी से बड़ी चीज-वस्तु महत्वहीन हैं."

***

अचल कर्तव्यनिष्ठा (लघुकथा)

मिस्टर शर्मा की मेहनत रंग लाया और अंततः उसकी नियुक्ति खाद्य संरक्षण विभाग में बतौर निरीक्षक के पद पर हुआ. भली-भाँति विभागीय प्रशिक्षण प्राप्त कर ओहदा संभालते ही अत्मविश्वास, कर्तव्यनिष्ठा और कुछ अच्छा कर गुजरने की ख्वाहिश से लबरेज उसकी आँखें अनायास ही चमक उठी. परंतु पता नहीं यह संसार प्रत्येक के परीक्षण हेतु सदैव इतना आतुर रहता क्यों है?

अपना कार्यभार संभालते ही कर्तव्यनिष्ठा से भरपूर उस नव-नियुक्त अफसर के समक्ष भी बगैर उसे दो घड़ी चैन की साँस लेने दिए ही उसकी परीक्षा की घड़ी आ गई. शायद जन सामान्य में मुनासिब सरकारी सहायता प्राप्त हो सकने की आशा भी उस धारणा की वजह से अबतक शेष था कि किसी विभाग में नव-युक्त अफसर सुसंस्कारित, पूर्ण प्रशिक्षित और भ्रष्टाचार में अलिप्त होते हैं.

सामान्य-जन के आशानुरूप ही शिकायत प्राप्ति के अगले ही दिन अपने कार्यालय में पहुँचकर उसने स-हिदायत अपने विभागीय दल-बल को इकट्ठा किया. फिर सबने मिल बैठकर सामनेवाली चाय की दुकान से गर्मागर्म कड़क चाय मंगवाकर पीया. फिर शिकायत-निस्तारण हेतु दूध में मिलावट करने वाले छोटे-बड़े मिलावटखोर दूध विक्रेता की खोज में सभी पूरे मनोयोग से निकल पड़े.

उस दिन खाद्य-संरक्षण विभाग का देर शाम तक जगह-जगह छापेमारी पड़ा. यद्यपि छापेमारी से किसी भी गलत व्यक्ति की निशानदेही नहीं हो सका, तथापि ताबड़तोड़ विभागीय छापेमारी से जन-सामान्य में बेशक एक विशिष्ट संदेश गया. अब उस नव-नियुक्त अफसर में एक बेहद साफ-सुथरा और अतिशय ईमानदार एक कड़क अफसर की छवि होने से संबंधित चर्चा जोर-शोर से चल पड़ी.

अब तो उसके नेतृत्व में क्षेत्र में विभागीय छापेमारी नियमित रूप से होने लगा. किंतु दोषी को पकड़ने में विभाग को संभवतः कभी सफलता प्राप्ति नहीं हुई. बारंबार की असफलता से विभाग के प्रति जन-अपेक्षा भी पुनः लुप्तप्राय हो गया. किंतु उससे बेफिक्र मिस्टर शर्मा लंबे समय तक अपने पद पर यथास्थिति बने रहे और अपना कर्तव्य-निर्वहन करते हुए सेवानिवृति के कगार तक निःसंदेह पहुँच गए.

उनकी सेवा निवृति में कुछेक महीना ही शेष रह गया था. तभी एक दिन उनको विभागीय प्रोन्नति प्राप्ति की सूचना प्राप्त हुई. सुसमाचार प्राप्ति से मिस्टर शर्मा बहुत प्रसन्न हुये. उस खुशनुमा उपलक्ष्य में अपने स्टाफ हेतु कार्यालय ही में टी-पार्टी आयोजित किये. आज चाय पहुंचाने उसका पुराना दुकानदार स्वयं ही आया, जो अब बिलकुल बूढ़ा हो चला था. चाय पहुँचते ही सब जमकर टी-पार्टी मनाये.

जश्न मनाते हुये मिस्टर शर्मा बारंबार जिक्र करते कि उनके समर्पित कर्तव्यनिष्ठा के बदौलत ही उनका कार्यक्षेत्र मिलावटखोर से सदैव मुक्त रहा. वृद्ध दुकानदार एक कोना में खड़ा होकर सब कुछ सुनता रहा. जब पार्टी का समापन हुआ तो वह शर्मा जी के समक्ष करबद्ध खड़ा हो गया. मिस्टर शर्मा के पूछने पर उसने दूध में मिलावट करनेवाले की खोज और उचित कार्यवाही करने से संबंधित गुहार लगाया.

दुकानदार की बात सुनकर मिस्टर शर्मा चौंक गए," तुम्हारा चाय भी तो दूध ही से बनता है न? फिर चाय पीकर तो कभी वैसा महसूस नहीं हुआ कि वह कृत्रिम रसायनयुक्त पानी के मिलावटवाली दूध से बनता हो?"

"श्रीमान, आपके विभागीय कार्यवाही से डरकर आपको परोसा जाने वाला चाय में सदैव ही ज्यादा उबाल लगाता जिससे पीते समय उसमें मौजूद कृत्रिम रसायनयुक्त पानी की गंध और मात्रा का मालूम न चल सके. फिर डरने की बात वह थी कि मिलावटखोर दूध विक्रेता की कारगुजारी का दंड मुफ़्त में किसी निर्दोष चाय विक्रेता को प्राप्त न हो जाए." वृद्ध दुकानदार बोला.

"किंतु दूध में मिलावट संबंधित बात कभी स्वयं ही किसी से क्यों नहीं बताया?"

"श्रीमान, आपके कर्तव्यनिष्ठा से बारंबार प्रतीत होता कि दोषी व्यक्ति एक दिन निश्चय ही शिकंजा में आयेगा. फिर आप सदैव चाय के शौक़ीनो में एक रहे. तथापि कभी एक बार सोचते कि चाय में भी दूध का इस्तेमाल होता है तो आपको दूध के मिलावटखोर के कार्यसमय का स्वतः ही सही अंदाजा हो जाता और दोषियों पर अबतक उचित कार्यवाही भी हो पाता."

"अर्थात आपने यह समझा कि मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण और संपूर्ण घर गृहस्थी ही विभाग के पास गिरवी है, जबकि आप स्वयं ही मिलावटखोर को उस तरह बेजा सहायता पहुँचाते रहे...?" वैसा कहते हुये मिस्टर शर्मा की न केवल भृकुटि तन गई, अपितु उसने बूढ़े दुकानदार पर खाद्य संरक्षण अधिनियम के तहत कठोरतम क़ानूनी कार्यवाही करते हुये उसे पुलिसिया हिरासत में भी ले लिया.

यह मिस्टर शर्मा द्वारा उसके कार्यकाल में संभवतः प्रथम दर्ज एफ. आई. आर. था, जिसे दर्ज करने पर उसे आत्मिक संतुष्टि और अपना अचल कर्तव्यनिष्ठा निभाने का एक गंभीर आनंद प्राप्त हो रहा था. उधर एक पक्षीय होकर उस घटना को सनसनीखेज खबर-रूप में प्रसारित करने और टी.आर.पी. भुनाने में कुछ मिडिया समूह पूरे जी-जान से जुत गये. ततपश्चात कुछ अन्य पक्ष भी अपने-अपने अचल कर्तव्यनिष्ठा के शक्ति परीक्षण और प्रदर्शन में लग गए.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)

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