कश्मीर समस्या परिप्रेक्ष्य में Rashmi Bhatt द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कश्मीर समस्या परिप्रेक्ष्य में

कश्मीर समस्या—विस्तृत परिप्रेक्ष्य में

भारतीय विदेश नीति में भारत पाकिस्तान संबंधों का विश्लेषण महत्व रखता है। कश्मीर का विषय भारतीय विदेश नीति की मुख्य समस्या है। भारत—पाकिस्तान सबंधों में पाकिस्तान कश्मीर को केन्द्रीय मुद्दा मानता है। वह कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात करता है तथा चीन या अमेरिका की मध्यस्थता चाहता है। भारत के अनुसार कश्मीर में जनता द्वारा चुनी हुयी सरकार है, जो लोकतंत्र का उदाहरण प्रस्तुत करती है तथा जनमत संग्रह के औचित्य को नकारती है। भारत का मानना है जनमत संग्रह अब सम्भव नही है तथा कश्मीर समस्या मूलतः पाक प्रायोजित आतंकवाद के कारण है।

उल्लेखनीय है कि कश्मीर समस्या का विश्लेषण निम्नलिखित प्रमुख तथ्यों के आधार पर किया जा सकता है— प्रथम, कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता का प्रश्न। द्वितीय, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महाशक्तियों का दृष्टिकोण। तृतीय, भारत—पाकिस्तान के मध्य सैन्य बल का सन्तुलन। चतुर्थ, कश्मीर व भारत की आन्तरिक राजनीति। पंचम, दोनों देशों की अर्थव्यवस्था की स्थिति। छठवां, दोनों देशों के बीच वार्ता की सफलता।

प्रथम : कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्ता का प्रश्नः —

दक्षिण एशिया मे ब्रिटिश शासन के दौरान कश्मीर एक स्वायत्त राज्य था। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने यहाँ प्रत्यक्ष शासन स्थापित नही किया था। ब्रिटिश शासन की समाप्ति के पश्चात अन्य स्वायत्त राज्यों की तरह कश्मीर को भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का अधिकार प्राप्त था। अगस्त 1947 तक कश्मीर के शासक महाराजा हरिसिंह ने विलय के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं लिया। पाकिस्तान मुस्लिम धर्मी राज्य होने के नाते कश्मीर को अपने साथ मिलाना चाहता था। 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण किया गया। इसके फलस्वरूप 26 अक्टूबर को कश्मीर के शासक हरिसिंह ने भारत में विलय की घोषणा की तथा सैन्य सहायता की मांग की। 27 अक्टूबर को भातरीय सेनायें कश्मीर भेज दी गयीं तथा अधिकांश भाग पर नियंत्रण स्थापित किया गया। भारत व पाकिस्तान द्वारा इस सामरिक महत्व के राज्य को अपने राष्ट्र में विलय के लिये हर सम्भव प्रयास किया गया।

द्वितीय, अंतराष्ट्रीय राजनीति में महाशक्तियों का दृष्टिकोण,

भारत के अनुरोध पर कश्मीर के विषय को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष रखा गया। सुरक्षा परिषद में बड़ी शक्तियों ने इस विषय पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया, संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यवेक्षक नियुक्त किया, कश्मीर में जनमत संग्रह का प्रस्ताव दिया। जनमत संग्रह के लिये उचित परिस्थितियाँ उत्पन्न होने के कारण इस प्रस्ताव को कार्यान्वित नहीं किया जा सका। 1950 के दशक में शीत युद्ध के वातावरण में अमेरिका द्वारा पाकिस्तान के पक्ष का और सोवियत संघ द्वारा भारत के पक्ष का समर्थन करने से सुरक्षा परिषद में इस विषय पर सहमति नहीं बन पायी। 1965 और 1971 में भारत—पाकिस्तान युद्ध होने से कश्मीर की समस्या अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में और अधिक उलझ गयी। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, भूमण्डलीकरण के दौर में, अमेरिका और भारत के संबंधों मे सुधार हुआ तथा अमेरिका के लिये भारत का भू— राजनैतिक महत्व बढ़ गया। ऐसे मे सन्‌ 1999—2000 के कारगिल युद्ध मे अमेरिकी राष्ट्रपति विल क्िंलटन ने भारत का समर्थन किया तथा पाकिस्तान को सेना हटाने का सुझाव कड़े शब्दों मे दिया। उन्होंने कहा जब तक हिंसा नही रूकती तब तक कश्मीर समस्या नही सुलझेगी।

ज्ञातव्य है कि 2 सितम्बर 2015 में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा उठाया। पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली के कार्यकारी अध्यक्ष मुर्तजा अब्वासी ने संसद के अध्यक्षों के चौथे सम्मेलन में कहा कि कश्मीरी जनता के लिये इस वैश्विक संस्था के तहत जनमत संग्रह कराने का यही वक्त है। उन्होनें कहा, लम्बे समय से चला आ रहा विवाद इस क्षेत्र में कटुता उत्पन्न कर रहा है। पाकिस्तान का मानना है कि विवादों मे सबसे बड़ा मुद्दा जम्मू—कश्मीर का है। जबकि अमेरिका मे पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी के मुताबिक, कश्मीर पाकिस्तान मे एक भावनात्मक मुद्दा है। पाकिस्तानी नेता जनता को यह बताने में असफल रहे है कि पाकिस्तान को इस मुद्दे पर अंतराष्ट्रीय समर्थन हासिल नहीं है। हुसैन हक्कानी ने एक लेख मे लिखा, अधिकतर पाकिस्तानी यह नही जानते है कि कश्मीर के संबंध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आखिरी प्रस्ताव 1957 में पारित हुआ था और यदि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र मे नये मतदान की बात करता है तो वह कश्मीर में जनमत संग्रह के लिये आज समर्थन हासिल नहीं कर सकता।

तृतीय, भारत व पाकिस्तान के मध्य सैन्य बल का संतुलनः—

भारत व पाकिस्तान के बीच सैन्य संतुलन का कश्मीर समस्या पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा। 1950 के दशक के आरम्भ में पाकिस्तान व अमेरिका के बीच सैन्य संधि के कारण पाकिस्तान को भारत के विरूद्ध अपनी शक्ति में वृद्धि करने का अवसर मिला। इस क्षेत्र में 1965 के युद्ध में दोनों देशों के बीच गतिरोध की स्थिति बनी रही। 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध से पाकिस्तान का विघटन हुआ तथा पाकिस्तान की शक्ति में कमी आयी। इस कमी को दूर करने के लिये पाकिस्तान ने परमाणु शस्त्रों की प्राप्ति के लिये प्रयास किया तथा भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देकर उसे कमजोर करने का प्रयत्न किया गया। 1998 में भारत व पाकिस्तान द्वारा परमाणु परीक्षण करने से दोनों राज्यों के बीच शक्ति के आतंक की स्थिति उत्पन्न हो गयी। परमाणु वैज्ञानिको की बुलेटिन द्धारा विकसित इण्टरैक्टिव इन्फोग्‌ांफ के अनुसार वर्ष 2007 से 2013 के मध्य भारत एवं पाकिस्तान ने अपनी परमाणु क्षमता मे दोगुना वृद्धि की है भारत के पास 110 परमाणु हथियार है तथा पाकिस्तान के पास 120 परमाणु हथियार है।

चुतर्थ, कश्मीर व भारत की आतंरिक राजनीतिः—

कश्मीर की समस्या का एक पक्ष एक पक्ष यह है कि 1948 के पश्चात कश्मीर राज्य का विभाजन पाक अधिकृत क्षेत्र एवं भारत के जम्मू व कश्मीर राज्य में हो गया है। युद्ध विराम रेखा हो जाने के बाद पाकिस्तान के हाथ में कश्मीर का 32,000 वर्ममील क्षेत्रफल रह गया, इसकी जनसंख्या—07 लाख थी तथा भारत के अधिकार में 53,000 वर्गमील क्षेत्रफल था, जिसकी जनसंख्या 33 लाख थी।

जम्मू—कश्मीर का पृथक संविधान बनाया गया तथा कश्मीर को भारतीय संविधान में विशेष स्थान प्रदान किया गया। इस संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत जम्मू—काश्मीर में प्रजातांत्रिक सरकारों की स्थापना हुयी। यह सरकारें राज्य को स्वच्छ, सफल प्रशासन देने मे कामयाब नही हुयी। इससे राज्य में अव्यवस्था व असंतोष को बढ़ावा मिला। पाकिस्तान में सैनक शासन के समय कश्मीर के विषय पर टकराव का दृष्टिकोण अपनाया गया। भारत में केन्द्र की सरकारों द्वारा इस विषय पर स्थायी एवं तर्कसंगत नीति बनाने मे विशेष सफलता नहीं मिली। इस कारण कश्मीर समस्या अधिक जटिल हो गयी।

पंचम, भारत व पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की स्थितिः—

हाल के वर्षो में अंतराष्ट्रीय राजनीति मे राष्ट्रीय सुरक्षा के राजनीतिक व सैनिक पक्षों के आर्थिक पक्ष को भी प्राथमिकता दी गयी है। इसके अनुरूप भारतीय विदेश नीति में भी आर्थिक विकास की गति को तीव्र बनाने के प्रयासों को अधिक महत्व दिया जा रहा है। आर्थिक नीति में इन परिवर्तनों के फलस्वरूप दोनों राज्यों द्वारा अपनी सुरक्षा के विषय को केवल राजीतिक दृष्टिकोण से न देखकर, आर्थिक दृष्टिकोण से न देखकर आर्थिक दृष्टिकोण से भी देखने का प्रयत्न किया जा रहा है। यद्यपि दोनों देशाें के बीच मात्र 2.25 अरब डॉलर का ही वार्षिक व्यापार होता है और निवेश लगभग शून्य है। यदि दोनों देश द्विपक्षीय व्यापार को प्रोत्साहन दें तो दोनो देशो के बीच वार्षिक 100 अरब डॉलर का व्यापार हो सकता है। दोनों देशों को अपने संबंध को सुधारनक के लिये द्विपक्षीय व्यापार तथा निवेश को प्रोत्साहन देना चाहिये।

छठवां, भारत पाकिस्तान के बीच वार्ता की स्थितिः—

वस्तुतः पाकिस्तान द्वारा सीमा पार आतंकवाद को संरक्षण प्रदान किये जाने के कारण कश्मीर विवाद के शांतिपूर्ण समाधान में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। इन आतंकवादी गतिविधियों की परकाष्ठा 1993 के बम विस्फोट, 13 दिसम्बर 2001 को भारतीय संसद पर हमला, 11 जुलाई 2006 को मुम्बई की लोकल ट्रेनोंं मे बम विस्फोट तथा 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई में आतंकवादी हमले के रूप में परिलक्षित होती है। परिणाम स्वरूप दोनों देशों के संबंधों मे आपसी विश्वास की कमी प्रमुख समस्या है।

भारत—पाकिस्तान के संबंधों में तनाव के वावजूद आपसी संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयत्न किये जाते रहे, जैसे—ताशकंद समझौता 1966, शिमला समझौता 1972, लाहौर घोषणा—पत्र 1999, आगरा शिखर वार्ता 2001 तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा राष्ट्रपति जरदारी की अप्रैल 2012 मे अनौपचारिक वार्ता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा नवाज शरीफ की मई 2014 में द्विपक्षीय वार्ता इत्यादि। वार्ता के क्रम में अक्टूबर—2003 मे 12 सूत्रीय प्रस्ताव पर सहमति हुयी, जिसमें जम्मू—कश्मीर में शांति व सुरक्षा स्थापित करते हुये शांतिपूर्ण समाधान के प्रयास शामिल है। लेकिन मुम्बई हमले के बाद इन प्रयासों को धक्का लगा। भारत ने पाकिस्तान के साथ वार्ता को सदैव प्राथमिकता दी है। परिणाम स्वरूप सन्‌ 2010 से विदेश मंत्री, विदेश सचिव, गृह सचिव, गृहमंत्री, प्रधानमंत्री स्तर तथा विग्रेड कमाण्डर स्तर की फ्लैग मीटिंग की बातचीत शुरू की गयी।

पाकिस्तान द्वारा सीमा पार से लगातार गोलाबारी करना तथा हुर्रियत नेताओं से वार्ता करना, वार्ताओं की विफलता निश्चित कर देता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यद्यपि पाकिस्तान मे चुनी हुयी सरकार है लेकिन बातचीत की सफलता के लिये पाकिस्तानी सेना से बातचीत भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हाल ही मे विग्रेड कमाण्डर स्तर की अहम फ्लैग मीटिंग के दौरान, यह निर्णय लिया गया कि नियंत्रण रेखा पर संयम वरता जायेगा। पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन इक्कानी के मुताविक, ” कश्मीर पर रूख पाकिस्तान को कही नही लेकर जायेगा, लेकिन पाकिस्तानी नेताओं को लगता है कि उन्हें अपने देश मे इस्लामियों और सेना का समर्थन हासिल करने के लिये कश्मीर का राग अलापना होगा।”

वस्तुतः हम कह सकते है कि भूगोल को बदला नही जा सकता, इसलिये अपनी सकारात्मक सोच से इतिहास के कटु क्षणों को भुलाकर नये दौर में दोनों देश आपस में मिलकर समस्या का सौहार्दपूर्ण हल निकालने के लिये प्रायस करें।

अन्ततः, कश्मीर की समस्या के अध्ययन के लिये एवं उसके समाधान के प्रयत्न के लिये उपरोक्त पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक है। इन क्षेत्रों में समाधान करने से कश्मीर की समस्या के समाधान की तरफ बढ़ा जा सकता है।