प्रेमबयानी Prabhat Ranjan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेमबयानी

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प्रभात रंजन की प्रेम कहानियां

घटते-बढ़ते प्रेम की कहानियां. समकालीन जीवन की भागती-दौड़ती प्रेम कहानियां, जिसमें सुकून के पल कम हैं, समकालीन जीवन के तनाव अधिक हैं.

इंटरनेट, सोनाली और सुबिमल मास्टर

मुजफ्फरपुर वाले दिवाकर भइया का ईमेल आया था। लिखा था- ‘पिछले कुछ समय से मुझे तरह-तरह के ईमेल आने लगे हैं। कई मेल अलग-अलग विदेशी संस्थाओं के नाम से आए जिनमें यह सुखद सूचना होती है कि मेरे ईमेल पते को लकी ड्रा के आधार पर अलां या फलां पुरस्कार के लिए चुना गया है। पुरस्कार की राशि लाखों डॉलर या पाउंड में होती है।‘

पिछले महीने एक मेल आया जिसमें लंदन के पते वाली एक संस्था ने मुझे सूचित किया कि उनकी पुरस्कार समिति ने मुझे पांच मिलियन पौंड की पुरस्कार राशि के लिए चुना है। लिखा था कि पुरस्कार प्राप्त करने के लिए मुझे कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी। पहली औपचारिकता के तौर पर बायोडाटा, पत्र व्यवहार का पता, फोन नंबर आदि की मांग की गई थी। मैंने ईमेल से वह औपचारिकता पूरी कर दी। अगला मेल आया कि इतनी बड़ी पुरस्कार राशि विदेश में आपके पास भेजने के लिए कुछ कागजात बनवाने पड़ेंगे, पुरस्कार की राशि चूंकि आपको चेकस्वरूप दी जा रही है इसलिए कागजात आदि बनवाने का खर्च आपको वहन करना पड़ेगा। यह खर्च नकद में करना होगा इसलिए भारत में आप हमारे निम्न बैंक के खाते में पचास हजार रुपए जमा करवा दें। पंद्रह दिनों के भीतर पुरस्कार राशि का चेक आपके द्वारा बताए पते पर कूरियर से प्राप्त हो जाएगा।

तुम तो जानते हो एलआईसी की नौकरी में इतना पैसा बचता कहां है कि नकद भिजवा सकूं। तभी मैंने दिल्ली के टाइम्स ऑफ़ इंडिया में समाचार पढ़ा कि इंटरनेट के माध्यम से दिल्ली से सटे गुड़गांव में छह महीने के दौरान करीब दर्जन भर लोग ठगे जा चुके हैं। समाचार पढ़कर मुझे लगा हो न हो यह वैसा ही मामला हो। मैंने उस मेल का अब तक कोई जवाब नहीं दिया है... वैसे उनकी ओर से तकाजे आते जा रहे हैं।

अभी मैं पांच मिलियन पौंड के पुरस्कार वाले इस ईमेल से जूझ ही रहा था कि पिछले सप्ताह एक और ईमेल आया जिससे मैं बड़ा परेशान हुआ। मेल करने वाले ने लिखा कि वह नाइजीरिया के एक निर्वासित राजकुमार का एटार्नी है। लिखा है मेरे बारे में अच्छी तरह पता करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मैं उस निर्वासित राजकुमार की करोड़ों की संपत्ति की उचित देखभाल करने के लिए योग्य व्यक्ति हूं। इस मेल में भी लिखा है कि इससे पहले कि उनकी संपत्ति मेरे नाम हस्तांतरित हो जाए मुझे कुछ कागजी कार्रवाइयों की औपचारिकताओं से गुजरना पड़ेगा।

‘मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। बैंक खाते में भले धन का अभाव रहता हो मेरे ईमेल खाते में इस तरह से आभासी रूप में करोड़ों रुपए जमा होते जा रहे हैं। मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है... पत्नी सलाह देती रहती है कि ईमेल का कनेक्शन कटवा दीजिए नहीं तो किसी दिन किसी चाल में फंस जाइएगा... तुम ही कुछ सलाह दो... क्या करना चाहिए?’

मैं सलाह क्या देता मुझे तो सुबिमल मास्टर की कहानी याद आने लगी है...

जिस दिन सुबिमल भगत मास्टर साहब ने इंटरनेट साइट इंडियन टीवी डॉटकॉम पर समाचार पढ़ा समझिए उसी दिन से उनके जीवन की नई कहानी शुरू हो गई- कुसुमाकर ने किसी सधे हुए किस्सागो की तरह बताया। उस दिन सुबिमल भगत ने अपने सहकर्मी से एक और बात कही- अब मेरे सपने जल्दी ही पूरे हो जाएंगे। लैंसडाउन के माउंट कैलाश कान्वेंट स्कूल में हिंदी पढ़ाने वाले कुसुमाकर जी भी उस खबर को ध्यान से पढ़ने लगे।

इससे पहले कि कहानी आगे बढ़े मैं इस कहानी की छोटी-सी कहानी भी आपको बता देना चाहता हूं। कुसुमाकर तिवारी मेरा सहपाठी था। मुजफ्फरपुर के एस. आर. ओरिएंटल स्कूल से हमने मैट्रिक की परीक्षा साथ ही पास की थी। बरसों बाद एक दिन ट्रेन में उनसे भेंट हो गई। मैं मुंबई जा रहा था वह भी उसी ट्रेन में था... ट्रेन में ही नहीं मेरी ही बोगी में भी।

संयोगवश ऐसा भी हो जाता है...

‘अरे, आर. एस. तुम कहां जा रहे हो? इतने दिनों से तुम्हारी कोई खबर ही नहीं। दिल्ली क्या गए हमें भूल ही गए...’ मिलते ही एक सांस में बोलने लगा। वैसे बड़े दिनों बाद किसी ने रविषंकर की जगह स्कूल के उस पुराने नाम आर. एस. से बुलाया था, मैं पुराने दिनों खोने लगा।

दिल्ली में रहते हो कभी लैंसडाउन आओ धूमने। अरे, मैंने तो बताया ही नहीं बीएड करने के बाद वहीं माउंट कैलाश स्कूल में हिंदी टीचर का विज्ञापन आया, मैंने अप्लाई कर दिया और मेरा सेलेक्शन हो गया। पांच साल हो गए तब से वहीं हूं। प्रकृति के इतने पास रहकर काम करने का मौका कहां मिलता है- मैंने ध्यान दिया कि वह पहले की ही तरह जल्दी-जल्दी बोलता है। क्या इंसान की आदतें कभी नहीं बदलतीं...

‘आजकल तुम क्या कर रहे हो?’

‘एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में कुछ साल काम करने के बाद नौकरी छोड़कर मुंबई जा रहा हूं टेलिविजन धारावाहिक लिखने के चक्कर में...’

‘नौकरी क्यों छोड दी?’ उसे जैसे विश्वास नहीं हो पा रहा था।

‘वैसे ही! संपादक कहता था, रोज खाने-पीने की नई से नई जगहों के बारे में जानकारी जुटाकर लाओ... फिल्मी सितारों के जीवन के बारे में ऐसे-ऐसे गॉसिप लिखो जैसे किसी ने सुने तक न हों...फैशन के बारे में पता रखो... एक दिन मैंने संपादक से कह दिया कि मनोरंजन के बारे में लिखने से अच्छा मुझे यह लगता है कि मनोरंजन की दुनिया में ही लेखक बनने की कोशिश की जाए। टेलिविजन सीरियल लिखा जाए। संपादक ने छूटते ही कहा आप इस्तीफा दे दें और आराम से अपना यह शौक पूरा करने जा सकते हैं। मेरे लिए उसने कोई ऑप्शन ही नहीं छोड़ा। वैसे मेरे कुछ दोस्त हैं वहां उनसे मैंने बता दिया है। जा रहा हूं तो काम भी उम्मीद है मिल ही जाएगा।‘

‘वह भी इसी तरह मुंबई गया था एक दिन लेखक बनने’- कहकर वह रहस्यात्मक ढंग से मुस्कुराने लगा।

‘अब इतने दिन बाद मिले हो तो अपने स्टुडेंट्स की तरह पहेलियां मत बुझाओ। किसकी बात कर रहे हो’- मैंने लगभग खीझते हुए कहा।

‘सुबिमल भगत की’- उसने धीरे से होंठ दबाते हुए कहा।

आगे इस कहानी में जो टुकड़े-टुकड़े दास्तान दी गई है वह उसी सुबिमल भगत की कहानी है जो कुसुमाकर जी ने मुझे सत्ताइस घंटे की उस यात्रा के दौरान सुनाई थी। इतने दिनों के बाद इस कहानी को लिखने बैठा हूं अब कह नहीं सकता कितनी कहानी भूल गया... मुझे तो उस मशहूर लेखक की बात याद आ रही है जिसे पढ़कर मेरे मरहूम उस्ताद ने लेखक बनने का फैसला किया था-

‘समय गढ़ा जाता है याद से और याद गढ़ी जाती है ज्यादातर भुलक्कड़पन से...’

कहानी सुबिमल मास्टर की याद से शुरू हुई थी...

इंडियन टेलिविजन डॉटकॉम पर वह खबर देश के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक घराने के मनोरंजन चैनल छवि टीवी के हवाले से दी गई थी। लिखा था छवि टीवी ने धारावाहिक लिखने वाले नए लेखकों की खोज के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन करने का फैसला किया है। इसमें लेखकों से धारावाहिकों के लिए नए-नए आइडिया मांगे गए थे। लिखा था जिन लेखकों के धारावाहिक आइडिया चैनल को पसंद आएंगे उनको लेखन के लिए आमंत्रित तो किया ही जाएगा लिखने के लिए बहुत अच्छा मेहनताना भी दिया जाएगा। पढ़ने के बाद सपने पूरे होने जैसी कोई बात कम से कम कुसुमाकर को तो समझ में नहीं आई।

माउंट कैलाश स्कूल में हिंदी पढ़ाने वाले कुसुमाकर जी शायद एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो यह जानते थे कि कंप्यूटर के शिक्षक सुबिमल भगत कहानियां लिखने का शौक रखते थे। वैसे मेरा यह कहना गलत होगा कि कुसुमाकर जी उनके एकमात्र पाठक थे। चार साल पहले उनकी एक कहानी ‘अबला कि सबला’ अयिततकालीन पत्रिका ‘सबकी सोच’ में छप चुकी थी और उसे पढ़कर उनके पास एक पाठक का पत्र भी आया था। उस पत्रिका के अगले अंक में उस कहानी पर दो पाठकों की प्रतिक्रिया भी छपी थी। वे हिंदी के बहुपठित लेखक हो गए होते अगर घर और नौकरी की जिम्मेदारियों ने उनकी प्रतिभा और श्रम का दोहन न किया होता।

जब से लैंसडाउन की सुरम्य वादियों में बने इस स्कूल में उन्होंने पढ़ाना शुरू किया था उनके अंदर का लेखक फिर जाग उठा था। उन्होंने कई कहानियां इस बीच लिखीं और उन कहानियों के इकलौते पाठक होते कुसुमाकर जी। एक तो शायद इसलिए क्योंकि कुसुमाकर जी हिंदी के अध्यापक थे। दूसरा कारण जो था असल में यह उनकी दोस्ती का गहरा कारण बना वह यह कि स्वयं कुसुमाकर जी हिंदी में गीत लिखते थे। कहीं छपी थी या नहीं यह बात तो उन्होंने नहीं बताई मगर उनके गीतों का कम से कम स्कूल में तो जलवा था ही। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्कूल में किसी भी तरह का कोई कार्यक्रम होता उनके गायन के बिना संपन्न नहीं होता था। वे अपने गीतों का सस्वर पाठ भी बहुत बढ़िया करते थे। उनके लिखे गीतों पर टिप्पणी करने का तो मैं स्वयं को अधिकारी नहीं समझता लेकिन यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उनका स्वर बहुत अच्छा था।

बात सुबिमल भगत के कथा लेखन के संदर्भ में हो रही थी। अपनी हर कहानी लिखकर सबसे पहले वे कुसुमाकर को ही पढ़ने के लिए देते। जब वह उसकी नोक-पलक दुरुस्त कर देता तो वे उसको बाकायदा हिंदी में टाइप करवाते। शुरू में तो वे हिंदी में टाइप करना नहीं जानते थे जब उन्होंने अपना कंप्यूटर लिया तो धीरे-धीरे हिंदी में टाइप करना भी सीख लिया। टाइप करवाने या करने के बाद उस कहानी को अलग-अलग पत्रिकाओं में भेजते।

वे या तो लौट आतीं या उनके बारे में पहुंचने तक की सूचना पत्रिका के संपादक की ओर से नहीं आती। यह उनका दुर्भाग्य था या उन पत्रिकाओं का यह कहने का मैं स्वयं को इसलिए अधिकारी नहीं समझता क्योंकि मैंने उनकी कहानियां पढ़ी नहीं थीं और केवल कुसुमाकर जी की उस दास्तान के आधार पर मैं कोई टिप्पणी करना नहीं चाहता... उनकी कहानी किसी पत्रिका में दोबारा नहीं छपी।

लेकिन इससे उनका उत्साह भंग नहीं हुआ। हां, बातों में थोड़ी तल्खी जरूर आ गई थी- कुसुमाकर ने बताया, और लेखन में भी। बाद में जब उन्होंने जब कंप्यूटर पर हिंदी में टाइप करना सीख लिया तो सीधा कंप्यूटर पर ही वे अपनी कहानी लिखने लगे। कहानी लिखकर उसका प्रिंट आउट निकालकर कुसुमाकर को दे देते। जब वह उसे पढ़कर वापस लौटाता तो उसके सुझावों के अनुसार कहानी को ठीक करते और सहेज कर रख देते।

कहते, ‘काफ्का की ज्यादात रचनाएं उसके मरने के बाद ही छपीं... आज उसकी गिनती दुनिया के महानतम लेखकों में की जाती है। अभी मैंने उसी दिन एक वेबसाइट पर पढ़ा कि शेक्सपियर के बाद संसार में सबसे अधिक शोध काफ्का की रचनाओं को लेकर ही हो रहे हैं। फिर वे मुस्कुराते हुए कुसुमाकर जी से कहते एक दोस्त के कारण ही काफ्का की रचनाएं पाठकों के समक्ष प्रकाशित होकर आ सकीं। मैंने पढ़ा है कि काफ्का ने अपने उस दोस्त को अपनी सारी रचनाएं देते हुए कहा था कि इन्हें मेरे मरने के बाद नष्ट कर देना। उसने काफ्का की रचनाएं छपवा दीं। आज उनके उस दोस्त का नाम भी सब जानते हैं। फिर जोर से ठहाका लगाते हुए वह कहता- क्या पता मेरी इन रचनाओं से ही आपकी प्रसिद्धि लिखी हो। एक दिन लोग आपको हो सकता है प्रसिद्ध लेखक सुबिमल भगत के दोस्त के रूप में याद करें... वैसे हो सकता है वह दिन देखने के लिए शायद मैं जीवित न रहूं... कहते-कहते वे कुछ दार्शनिक हो जाते...’

‘एक बात है वह जो भी लिखता मुझे जरूर दिखाता’- कुसुमाकर ने मेरे कंधे पर धप्पा मारते हुए कहा।

इसीलिए जब उन्होंने मुझे वह समाचार पढ़ने के लिए कहा तो उसे पढ़ने के बाद मुझे यह तो समझ में आया कि इस समाचार के माध्यम से मुझे यह बता रहे हैं कि वे उस चैनल के की उस तथाकथित प्रतियोगिता के लिए धारावाहिक के आइडिया डेवलप करने के काम के माध्यम से अपने कथा-लेखन को एक नया आयाम देना चाहते हैं- एक नई दिशा देना चाहते हैं- कुसुमाकर किसी किस्सागो की तरह धाराप्रवाह बोल रहा था। शायद बच्चों को पढ़ाने के कारण उसे इस तरह धाराप्रवाह बोलने की आदत पड़ गई हो- मैंने लक्ष्य किया वह पहले से काफी रोचक अंदाज में बोलने लगा था।

लेकिन इससे उनके सपने पूरे होने वाली बात मुझे समझ में नहीं आई- फिर उसने आंखें दबाते हुए कहा- ‘अब कहानीकार बनना भी तो उनका एक बड़ा सपना था। इतनी कहानियां लिखने के बाद भी वह सपना सचाई के कितने करीब आया यह मुझसे अधिक कौन जानता था। उनकी ज्यादातर कहानियां मेरे अलावा शायद ही कोई और पढ़ पाया हो।‘

आखिर मैंने उनसे पूछ ही लिया- ‘एक बात तो समझ में आ गई भगत जी आप धारावाहिक लेखन की इस प्रतियोगिता का हिस्सा बनकर व्यावसायिक लेखक के रूप में ख्याति और धन दोनों अर्जित करने का विचार बना रहे हैं। अच्छा विचार है। लेकिन दूसरी बात जो मेरी समझ में नहीं आई वह यह कि इस प्रतियोगिता में तो हजारों लोग भाग लेंगे फिर आपको यह कैसे लगता है कि सफलता आपको ही मिलेगी?’

देखिए दुर्भाग्य से हमारे यहां लेखन के क्षेत्र में सफलता-असफलता का अधिक संबंध इससे नहीं होता कि लेखक कितना प्रतिभाशाली है वह अच्छा लिख सकता है या नहीं। इस बात का अधिक संबंध इससे होता है कि उस लेखक का संबंध किस विचारधारा से है, उसकी चर्चा कौन कर रहा है, आदि-आदि। आपको शायद नहीं पता हो लेकिन व्यावसायिक लेखन में भी इसी तरह का भाई-भतीजावाद चलता है या या इससे भी ज्यादा षायद? वे इतनी गंभीरता से अपने विचार व्यक्त कर रहे थे मानो किसी व्याख्यानाला मे भाषण दे रहे हों।

‘जब आप लेखन की दुनिया की इस कड़वी सचाई से इतनी अच्छी तरह वाकिफ हैं तो भी आप इतने दिनों से साहित्य-लेखनरत हैं इसके लिए मैं आपके लगन की दाद देता हूं। लेकिन अब टीवी फिल्म की दुनिया की चकाचौंध के पीछे आप कहां भाग रह हैं’ - कुसुमाकर ने उनको कुछ समझाने के अंदाज में कहा। ‘वैसे भी इस तरह का लेखन तो आपने कहीं से सीखा नहीं कैसे करेंगे?’ थोड़ा हिचकते हुए ही सही कुसुमाकर ने उनसे यह सवाल कर डाला।

‘आप तो कवि हैं। आपने वह शेर तो सुना होगा- जो इश्क करने का ढब जानते हैं/वो तरकीब-वरकीब सब जानते हैं। वैसे आप मुझसे यह सवाल इसीलिए पूछ रहे हैं क्योंकि मैं आपके साथ इस स्कूल में पढ़ाता हूं। क्या किसी ने कभी कमलेश्वर या वैसे सभी बड़े कहे जाने वाले लेखक से पूछा कि उन्होंने इतनी फिल्में किस से सीखकर लिखी। मैं आपकी बात समझता हूं कि जब मैं इस बात को जानता हूं कि टीवी-सिनेमा में सफलता उसी को मिलती है जिसकी वहां अच्छी तरह जान-पहचान होती है फिर मैं क्यों प्रयास कर रहा हूं। आपको बता दूं कि इसका जवाब उसी समाचार में छिपा है।‘

‘उसमें ऐसा तो कुछ भी नहीं है’- कुसुमाकर ने कुछ चिढ़ते हुए कहा।

‘लगता है आपने ठीक से विज्ञापन पहीं पढ़ा। उस समाचार के साथ चैनल के एक कार्यकारी निर्माता का नाम भी छपा है’- इस बार सुबिमल जी ने कुछ रहस्यात्मक अंदाज में कहा।

‘छपा तो है...लेकिन वह तो किसी महिला का नाम है... सोनाली गौतम... अब आप यह मत कहने लगिएगा कि आप उस महिला को जानते हैं। अगर जानते होते तो आप यहां इस स्कूल में न पढ़ा रहे होते’- कुसुमाकर का धीरज जवाब देने लगा।

जवाब में कुसुमाकर के कंधे पर हाथ रखकर सुबिमल भगत जी ने कहा- यह एक लंबी कहानी है....

लैंसडाउन के पहाड़ी कस्बे के एकांत में जिस लंबी कहानी की चर्चा हो रही है उसकी शुरुआत करीब सात-आठ साल पहले सुबिमल जी की जन्मस्थली मुजफ्फरपुर में हुई थी। तब बीए पास करके शहर में नए-नए खुले जेनिथ कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में वे कंप्यूटर का कोर्स कर रहे थे।

नहीं यह समझने की गलती मत कीजिएगा कि छवि टीवी की जिस कार्यकारी निर्माता सोनाली गौतम का नाम ऊपर समाचार के संदर्भ में आया था उसने भी वहीं उसी इंस्टीट्यूट में कंप्यूटर कोर्स में दाखिला लिया वहां उसकी जान-पहचान अपने कथानायक सुबिमल जी से हुई होगी।

नहीं-नहीं यह कहानी इतनी सहज इतनी सरल होती तो न कुसुमाकर ने मुझे सुनाई होती न ही मैं इसे आपको सुना रहा होता। क्या क्या करूं वक्त ही ऐसा आन पड़ा है कि कुछ भी सहज सरल नहीं रह गया है...

उस समय मुजफ्फरपुर में एसडीओ बनकर आए हुए थे हरिनारायण गौतम- एसडीओ का मतलब नहीं समझे हिंदी में कहूं तो अनुमंडल अधिकारी। थे तो प्रोमोटी लेकिन नए-नए विचारों के हामी समझे जाते थे। उनको यह शौक चढ़ा कि कंप्यूटर सीखा जाए। चर्चा थी कि कल्याणी चौक के मशहूर व्यापारी रामा सहनी जब नेपाल की राजधानी काठमांडू छुट्टी मनाने गए तो वहां से सोनी कंपनी का एक लैपटॉप लेकर आए और उसे उन्होंने एसडीओ साहब को भेंट कर दिया। शहर के अधिकारियों को वे इसी तरह उपहार दिया करते थे। अब इतना सुंदर इतना महंगा लैपटॉप आ गया तो यह बहुत आवश्यक था कि उसे सीखा जाए। शहर में जेनिथ कंप्यूटर इंस्टीट्यूट कंप्यूटर सिखाने का तब अकेला इंस्टीट्यूट था इसलिए उसके मालिक को उन्होंने खबर भिजवाई कि कंप्यूटर सिखाने के लिए कोई अच्छा आदमी भेज दो। इस तरह सुबिमल भगत जी की एंट्री एसडीओ साहब के घर में हुई।

आप कहेंगे कि कंप्यूटर सीखा भगत जी से एसडीओ चैधरी ने उनकी बेटी सोनाली गौतम सीन में कहां से आ गई। उस दिन संपर्क क्रांति एक्सप्रेस के डिब्बे में कुसुमाकर ने भी यही बात कही कि उसने भी टोका था सुबिमल को कहानी में इस मोड़ पर। जवाब में सुबिमल जी अपने स्थान से उठे सामान का अपना बक्सा खोला, वहां से लकड़ी का एक बक्सा निकाला और उसे लेकर फिर से कुसुमाकर के पास आए।

‘बक्से में क्या था’- मेरा कौतूहल बढ़ता जा रहा था।

लकड़ी के उस बक्से में बहुत सारे प्रिंट आउट थे। उन्होंने मुझे बताया वे सोनाली के ईमेल थे। मैंने वे सारे मेल बाद में पढ़े भी थे। उसमें कुछ ऐसा तो नहीं था जिसे कुछ-कुछ और समझा जा सके। वैसे मुझे तो आज भी शक है कि वे ईमेल उस सोनाली गौतम के भेजे हुए थे। नाम की जगह पर उसमें केवल सोनी लिखा रहता था। अगर उसके भेजे मेल रहे भी हों तो भी उन पत्रों में कुछ ऐसा वैसा तो था नहीं कि उन्हें इतने दिनों तक इतना सहेज कर रखा जाए। उन पत्रों को मैंने बहुत ध्यान से पढ़ा था उनमें सामान्य सी सूचनाएं होती थीं। ज्यादातर पढ़ाई लिखाई की...उसके अलावा कुछ मेल हैप्पी दीवाली-हैप्पी न्यू ईयर टाइप थे। उसमें एक मेल मुझे हैप्पी बर्थ डे का भी दिखा था। लेकिन इस तरह के मेल में कोई ऐसी बात नहीं। वैसे भी सोनाली दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। वहां के माहौल में लड़के-लड़कियों की दोस्ती को खराब नहीं समझा जाता- कुसुमाकर उनकी कहानी में अपना एंगल डाल रहा था।

एसडीओ गौतम ने कंप्यूटर सीखा या नहीं इसका इस कहानी से क्या वास्ता? कंप्यूटर सिखाने की इस कथा में रोचक मोड़ तब आया जब गर्मी की छुट्टियों में उनकी लड़की का दिल्ली से मुजफ्फरपुर आगमन हुआ। साहनी सेठ ने अपना लैपटॉप एसडीओ साहब को देने का निर्णय इसलिए किया था क्योंकि खरीद तो लिया था कि सीखेंगे, लेकिन वे जल्दी ही समझ गए कि उनके लिए उसका कोई खास उपयोग नहीं था, उसी तरह बेटी के आने के बाद अचानक उनको उस लैपटॉप में एसडीओ साहब को अपनी बेटी का भविष्य दिखाई देने लगा। उन्होंने बेटी को सलाह दी कि छुट्टी में यहां आई है तो लगे हाथ कंप्यूटर सीख ले और छुट्टियों के बाद अपने साथ यह लैपटॉप भी ले जाए। पहले तो उनकी बेटी अपने पापा के इस सलाह पर बहुत हँसी कि मुजफ्फरपुर जैसे शहर में कंप्यूटर सीखने की भी आपको खूब सूझी। लेकिन जब पापा ने छुट्टियों के सदुपयोग की बात उसे समझाई तो शायद इतने खूबसूरत लैपटॉप के चक्कर में वह कंप्यूटर सीखने को तैयार हो गई। एसडीओ साहब ने इस बार खबर जेनिथ कंप्यूटर सेंटर नहीं भिजवाई। उनका अर्दली इस बार सुबिमल भगत को सीधा बुलाने गया।

दो महीने की छुट्टी में जब तक सोनाली वहां रही रोज सुबिमल जी उसे कंप्यूटर सिखाने जाते रहे। कंप्यूटर पर टाइप करना, इंटरनेट का उपयोग करना सब सबसे पहले सुबिमल जी ने ही सिखाया उसको। इतने सालों के बाद भी जब सुबिमल जी सोनाली गौतम के बारे में बताते तो इस तरह बताते जैसे कल की ही बात हो- कुसुमाकर ने बताया। इस बात को वे अक्सर बताते कि किस कदर वह उनके कंप्यूटर ज्ञान से प्रभावित थी। कहती आपको तो दिल्ली में होना चाहिए। वहां इतने कंप्यूटर इंस्टीट्यूट हैं कि मत पूछिए। उससे भी कमाल की बात यह है कि हर इंस्टीट्यूट में भीड़ उतनी ही रहती है। आप अगर एक बार दिल्ली आ जाएं तो जेनिथ इंस्टीट्यूट से बड़ा तो आपका अपना इंस्टीट्यूट हो जाएगा।

अपने निजी जीवन के बारे में वे किसी से बात नहीं करते थे लेकिन कुसुमाकर को उन्होंने एक बार बताया था कि उनको अपनी छोटी बहन की शादी के लिए दहेज के पैसे जमा कर रहे हैं। लाखों रुपए खर्च करने पर किसी अच्छे लड़के से बहन की शादी हो पाएगी। वे जब पढ़ाई कर रहे थे तब उनके पिताजी का देहांत हो गया था। उन्होंने बताया तो नहीं था लेकिन उनके बायोडाटा में उसने उनके पिता का नाम कई बार पढ़ा था स्वर्गीय विनोद बिहारी भगत। एक बार उन्होंने कुसुमाकर को बताया था कि घर की जिम्मेदारियों की वजह से वे ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली पढ़ने नहीं जा सके जबकि उनके सारे दोस्तों ने आगे पढ़ने या नौकरी करने के लिए दिल्ली का रुख किया। उन्होंने वहीं कंप्यूटर कोर्स में दाखिला ले लिया। भाग्य में सोनाली से मिलना जो लिखा था...

कहने को तो दो महीने के लिए ही सोनाली को उन्होंने कंप्यूटर सिखाया लेकिन उन दो महीनों में ही उनके जीवन की जैसे धुरी ही बदल गई। ट्यूशन में तो घंटे से ज्यादा शायद ही किसी को पढ़ाते रहे हों सुबिमल मास्टर पर जब सोनाली को वे कंप्यूटर सिखाने जाते तो समय उनके लिए जैसे थम जाता था। इतने करीब बैठती थी सोनाली उनके... न जाने कौन सा सेंट लगाती थी आज भी उसकी आज भी याद आती है तो नथुनों में वही गंध भर जाती है- एक बार उन्होंने कुसुमाकर को बताया था। इतनी यादें जुड़ी हुई थी उनकी उस सोनाली नाम की युवती के साथ। उन सब यादों को उन्होंने इस तरह संजो रखा था जैसे वह उनके जीवन की कोई अमूल्य निधि हो। अपने जीवन से जुड़े उस प्रसंग की एक एक बात कुसुमाकर को ऐसे बताते जैसे अपने खजाने से कोई अमूल्य खजाना दे रहे हों।

छवि टीवी का विज्ञापन क्या आया वे एक दूसरी दुनिया में ही जीने लगे। उस दुनिया में जिसमें सोनाली नाम की उस लड़की की यादें थी, टीवी धारावाहिक लेखन था। कुसुमाकर ने बताया उसके बाद वे जब मिलते या तो उस धारावाहिक की बात करते जिसकी कहानी पर वे काम कर रहे थे। वे बताते कि उस धारावाहिक में आजादी के बाद भारत आए एक ऐसे हिंदू परिवार की कहानी है जिसने यहां आने के बाद एक मुस्लिम परिवार के साथ साझेदारी में व्यापार आरंभ किया। धारावाहिक में उनके व्यापार के उत्थान-पतन के साथ ही देश में आजादी के बाद हिंदू-मुस्लिम संबंधों में आए बदलावों की कहानी भी साथ-साथ चलेगी। वैसे यह बात तुमको भी सुनकर विचित्र लगेगा कि अपने इस लिखे जा रहे धारावाहिक का कोई अंश भी मुझे पढ़ने के लिए कभी नहीं दिया जबकि उन्होंने जो भी कहानी या उनके शब्दों में साहित्य लिखा उसे मुझे पढ़वाए बिना उन्होंने पूरा नहीं समझा- कुसुमाकर ने बड़े आश्चर्य के साथ बताया।

क्या पता लिखा ही नहीं हो- मेरी यह बात सुनकर वह भी मेरे साथ हंसने लगा।

कुसुमाकर को वे जितना ही सोनाली कथा सुनाते रहे होंगे उतना ही वह जल-भुन जाता होगा- उसका यह स्वाभाव छात्र जीवन से ही रहा है और मैंने उस दिन उसके साथ की गई रेलयात्रा के दौरान कई बार यह महसूस भी किया कि उसके इस स्वभाव में कुछ खास परिवर्तन नहीं आया था। शायद इसी जलन के कारण उसने एक दिन सुबिमल जी को छेड़ते हुए कहा कि आपने तो बस नाम देखा और पता नहीं क्या क्या कहानी बना ली- सीरियल लिखने बैठ गए। आपको कैसे पता कि यह वही सोनाली गौतम है जिसको आपने दो महीने कंप्यूटर सिखाया था। कुसुमाकर की यह बात सुनकर उस दिन वे वहां से उठकर चले गए। साफ था कि उनको बात बुरी लग गई थी।

कई दिनों तक उन्होंने कुसुमाकर को दर्शन नहीं दिया। स्कूल में भी उसे देखते तो कटकर निकल जाते। तीन-चार दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन जब पांचवीं क्लास के बाद मैं स्टाफ रूम में सांस लेने के लिए बैठा ही था कि वे तेज-तेज कदमों से चलते हुए मेरे पास आए कहने लगे चलिए आपसे कुछ जरूरी बात करनी है। मैंने उनको बहुत कहा कि लगातार पांच-पांच क्लास लेने के कारण मैं थका हुआ हूं। यही एक क्लास खाली है इसके बाद फिर लगातार दो क्लास है। लेकिन वे नहीं माने कहने लगे कि खाली बैठे हैं इसीलिए तो कह रहा हूं। मुझे लेकर सीधा कंप्यूटर रूम गए। एक कंप्यूटर में कोई फाइल खोली और मुझे कुर्सी पर बिठाते हुए बोले ध्यान से पढ़िए उसी का इंटरव्यू छपा हुआ है। इंटरव्यू तो पुराना है लेकिन आपकी शंका का समाधान हो जाएगा।

इंटरव्यू किसी सोनाली गौतम का था...

इंटरव्यू में ऐसा कुछ नहीं था। टेलिविजन की गतिविधियों से संबंधित किसी वेबसाइट पर छपे उस इंटरव्यू में कई टेलिविजन चैनलों में निर्माता के रूप में काम कर चुकी सोनाली गौतम को इतनी कम उम्र में इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के लिए बधाई दी गई थी। इसके लिए उसने अपने माता-पिता और उन छोटे-छोटे षहरों के अनुभवों को धन्यवाद दिया था जहां उसके पिता ने प्रषासनिक अधिकारी के रूप में काम कर चुके थे। उस इंटरव्यू में उसने मुजफ्फरपुर कस्बे का विषेश रूप से उल्लेख किया था जहां उसके पिता ने अलग-अलग पदों पर अनेक वर्शों तक काम किया था। भेंटवार्ताकार किसी रमा सिंह को उसने बताया था कि उस कस्बे के अनेक अनुभव टीवी की दुनिया में बहुत काम आए। इन पंक्तियों को उन्होंने विषेश रूप से हाइलाईट कर रखा था।

वेबसाइट पर सोनाली का इंटरव्यू एक दिलचस्प स्टोरी का हिस्सा थी जिसमें यह बताया गया था कि मुंबई की टेलिविजन इंडस्ट्री में पिछले दस वर्षों में कस्बाई लोगों ने महत्वपूर्ण पहचान बनाई थी। उसमें लिखा था सोनाली की तरह अनेक लड़कियों ने इस दौरान दिल्ली-मुंबई में मास कम्युनिकेशन संस्थानों में पढ़ाई की और वे मुंबई की टेलिविजन इंडस्ट्री का हिस्सा बन रही हैं।

पढ़ा- पढ़ने के बाद जैसे ही मैंने नजरें हटाईं पाया वे बेसब्री से कंप्यूटर स्क्रीन से मेरी नजरें उठने का इंतजार कर रहे थे।

पढ़ तो लिया। ऐसा क्या है इसमें, टेलिविजन की दुनिया ऐसे लोगों से भरी हुई है जिन्होंने कम उम्र में सफलता अर्जित की। एकता कपूर का नाम सुना है आपने! 24 साल की उम्र में ही धारावाहिक बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी की मालकिन बन गई... ऐसे न जाने कितने नाम हैं जिनके बारे में पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहता है... अब मान लिजिए कि इसको आपने कभी पढ़ाया था...इसके इतने सारे ईमेल का बंडल बनाए आप संभाले फिरते हैं... आपने सोचा है इतने सालों बाद वह आपको पहचान भी पाएगी... रोज-रोज इतने लोगों से मिलना होता होगा...

लगता है आपने इंटरव्यू को ठीक से नहीं पढ़ा। एक बार उसने मुझे ईमेल में लिखा था कि बचपन से लेकर अब तक वह इतने शहरों में रह चुकी है कि उसे सबके नाम भी ठीक से याद नहीं आते... फिर भी इतने शहरों में उसने मुजफ्फरपुर शहर के अनुभवों का ही जिक्र किया है... उसी शहर का जहां उससे मेरी मुलाकात हुई थी... पढ़कर आपको नहीं लगा वह मुजफ्फरपुर को नहीं मुझे याद कर रही थी...

आप जिसके बारे में पता नहीं क्या-क्या सोच रहे हैं आपने यह जानने की कोशिश की है कि वह आपको पहचानती भी है या नहीं। दो महीने कंप्यूटर क्या सिखाया समझते हैं कि जीवन भर आपको इसके लिए वह याद करेगी... आप समझते क्यों नहीं है वह समाज के जिस तबके से आती है उसमें किसी से खुलकर बातें करना, किसी को ईमेल करना कोई ऐसी बात नहीं होती जैसा आप समझते हैं या कम से कम मुझे समझाने का प्रयास कर रहे हैं... कुसुमाकर ने जैसे उनको जमीन पर लाने का प्रयास करते हुए कहा।

मैं जानता था आप जैसे लोग क्या सोच सकते हैं। आपको मैं एक और बात बताना चाहता हूं। आपने तो उस समाचार को ध्यान से पढ़ा था, छवि टीवी वाले उस समाचार के साथ एक ईमेल पता भी दिया हुआ था-याद है आपको। उस पर मैंने मेल किया था। लिखा था मैं धारावाहिक लेखन की इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहता हूं। मैं यानी सुबिमल भगत जिसका स्थायी पता पंखा टोली, मुजफ्फरपुर है। तुरंत जवाब आ गया कि हमें आप जैसे लेखकों की ही तो तलाश है। यह देखिए... कहते हुए उन्होंने मेरे सामने कागज का एक टुकड़ा रख दिया, कुसुमाकर ने बताया।

अब इससे यह तो नहीं साबित होता कि उसने आपका मेल पढ़ा भी हो। अरे इस तरह के जवाब तो उसकी किसी सहायक या सहायिका ने दे दिया होगा जिसे इसी काम के लिए नियुक्त किया गया हो कि इस विज्ञापन के बदले आने वाले मेल के जवाब दिया करे। चलिए आपकी बात मान लेते हैं कि उसने मेल खुद पढ़कर जवाब दिया था लेकिन उसको कैसे पता चला कि आप वही सुबिमल भगत हैं जिसने उसे बरसों पहले मुजफ्फरपुर में कंप्यूटर चलाना सिखाया था- कुसुमाकर उस दिन उनकी किसी बात को मानने को तैयार नहीं था।

आप चाहे मुझे कितना भी हतोत्साहित करने की कोशिश कर लीजिए मैं धारावाहिक लेखन के इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दूंगा... आप जब तक छोट परदे पर मेरा नाम चमकता हुआ नहीं देख लेंगे लगता है आप तब तक नहीं मानने वाले- जवाब में सुबिमल जी ने कहा। उस दिन से उन्होंने इस प्रसंग में बात करना बंद कर दिया... उस दिन से उन्होंने किसी से भी फालतू बात करना बंद कर दिया। स्कूल में चुपचाप अपनी कक्षाएं लेते और स्कूल खत्म होते ही अपने कमरे में जाकर बंद हो जाते। उनका एक ही लक्ष्य रह गया था छवि टीवी की प्रतियोगिता के लिए धारावाहिक लिखना। शायद कमरा बंद करके वे उसी में लगे रहते। धारावाहिक उन्होंने लिखकर शायद पूरा भी कर लिया इसका पता कुसुमाकर को बाद में तब चला जब एक दिन सुबिमल जी कुसुमाकर से अपनी निजी समस्या की चर्चा करने आ गए।

सचमुच उन्होंने उस बीच धारावाहिक लिखने का काम पूरा कर लिया था। जब उनकी ओर से काम पूरा हो गया तो उन्होंने उसकी एक प्रति उसी ईमेल पते पर चैनल के माध्यम से सोनाली को भेज दी। लेकिन इस बार जवाब तुरंत उस तरह नहीं आया जिस तरह से उनके पहले भेजे गए मेल का आया था इस बार कोई जवाब ही नहीं आया। उन्होंने कई बार मेल किया, एक बार तो उन्होंने सोनाली को याद भी दिलाया कि वह वही सुबिमल भगत है जिसे वह कंप्यूटर का जादूगर कहा करती थी। आगे यह भी लिखा कि इस बीच अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। उसने पहली बार धारावाहिक लिखने का प्रयास किया है। उन्होंने एक बार मेल में लिखा- मैं जानता हूं कि आपको संकोच हो रहा है यह बताने में कि मेरी लिखी पटकथा कुछ कमजोर है। आप बताएंगी तो मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूंगा। आपको मैं विश्वास दिलाता हूं कि आपके द्वारा बताई गई कमियों को मैं पूरी तत्परता से दूर करुंगा।

कोई जवाब इस बार भी नहीं आया है।

उन्होंने चैनल का फोन नंबर इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त किया और उस पर फोन करके वे सोनाली का नंबर प्राप्त करने का प्रयास करते रहे। कम से कम पंद्रह बार फोन करने के बाद तो उसकी पी.ए. का नंबर जाकर मिला। अब उसके पीछे लगा हूं जब फोन करता हूं तो कभी कहती है कि मैडम मीटिंग में हैं- कभी कहती है कि मैडम केवल मुंबई में काम करने वाले प्रोफेशनल्स से ही बात करती हैं...। खैर असल बात यह है कि या तो वह खुद मुझसे मिलना नहीं चाहती है या कोई और है जो नहीं चाहता है कि उसकी लिखी इस कहानी पर धारावाहिक का निर्माण हो। उस दिन बहुत विस्तार से सारा घटनाक्रम भगत जी ने कुसुमाकर को समझाया।

कुसुमाकर चुपचाप उनकी बातों को समझने का प्रयास करता रहा।

मैंने आपको यह बताने के लिए बुलाया है कि मैंने फैसला कर लिया है कि अब मुंबई पहुंचकर ही उसकी नाराजगी दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

नाराजगी? अब यह कौन सी कहानी है?

बात उन दिनों की है जब उनका ईमेल के माध्यम से सुबिमल जी से लगातार पत्र व्यवहार चल रहा था। ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाते-पढ़ाते उन दिनों उसके अंदर हीन भावना भर गई थी जिसकी वजह से उसने धीरे-धीरे उससे दूरी बरतनी आरंभ कर दी। मन पर पत्थर रखकर उसकी उपेक्षा करने लगा। उसके ईमेल के जवाब देने बंद कर दिए। हो सकता है उस बात से वह इतनी नाराज हो गई हो कि उसने उसके...

भगत जी का निर्णय अटल था। स्कूल में बहाने से छुट्टी की अर्जी डाली और मुंबई जाने वाली सुपर फास्ट ट्रेन का टिकट कटा लिया। उनके गए एक महीने बीत गए। कोई खबर नहीं आई। उनके साहित्यिक मित्र करुणाकर के पास भी नहीं।

जिस दिन खबर आई तो जैसे स्कूल में धमाका हो गया। मुंबई पुलिस की चिट्ठी आई जिसमें उनकी पहचान करने के लिए कहा गया था।

कायदे से तो कहानी उसके स्कूल वालों के लिए यहां समाप्त हो जानी चाहिए। मैं क्या कोई भी इस बात का अंदाजा सहज ही लगा सकता है कि उनको लेकर स्कूल में, स्कूल के बाहर किस तरह की खबरें उड़ी होंगी। मैं समझ सकता हूं कि मेरी तरह आपको भी बड़ी कुलबुलाहट हो रही होगी कि आखिर मुंबई में ऐसा क्या हो गया सुबिमल जी को कि उनको जेल पहुंच जाना पड़ गया।

सच बताऊं तो जिस तरह आपके पास इस विषय में जानकारी प्राप्त करने का मेरे अलावा और कोई स्त्रोत नहीं है उसी तरह मेरे पास सुबिमल जी की इस कहानी का कुसुमाकर के अलावा कोई और स्त्रोत नहीं है। वैसे तो मैं पहले भी आपको बता चुका हूं कि उसकी बातों का मैंने कभी अधिक भरोसा इसलिए नहीं किया क्योंकि उनका स्वाभाव कुछ जलनशील रहा है।

कुसुमाकर ने बताया कि टीवी पर अपराध केंद्रित धारावाहिक ‘सनसनी’ का मुंबई संवाददाता मयंक कुमार संयोग से नैनीताल घूमने आ रहा था और कुसुमाकर किसी सरकारी काम से दिल्ली गया था और वह लौट रहा था। दोनों की रानीखेत एक्सप्रेस में मुलाकात हुई। जब उसको यह पता चला कि मैं माउंट कैलाश स्कूल में पढ़ाता हूं तो उसने कुछ और ही कहानी बताई।

वे गए तो थे फिल्मी कहानीकार बनने का सपना संजोए संयोग ऐसा बना कि उनकी अपनी कहानी बनती चली गई... वह भी फिल्मी। ट्रेन पकड़कर जब वे मुंबई के लिए रवाना हुए तो उनके सामने एक ही लक्ष्य था- छवि टीवी के ऑफिस जाकर सोनाली से मिलने का प्रयास करना। वह निश्चिन्त था एक बार सामने पड़ जाएगा तो सारी गलतफहमियां दूर कर देगा।

मेरा अपना अनुमान है कि मुंबई में ट्रेन से उतरकर सबसे पहले वह टीवी के ऑफिस नहीं गए होंगे। आखिर इतने दिनों के बाद सोनाली से मिलने वाले जो थे। उसके लिए अच्छी तरह तैयार होकर ही जाना उन्होंने उचित समझा होगा। इसलिए सबसे पहले ठहरने का कोई इंतजाम किया होगा। वहां सामान रखकर तैयार होकर गए होंगे छवि टीवी के ऑफिस। वहां जाने पर उनको समझ में आया होगा कि क्यों सिनेमा-टीवी की दुनिया को सपनों की दुनिया कहते हैं। लगातार मिलने की कोशिश करते रहे होंगे। कई दिनों में जाकर उनको उसकी सेक्रेट्री का नंबर मिला होगा। यही उनके लिए किसी जीत से कम नहीं रहा होगा। वे जब उसको फोन करते जवाब मिलता मैडम मीटिंग में हैं, मैडम व्यस्त हैं। फिर फोन का सिलसिला शुरू हुआ होगा। बार-बार फोन किया होगा... बात नहीं हो पाई होगी...

यह सब पता नहीं कितने दिनों तक चलता रहा... सोनाली ने ओशीवाड़ा पुलिस थाने में जो केस दर्ज करवाया था उसमें लिखवाया था एक आदमी पिछले करीब एक महीने से उसका पीछा कर रहा था। हो सकता है कि केस मजबूत बनाने के लिए उसने एक यह अवधि बढ़ा-चढ़ाकर लिखवाई हो। लेकिन इससे एक बात का पता तो चलता ही है कि उन्होंने इतने चक्कर वहां के जरूर लगाए होंगे कि उनकी गतिविधियों पर लोगों को शक होने लगा होगा।

मयंक ने बताया छवि टीवी की उस कार्यकारी निर्माता सोनाली गौतम ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखवाया था एक दिन जब रात के डेढ़ बजे ऑफिस में अपना काम खत्म करने के बाद घर जाने के लिए ऑफिस से बाहर निकली... कार पार्किंग की तरफ बढ़ रही थी कि अंधेरे से निकलकर किसी व्यक्ति ने उसके ऊपर हमला किया था... उसे शक है कि वह वही व्यक्ति था जिसने पहले तरह-तरह के ईमेल भेज कर उसे परेशान करने की कोशिश की, उसे बार-बार फोन करने का प्रयास किया, असंख्य एसएमएस भेजे और फिर हमला करने का प्रयास किया।

उसने रिपोर्ट के साथ एक फोन नंबर भी लिखवाया था। ‘मुंबई मिरर’ समेत अनेक मुंबइया समाचारपत्रों में इस आशय के समाचार भी प्रकाशित हुए एक प्रसिद्ध टेलिविजन चैनल की वरिष्ठ कर्मी पर हमले का प्रयास। कई समाचारपत्रों ने बॉक्स के साथ छापा कि मुंबई में कैसे देर रात तक काम करने वाले लोगों की यात्रा असुरक्षित होती जा रही है। अनेक टेलिविजन चैनलों के अपराध आधारित कार्यक्रमों में इस समाचार को दिखाया गया। जल्दी ही उनके नंबर के आधार पर पुलिस ने उनको गिरफ्तार कर लिया। एक टेलिविजन चैनल ने उसे पकड़ने वाली पुलिस टीम के एक सदस्य अधिकारी के हवाले से यह बताया कि वह मुंबई के चर्च गेट इलाके के एक संदिगध लॉज में ठहरा हुआ था।

जबसे उसके बारे में इस तरह के समाचार प्रकाशित हो रहे थे वह शहर छोड़ कर भागने के चक्कर में था। ट्रेन का टिकट कटाने निकला ही था कि इंतजार में घात लगाकर बैठी पुलिस ने उसे धर दबोचा। उसके पास से पुलिस को विदेशी घड़ियां, कैमरे, हीरे की कई अंगुठियां मिली हैं। पुलिस के सामने उसने कुबूल किया है कि देर रात काम से लौटने वाले लोगों को लूटने वाले एक बहुत बड़े गिरोह का वह सक्रिय सदस्य है। हाल के दिनों में मुंबई की सड़कों पर देर रात घटने वाली अपराध की घटनाएं बहुत बढ़ गई थीं। इस गिरफ्तारी के माध्यम से पुलिस ने एक बहुत बड़े गिरोह का सफाया कर दिया है। एक समाचारपत्र में तो यह भी छपा था कि इस तरह के गिरोह अनेक राज्यों में सक्रिय हैं और इस गिरफ्तारी से यह उम्मीद बढ़ी है कि दूसरे राज्यों में घटी घटनाओं का भी इससे कुछ सुराग मिल जाए...

एक समाचार चैनल ने तो अपने यहां प्रसारित होने वाले टॉक शो में इस विषय पर परिचर्चा आयोजित करवाई कि किस तरह महानगरों के सुनसान में महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ी हैं। परिचर्चा में यह बात उभर कर आई कि ग्लोबलाइजेशन के कारण देश के अनेक शहरों में महिलाओं के लिए रात की पाली में काम के अवसर बढ़े हैं तो दूसरी ओर उनके ऊपर हिंसा भी बढ़ी है।

लैंसडाउन के सुबिमल मास्टर समाचार बन गए थे। कुछ दिन तक यह समाचार चलता रहा। समाचारों में उनका नाम भी आता रहा। पैाड़ी-गढ़वाल के स्थानीय जीवन में भी इस खबर से सरगर्मी बढ़ गई। एक क्षेत्रीय समाचारपत्र ने लिखा था ये स्कूल पहाड़ की संस्कृति को नष्ट करने का काम कर रहे हैं। सुबिमल भगत जैसे शिक्षक वहां पढ़ाते हैं। स्कूल की ओर से बाकायदा एक विज्ञापन समाचारपत्रों में निकाला गया कि सुबिमल भगत को स्कूल में आए अधिक दिन नहीं हुए थे और वैसे भी वे माउंट कैलाश स्कूल में अध्यापक नहीं थे। वे तो केवल कंप्यूटर सेंटर में कंप्यूटर आदि की देखरेख का काम करते थे।

कभी-कभी जब मैं अकेले बैठता तो न जाने क्यों उनकी विधवा मां और उनकी उस बहन का बार-बार खयाल आ जाता जिसके दहेज के इंतजाम में उन्होंने अभी तक विवाह तक नहीं किया था। सुबिमल जी का क्या हुआ। कुछ पता नहीं चल पाया। न वे अब तक स्कूल आए न ही अब उनका कोई समाचार आता है- चाय की चुस्की लेते हुए कुसुमाकर ने बताया।

मैंने तुमको बताया नहीं था उसी साल मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी करने के लिए तीन साल की छुट्टी मिल गई और मैं माउंट कैलाश स्कूल के संसार से निकल आया। उनके बारे में कभी फिर समाचारों में भी नहीं पढ़ा।

हां, यह जरूर है कि इधर मैंने एक धारावाहिक देखा है जिसमें कहानी कुछ उसी तरह की है जैसी एक बार मुझे सुबिमल जी ने सुनाई थी। प्रसारित करने वाले चैनल का नाम तो कोई और है लेकिन जिस बात पर मेरा ध्यान अटका वह था एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर का नाम।

उसका नाम सोनाली गौतम है...

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मोनोक्रोम

‘अल कौसर’ के बाहर चहलकदमी करते हुए वह अब थोड़ा उकताने लगा था।

जानबूझकर समय नहीं देख रहा था। समय को वह भूल जाना चाहता था। वह भूल जाना चाहता था कि उसे यहाँ टहलते आधा घंटा हो चुका है।

...कि साढ़े सात बज चुके हैं और बात सात बजे मिलने की थी। न चाहते हुए भी अपनी घड़ी के नीचे डायल पर उसकी आँखें ठहर गईं।

अगर गुज़रे बरस होते तो वह यह सोचता टहलता रहता कि वह एक बार फिर पीछे से धमधम करती आएगी और जब तक वह उन पैरों की आवाज़ को आँखों से सही करने पीछे मुड़ेगा, कहेगी-

‘सॉरी राहुल! जैम में फँस गई थी। आय ऐम रियली सॉरी।’

और वह बड़े नाज़ से अपना गुस्सा वापस ले लेगा।

वक़्त पीछे छूट गया था। वक़्त पीछे छूटता जा रहा था और साथ में यह अहसास भी कि वह आएगी। बीते दिनों की यादें ही रह जाती हैं...

और कभी-कभी मिलने को पुराना रेस्तराँ।

उसे अपने इस ख़याल पर हँसी आ गई। उसे ध्यान आया कि वह अक्सर सड़कों के किनारे पटरियों पर लोगों को इसी तरह हँसते, अपने-आप से बातें करते देखता है और सोचता है कहीं वे पागल तो नहीं है। उसने इधर-उधर देखा और आश्वस्त हुआ कि अँधेरे में उसे कोई देख नहीं रहा है।

वह बाहर पटरी पर एक फटा अख़बार बिछाकर बैठ गया और सामने तेज़ी से भागती गाड़ियों के ब्रांड पहचानने का खेल खेलने लगा। बरसों पुराना खेल कि किस ब्रांड की गाड़ियाँ सड़क पर ज़्यादा दिखती हैं। अक्सर ऊबकर वह यही खेल खेलने लगता। बरसों प्रतीक्षा ने उसे इस खेल का आदी बना दिया था।

सामने एक ऑटो आकर रूकी।

उसकी आँखों में बरसों पुरानी पहचान लौट आई थी। इतनी रोशनी नहीं थी कि किसी को आसानी से पहचाना जा सके। मगर उसे खुशी हुई कि उसने पहचान लिया था, ऑटो से लिच्छवि उतर रही थी। उसने यह भी पहचान लिया था कि उसने नीले बाँधनी का सूट पहन रखा था। उसे याद आया नीले रंग के कपड़ों में लिच्छवि उसे बहुत अच्छी लगती थी। वह ‘अलकौसर’ से छ्नकर आती नीलीरोशनी में उठा और धीरे-धीरे ऑटो की ओर बढ़ने लगा।

“हाय!”

राहुल ने धीरे से कहा।

“ओ! हाय!”

लिच्छवि ने ऐसे चौंक कर कहा मानो वह यहाँ उससे नहीं किसी और से मिलने आई हो और उसे वहाँ पाकर चौंक गई हो।

राहुल को थोड़ी-सी राहत इस बात से मिली कि वह अब भी उसकी आवाज़ पहचानता था। वही खनक और थोड़ा-सा लड़कपन लिए। हाँ, अब वह उतनी बेपरवाह नहीं लग रही थी। वह थोड़ा निराश हुआ कि उसकी मुस्कुराहट में वह पहचान नहीं थी जो बरसों तक, पाँच बरस तक सिर्फ़ उसके लिए थी।

“मुझे लग रहा था कि तुम नहीं आओगी” राहुल बोला।

“क्यों जब कहा था आऊँगी तब ऐसा क्यों लगा?’

राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आवाज़ में अब पहले वाली हड़बड़ाहट नहीं थी। अब वह काफी सधी हुई लगती थी।

“यों ही मुझे लगा शायद काम में फँस गई होगी।” राहुल बोला।

“काम तो था, लेकिन... ” लिच्छवि वाक्य अधूरा छोड़कर अपने बालों का रबड़ ठीक करने लगी।

राहुल कहना चाहता था कि तुम अब भी उतनी सुंदर लगती हो और तुम ठीक कहती थीं हल्का काजल लगा लेने से तुम्हारी आँखें और भी ज़्यादा सुंदर लगने लगती हैं- एकदम काले पके अंगूर-सी बाहर को निकलती। पर उसने कहा नहीं। दूरियों के लम्बे बरसों की दीवार बीच में आ गई थी। उसे याद आया वह सब कहने के लिए तो लिच्छवि से मिलने नहीं आया था। उसे तो एक काम की बात करनी थी।

इतने बरसों में राहुल एक ‘प्रोफेशनल राइटर’ बन चुका है। अपने विजिटिंग कार्ड पर यही लिखता। अख़बारों में लिखने से लेकर रेडियो-टेलीविज़न के छोटे-मोटे कार्यक्रम लिखने वाला राहुल शर्मा बन चुका है। चैट शो, गेम शो, काउंटडाउन शो लिखने वाला राहुल शर्मा।

शो-बिजनेस के छोटे-मझोले निर्माता उसका नाम जानते थे। उसका फोन नम्बर, पेजर नम्बर अपनी डायरी में लिखकर रखने लगे थे। इन दिनों वह एक ‘फिक्शन’ यानी धारावाहिक की तलाश में था। हर प्रोफेशनल राइटर की असली मंज़िल। वह एक ‘सफल लेखक’ का लेबल लगाना चाहता था अपने ऊपर। अपना एक ‘ब्रांड नेम’ बनाना चाहता था- राहुल शर्मा।

‘लिच्छवि’ एक ‘टेलीविज़न एंकर’ बन चुकी थी। लेकिन चैनलों की बढ़ती भीड़ में वह जिस चैनल की एंकर पर्सन थी, उस पर बहुत कम दर्शकों का रिमोट ठहरता था।

वह एक अख़बार में हाई सोसायटी पार्टियों पर कॉलम लिखती थी। हालांकि अंग्रेज़ी के जिस अख़बार में लिच्छवि का कॉलम छपता था, वह अख़बार भी ज़्यादा नहीं पढ़ा जाता था।

पर कम-से-कम राहुल तो उसे पढ़ता ही था। हर इतवार की सुबह वह उस कॉलम को पढ़ता और कई कारणों से उदास हो जाता। एक यह कि वह कभी लिच्छवि के साथ किसी पार्टी में नहीं गया। तब वे दोनों पार्टियों में जाते भी कहाँ थे।

शायद इस कारण भी कि लिच्छवि ऐसी पार्टियों में जाने लगी थी जहाँ जाने का सौभाग्य राहुल को अब तक नहीं मिला था।

...और थोड़ा इसीलिए भी शायद कि भले ही लिच्छवी ‘सेलिब्रिटी’ नहीं बन पाई हो अब तक, पर पैसा तो अच्छा कमा ही रही थी।

ज़िंदगी की दौड़ में वह उससे इतना आगे निकल चुकी थी कि आज उसे अपनी ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर लाने के लिए उसकी ज़रूरत आ पड़ी थी। शायद उसे भरोसा था लिच्छवि पर-अपने बीते प्यार पर।

उसी की बरसों पुरानी डोर थामकर उसने लिच्छवी को आज ‘अल कौसर’ में डिनर के लिए बुलाया था।

“अल कौसर तुम्हारी फेवरिट जगह थी... याद है!” राहुल बातों को पीछे ले जाना चाह रहा था।

“हाँ! पर अब तो टाइम ही नहीं मिलता यहाँ आने का। पर यहाँ-वहाँ पार्टियों में यहाँ के काकोरी कबाब मिल जाते हैं। वैसे भी यहाँ आना अब ‘इनथिंग’ नहीं रह गया है...।” लिच्छवि ऐसे कह रही थी जैसे उसे किसी जगह न बुलाया गया हो।

राहुल को लगा जैसे लिच्छवि उसे छोटा दिखाने के लिए ही ऐसा कह रही है। उसे लगा जैसे उसने लिच्छवि से मिलकर कोई ग़लती कर दी हो। पर एक उम्मीद थी जिसकी लौ के सहारे वह उससे मिलने आया था।

“इधर सुना, तुम्हारा टॉक शो बहुत पॉपुलर हो गया है। मैं देख तो नहीं पाता पर पीछे कहीं अख़बार में पढ़ा था। वैसे ‘मॉर्निंग इको’ में तुम्हारा कॉलम पढ़ता रहता हूँ। अच्छा लिखने लगी हो।”

राहुल को बातचीत का एक सिरा पकड़ना चाहता था। एक ऐसा सिरा जिसके सहारे बीच का ठंडापन ख़त्म हो सके।

“हाँ, देख तो मैं खुद भी नहीं पाती हूँ। टाइम ही नहीं मिलता... कॉलम तो वैसे ही है- टाइमपास। थोड़ी-सी गॉसिप हो जाती है- ठीक-ठाक पैसे मिल जाते हैं। वैसे इन दिनों मैं एक नॉवेल लिख रही हूँ दिल्ली के सोशलाइट लाइफ़ स्टाइल के बैकड्रॉप में लव स्टोरी होगी। रविदयाल से बातचीत चल रही है...”

और तुम्हारी कोई ख़बर ही नहीं मिलती। बीच में सुना था कबीर के लिए चंडीगढ़ पर कोई डॉक्यूमेंट्री लिखी थी तुमने। इनफैक्ट वह खुद ही बता रहा था... कह रहा था ठीक ठाक लिखता है। पर तुम तो जानते ही हो मेरी हिंदी का हाल... अब तो और बुरी हो गई है...”

बात का कोई भी सिरा राहुल के हाथ नहीं आ पा रहा था। लग रहा था कि लिच्छवि की आवाज़ किसी और दुनिया से आ रही हो, जिसे समझने का कोड उसकी दुनिया में था ही नहीं। यह अहसास और बढ़ता जा रहा था कि वह वाकई इस दुनिया में पीछे छूट गया है...राहुल कुछ नहीं बोला...चुपचाप अलकौसर का दरवाज़ा खोलकर अंदर घुस गया और लिच्छवि के आने की प्रतीक्षा करने लगा।

“कोने वाली टेबल ख़ाली नहीं है। याद है तुम्हें, उस टेबल के ख़ाली होने की हम कितनी-कितनी देर प्रतीक्षा करते थे।” राहुल धीरे-धीरे खोई आवाज़ में बोल रहा था।

“ओ हाँ! कहीं और बैठ जाते हैं। मुझे जल्दी जाना है। काबुकी स्टुडियो में रिकॉर्डिंग है” ...राहुल ने महसूस किया लिच्छवी थोड़ी बेचैन हो गई थी।

लिच्छवि उस दुनिया में नहीं लौटना चाहती थी। राहुल बार-बार अपनी स्मृतियों की उस दुनिया को लौटना चाह रहा था। लिच्छवि और अपनी साझी स्मृतियों की दुनिया... पर लग रहा था लिच्छवि की स्मृतियों में वह दुनिया में वह दुनिया थी ही नहीं।

दोनों बीच की एक ख़ाली टेबल पर बैठ गए।

“दो काकोरी कबाब और... तुम अब भी सिर्फ कोक ही पीती हो या...” राहुल ऑर्डर देते-देते थोड़ा रुक गया।

“मैं कुछ भी लेती हूँ। वैसे डिनर पर तुमने बुलाया है... जो भी पिलाओगे पी लूँगी।” लिच्छवि मुस्कुराते हुए बोली।

राहुल ने लिच्छवि की आवाज़ में पहली बार ऐसा कुछ पाया जो उसे अपना लगा। उसे लगा कि यह सही मौक़ा है जब अपनी बात शुरू कर देनी चाहिए।

पिछले हफ़्ते उसने अख़बार में युवा निर्देशक सुकांत के साथ एक डांस पार्टी में लिच्छवि की तस्वीर देखी थी। उसी अख़बार अख़बार में सुकांत का इंटरव्यू भी छपा था जिसमें उसने अपने अगले ‘डेली सोप’ के बारे में बताया था। उसने कहा था उसे लेखकों की नई टीम की तलाश है।

उसे उम्मीद थी अगर वह लिच्छवि को सुकांत से मिलवाए जाने की बात करे तो शायद उसके करियर को एक नया मोड़ मिल जाए। लिच्छवि अगर उसकी मदद करे तो वह अपना करियर ग्राफ बदल सकता है।

“पिछले हफ़्ते मैंने सुकांत के साथ तुम्हारी तस्वीर देखी थी।” राहुल काकोरी कबाब के टुकड़े को कोक के साथ निगलते हुए बोला।

“ओ यस! ही इज़ ए गुड फ्रेंड ऑफ़ माइन। दरअसल, उसी ने मुझे सिखाया था कि इस माध्यम में अगर बड़ा बनना है तो ब्लैक एंड व्हाइट को ब्लैक एंड व्हाइट नहीं मोनोक्रोम कहना चाहिए।”

राहुल ने नोट किया, वह अब भी पहले की तरह जल्दी-जल्दी खाती है।

“असल में बात यह है कि सुकांत एक नया डेली सोप बना रहा है और उसे कुछ नए राइटर चाहिए। तुम अगर... ” राहुल कह तो लिच्छवि से कह रहा था पर देख ऐसे रहा था जैसे अपनी अनुगूँज से कह रहा हो।

“तो इसीलिए तुमने मुझे यहाँ बुलाया था... देखो राहुल, मैं तुम्हें प्रोफेशनली तो जानती नहीं हूँ... और तुम जानते हो इस मीडियम में... एनी वे... तुम्हें एक काम करना होगा। मैं तुम्हें उसका फोन नम्बर देती हूँ। उसकी बीबी को ये पसंद नहीं कि मैं उसके घर फोन करूँ। फोन वह मुझे खुद ही करता है। तुम फोन करके उसे यहाँ बुला लो... कहना मैं बैठी हूँ। चाहो तो कह सकते हो- मैं उसका इंतज़ार कर रही हूँ... आय ऐम वेटिंग फॉर हिम...”

राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आवाज़ में अपने ‘कुछ होने’ का अहसास बढ़ गया है।

राहुल पहली बार इस मुलाक़ात पर शर्मिंदा महसूस कर रहा था। जैसे लग रहा था सफलता की इच्छा ने उसे आज भिखमंगा बना दिया हो। बातचीत इसी मोड़ पर ख़त्म की जा सकती थी। पर इससे नुकसान तो उसका ही होता न। या तो वह अपना स्वाभिमान बचा सकता था या अपना करियर। बरसों की असफलताओं से वह जान गया था कि उसके स्वाभिमान में बचाने लायक कुछ बचा नहीं है।

“पता है जब तुम्हारी याद आती है मैं क्या करता हूँ?” राहुल बातों को कोई मोड़ देना चाह रहा था।

“क्या?” लिच्छवि ने पहली बार राहुल की आँखों में आँखें डालते हुए पूछा।

“मैं ख़ूब मिठाई खाने लगता हूँ। ...तुम्हें मिठाई खाना बहुत अच्छा लगता था न।” राहुल ने लिच्छवि की आँखों से अपनी आँखें बचाते हुए कहा।

“मिठाई तो मैं अब भी नहीं पचा पाती। बहुत फैटी होती है। खैर... तुम सुकांत का नम्बर नोट करो... इट्स 5142773...”

राहुल को लगा इस प्यार के खेल को अपने बरसों पुराने झोले में वापस डाल देना चाहिए। अपने-आपको और गिराने से बेहतर है कि जल्दी से काम निपटाकर लिच्छवि से विदा ले।

राहुल चुपचाप उठा और रिसेप्शन से फोन करने लगा।

“उसने कहा है वह पाँच मिनट में आ रहा है” राहुल लौटकर बताया।

“बिल आ गया है, पैसे हैं या दूँ?” लिच्छवि ने राहुल से पूछा।

“डिनर पर मैंने तुम्हें बुलाया था...” राहुल पर्स से पैसे निकालने लगा।

लिच्छवि उठकर बाहर चली गई थी। राहुल भी पीछे-पीछे आ गया।

“तुम्हारे घर का फोन नम्बर...” राहुल ने वक़्त काटने के लिए लिच्छवि से पूछा।

लिच्छवि कुछ देर चुपचाप देखती रही। अपनी बार-बार देखी आँखों में अनजानापन लिए।

“पापा के नहीं रहने के बाद मम्मी आजकल मेरे साथ ही रहती हैं। उन्हें तुम्हारा फोन करना अच्छा नहीं लगेगा। वह आज भी मेरे बहक जाने का जिम्मेदार तुम्हें मानती हैं। मेरे इस करियर का...” लिच्छवि अपनी सधी हुई एंकर पर्सन वाली आवाज़ में बोल रही थी।

“ओह! आय ऐम सॉरी...खैर...तुम्हारे ऑफिस का नम्बर तो है ही।” राहुल ने इस प्रसंग को समाप्त करते हुए कहा।

सामने एक काली सिएलो कार रुकी। राहुल ने महसूस किया लिच्छवि की आँखों में किसी की पहचान चमकने लगी थी। वह तेज़ी से कार की ओर बढ़ गई।

“सुकांत, ये राहुल शर्मा हैं। कॉलेज में मेरे सीनियर थे। कबीर की चंडीगढ़ वाली डॉक्यूमेंट्री इन्होंने ही लिखी है...” लिच्छवि सुकांत से राहुल का परिचय करवा रही थी!

“ओ नाइस मीटिंग यू। सुना था किसी से आपके बारे में। आप कल-परसों फोन करके मेरे पास आ जाइए... गल्लाँ-सल्लाँ करते हैं” ...सुकांत ने राहुल से हाथ मिलाते हुए कहा।

राहुल को लगा अब वहाँ ‘फालतू’ बने रहना अच्छा नहीं। विदा लेनी चाहिए। उन्हें और भी बातें करनी होंगी।

“अच्छा मैं चलता हूँ...” राहुल ने लिच्छवि से कहा और सुकांत की ओर देखते हुए बोला, “मैं कल दोपहर में आपको फोन करूँगा।”

“ओह श्योर” सुकांत ने तपाक से बोला। राहुल पीछे मुड़ चुका था।

“फोन करना... कीप इन टच”, उसने सुना। लिच्छवि की आवाज़ थी।

वह कुछ नहीं बोला। बस पीछे मुड़कर एक बार लिच्छवि को देखा, हाथ मिलाया और वापस मुड़कर तेज़ी से चलने लगा... वैसे ही जैसे बरसों पहले आख़िरी बार वह लिच्छवि से जुदा हुआ था।

आगे अँधेरी सड़क थी, जिस पर गाड़ियों की जलती-बुझती भागती रोशनी न जाने क्यों उसे अपने गाँव की पगडंडियों की याद दिला रही थी जो रात में जुगनुओं की जगर-मगर से भर जाती थी।

वह दूर अँधेरे में गुम हो रहा था।

“कोई पुराना चक्कर” सुकांत ने गाड़ी का पावर विंडो बंद करते हुए पूछा।

“बताया न मेरा सीनियर था कॉलेज में... अंड ही वाज आल्वेज वेरी नाइस टू मी... वेरी हेल्पफुल- अंड आई थिंक बदले में मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए...” लिच्छवि गाड़ी का एसी ऑन कर चुकी थी।

“शुक्र है तुम्हें इतना तो याद है कि तुम्हें किसके लिए कितना क्या करना है...” सुकांत गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोला।

दोनों हँसने लगे। लिच्छवि वही जोरदार हँसी हँस रही थी जिसकी अनुगूँज राहुल की स्मृतियों में अभी बाक़ी थी। जो इस समय सड़क पर चलते-चलते यही सोच रहा था शायद वैसी ही हँसी हँस रही होगी।

लिच्छवि और सुकांत की गाड़ी तेज़ी से उसके बगल से गुज़र गई।

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शॉर्ट फिल्म

15 अक्टूबर को मेरी शॉर्ट फिल्म ‘उजाला’ का शो है सीरी फोर्ट में शाम 6:30 बजे. समय हो तो आना. अच्छा लगेगा- सुतपा. छोटा सा ईमेल. विश्वास नहीं हो रहा था. नहीं इस बात पर नहीं कि सुतपा को मेरा ईमेल पता कहाँ से मिला? यह तो आजकल आसानी से मिल जाता है.

इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उसे याद रहा.

सुतपा- नाम ने उसे 20 साल पीछे पहुंचा दिया. बड़ी-बड़ी चमकती आँखों वाली सुतपा. आत्मविश्वास से भरी-पूरी. ऐसा लगता जैसे उसके कदम बढाने भर की देर थी, कामयाबी उसकी राह देख रही थी.

कॉलेज में मेरे साथ पढ़ती थी. साथ नहीं एक साल जूनियर थी.

क्या सिर्फ यही थी? अब इतने सालों बाद ‘कुछ और’ को याद करने का कोई मतलब नहीं रह गया था.

उसकी स्मृतियों में हमेशा वही सुतपा बनी रही. आँखों से हँसने वाली. तपाक से मिलने वाली. अच्छा है स्मृतियाँ कभी बूढी नहीं होती! जब जो जी चाहा देख लिया.

एम. ए. के बाद पीएचडी करने अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी चली गई थी. फेलोशिप मिल गई थी ‘भारतीय राजनीति में जाति’ के ऊपर शोध के लिए.

पांच साल का साथ एक झटके में ख़त्म हो गया. पता भी नहीं चला.

इंटरनेट, मोबाइल फोन का ज़माना नहीं आया था.

‘देखना एक दिन अख़बारों के पहले पेज पर फोटो छपेगी. तब अपने बच्चों को दिखाकर बताना इसके साथ मेरा.... कितना एक्साइटिंग लगेगा न.’ वह गले मिलकर एयरपोर्ट के अन्दर चली गई थी. मैं इसका कुछ मतलब समझ नहीं पाया था.

शुरू में हमने एक-दूसरे को खूब चिट्ठियां लिखी. फिर सिलसिला कम होता गया.

मैं ऑब्जर्वर फाउंडेशन में रिसर्चर की नौकरी करने लगा था. रोज-रोज भारत की चुनावी राजनीति पर आंकड़े जुटाना, उनसे निष्कर्ष निकालना. बस.

जीवन में सब कुछ था लेकिन कुछ ख़ास नहीं था.

दूर हो जाने पर यह समझ में आ गया था की हमारे बीच फासला बहुत था. क्या हुआ कि हमने कहने को प्यार किया, रहने को साथ रहे. लेकिन...

वह एक बड़े कैरियर की तरफ बढ़ रही थी. मैं देश में नए-नए आये आर्थिक उदारवाद की धारा में अपने लिए किसी तरह कोई किनारा तलाशने में लग गया.

मेरे पास प्रयोग करने के लिए अधिक समय नहीं था, साधन नहीं थे. चाहता तो मैं भी था पीएचडी करूँ, किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाऊँ. लेकिन फेलोशिप नहीं मिली, और तो और यूजीसी की नेट परीक्षा भी पास नहीं कर सका. घर की कंडीशन ऐसी नहीं थी कि उसके ऊपर अपनी पढ़ाई का बोझ और डाला जा सके.

चारा क्या था. जो मिल रहा था उसे ही पकड़ लेने में भलाई थी. अच्छे पैसे मिल रहे थे.

सुतपा की चिट्ठियां आनी कम हुई फिर बंद. चिट्ठियों में हमने यह जान लिया था कि हम दोनों अलग-अलग दुनियाओं में रह रहे थे, जिन्हें एक करने की कोई सूरत नहीं बची थी. समय के साथ वह दूरी और बढती जा रही थी. वह अमेरिका के बारे में, वहां के यूनिवर्सिटी सिस्टम के बारे में लिखती और मुझे दिल्ली के बारे में लिखते हुए शर्म आती. मुझे ऐसा लगने लगता जैसे वह मुझे गाँव में छोड़कर शहर चली गई हो.

साल-साल बीतते गए. एक दिन सचमुच अखबारों में उसकी फोटो छपी थी. उसके बारे में खबर भी. लिखा था एक उच्च राजनयिक पर उसकी पत्नी सुतपा ने घरेलू हिंसा का केस कर दिया था. ‘मॉर्निंग एको’ में खबर बड़े विस्तार से छपी थी कि किस तरह अमेरिका में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पीएचडी करने के दौरान उसकी भेंट अरूप चौहान नामक उस स्मार्ट राजनयिक से हुई और साल भर के अन्दर उसने अपनी पढ़ाई छोड़ आर उससे शादी कर ली. महज चार साल के अन्दर उसने अपने पति पर यह केस कर दिया था. लिखा था कि उसका पति अक्सर शराब पीकर उसे मारता-पीटता था. और अभी न्यू ईयर इव की पार्टी में उसने जर्मनी के बॉन शहर में इतना मारा कि उसका गर्भपात हो गया. जान बचाने के लिए एक अन्य राजनयिक के घर में शरण लेनी पड़ी थी. उसके पति का बयान भी छपा था कि उसके सम्बन्ध किसी और पुरुष से थे.

उसी साल की बात है जब मेरी बड़ी बेटी पिंटी का जन्म हुआ था.

मैंने जब पढ़ा तो मुझे ऐसा लगा जैसे उसके चमकते जीवन को अँधेरे में फेंक दिया गया हो.

कई दिनों तक उसके बारे में अखबारों में छपता रहा. फिर गायब. लगता था जैसे वह उन्हों अंधेरों में खो गई हो.

कुछ साल बाद अचानक एक सहपाठिनी शिल्पा से गोवा के एयरपोर्ट पर मुलाक़ात हो गई और उस भूली कहानी के बारे में बात चल पड़ी. कॉफ़ी के घूँट भरते-भरते उसने जो बताया उस बात ने मुझे चौंका दिया और दुखी भी कर दिया.

अपने पति अरूप चौहान के साथ उसका आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट हो गया था. उसके बाद वह मुंबई में रह रही थी. वहां के अखबारों में कुछ दिनों पहले एक खबर छपी थी, खूब चर्चा थी. अधिक मात्रा में नींद की गोलियां खा लेने के कारण एक दिन देर रात सुतपा सिंह को अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. उसे एक प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक के घर से लाया गया था. कहा जा रहा था कि उसके साथ लिव इन में थी. पिछले कुछ दिनों से संबंधों में तनाव चल रहा था. तनाव उस फिल्म की कहानी को लेकर था जिसकी शूटिंग हाल में ही पूरी हुई थी. कहते हैं कि उसकी कहानी सुतपा ने लिखी थी जिसे उसके निर्देशक मित्र ने अपनी लिखी कहानी के रूप में प्रचारित किया था. सिनेमा के परदे पर भी वह उसका क्रेडिट अपने नाम ही रखना चाहता था. शायद इसी बात को लेकर झगडा हुआ हो. उसने बताया कि उसके दोस्त का चक्कर किसी और के साथ चलने लगा था, शायद इसलिए उसने नींद की गोलियां खाई हों. कुछ दिन तक गॉसिप वौसिप चला, फिर लोग भूल गए.

जब जब उसने रौशनी में आने की कोशिश की अँधेरा आगे आ जाता.

शिल्पा ने उसका इमेल आईडी भी दिया था. कहा था कि मेरे बारे में पूछ रही थी. एक दिन शिल्पा से पूछा था कि अनमोल के बारे में कुछ पता है?

सुनकर मैं रोमांचित हो गया था. घर आकर भी मन नहीं लग रहा था. बार-बार आँखों के सामने उसकी हंसती हुई बड़ी-बड़ी आँखें कौंध जाती थी. पत्नी ने पूछा- क्या हुआ?

‘कुछ नहीं. गोवा में मछली ज्यादा खा ली थी. लगता है अपच हो गया है.’

‘उम्र हो गई है. खान-पान का ध्यान नहीं रखोगे तो यही होगा’, कहते हुए पत्नी पिंटी का होमवर्क करवाने में लग गई थी.

यह रोमांच कई दिनों तक रहा. कई बार मन हुआ कि ऑफिस से शिल्पा द्वारा दिए गए मेल आईडी पर मेल करके देखूं. एक बार खुद से पूछ कर तो देखूं कैसी है?

जीवन इतना एकरस हो चला था कि कोई भी रोमांच अधिक दिन तक नहीं टिकता. सुबह से शाम दफ्तर, शाम में घर, चाय-नाश्ता, बेटी का होमवर्क, फिर सो जाना. अगले दिन फिर वही रूटीन.

पिछले दिनों एक कविता पढ़ी थी- मैं जो काम करता हूँ उसके लिए मुझे वेतन मिलता है/ मैं अपना अवैतनिक जीवन भूलता जा रहा हूँ...’

जल्दी ही एक बार फिर अपने अवैतनिक जीवन को भूल गया.

बीच-बीच में कभी-कभी उसका ध्यान आ जाता. मैं जानता था वह किसी न किसी काम में लगी होगी. रुक जाना, ठहर कर बैठ जाना उसके स्वभाव में ही नहीं था. धोखे, संबंधों की असफलता उसे तोड़ नहीं सकती थी. यह मैं जानता था. लेकिन वह कर क्या रही होगी? एक बार फिर वह इन अंधेरों से निकलेगी जरूर.

पिछले दिनों फेसबुक पर सक्रियता बढ़ी तो मेरा ध्यान सुतपा की तरफ गया. मैंने उसे खोज लिया था. सुतपा सिंह फेसबुक की आभासी दुनिया में मौजूद थी. मैं एक बार फिर रोमांचित हो गया. किसी तरह से खुद को रोका फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने से. लेकिन इतना जरूर हुआ था कि जुदाई के बीस साल बाद मुझे उसके जीवन से जुड़ी हरेक सार्वजनिक खबर के बारे में पता चल जाता था. मैं इतने सालों बाद एक बार फिर खुद को उसके जीवन के बेहद करीब महसूस कर रहा था. बस एक क्लिक दूर. उसकी नई नई तस्वीरें, उसके जीवन के पल-छिन, उसके खयालात...

तस्वीरों ने उसके मन की अल्हड सुतपा को एकदम से जैसे बड़ा कर दिया था. उसने ध्यान दिया था कि लगभग हर तस्वीर में सन गोगल्स लगाये रहती थी. शायद अपनी आँखों के नीचे के काले धब्बे को छिपाने के लिए. काले धब्बे तो पहले भी थे लेकिन अब बढ़ गए थे. उसने महसूस किया. शायद उम्र, शायद संबंधों की कड़वाहटों का कलुष.... शायद जीवन में बार-बार छा जाने वाला अँधेरा...

वहीँ एक दिन उसने पढ़ा कि उसने दो साल रिसर्च करके ऐसी महिलाओं के ऊपर एक फिल्म बनाई थी जिनके एनआरआई पतियों ने उनको धोखा दिया, उन्हें इन्तजार के अँधेरों में छोड़कर जो गायब हो गए. उसने उसके फेसबुक पेज पर पढ़ा कि कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में उसकी फिल्म का प्रदर्शन हुआ था, उसकी सराहना हो रही थी. वह उन अखबारों के कटिंग्स अपने फेसबुक पेज पर लगाती थी जिनमें उसकी फिल्मों के बारे में छपता था.

मैं रोज पढता और सुतपा के बारे में सोचता. क्या यही वह मंजिल थी जिसे वह पाना चाहती थी. जिसके लिए उसने मुझे पीछे छोड़ दिया था. मुझे लगा जैसे उसने जीवन का उजाला पा लिया था और इस बार उसके सामने अँधेरा नहीं छाने वाला था.

मैं सोच रहा था पांच साल से उसके पास उसका ईमेल आईडी भी है तब भी मैंने ही उसने कहाँ कुछ पूछा? नहीं कुछ तो हेलो तो लिख ही सकता था. मैंने महसूस किया कि मेरे अन्दर हीन भावना थी जो मुझे उससे संपर्क करने से रोकती थी. उसे हमेशा लगता रहा कि वह उसके सामने कुछ भी नहीं बन पाया. मैं यह मानता हूँ कि अपनी तमाम पढ़ाई-लिखाई के बावजूद मैं इस बात को झेल नहीं सकता था कि मेरी स्त्री मुझसे ज्यादा सफल हो. वह सफल होती गई और मुझसे दूर होती गई.

एक निजी संस्था में रिसर्च को ऑर्डिनेटर की क्या बिसात? मैं एक लीक पर चलता रहा. वह देश-विदेश में कामयाबी के अनुभव जुटाती रही. मैं उसके जीवन के अंधेरों के बारे में पढता-सुनता और सच कहूँ तो कहीं न कहीं मन में यह संतोष होता कि सब कुछ तो है फिर भी उसके जीवन में कुछ कमी है.

खुद को दिलासा देते हुए मैंने मन ही मन सोचा- शायद वह जो पाना चाहती थी वह नहीं पा सकी थी इसलिए मुझसे कभी संपर्क न किया हो. थोड़ी सी रौशनी आई और उसने मुझे याद किया. शुक्र है.

शुक्रिया- मैंने ईमेल का संक्षिप्त जवाब दिया.

15 अक्टूबर- अभी 15 दिन बचे थे.

पिंटी को भी फिल्म दिखाने ले जाऊँगा और सुतपा को दिखाकर कहूँगा यही है....

उसकी हंसी छूट गई. हडबडाकर उसने इधर-उधर देखा, इस तरह अकेले में हँसते हुए किसी ने देख तो नहीं लिया.

कोई नहीं था.

मेज पर उड़ीसा में हाल में ही संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के विस्तृत परिणाम थे. उसको देखकर नोट्स बनाने में लग गया. कल शाम चुनाव के ट्रेंड्स को लेकर मीटिंग थी.

फिलहाल मैं सुतपा, उसकी फिल्म ‘उजाला’ से अपना ध्यान एकदम हटा लेना चाहता हूँ.

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मिस लिली

उस घटना ने जैसे लिली ठाकुर की जिंदगी बदल दी।

नवरात्र का समय था। नवमी की भीड़... रिक्शे पर बैठकर 'नाज टेलर' जा रही थी। कल यानी विजयदशमी के दिन उसे नेहरू भवन में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में जिला के क्लेक्टर, एस.पी., सांसद और इसी तरह के शहर के अन्य गणमान्य लोगों के सामने सुगम संगीत प्रस्तुत करना था। उसी मौके के लिए उसने लखनवी चिकन का कुर्ता खासतौर पर सिलवाया था।

लाने जा रही थी।

उसने पहले तो गौर नहीं किया। मगर साइकिल की घंटी और सीटियों की आवाजें बढ़ती गईं तो उसने ध्यान दिया कि एक लड़का रिक्शे के दोनों ओर कलाबाजियाँ करता हुआ साइकिल चला रहा था। उसके देखने से साइकिल वाले लड़के से आँखें मिल गईं। जवाब में उस लड़के ने साइकिल की हैंडल से दोनों हाथ हटाए, बालों पर हाथ फिराते हुए उसने आँखों से कुछ इशारा भी किया। लिली ने घबराकर आँखें नीची कर लीं और रिक्शेवाले से तेजी से रिक्शा चलाने के लिए कहा।

सीतामढ़ी के बीच बाजार में महंत साह चौक पर जब वह 'नाज टेलर' के सामने रिक्शे से उतरने लगी तब तो हद ही हो गई। उस लड़के ने पीछे से आकर उसका दुपट्टा खींचते हुए फब्ती भी कसी। उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाती कि इससे पहले ही सामने के 'प्रिंस पान भंडार' से एक आकृति तेजी से उस भागते साइकिल सवार के पीछे दौड़ी। उसको पकड़कर उसने खूब धुनाई की। आगे से किसी लड़की के साथ दुर्व्यवहार न करने की कसम खिलवाई, सड़क पर थूक फेंक कर चटवाया और फिर अब तक यह तमाशा देखते-देखते टेलर की सीढ़ियों तक पहुँच चुकी लिली के पास पहुँचते हुए नजरें झुकाए हुए बोला, 'कभी कोई जरूरत हो तो अरुण चौधरी को याद कर लीजिएगा।' उसने स्वयं यह दृश्य कई बार सिनेमा के परदे पर देखा था। मगर यह दृश्य भी उस अरुण चौधरी द्वारा सिनेमा की तरह प्रायोजित किया गया था - ऐसा मानने का लिली का दिल नहीं हुआ।

अगले दिन नेहरू भवन में सरस्वती वंदना के बाद उसने गाना शुरू किया, 'अपनी अटरिया पर आवSओ साँवरिया, देखा-देखी तनिक होइ जाए!' तो बार-बार उसकी आँखों के सामने अरुण चौधरी की छवि उभरकर आती रही।

कार्यक्रम के बाद जब स्थानीय जिलाधिकारी महोदय के हाथों वह पुरस्कार प्राप्त कर रही थी, तो न जाने क्यों लगा कि हॉल के पीछे भीड़ में ताली बजाने वालों में अरुण चौधरी की लंबी-छरहरी आकृति भी है।

उस रात लिली ने अपनी छोटी बहन मिली से कहा, लगता है उसे कोई ऐसा मिल गया है जो उसके सपनों की मंजिल तक ले जाने में हर तरह से उसका साथ देगा।

'कौन है वह, दीदी?' मिली ने पूछा।

'कोई नहीं, सो जा!' लिली ने उसे जोर से कलेजे भींचते हुए कहा।

स्नेहसुधा ठाकुर : हाई स्कूल शिक्षिका - लिली के घर के बाहर यह तख्ती टँगी थी।

उसकी माँ घर में आजीविका कमाने वाली एकमात्र प्राणी थी। पिताजी जटाशंकर ठाकुर पुराने जमींदारों के वंशज थे। डाक विभाग में बाबू थे। एक बार अफसर ने उनसे बिना उचित सम्मान दिए बातचीत करना आरंभ कर दिया। जवाब में उन्होंने उस अफसर की पिटाई कर दी। यह घटना दस साल पहले की है। तब से वह सस्पेंड चल रहे हैं। उनका ज्यादातर समय या तो कोर्ट में कटता या स्थानीय स्तर पर फैले भ्रष्टाचार को लेकर राष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल तक को पत्र लिखते रहने में, जिसे देश के एक नागरिक के रूप में वे अपना कर्तव्य समझते हैं। वैसे उनके किसी पत्र पर किसी तरह की कोई कार्रवाई हुई हो यह सुनने में नहीं आया। लिली अपने घर की सबसे बड़ी आशा है। दो लड़कियों के बाद माता-पिता ने लड़के की आस छोड़ दी। माँ अपनी लड़कियों को लेकर ही बड़े-बडे सपने देखती थीं। बड़ी लड़की बी.ए. में पढ़ती थी। सीतामढ़ी के पंडित रविशंकर ओझा के पास बचपन से ही माँ उसे शास्त्रीय गायन सीखने भेजती रहीं। सीतामढ़ी शहर का शायद ही कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम ऐसा होता हो जिसमें लिली ठाकुर का गायन प्रमुखता से न हुआ हो।

सब कहते वह एक दिन टीवी की 'इंडियन आयडल' बन सकती है। वह स्वयं भी देश-विदेश में गायिका के रूप में अपना नाम कमाना चाहती थी। पढ़ने में भी कोई खराब नहीं थी।

शहर में सब यही चर्चा करते, 'बड़ी एढभांस है इसकी माँ, जो पढ़ाई-लिखाई छोड़कर एस्टरा करकूलर (एक्स्ट्रा कैरिकुलर) में बेटी को आगे बढ़ा रही है।'

कई तो उसकी माँ को आकर समझाते भी कि एक शिक्षक होकर इतने ऊँचे सपने नहीं देखने चाहिए। लेकिन उसकी माँ यही कहती, 'मैं अपनी बेटी की राह में बाधा नहीं बनना चाहती।'

जिला स्तर पर तो गायन की सभी प्रतियोगिताओं में वह अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी थी। अब उसकी साध थी कि उसे किसी तरह टीवी पर अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर मिले।

ज्यादा दिन नहीं हुए पास के ही शहर मुजफ्फरपुर की शिल्पी को जीटीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम 'सारेगामा' में गाने का मौका मिला था। वह तो कोई पुरस्कार भी नहीं जीत पाई। मगर सीतामढ़ी से राजधानी पटना जाने के रास्ते में जगह-जगह उसकी बधाई के पोस्टर लगे हुए थे। उसे शिल्पी से बड़ा रश्क होने लगा था।

नेपाल की सीमा से लगे उस छोटे-से कस्बे में लोगों के सपने ही ज्यादा नहीं होते थे। पहले तो ज्यादातर लड़के-लड़कियाँ डॉक्टर-इंजीनियर बनने के सपने पालते, बैंक में बाबू बनने के सपने पालते। जब से शहर के एक दवा-व्यापारी का लड़का निरंजन खेतान आई.ए.एस. की परीक्षा में उतीर्ण हो गया था तब से वहाँ के कुछ साहसी विद्यार्थी आई.ए.एस., आई.पी.एस. बनने का सपना भी देखने लगे थे और उसे पूरा करने के लिए, उसकी पढ़ाई के लिए दिल्ली-पटना जैसे शहरों का रुख करने लगे थे।

लेकिन इधर जब से टीवी के परदे ने घरों में अपनी स्थायी रूप से जगह पक्की कर ली थी तब से लड़के-लड़कियों की आँखों में सपने टीवी परदे के माध्यम से भी आने लगे थे। जो विद्यार्थी पढ़ने में स्वयं को तेज समझते, वे क्विज की किताबें पढ़ते, सामान्य ज्ञान बढ़ाने की कवायद करते रहते। इस चक्कर में तीन बार बैंक पी.ओ. का इंटरव्यू देने वाले खाद-व्यापारी के लड़के उमेश भवशिंका का धंधा खूब चल पड़ा था। सीतामढ़ी में लोग कहते कि दुनिया में शायद ही कोई ऐसा सवाल हो जिसका जवाब उमेश भवशिंका के पास न हो। दिन भर स्कुलिया-कॉलेजिया विद्यार्थी उसके पास एक से एक मुश्किल सवाल लेकर आते रहते। वह हँसते-हँसते उनके जवाब बता दिया करता। लोग चर्चा करते कि 'कौन बनेगा करोड़पति' वालों को पता है कि यह सारे जवाब जानता है, इसलिए इसको उसमें भाग नहीं लेने देते हैं।

यह बात कितनी सच थी पता नहीं, मगर कॉलेजों के हॉस्टल में, गली-मुहल्ले के विद्यार्थी लॉज में जब विद्यार्थीगण सामूहिक रूप से 'कौन बनेगा करोड़पति' की तैयारी में लगे रहते तो उनके बीच अक्सर इस बात को लेकर चर्चा होती कि उमेश भवशिंका ने दो बार किस तरह 'कौन बनेगा करोड़पति' के सवालों को पत्र लिखकर गलत साबित कर दिया था। लोग कहते कि पत्र पढ़कर अमिताभ बच्चन ने स्वयं भवशिंका को फोन करके मुंबई बुलाया, साथ खाना खिलाया और दस लाख रुपए देते हुए यह कहा कि वह यह बात किसी को न बताए कि 'कौन बनेगा करोड़पति' में पूछे गए दो सवाल गलत निकल गए थे। हालाँकि उमेश भवशिंका ने खुद यह बात कभी नहीं कही, लेकिन नेपाल के धरान कस्बे से सीतामढ़ी पढ़ने आए संजय क्षेत्री का तो यह दावे के साथ कहना था कि उमेश ने सवाल गलत होने की बात पत्र के जरिए बाद में स्टार चैनल को भी बता दी थी। इसलिए 'कौन बनेगा करोड़पति' से अमिताभ बच्चन को हटा कर उनके स्थान पर इस कार्यक्रम की एंकरिंग का काम शाहरुख खान को दे दिया गया। इसके बदले में स्टार चैनल ने उसको मुँह बंद रखने के एवज में अच्छे पैसे भी दिए।

बहरहाल, लड़कों को जब किसी सवाल का जवाब नहीं आता तो वे उमेश के पास जा पहुँचते। वह सवाल के जवाब बताने के पैसे तो नहीं लेता, लेकिन जनरल नॉलेज की कोचिंग जरूर देता था। ऐसा नहीं है कि सीतामढ़ी में इतने लोग 'कौन बनेगा करोड़पति' की तैयारी करने लगे थे कि उसके कोचिंग सेंटर खुल रहे हों। ऊपर दर्ज किया जा चुका है, जब से छोटा परदा इस छोटे कस्बे में घरू सदस्य की तरह हो गया था, लोगों में वही करने की होड़ मच जाती जैसा टीवी पर किसी को करते दिखाया गया हो।

इस तरह से जनरल नॉलेज पर आधारित क्विज कार्यक्रम लोगों को बड़ा भाया। सीतामढ़ी ही नहीं, उससे सटे नेपाल के शहरों जनकपुर, जलेश्वर और गौर बाजार आदि में भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल खुल गए थे। स्कूलों में आपस में इस बात की होड़ लगी रहती कि वे कैसे अपने स्कूल को बेहतर साबित करें, ताकि बिहार-नेपाल के ज्यादा से ज्यादा बच्चे उसके स्कूल में पढ़ने आएँ। ऐसे में इस तरह के क्विज कार्यक्रम काफी लोकप्रिय होने लगे। 'कौन बनेगा करोड़पति' की तर्ज पर इस तरह आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों के नेपाल में नाम इस तरह होते थे - 'कौन बनेगा अंचलपति'। सीतामढ़ी में भी एक बार 'कौन बनेगा जिलापति' क्विज कार्यक्रम आयोजित हुआ। उसमें इनाम राशि एक लाख रखी गई। पुरस्कार राशि सेठ गेंदामल बाजोरिया की ओर से रखी गई थी।

यह बात अलग है कि सेंट कबीर स्कूल के जिस बच्चे प्रतीक को यह पुरस्कार मिला, पुरस्कार मिलने के दो दिन बाद ही कुँवर-बजरंगी गिरोह ने उसका अपहरण कर लिया। बच्चे को तो छुड़ा लिया गया। मगर कहते हैं कि पुरस्कार की राशि फिरौती में वे ले गए। इसके बाद से सीतामढ़ी में यह तय कर लिया गया कि पुरस्कार की राशि इतनी ही रखी जाए जिससे जान-माल का खतरा न रहे।

पुरस्कार राशि कम हो जाने से इस तरह के क्विज कार्यक्रम उतने लोकप्रिय तो नहीं रह गए। लेकिन उनके आयोजन प्रखंडों, सब-डिविजनल कस्बों तक में होने लगे। नामांकन के मौसम में बिहार-नेपाल के इस इलाके के स्कूल नामांकन के लिए इस तरह विज्ञापन निकालते - 'सेंट लोयला स्कूल, अपने बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए। हम नहीं हमारे आँकड़े बोलते हैं। दो सालों से हमारे स्कूल के छात्रों ने सीतामढ़ी-नेपाल के पाँच जिलों में सबसे अधिक क्विज कार्यक्रम जीते हैं। सामान्य ज्ञान हर प्रकार के कैरियर के लिए अति आवश्यक होता है। हमारे स्कूल में सामान्य ज्ञान की तैयारी अंतरराष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखकर करवाई जाती है। जल्दी हम अपने बच्चों को अंतरराष्ट्रीय क्विज प्रतियोगिताओं में भेजने की योजना बना रहे हैं। हो सकता है उनमें आपका बच्चा भी हो। सीटें कम हैं, इसलिए नामांकन के लिए शीघ्र संपर्क करें। हमारे स्कूल में नामांकन प्रतियोगिता के आधार पर होता है। प्रतियोगिता का आवेदन प्रपत्र 100 रुपए में स्कूल से प्राप्त करें। जल्दी करें, कहीं आप सोचते ही न रह जाएँ और समय हाथ से निकल जाए।'

सीतामढ़ी में कई तरह के सामाजिक संगठन थे - मारवाड़ी युवक संघ, सुहृद संघ, लायंस क्लब, युवा समाज... कम से कम इतने संघ, क्लब आदि तो थे ही जो साल में कम से कम एक बार अपने अपने स्थापना दिवस या सालाना दिवस के अवसर पर शहर के नौजवानों के लिए क्विज प्रतियोगिताएँ आयोजित करते थे। वे हर बार अलग-अलग विषयों पर होते, मसलन, क्रिकेट, सिनेमा, आदि-आदि।

वैसे इन सामाजिक संगठनों द्वारा भी क्विज प्रतियोगिताओं का आयोजन भी हाल में ही शुरू हुआ था। पहले जब जीटीवी की अंत्याक्षरी की लोकप्रियता थी, तब ये संगठन साल में एक बार अंत्याक्षरी की प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाया करते...

धीरे-धीरे वहाँ के लड़के-लड़कियों में टेलीविजन पर प्रसारित 'इंडियन आयडल' प्रतियोगिता की सफलता के बाद गायकी में कैरियर बनाने की धुन सवार होती जा रही थी। लड़कियों के पिता शादी-ब्याह के मौसम में जब कंप्यूटर सेंटर में अपनी लड़की के बायोडाटा का प्रिंट लेने जाते, तो उसमें यह कॉलम खास तौर पर डलवाते - सिंगिंग में कैरियर बनाने की इच्छुक। शहर में जगह-जगह संगीत विद्यालय खुल गए थे। लड़कियों में अभी शास्त्रीय या सुगम संगीत यानी गजल, दादरी, ठुमरी सीखने का प्रचलन था, जो परंपरा पहले से सम्भ्रांत परिवारों में चली आ रही थी। इधर भोजपुरी फिल्मों का दौर फिर से शुरू हो जाने से भोजपुरी गीत गाना सीखने का चलन भी शुरू हो गया था।

पहले के मुकाबले यह फर्क जरूर आ गया कि अब शहर में ही क्या आसपास के कस्बों, सीमा पार नेपाल के शहर में सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन खूब खुल गए थे। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की बाढ़ आ गई थी। शहर ने बिजली-सड़क के मामले में भले आजादी के बाद अब तक कोई खास विकास नहीं किया हो, लेकिन टेलीविजन के दौर में उसका सांस्कृतिक विकास खूब हो रहा था। बर्थ डे आदि मौकों पर पार्टियों का चलन भी खूब बढ़ रहा था।

बिहार में अनेक क्षेत्रीय चैनल शुरू हो चुके थे और वे छोटे-छोटे शहरों-कस्बों में संभावित बाजार तलाशते घूम रहे थे। इसके अलावा, स्थानीय केबल चैनल भी थे। इन सब पर संगीत की प्रतियोगिताओं का आयोजन तो जीटीवी के 'सारेगामा' के साथ ही शुरू हो चला था। लेकिन 'इंडियन आयडल' की राष्ट्रव्यापी सफलता के बाद बिहार में 'भोली टीवी' ने जब 'बिहार आयडल' प्रतियोगिता के आयोजन की घोषणा की, उसके बाद तो जैसे सिंगिंग को कैरियर बनाने की लहर कम से कम सीतामढ़ी में तो चल ही पड़ी। डुमरा की एक लड़की का उसमें पहले राउंड में चयन भी हो गया।

बी.ए. सेकेंड ईयर में पढ़नेवाली, स्कूल से लेकर अभी तक साल में कम से कम एक बार एनुअल डे पर 'हम होंगे कामयाब', 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' जैसे गीत गाकर तालियाँ और वाहवाही बटोरने वाली लिली ठाकुर ने रविशंकर ओझा से सुगम संगीत में गायन का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद आधुनिक गायन सीखने के लिए सुषमा संगीत विद्यालय में नाम लिखा लिया। सिर्फ सुगम संगीत के सहारे सिंगिंग कैरियर संभव नहीं था। उसके लिए आधुनिक फिल्मी गाना बहुत जरूरी होता। स्वीटी मैम यानी सुषमा संगीत विद्यालय की म्युजिक टीचर ने भी उसे बताया कि आजकल फिल्मी गानों में ही कैरियर है। पहले तो सिर्फ सिनेमा में ही गाने से नाम होता था। आजकल तो टीवी के इतने चैनल हो गए है, संगीत के इतने कार्यक्रम, इतनी प्रतियोगिताएँ आयोजित होने लगी हैं कि कोई चाहे तो घर बैठे-बैठे शोहरत और पैसा दोनों कमा सकता है।

स्वीटी मैम ने डुमरा की लड़की सोना कुमारी का उदाहरण देते हुए बताया, 'सोना का तो नाम सुना ही होगा। वही जिसका बिहार आयडल में सेलेक्शन हो गया था। उसे तो भोजपुरी फिल्म 'पिरितिया हमार तोहार' में दो गाना गाने का मौका भी मिल गया है।'

पिरितिया हमार तोहार - सिनेमा का यह नाम सुनते ही लिली जैसे कहीं खो गई।

'क्या सोच रही हो?' यह स्वीटी मैम की आवाज थी।

'नहीं, मैं यह जानना चाहती थी कि कब से म्यूजिक सीखने आऊँ?'

'कल से ही आ जाओ।' स्वीटी मैम ने कहा।

वह तो अरुण चौधरी के बारे में सोच रही थी।

अरुण चौधरी राधाकृष्ण गोयनका कॉलेज में छात्र था और नेता भी। तीन साल में उसने बी.ए. की परीक्षा पास कर ली और छात्र तथा नेता दोनों के पदभार से मुक्त हो गया। बजाय किसी नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने, किसी राजनेता के पीछे घूमने, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव बनने, छात्र नेता के रूप में अपने बनाए गए संपर्कों को भुनाने के लिए इंश्योरेंस एजेंट बनने या इसी तरह के किसी और काम के उसने सस्ता सीडी व्यापार शुरू किया। फिल्मों के ओरिजिनल सीडी-डीवीडी सैकड़ों रुपए में मिलते, वह नई से नई फिल्म की सीडी-डीवीडी बीस-पच्चीस रुपए के बीच उपलब्ध करवा दिया करता। कीमत इस बात पर निर्भर करती कि उस फिल्म की डिमांड कितनी है। दस-दस रुपए में गानों की एमपीथ्री सीडी। एक से एक नई-पुरानी फिल्मों के गाने, गजल, कव्वाली, अंग्रेजी पॉप। वह कहता दुनिया में कोई ऐसा गाना नहीं है जिसे वह अपनी दस रुपल्ली सीडी में नहीं डाल सकता हो। दस रुपए में चालीस-पचास गानों की सीडी उपलब्ध करवाकर वह कहता एक सामाजिक आंदोलन चला रहा है। वैसे, यह काम वह खुलेआम नहीं करता। दिन के वक्त में मेन रोड, सीतामढ़ी में अपनी नई-नई दुकान मुन्ना इलेक्ट्रॉनिक्स में बैठता। शाम को दुकान का शटर बंद करते ही वह अपने सामाजिक आंदोलन के विस्तार के काम में जुट जाता।

'गरीबों तक वह मनोरंजन पहुँचा रहा हूँ जो अब तक अमीरों का ही समझा जाता है। राजनीति में रहता तो क्या करता? जनता के नाम पर माल लूटता। यहाँ तो मैं बेहतरीन मनोरंजन की सामग्री उन तक सस्ता पहुँचा रहा हूँ। बताइए, एक विधायक-मंत्री से मेरा काम कम है क्या? नागेंद्र बाबू तीन टर्म एम.पी. रहे। बेचारे, अपने गाँव की खुरपैरिया सड़क को पक्का भी नहीं करवा पाए। किसी तरह गाँव के बीच से बहने वाली नदी के ऊपर एक कटही पुल बनवा गए और उसके ऊपर अपना नाम भी लिखवा गए। इसीलिए उनका नाम आज तक याद रह गया, वरना कौन याद करता उनको?'

जब कोई उसे यह कह देता कि लेकिन आप तो अवैध काम कर रहे हैं! इस पर वह जवाब देता, 'आप ही बताइए, जनता तक अगर सस्ता सामान पहुँचाना अपराध है, तो मैं मानता हूँ कि मैं अपराधी हूँ। अफसर लोग तो खुद हमसे सीडी-डीवीडी मँगवाते हैं। कहते हैं इतनी सस्ती और अच्छी सीडी तो दिल्ली बाजार में भी नहीं मिलती।'

वैसे शहर में यह चर्चा सब करते कि वह सीतामढ़ी क्या, आसपास के शहरों, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, बेतिया, रक्सौल तक के अफसरों तक अरुण चौधरी एक से एक देसी सीडी पहुँचाया करता था। देसी सीडी, नहीं समझे? महंत साह चौक पर होजियरी की दुकान चलानेवाले फेकू मंडल कहते हैं, 'बुलू फिल्म समझते हैं न! वही, जिसमें गोरी-विदेशी मेमसाहबों के साथ खेलाखेली दिखाया जाता है, वह हुआ विदेशी सीडी। अफसर लोग तो बड़का-बड़का स्कूल कॉलेज में पढ़े होते हैं न। सो, स्कूल के हॉस्टल से ही विदेशी सीडी देख-देखकर चट चुके होते हैं। उनको तो मनोरंजन के लिए हमेशा कुछ नया चाहिए। उसी से वे लोग खुश होते हैं, जो कुछ नए ढंग से मनोरंजन करवा सके। याद है, दो साल पहले एक नौजवान डी.एम. आया था, महेश प्रसाद। एकदम छोकरा। उसकी शादी भी नहीं हुई थी। उसके साथ हर समय अरुण चौधरी चिपका रहता। वह तो उसका एक साल में ही ट्रांसफर हो गया, नहीं तो अरुण चौधरी उस डी.एम. के सहारे कहाँ से कहाँ पहुँच जाता! उसका अर्दली रामनगीना मेरे ही गाँव का है। वह बताता कि दिन-रात जब वक्त मिलता कलेक्टर साहब अपने हाथ-कंप्यूटर पर सिनेमा देखने लगते। एक बार उसने झाँककर देखा तो औरत-मर्द का खेला चल रहा था।'

विदेशी सीडी देख-देखकर बोर हो चुके कलेक्टर साहेब को उसने देसी सीडी दिखाकर उसका ऐसा आदी बना दिया कि वे अरुण चौधरी के मुरीद हो गए। वह उनको नित नए-नए सीडी उपलब्ध करवाता। किसी में झारखंड के आदिवासी के साथ खेलाखेली होता, किसी में छत्तीसगढ़ की। अरुण तो जाने कहाँ से कॉलेज के सटाक जींस पहनकर जाने वाली लड़कियों के सीडी भी उपलब्ध करवा देता।

मंडल जी धीरे-से फुसफुसाते हुए बताते, 'यह बात बहुत कम लोग जानते हैं, कलेक्टर साहेब थोड़ा रंगीन तबीयत के थे। वह नेपाल से गोरी-चिट्टी लड़कियों को लाता और कलेक्टर साहेब के सामने पेश कर देता। एक बार उसने कलेक्टर साहेब के खेलाखेली की फिल्म अपने मोबाइल कैमरे पर उतार ली। बस वे तो उसकी उँगलियों के इशारे पर नाचने लगे।' वे बताते, 'सच बताऊँ, किसी से कहिएगा नहीं। उसके पास तो हर बड़े अफसर की ऐसी ही फिल्म रहती है। इसीलिए तो कोई उस पर हाथ नहीं डालता। तीन साल पहले तक गोयनका कॉलेज में पढ़ने वाले, हम जैसे दुकानदारों से चंदा माँग-माँगकर खर्चा चलाने वाले, शहर में एक छोटी-सी इलेक्ट्रॉनिक दुकान चलाने वाले अरुण में ऐसा क्या है कि शहर के सारे बड़े अफसरों से उसके अंतरंग रिश्ते बन जाते।'

उस दिन नेहरू भवन के बाहर सचमुच अरुण चौधरी ने आकर लिली को बधाई दी, 'आप सचमुच बहुत अच्छा गाती हैं।'

लिली ने नजरें उठाकर उसकी ओर देखा, तो उसे उसकी आँखों में एक मासूमियत नजर आई। उसने उसके बारे में जैसा सोच रखा था वैसा तो कुछ भी नहीं लगा। उसे लगा वह सचमुच उसकी प्रशंसा कर रहा है।

उसने महसूस किया, अरुण चौधरी बहुत धीरे-धीरे और कम बोलता।

'किसी भी तरह जरूरत हो तो मुझे याद कीजिएगा। वैसे सिंगिंग को आपको कैरियर बनाना चाहिए। नाम भी है, पैसा भी है।'

लिली ने निगाहें उठाकर देखा और फिर नीची कर लीं।

'9431099...' - उसने कुछ रुकते हुए कहा - 'यह मेरा नंबर है।' कहकर वह तेजी से अफसरों के साथ चायपान करने बढ़ गया।

लिली ने अपना मोबाइल नंबर तो अरुण चौधरी को नहीं दिया। मगर एक दो दिनों के बाद ही अपने एक छोटे काम के लिए पहली बार उसने अरुण चौधरी को फोन किया, 'सॉरी, बी.ए. की परीक्षा है। मैं ठीक से क्लास नहीं कर पाई। गाना सीखने में लगी रह गई। इस बार फायनल है। आप हिस्ट्री और पोलिटिकल साइंस के गेस क्वेश्चन दिलवा देंगे?'

'बस यही?' अरुण चौधरी ने कहा, 'कल मिल जाएँगे। और कोई बात हो तो भी बेझिझक याद कर लीजिएगा।' थोड़ा रुककर उसने कहा, 'एक बात कहें तो अदर वे तो नहीं लेंगी न?'

'बोलिए न!' लिली ने कहा।

'आपने मुझे अपना समझकर याद किया, मुझे अच्छा लगा।' कहकर उसने फोन रख दिया।

इस तरह फोन करने से अरुण चौधरी के पास लिली का नंबर आ गया। वह उसे फोन तो नहीं करता। मगर अक्सर एसएमएस करने लगा। कभी गुड मॉर्निंग, कभी गुड नाइट। फिर दोस्ती को लेकर तरह-तरह की सूक्तियाँ भेजने लगा, चुटकुले भेजने लगा। जिस दिन लिली परीक्षा का फार्म भरने जा रही थी, उस दिन उसने सवेरे-सवेरे एसएमएस में बेस्ट ऑफ लक के साथ यह भी सूचना भेजी कि उसकी परीक्षा अच्छी हो इसके लिए वह देवी मंदिर में पूजा करके आया है। आपका प्रसाद सुषमा संगीत विद्यालय के स्वीटी मैम के पास है। दोपहर में कॉलेज से लौटते हुए प्रसाद जरूर लेती जाइएगा। हमको अच्छा लगेगा।

लिली भी उसके एसएमएस का जवाब देती। अक्सर संक्षिप्त। उसकी हर बात के जवाब में थैंक यू। धीरे-धीरे वह भी एसएमएस में खुल गई। एक दिन उसने अरुण को एसएमएस को भेजा, 'मुझे परीक्षा का बड़ा डर लग रहा है। जाने क्या होगा!'

'आप अपनी तैयारी कीजिए। बाकी अरुण चौधरी पर छोड़ दीजिए।' अरुण के ऐसे जवाबों पर उसे बड़ी आश्वस्ति मिलती। उसे लगता कि कोई है जो उसकी सही प्रतिभा को पहचानकर उसकी ओर आकर्षित हो रहा है। कोई है जो उसके लिए चुटकी बजाते ही सबकुछ कर देता है।

उसे अच्छा लगने लगा था।

एक दिन जब माँ के स्कूल जाने और पिताजी के चौक पर चाय की दुकान में जाने के बाद वह छत पर बैठकर साइकोलॉजी के गेस क्वेश्चन रटने में लगी थी कि एसएमएस की घंटी बजी। अरुण का एसएमएस था, 'अगर आप बुरा न मानें तो मैं आपसे एक बात कहना चहता हूँ।' अरुण ने एसएमएस में यह सवाल पूछा था।

'क्या?' जवाब में लिली ने भी सवाल किया।

'आई लव यू!'

लिली के बदन में जैसे इस एसएमएस से कँपकँपी दौड़ गई। वह जानती थी घर में कोई नहीं है। पापा दो बजे खाना खाने आते। माँ और बहन स्कूल से शाम को। लेकिन उसने नीचे के दरवाजे को जाकर देखा। वह बंद था। बार-बार उस एसएमएस को देखती और अपने में लाल होती जाती।

उसने जब काफी देर तक अरुण को कोई जवाब नहीं दिया, तो उसका फोन आया। फोन की घंटी सुनते ही उसकी साँसें ऊपर-नीचे चलने लगतीं। उसने फोन में 'हाँ' का बटन दबा दिया।

'नाराज तो नहीं हैं? अगर नाराज हैं तो माफ कर दीजिए।' अरुण पहली बार फोन करके उससे बातें कर रहा था।

जवाब में उसे तेज-तेज चलती साँसों की आवाज सुनाई देती रही।

'आप सिर्फ इतना कह दीजिए कि आप नाराज नहीं हैं।'

'नहीं!' काँपती आवाज से उसने इतना कहा और फोन रख दिया।

फोन रखने के बाद भी काफी देर उसकी साँसें तेज-तेज चलती रहीं। उसका बड़ा मन हो रहा था अभी अरुण चौधरी के पास चली जाए। उससे खूब सारी बातें करे। वह सारी बातें बताए जो उसने किसी को नहीं बताई थीं। वह हो, अरुण हो और कोई न हो।

लेकिन सीतामढ़ी में उस समय तो क्या, कभी भी अरुण चौधरी से मिलने का सवाल ही नहीं उठता था। भले शहर में अब लड़कियाँ दिल्ली-पटना की तरह जींस-टॉप पहनकर चलने लगी थीं। लेकिन किसी लड़के से मिलने के मामले में लड़कियों के लिए उस शहर में अब भी कोई जगह नहीं थी। उस शहर में तो कोई पार्क भी नहीं था। उसे याद आया इंटर की अपनी सहेली रजनी की बात। उसे बजरंग टॉकीज के मालिक के लड़के से प्यार हो गया था। दोनों अलग-अलग गाड़ी में बैठकर 60 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर जाते। वहाँ जुब्बा साहनी पार्क था। जहाँ जाकर दोनों प्यार करते और जल्दी-जल्दी वापस भागते। अगर रजनी शाम से पहले अपने घर नहीं पहुँचती तो शक हो सकता था। सिनेमा हॉल तो बंद होते जा रहे थे। वैसे भी अरुण चौधरी के साथ सिनेमा देखने जाती, तो सारा शहर उसे भी जान जाता। यही कारण था कि उस शहर में अक्सर सहपाठियों में ही प्यार होता। नोट लेने-देने के बहाने उनमें बात भी हो जाती। आपस में मिलना-जुलना भी हो जाता। या तो प्रेमी-प्रेमिका एक ही सर के यहाँ ट्यूशन पढ़ने लगते। इससे कुछ देर साथ बैठना-देखना तो हो ही जाता। या लड़कों को अपने दोस्त की बहन से प्यार हो जाता। लेकिन लिली-अरुण का प्यार ऐसा था कि इसमें प्रेमियों के आपस में मिलने की संभावना कोई खास नहीं दिखाई दे रही थी। वे न तो सहपाठी थे। लिली का तो कोई बड़ा या छोटा भाई भी नहीं था कि अरुण की उससे किसी तरह की मित्रता की संभावना बन पाती।

एक शायर का मिसरा है - 'प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं...'

राह इस प्रेम कहानी में भी निकल आई। राह निकाली सुषमा संगीत विद्यालय ने। वहाँ सूफी संगीत गायन सिखाने का विशेष बैच प्रारंभ हो गया। वह बैच भी ऐसा कि जिसमें सीखने वाली केवल लिली होती थी और सिखाने वाली स्वीटी मैम नहीं, अरुण चौधरी होता। दोपहर 1-3 का समय रखा गया था। अरुण वहाँ पहले से ही आ जाता। संगीत विद्यालय होने के कारण किसी को संदेह भी नहीं होता। दोनों प्रेमी पहले तो झिझकते रहे फिर एक दिन दोनों ने प्यार के आवेश में स्वीटी मैम को साक्षी बनाकर गंधर्व विवाह कर लिया। उस दिन से लिली बालों में छिपाकर सिंदूर भी लगाने लगी।

बी.ए. पार्ट थ्री की परीक्षा हुई। चार महीने बाद जब रिजल्ट आया तो लिली का पहली बार फर्स्ट डिवीजन आया। धीरे-धीरे उस छोटे शहर में इस बात को लेकर चर्चा होने लगी कि अरुण चौधरी का कोई चक्कर इसके साथ अवश्य है। उसी ने जगह-जगह जाकर पैरवी की, जिससे लिली को फर्स्ट डिविजन मिला।

इधर अरुण चौधरी ने नए गायक-गायिकाओं के सीडी तैयार करने का काम भी शुरू कर दिया। छठ पर्व के अवसर पर उसने 'छठ मइया की महिमा' नामक सीडी तैयार की, जिसके ऊपर मुख्य गायिका के रूप में मिस लिली का नाम और उसका फोटो दोनों थे। सीतामढ़ी-नेपाल के सीमावर्ती इलाकों में लिली की झनकदार आवाज में गाए गए छठ गीतों ने अच्छा व्यापार किया।

उसके बाद कई सीडी मिस लिली के नाम से और निकलीं। सरकारी समारोहों में लिली को बुलाया जाने लगा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वह सुगम संगीत गाती। मिस लिली की माँ मारुति कार से स्कूल आने-जाने लगी। कई भोजपुरी फिल्मों में भी उसके गाने को लेकर चर्चा होने लगी।

सब कहने लगे इतने छोटे शहर में रहकर लिली ने अच्छा मुकाम बनाया। ईटीवी के फोक जलवा कार्यक्रम के सेमी फायनल तक पहुँचने के बाद मिस लिली उत्तर बिहार और सीमावर्ती शहरों में एक जाना-पहचाना नाम हो गया। सबकी जुबान पर उसका गाया गाना 'नथुनी संग हिलेला जवानी' चढ़ गया।

इसके बाद तो अरुण के कहने पर उसने खास-खास मौके पर स्टेज शो भी देने शुरू कर दिए। उसके पिताजी ने अब चाय की दुकान पर बैठना छोड़ दिया था। राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखने तक का वक्त वे नहीं निकाल पाते थे। अब वे जानकी मंदिर के पास अपनी नई खरीदी गई जमीन पर मकान बनबाने में लगे रहते।

सीतामढ़ी में लोग कहते कि शारदा सिन्हा की तरह ही हमारे इलाके की इस लड़की ने नाम कमाया।

अरुण अब उसके गायन-कार्यक्रमों के दौरान उसका सारा इंतजाम देखता। लिली के माँ-पिता को अरुण पसंद तो नहीं था, लेकिन वे देख रहे थे कि उसके ही बल से उसकी बेटी तरक्की कर रही है। इसीलिए उन्होंने इस रिश्ते से आँखें मूँद रखी थीं। अरुण-लिली के गंधर्व विवाह के तो दो-तीन साल हो गए। अब लिली उसे सचमुच शादी करने को कहती, तो वह उसकी पलकों को चूमते हुए कहता - अभी तुम्हें कैरियर में काफी आगे जाना है। पहले की तरह सुषमा संगीत विद्यालय के निरापद एकांत का प्यार बाहर निकल आया था। अब तो अरुण-लिली अपने घर के निरापद एकांत का भी फायदा उठाने लगे।

इस बीच शहर में जगह-जगह नेपाल के टीवी चैनल द्वारा 'टैलेंट हंट' आयोजित करवाए जाने को लेकर पोस्टर चिपकाए जाने लगे। उसमें पहला इनाम 50 लाख रुपए का था। कुछ दिनों बाद यह खबर फैली कि लिली का चयन उसमें भाग लेनेवालों में हो गया है। वह अपने पिताजी-माँ के साथ उसमें भाग लेने गई।

लगभग सप्ताह भर बाद उसके माता-पिता अकेले लौटे। लौटकर उन्होंने नेपाल की राजधानी काठमांडू में अरुण चौधरी द्वारा अपहरण किए जाने संबंधी रपट थाने में दर्ज करवाई। उन्होंने जो रपट लिखवाई उसके अनुसार काठमांडू में उस चैनल द्वारा ऐसी कोई प्रतियोगिता ही नहीं आयोजित की गई थी जिसमें लिली के चयन और भाग लेने की बात की गई थी। वहाँ उनकी लड़की लिली के अलावा काफी अन्य लड़कियाँ भी आई थीं। उनमें से उनकी लड़की लिली तथा सीतामढ़ी, शिवहर, जनकपुर की पाँच और लड़कियों के साथ अरुण चौधरी चैनल के मालिकों से मिलकर शिकायत करने की बात कहकर चला गया। उसके बाद न वह लौटा, न उनकी लड़की। उन्होंने वहाँ पुलिस में शिकायत दर्ज करवानी चाही तो पुलिस वालों ने उनका सामान छीनकर भगा दिया। अरुण चौधरी के तार किसी माफिया से जुड़े लगते हैं। मेरी बेटी के पास दस हजार नकद थे। उसने करीब पचास हजार रुपए के जेवरात भी पहन रखे थे।

उस समय सीतामढ़ी-मुजफ्फरपुर में 'दैनिक चकमक' और 'दैनिक बकबक' में प्रतियोगिता चल रही थी। दोनों को इस खबर से तो जैसे प्रसार बढ़ाने का मसाला मिल गया। 'दैनिक चकमक' में अगले दिन यह खबर सुर्खियों में छपी - उभरती गायिका मिस लिली काठमांडू में गायब। अखबारों में चर्चा शुरु होने से मामला गरमाने लगा। लेकिन अरुण चौधरी उसी तरह अपनी दुकान पर बैठा रहता। वह कहता कि वह तो काठमांडू गया ही नहीं था। एसडीओ साहब के बेटे को वह पटना स्कूल का इंट्रेंस दिलवाने गया था।

इस बीच ईटीवी बिहार ने एक ब्रेकिंग न्यूज में बताया कि एक बहुत बड़े सेक्स रैकेट का काठमांडू में पर्दाफाश हुआ है। बिहार के सीमावर्ती इलाकों से लड़कियों को फँसा-फँसाकर लाया जाता और यहाँ के फाइव स्टार होटलों में बेच दिया जाता। वहाँ से उनको यूरोप के सेक्स बाजार में भेज दिया जाता। नेपाल में ज्यादातर बिहार से आए व्यापारी-अफसर मनोरंजन करने आते। उस खबर में यह भी बताया गया था कि 'होटल मॉन्टी' पर जब छापा पड़ा तब बिहार के कई बड़े-बड़े अधिकारी नवयुवतियों के साथ दुष्कर्म में लिप्त थे। बाद में अफसरों को छोड़ दिया गया। टीवी के काठमांडू रिपोर्टर ने यह बताया कि हो सकता है कि लिली भी इसी रैकेट में फँस गई हो।

टीवी मीडिया पर इस खबर के आने के बाद सामाजिक-राजनीतिक संगठनों ने इस मामले को उठाया। विधायक महुआ देवी ने विधानसभा में भी गायिका मिस लिली के रहस्यमय तरीके से गायब होने और अपराधियों को आला अधिकारियों द्वारा मिल रहे संरक्षण की बात उठा दी। जिला प्रशासन पर दबाव पड़ा तो उसने अरुण चौधरी को गिरफ्तार कर लिया।

सरकार ने एक आई.ए.एस. अधिकारी की अध्यक्षता में जाँच आयोग बिठाकर महीने भर के अंदर गायिका मिस लिली की रिपोर्ट देने के लिए कहा। आनन-फानन में सदर थाना के इंचार्ज रघुनाथ सिंह का तबादला भी कर दिया।

जाँच आयोग की रपट से एक दूसरी ही कहानी ही निकल कर सामने आई। सैकड़ों लोगों की गवाही, अनेक साक्ष्यों के आधार पर उस ईमानदार तथा तत्पर समझे जाने वाले अफसर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि वास्तव में मिस लिली के पास जो संपत्ति रातोंरात आती जा रही थी, वह उसकी गायन प्रतिभा के कारण नहीं आ रही थी। गायन तो वास्तव में एक सार्वजनिक छवि के लिए था। लिली वास्तव में एक बहुत बड़े कॉल गर्ल रैकेट की हिस्सा थी। सुरक्षा और गोपनीयता के लिहाज से वह ज्यादातर नेपाल में धंधा करती। नेपाल में उसके सेक्स सीडी खूब बिकते थे। उस अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट के साथ कुछ सीडी भी लगाई थी। उसमें पुरुष की पहचान तो नहीं हो पाती, लेकिन लड़की तो निश्चित तौर पर लिली जैसी ही लगती थी। अपनी रिपोर्ट में उस युवा अधिकारी ने लिखा था कि उसकी समिति को इस बात का पक्का भरोसा है कि लिली नेपाल में है और बिहार सरकार को नेपाल सरकार से इस मामले में सहयोग करने के लिए कहना चाहिए। अरुण चौधरी को जाँच समिति ने इस मामले से बरी कर दिया। सीतामढ़ी के कई अफसरों ने उसके पक्ष में गवाही दी थी कि वह घटना वाले दिन तो उनके साथ था।

इस कांड के बारे में इलाके के लोगों के भी अनेक संस्करण प्रचलित हुए।

होजियरी की दुकान वाले फेकू मंडल के अनुसार - अरुण चौधरी ने लिली को पहले अपने प्रेम जाल में फँसाया। उसके बाद सुषमा संगीत विद्यालय चलाने वाली स्वीटी देवी के साथ मिलकर लिली के साथ अपने अंतरंग क्षणों की उसने सीडी बना ली। वह उसे संगीत के कार्यक्रम तो दिलवाता रहा। सीडी के द्वारा लिली को ब्लैकमेल करके वह उसे गाने के कार्यक्रमों के लिए नेपाल ले जाने लगा। वास्तव में वहाँ जे जाकर उसने उसे देह-व्यापार के बड़े खेल में धकेल दिया। काठमांडू के अंतरराष्ट्रीय ड्रग्स और सेक्स बाजार के बड़े खेल में। टीवी चैनल द्वारा प्रतियोगिता आयोजित किए जाने संबंधी पोस्टर अरुण चौधरी ने ही लगवाए थे। उसने लड़कियों के साथ-साथ वहाँ ले जाकर लिली ठाकुर को भी बेच दिया। उसके पहले से बनाए सीडी को नेपाल के बाजारों में बेचकर भी उसने खूब पैसे कमाए। नेपाल के रास्ते यहाँ की लड़कियों को यूरोप के बाजार में भेज दिया जाता। वहाँ उनकी बड़ी माँग थी। उसका तो कहना था कि हो सकता है कि लिली इस समय यूरोप के किसी बड़े देश में कॉलगर्ल हो।

उनके माता-पिता बदनामी के डर से रातोंरात औने-पौने दामों में अपनी संपत्ति बेचकर दिल्ली चले गए।

अरुण चौधरी कहता, 'छिनाल थी लिली। मेरे परिवार की प्रतिष्ठा उसके कारण धूल में मिल गई। उसकी माँ ही असल में उससे धंधा करवाती थी। काठमांडू में बेटी को छोड़ आई। मेरे ऊपर इसीलिए सारा इलजाम लगाया, क्योंकि मैं उसे इस गंदगी से निकलना चाहता था। उसकी लड़की को एक सम्मानजनक जिंदगी दिलवाना चाहता था। दिल्ली में बड़ी कॉलगर्ल बन गई है लिली। उसने अपना नाम बदलकर रीना राजपाल रख लिया है। दिल्ली की पॉश कॉलोनी साकेत में पीवीआर के पास उसने एक आलीशान कोठी खरीदी ली है। एक-एक रात के चालीस-पचास हजार लेती है। वहाँ उसके माँ-बाप बैठकर उसकी कमाई पर ऐश कर रहे हैं।'

अरुण चौधरी ने कुछ दिनों के बाद स्वयं से पाँच साल बड़ी स्वीटी मैम से विवाह कर लिया।

खैर, कहानियाँ चाहे जितनी रही हों। काठमांडू जाने के बाद किसी ने सीतामढ़ी में मिस लिली को नहीं देखा। धीरे-धीरे उसकी सीडी को भी लोग भूलने लगे।

सीतामढ़ी के लोग उस हैरतनाक घटना को भूल चुके हैं, जिसने उनकी शांति को भंग करके रख दिया था।

अलबत्ता अखबार वालों को जब स्थानीय प्रशासन को उसकी विफलता के लिए कोसना होता है तो वे कभी-कभार मिस लिली कांड को याद कर लेते हैं।

एक बात और हुई है - सिंगिंग को कैरियर बनाने का चलन कम होता जा रहा है।

सुषमा संगीत विद्यालय याद है आपको? वह बंद हो चुका है। उसकी जगह अरुण चौधरी-स्वीटी देवी फिल्म्स का दफ्तर खुल गया है। उन्होंने स्थानीय भाषा मैथिली में फीचर फिल्म बनाने की घोषणा की है। सुना है हीरो-हीरोइन के लिए मुंबई में ऑडिशन का काम चल रहा है।

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