तकनीक की ताल पर हिंदी की बदलती चाल Prabhat Ranjan द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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तकनीक की ताल पर हिंदी की बदलती चाल

तकनीक की ताल पर हिंदी की नई चाल!

प्रभात रंजन

हिंदी साहित्य की दुनिया क्या अब पाठक-केन्द्रित होती जा रही है? यह सवाल इस समय बहुत महत्वपूर्ण है. अब इस बात को नजरंदाज करना मुश्किल है कि ब्लॉग के साथ-साथ फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे वैकल्पिक समझे जाने वाले माध्यमों ने हिंदी के प्रति बड़े पैमाने पर आकर्षण पैदा किया है. यह माना जाता था कि हिंदी का पाठक मूल रूप से हिंदी विभागों में होता है या वे होते हैं जो हिंदी विभागों से पढ़े होते हैं. यह धारणा अप टूटने लगी है. हिंदी का नया लेखक आज तकनीकी संस्थानों से आ रहा है, प्रबंधन संस्थानों से आ रहा है, अलग-अलग पेशेवर वर्ग से आ रहा है. जाहिर है, पाठक भी इन वर्गों से उभर कर आ रहे हैं.

हिंदी की दुनिया पहली बार ‘अपमार्केट’ होती दिखाई दे रही है. यह हिंदी की नई चाल है. यह बात महत्वपूर्ण है कि एक जमाने तक हिंदी वालों की छवि तकनीक विरोधी मानी जाती रही है आज वह तकनीक के साथ तेजी से बदल रहा है. हिन्द युग्म प्रकाशन के शैलेश भारतवासी की यह बात सही लगती है कि ‘इस समय के लेखन की बुनावट और उसकी गति में बहुत बड़ा रोल टेक्नोलॉजी का भी है। लिखने वाले के ध्यान में ट्विटर और फेसबुक का पाठक भी है जहाँ छोटे फॉरमैट और त्वरित टिप्पणियों का संसार अधिक उपयुक्त है।’

हाल में ही ‘जगरनॉट’(हिंदी में इसका अर्थ होता है बहुत प्रभावशाली) नाम से एक नए प्रकाशन की घोषणा हुई है. जानी मानी प्रकाशक चिकी सरकार द्वारा शुरू की गई यह कंपनी हो सकता है भारतीय प्रकाशन जगत के लिए युगांतकारी साबित हो. यह मोबाइल ऐप के लिए पुस्तकें तैयार करने का काम करेगी. हिंदी वालों के लिए यह और भी बड़ी और महत्वपूर्ण घटना है क्योंकि आरम्भ में इसमें अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी पुस्तकें भी प्रकाशित होंगी. ध्यान रखने वाली बात यह है कि ‘जगरनॉट’ किताबें तैयार तो करेगा लेकिन उसकी किताबें प्रिंट में नहीं आएँगी. वे सिर्फ फोन में पढ़ी जाएँगी. पहले से ‘डेलीहंट’ नामक ऐप है जहाँ पिछले डेढ़ सालों में हिंदी पुस्तकों की संख्या और उनकी बिक्री में अप्रत्याशित तौर पर वृद्धि हुई है. हिंदी का नया पाठक वर्ग तैयार हो रहा है जो अपने स्मार्टफोन पर हिंदी की किताबें पढने लगा है. यह स्मार्ट हिंदी है जिसे हिंदी के नए दौर के लेखकों ने बनाया है.

लेकिन डेलीहंट ऐप का पहली बार इस्तेमाल करने के बाद मेरे एक दोस्त ने बड़ा बुनियादी सवाल मुझसे पूछा था- ‘इस ऐप में जी किताबें उपलब्ध हैं उनमें से ही अपनी पसंद की किताबें छांट सकते हैं, जो मुझे पसंद है उन किताबों को वहां खोज कर नहीं पढ़ सकते हैं?’ कहने का मतलब है कि यहाँ किताबों की उपलब्धता इस बात से अधिक होती है कि किस तरह की किताबें कितनी बड़ी संख्या में डाउनलोड होती हैं. सुनते हैं कि ‘जगरनॉट’ हिंदी में किताबों और उनके पढ़े जाने को लेकर ऐसे-ऐसे प्रयोग करने जा रहा है जैसे प्रयोगों के बारे में हिंदी वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा.

हालाँकि ऐसा नहीं है कि इतने बड़ा चेंज हुआ और किसी को पता भी नहीं चला. असल में, इस रूपांतरण की शुरुआत कुछ साल पहले हो गई थी. मुझे लगता है कि 2012 में प्रकाशित अनिल कुमार यादव की पुस्तक ‘वह भी कोई देस है महराज’ से इस परिवर्तन की भूमिका तैयार हुई. ‘वह भी कोई देस है महराज’- असम, नागालैंड, मिजोरम, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ी, सुदूर यात्राओं में हमें ले जाती है, देश के हिंदी भाषी राज्यों के ‘अन्य’ के रूप में मौजूद इन राज्यों की वास्तविकता है, बदलता समाज है, इतिहास की झांकियां हैं, सबके बीच लेखक और उसके मित्र के अपने जीवन के संघर्ष की परेशानियां हैं. पुस्तक के यही विभिन्न ‘बैकग्राउंड’ इसे केवल एक यात्रा-वृत्तान्त नहीं रहने देते. इसमें पूर्वोत्तर के राज्यों का जरूरी इतिहास, भूगोल, सामाजिक झलकियाँ हैं जो पुस्तक को उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण बना देती हैं जो वृत्तान्त शैली में पूर्वोत्तर के राज्यों के बारे में ‘ठीक-ठीक’ जानना चाहते हों.

वैसे यह पुस्तक गहरे अर्थों में राजनीतिक है लेकिन इसकी यादगार किस्सागोई में इसकी राजनीति कहीं भी बाधक नहीं बनती. कैसे सहज-सरल, रोचक और प्रवाहपूर्ण शैली में एक गंभीर विमर्श संभव है वह इस किताब ने दिखाया. यह एक यात्रा वृत्तान्त भी है, जिसमें शिलौंग और उत्तर-पूर्व के भीतरी इलाकों के सौदर्य का कहीं कहीं मुग्धकारी वर्णन भी है. जैसे शिलौंग में नारंगी फल के मौसम में नारंगी रंग के समान होने वाले सूर्योदय का. दूसरी तरफ, पुस्तक में वहां चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम की बारीक पड़ताल भी है. अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक हर तरह तरह के पाठक वर्ग में सराही गई.

2013 में आई पुस्तक ‘तमन्ना तुम अब कहाँ हो’ का उल्लेख भी इस क्रम में किया जाना चाहिए जिसने हिंदी के नए बनते पाठक वर्ग का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया. लेखक निधीश त्यागी की यह पुस्तक उनके ब्लॉग लेखन से निकली है और ‘विराट’ को आदर्श मानने वाले हिंदी साहित्य के माहौल में इस किताब में संकलित रचनाओं में कुछ छोटे-छोटे लगने वाले प्रसंगों को केंद्र में रखा गया है. आज के इस तकनीक प्रधान, भागती-दौड़ती जिंदगी में छोटे-छोटे पलों का कितना महत्व हो गया है. ‘तमन्ना तुम अब कहाँ हो’ में लेखक बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाता है. खुला-खुला गद्य जिसमें इस भावना विहीन होते समय में भावनाओं की अहमियत को समझने की कोशिश की गई है पुस्तक को नए दौर की एक अहम पुस्तक बनाता है. प्रेम और राग के कुछ ऐसे पलों को संजो कर रखने का कथात्मक प्रयास इस किताब में दिखाई देता है, जिनके आगे-पीछे से सिरे नहीं जुड़ते. पुस्तक में एक-एक लाइन की 69 दिल तोड़ने वाली कहानियां खासी पठनीय हैं.

‘जगरनॉट’ की हिंदी संपादक रेणु अगाल की यह टिप्पणी ध्यान देने लायक है- ‘नए पाठक जुड़ रहे है और ये हिंदी में पढ़ने को फैशनेबल बनाने की कोशिश है. मान लीजिए की हिंदी का लेखक इतना लोकप्रिय हो जाए की युवा पीढी उनकी किताब को भी स्टेटस सिम्बल माने जैसे वह लोकप्रिय अंग्रेजी लेखको की किताबो को मानते है तो ये हिंदी को और लोकप्रिय बनाएगा. इसमें भी रचनाकार भाषा और कंटेंट को लेकर नए प्रयोग कर रहे है जो इस लेखन से उम्मीदें पैदा करता है.’

हिंदी में नए प्रयोगों और नई लीक बनाने वाले लेखन की बात हो और प्रमोद सिंह की किताब ‘अजाने मेलों में’ का जिक्र न हो तो यह अनुचित कहा जायेगा. प्रमोद सिंह की रचनाएँ भी उनके ब्लॉग-लिखे का चुनिन्दा संकलन है लेकिन है यह असल में हिंदी पर विचारों और भाषा के एक कृत्रिम से बने रूप के लोड को कम करने की कोशिश है. इस कमी के बावजूद कि इसमें हिंदी की साहित्यिक परम्परा के प्रति लेखक का एक तरह का दुराग्रह की हद तक जाने वाला नकार भाव है, यह हिंदी भाषा की एक अलग तरह की शैली की किताब है. जो एक तरह से बेहद मौलिक भी है. गहरी व्यंग्यात्मक शैली में गंभीर विमर्श करने की इस कोशिश को पाठकों और संजीदा समझे जाने वाले लेखकों-आलोचकों ने भरपूर प्यार दिया. हिन्द युग्म प्रकाशन की इस पुस्तक ने नए लेखकों-पाठकों दोनों को प्रभावित किया है.

बात तकनीक की हो, छोटे फोर्मेट के लेखन की हो, शहरी अभिव्यक्ति की हो रवीश कुमार की पुस्तक ‘इश्क में शहर होना’ को इसका आदर्श उदाहरण माना जाना चाहिए. रवीश कुमार की फेसबुक टिप्पणियों के रूप में लिखी गई रचनाओं का संकलन है. प्रेम के छोटे छोटे प्रसंग, गिने-चुने शब्दों में राग-विराग के कुछ छोटे-छोटे प्रसंग जो दिल्ली के इतिहास वर्तमान से जुड़ते चले जाते हैं. अपनी रचना शैली, अपने अंदाजे-सुखन के कारण यह हिंदी में अपने आप में एक नई विधा है जिसकी सफलता इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि भविष्य में फेसबुक, ट्विटर जैसे माध्यम भी बेहतर लेखन के प्लेटफोर्म के रूप में उभर कर सामने आएंगे. लप्रेक समकालीन समाज की विधा है जो तकनीक प्रधान समाज है, व्हाट्सऐप, फेसबुक की सामाजिकता में नए नए बंधते समाज को शायद बहुत रास आये. राजकमल प्रकशन के इंप्रिंट सार्थक से प्रकाशित यह पुस्तक हिंदी के बढ़ते पाठक वर्ग का एक बड़ा प्रमाण है. हालाँकि इसकी सफलता में हो सकता है रवीश कुमार की अपनी लोकप्रियता की भी भूमिका हो.

बहरहाल, राजकमल प्रकाशन के सम्पादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम की इस बात में दम है कि ‘यह दौर अनायास नहीं आया. परिस्थितियों के दबाव में वह संभव हुआ है. जब एक तरफ पाठक कहाँ का रोना रोया जा रहा था ठीक उसी दौर में सोशल मीडिया के माध्यम से हिंदी प्रेमियों का एकदम नया चेहरा सामने आ रहा था जो अब तक अनदेखा था. ऐसे में यह हिंदी प्रकाशन जगत की नैतिक और सामूहिक जिम्मेदारी बनती थी कि वह आगे आकर उस नए पाठक समाज को लेखकों और किताबों से जोड़े.’

हालाँकि ऐसा कहना थोड़ा अधिक हो जायेगा यह जो नए पाठकों को समझने और उनको ध्यान में रखकर लेखन का यह दौर पूरी तरह से सोशल मीडिया, ब्लॉग आदि के माध्यम से ही संभव हुआ है. इससे अलग तरह के उल्लेखनीय उदाहरण भी हैं. पंकज दुबे के उपन्यास ‘लूजर कहीं का’ की चर्चा इस सम्बन्ध में की जा सकती है. पंकज दुबे का यह उपन्यास दिल्ली विश्वविद्यालय में बिहार से पढने आये एक छात्र और उसकी प्रेमकहानी के इर्द-गिर्द घूमती है. ऐसे समय में जब जीतने वाले नायकों की कहानियां कही जा रही थी यह उपन्यास ‘लूजर’ की कथा कहता है. कई अर्थों में यह एक ट्रेंड सेटर उपन्यास साबित हुआ. यह पहला उपन्यास है जिसे लेखक ने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में अलग-अलग लिखा. यह दोनों भाषाओं में एक साथ प्रकाशित हुआ. इसके बाद अंग्रेजी हिंदी दोनों में कैम्पस केन्द्रित, विशेषकर डीयू केन्द्रित उपन्यासों का दौर शुरू हो गया. अपनी व्यंग्यात्मक भाषा, विषय के नयेपन के कारण इस उपन्यास को पाठकों ने खूब पसंद किया.

बात जब कैम्पस केन्द्रित उपन्यासों की चली है तो युवा लेखक सत्य व्यास के उपन्यास ‘बनारस टॉकीज’ की चर्चा जरूर होनी चाहिए. उपन्यास के केंद्र में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के होस्टल का जीवन है. एक हॉस्टल ‘भगवानदास हॉस्टल’ की कहानी के मार्फत सारे होस्टलों की कहानी कहती है। कहानी की अगर बात करें तो यह तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो मिज़ाज़ और लिहाज़ से तो एक-दूसरे से अलहदा हैं लेकिन हर पल को मस्ती और बेखयाली से जीते हैं। बनारसी ठाठ के इस उपन्यास में बनारसी मस्ती है, पूरबिया भाषा के रंग हैं. ऐसे दौर में जब ग्लोबल थीम उठाये जा रहे हों सत्य ने ‘लोकल’ कथा को केंद्र में रखा है.

एक किताब और है जिसकी चर्चा के बिना यह चर्चा अधूरी रह जाएगी. वह अनु सिंह चौधरी का कहानी संग्रह ‘नीला स्कार्फ’ है. झारखण्ड मूल की लेखिका अनु सिंह चौधरी के इस कहानी संग्रह ने हिंदी में अपना मुकाम बनाया. प्री-बुकिंग यानी किताब प्रकाशित होने से पहले ऑनलाइन बुकिंग में यह हिंदी की पहली किताब थी जो छपने से पहले ही करीब 2000 बिक गई थी. इसकी कहानियां जीवन-संबंधों के अधिक करीब हैं, प्रचलित अर्थों में हिंदी कहानियों की प्रकृति से बहुत अलग, लेकिन संवेदना, भाषा में उनके बेहद करीब.

इन सभी पुस्तकों में एक बात ध्यान रखने वाली यह है कि इनमें से कोई भी उस अर्थ में लोकप्रिय साहित्य नहीं हैं, जिस तरह से हिंदी में उसे ‘लुगदी साहित्य’ के रूप में विशेषित किया जाता रहा है. इन पुस्तकों को हिंदी की चौहद्दी के विस्तार के रूप में देखा जाना चाहिए. इस रूप में कि हिंदी के नए पाठक तैयार करने में इनकी ऐतिहासिक भूमिका रही है. अगर आज हिंदी प्रकाशन ऐप आधारित पुस्तकों की दुनिया में जा रहा है तो उसमें इन पुस्तकों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है.

हाँ, लेकिन एक गंभीर सवाल है कि अगर साहित्य की दुनिया पूरी तरह से पाठकों की रुचि के ऊपर केन्द्रित हो जाएगी, पूरी तरह उनके पसंद पर निर्भर हो जाएगी तो साहित्यिक मूल्यों का क्या होगा? साहित्य की भूमिका लोकरुचि की पूर्ति के रूप में ही नहीं होती है. साहित्य का काम लोकरुचि का विस्तार भी होता है. मुझे लगता है कि यह हिंदी के खोये हुए पाठकों की तलाश का दौर है. हिंदी पुस्तकों के बढ़ते बाजार की धमक का आरंभिक दौर है. आगे इसका रूप क्या होगा इसके बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन इतना जरूर हुआ है कि हिंदी का विस्तार आम पाठकों के बीच हो रहा है, उसकी चर्चा समाज में हो रही है. लम्बे समय तक हिंदी साहित्य उस समाज से कट सा गया था जिस समाज की सबसे अधिक चिंता करने का दावा वह करता रहा है. इतना जरूर है कि हिंदी के साहित्यिक परिसर के लिए यह सकारात्मक बदलाव है.

हिंदी का ‘न्यू एज’ आरम्भ हो चुका है!

(प्रभात रंजन मूलतः कथाकार हैं. ‘जानकी पुल’ नामक चर्चित साहित्यिक ब्लॉग के मॉडरेटर हैं. जिसे एबीपी न्यूज द्वारा सर्वश्रेष्ठ ब्लॉग का सम्मान मिल चुका है. हाल में ही बिहार के मुज़फ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की तवायफों के जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गई उनकी पुस्तक ‘कोठागोई’ अपनी किस्सागोई के कारण चर्चा में है. यह पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है.)