आसपास चोपास - 2 (True Story Series Hindi) MB (Official) द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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आसपास चोपास - 2 (True Story Series Hindi)

आसपास चोपास

(सत्य घटना पर आधारित कथाएं)

( 2 )

अनुक्रमणिका

1 - जलकुम्भी - महेश द्रिवेदी

2 - निशिथा - Dr Sapeksh Gautam

3 - प्रलय और प्यास - डॉ. कविता त्यागी

4 - बिना खंजर के हत्यारे! - जाह्नवी सुमन

***

1 - जलकुम्भी

महेश द्रिवेदी

मेरे गांव की तलैय्या पानी से भरी है, परंतु पानी कहीं-कहीं ही दिखाई देता है. जलकुम्भी ने सम्पूर्ण तल को आच्छादित कर रखा है – तल पर हरे रंग के सर्पों जैसे फन उठाये जलकुम्भी के पत्तों का एकछत्र राज्य है. मेरी भैंस उन फनों के बीच फंसी हुई है. वह बाहर निकलने को जितनी छटपटाती है, उतनी और गहरे में धंसती जाती है. अपनी कातर आँखों से हम सबको देख रही है. गांव वाले उसे निकालने को आतुर तो हैं परंतु कोई पानी में घुसने का साहस नहीं कर रहा है. भैंस ने अंतिम क्षण तक जीवन की आस नहीं छोड़ी, परंतु अपनी कातर आंखों से अपने को बचाने की याचना करते हुए धीरे धीरे जल में समा गई है. मैँ उन आंखोँ को कभी भूल नहीं सकी हूं. जब भी मेरे समक्ष किसी निरीह प्राणी पर कोई दुखदायी घटना घटती है, मुझे सहायता की भीख मांगती भैंस की वे कातर आंखें याद आ जातीं हैं- चाहे चचा कमरुद्दीन द्वारा मुर्गी की गर्दन पकड़कर ज़िबह करने हेतु पत्थर पर रखने पर मुर्गी की बाहर निकली जीभ और फटी-फटी सी आंखें हों या रामकली बुआ द्वारा मंदबुद्धि भतीजी श्यामा को कोठरी मेँ बंद करने हेतु दौड़ाने पर उसकी भयभीत आंखें हों.

भगवान बुद्ध द्वारा मृत व्यक्ति को श्मशान ले जाते हुए देख लेने पर उन्हें समस्त संसार दुखमय लगने लगा था और उनका राजसी ठाठ वाला जीवन दुखीजनो के संग बीता था. आज मुझे लगता है कि मेरा भाग्य भी कुछ ऐसा ही है. भैंस की तलैया मेँ डूबने की घटना देखने के पश्चात मेरे जीवन से भी संताप चिपक से गये है‌‌. यह बात अलग है कि मैँ बुद्ध बनकर परसेवा में जीवन अर्पित करने के बजाय बस कुढ़ कुढ़ कर जीती रही हूं. उस घटना के पश्चात लम्बा समय बीत चुका है और मै दो वर्ष पूर्व विवाहोपरांत अपनी ससुराल मेँ आ गई हूं. यह उतना छोटा गांव नहीं है, जैसा मेरा माइका था. यहाँ मेरे गांव की तरह छत पर मोर नहीँ नाचती है, रात मेँ अलाव नहीँ जलते हैँ और अधिकांश लोग 'काला अक्षर, भैंस बराबर' नहीं हैं. यहां अधिकांश घरों में वैसी विपन्नता का सम्राज्य भी नहीं है, जैसा मेरे गांव में था. प्रशासन की उपस्थिति घोषित करता यहां डाकखना, उच्च-प्राथमिक विद्यालय, एवँ पुलिस चौकी भी है. यहां आकर मुझे लगा था कि यहां संकीर्णता से कुछ तो मुक्ति मिलेगी, पर आज बाज़ार से लौटकर जब मैंने अपने ऊपर बीती घटना अपनी सास को सुनाना प्रारम्भ किया तो वह सन्नाटे मेँ आ गईं थीं और मेरी बांह रुक्षता से पकड़कर मुझे कमरे में अंदर खींच ले गईं थीं और क्रोध से आँखें तरेरकर बोलीं,

“चुपचाप यहां बैठो. देख नहीं रही हो कि बाई अभी किचन में है.”

मैँ अवाक हो रही हूँ परंतु वह मुझे हेय दृष्टि से देखते हुए कमरे से चली गईँ और जाते-जाते दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया. अपने शरीर, मन एवँ अपनी अस्मिता पर लगी चोट से मैँ पहले ही बाघ द्वारा भंभोड़ी मृगी जैसी हो रही थी. उस पर सास द्वारा इस प्रकार अवहेलित होने से मुझे लगने लगा है कि आज मैँ तिरस्कार एवँ ग्लानि की इतनी घनी जलकुम्भी से घिर चुकीँ हूँ कि डूब जाने के अतिरिक्त अब कोई रास्ता मेरे लिये बचा ही नहीं है. आज के पहले भी मैं अनेक बार अवसाद रूपी जलकुम्भी से भरी तलैया में प्रवेश कर चुकी हूं, क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है जो हम लड़कियों को बारम्बार उसमेँ ढकेलती रहती है. परंतु प्रकृति ने हमें जिजीविषा इतनी दी है कि अभेद्य दलदल में फंसते-फंसते हम हाथ-पैर मारकर बाहर निकल आती हैं. परंतु अब मैं इतनी क्लांत हो चुकी हूँ कि बाहर निकलने की इच्छा निःशेष हो चुकी है. मन पर गहरा आघात करने वाली आज की घटनाओं ने मेरे मन को ऐसे अवसाद में डुबा दिया है कि अब किसी के द्वारा उबार लिये जाने की न तो आशा बची है और न अभिलाषा. जब से मैं इस निर्णय पर पहुंची हूँ कि अपने जीवन के अंत से ही अब मैं अपने इस अमिट कलंक एवं अटल अवसाद से छुटकारा पा सकती हूं, तब से मेरे मानस का चक्रवात थम सा गया है? मन में एक सहजता एवं शांति व्याप्त हो गई है. मुझे अपने जीवन की अवसाद की जलकुम्भी में ढकेलने वाली अनेक घटनायें इतनी स्पष्टता से याद आ रहीं हैं- जैसे कोहरा छंट जाने के पश्चात आकाश निर्मलता से प्रकट हो रहा हो.

‘मैं चार साल की हूं, और किसी बात से किसी की मुखाकृति पर उभरने वाली प्रतिक्रियाओँ का गूढ़ार्थ समझने का प्रयत्न करने लगी हूं. मुझे दादी ने बता रखा है कि हमारे घर मेँ एक छोटा मेहमान आने वाला है. घर भर में सब प्रसन्न हैं. मैं भी प्रसन्न हूँ. तभी मैं सुनती हूं. “अब की बेटा भओ है, सो हम नई साड़ी लिययैं. श्यामा के भये की तरह धोती सै काम नाईं चलययै.”- छंगी काकी जिसने छोटू के पैदा होने पर दाई का काम किया है, नई साड़ी लेने पर अड़ी हुई हैं. दादी, जो छोटी-छोटी चीज़ों को किसी को देने मेँ हाथ सिकोड़ लेती हैं, अपनी टीन की बकसिया से एक लकलकाती हुई लाल रंग की साड़ी ले आयी हैं और उन्होंने मुस्कराते हुए छंगी काकी के हाथ में रख दी है. काकी की यह ज़िद कि लड़का होने के कारण अब की बार नई साड़ी ही लेगी, मेरी समझ में नहीं आ रही है, परंतु मेरे मन को कचोट रही है. मैं सोच रही हूं कि रात में दादी से इसका कारण पूछूंगी, परंतु उसके पहले ही मैंने उनको पिता जी से यह कहते सुन लिया है, ”लला, भगवान की बड़ी कृपा है, जो लड़का भओ है. नाईं तौ अगर दुइ-दुइ मोड़ीं हुइ जातीं तौ जिंदगी बीसन के सामने सिर झुकइबे में और लाखन रुपया को इंतज़ाम करबे मैं बीत जाती.” दादी की बात सुनकर मेरी समझ में यह बात आ गई है कि लड़कियोँ के विवाह के लिये पिता को अनेक घरों में जाकर सिर झुकाना पड़ता है और बहुत धन व्यय करना पड़ता है. फिर मैं उस रात्रि दादी से कुछ नहीं पूछती हूं, परंतु छोटू की तुलना में अपनी स्थिति निम्न होने की भावना से ग्रस्त होकर देर तक जागती रहती हूं.

छोटू की छठी का दिन है. ढोलक की थाप पर महिलायें आंगन में चक्कर ले ले कर नाच रहीं हैं. चारों ओर हंसी-खुशी बिखर रही है. पूजा-पाठ के पश्चात पंडितजी मेरे पिता जी से बड़ी संतुष्टि के भाव से कह रहे हैं, “चलौ तुम्हाओ मुखाग्नि दीबो बालो आय गओ.” मैं मुखाग्नि का अर्थ तो नहीँ समझी, परंतु यह समझ गई हूँ कि पंडित जी किसी ऐसे कार्य की बात कर रहे हैं जिसे मैं नहीं कर सकती हूं और छोटू कर सकता है. मेरी यह रात भी इसी उद्विग्नता में कटी कि ऐसा क्यों है कि कोई काम इतना छोटा सा छोटू तो कर सकता है, पर मैं नहीं कर सकती. ना चाहते हुए भी मेरे मन में अपनी हीनता का अहसास उत्पन्न हो रहा है और छोटू से ईर्ष्या हो रही है.

मेरा दूसरी कक्षा का परिणाम निकला है. मैँ प्रथम आई हूं. मुझे मां माथा चूमकर आशिष दे रहीँ हैँ और पिता जी, जो प्रायः गम्भीर मुद्रा में रहते हैं, आज मुझे देखकर मुस्कराये हैं. मैं बड़ी प्रसन्न हूं क्योंकि होली निकट होने के कारण फूफा जी और दूसरे महमान भी आये हुए हैँ. हमेशा की भांति फूफा जी मुझे दोनो हाथों में लेकर उछाल रहे हैं. दिन भर हंसी-खुशी में बीता है. घर में चारपाइयाँ कम होने के कारण रात में मुझे फूफा जी की चारपाई पर लिटाया गया है. मै गहरी नींद में हूं जब मुझे लगता है कि कोई अपने हाथ से मेरी पीठ सहला रहा है. घबराकर मेरी आंख खुल जाती है. फूफा जी को देखकर मैं आश्वस्त हो जाती हूं और फिर आंखें मूंद लेती हूं, पर यह हाथ धीरे धीरे सामने मेरी छाती पर आ जाता है. मुझे अजीब सा लगता है, पर मेरी समझ में नहीं आता है कि क्या करूं. मैं अपने को दूर खिसकाने का प्रयत्न करती हूं, तो वह मुझे और पास खींचकर अपना हाथ नीचे ले जाने लगते हैं. भय के मारे मेरे गले से चीख निकलने को होती है. तब वह मुझे छोड़ देते हैं. मैं भागकर मां के पास जाकर उनसे चिपक जाती हूं. मैं बदहवास हूं और मां निंदासी. मां मेरे भाग आने का कारण पूछती हैं. मैं कुछ बोल नहीं पाती हूं- बस भयभीत हो उनसे चिपकी रहती हूं. वह मुझे चिपकाकर चुप रहतीं हैं- मुझे संदेह है कि वह सब कुछ समझ कर चुप रहतीं हैं. उस रात्रि का भय मेरे मन मानस में जम गया है – अब मैं फूफा जी से ही नहीं वरन सभी पुरुषों से भयभीत रहने लगी हूं.

मैं इंटर कालिज की नवीं कक्षा में पढ़ने आज पहले दिन आई हूं. घर से चली थी तब आकाश में मेघ घिर रहे थे, और कालिज पहुंचने से पहले ही वर्षा होने लगी है. मेरा बदन भीग गया है और मैं उसके उभारों को छिपाते-छिपाते लज्जा में गड़ी जा रही हूँ. कालिज के गेट के अंदर घुसते ही एक जगह गप्प लड़ाते खड़े चार लड़के मुझे घूरने लगते हैं. मेरे आगे बढ़ते ही पीछे से एक लड़का सीटी मारते हुए कहता है ‘क्या माल है?’ मै क्षोभ से रुँआसी सी होकर पीछे देखती हूँ, तो वे लड़के ठहाका मारकर हंस देते हैं. मैं गिरते-पड़ते अपनी कक्षा में पहुंचतीं हूं. यह तो मेरी अस्मिता पर कुठाराघात का प्रथम दिवस था क्योंकि उनमे से एक लड़का, जिसने मुझ पर अश्लील टिप्पणी की थी, मेरा कक्षा का सहपाठी निकला. वह प्रतिदिन मेरे पीछे बैठकर भांति भांति से मुझे चिढ़ाने लगा है- कभी अश्लील गाने, कभी अवांछनीय टिप्पणियां. उसकी अभद्रता का प्रतिकार करने का मुझमें न तो साहस है और न सामर्थ्य. इस कारण मै आत्मग्लानि एवँ अवसाद की जलकुम्भी के जंगल में फंसी जा रही हूँ. एक दिन मेरे आत्मावरोध की सीमा पार हो गई जब मेरे पीछे मुझे कुछ गड़ने जैसा आभास हुआ. मैंने कठिनाई से अपने आंसू रोकते हुए अध्यापक से शिकायत कर दी. तमाम लड़के हंस दिये और अध्यापक ने विद्यालय के प्रबंधक के उस लड़के से कुछ विशेष न कह कर मुझे उससे अलग बैठने को कह दिया. मुझे ऐसा लगा कि मैं तलैया में फंसी बेबस भैंस की भांति अपने को जलकुम्भी वन से निकालने की याचना कर रही हूं, परंतु वहां सभी मेरी खिल्ली उड़ाते हुए मुझे और अंदर ढकेल रहे हैं. भाग्यवश अगले वर्ष मुझे उस लड़के के सेक्शन से भिन्न सेक्शन में रखा गया, और मैं जलकुम्भी वन में समाने से बच गई.

मुझे अच्छे कालिज मेँ प्रवेश मिल गया है. सहपाठियों एवँ प्रोफेसरोँ की घूरती लोलुप निगाहोँ एवँ पीठ पीछे बोले गये वाक्य-वाणों को झेलते-झेलते भी मैं पढ़ाई में अच्छी चल रही हूँ और प्रोफेसर बनना चाहती हूं. मेरी स्नातक की शिक्षा का अंतिम वर्ष है. मम्मी पापा से मेरे लिये लड़का देखने और उन्हीं गर्मियों में मेरा विवाह कर देने पर अड़ी हुई हैं. उनके यह कहने पर कि ‘नहीं, अब विवाह में और देरी नहीं. लड़की है- कहीं ऊंच-नीच हो जाय?’ पापा चुप हो जाते हैं. मम्मी की यह बात मेरे हृदय मेँ शूल सी चुभ जाती है क्योंकि मुझे लगता है कि उन्हेँ मुझ पर विश्वास नहीँ है, परंतु फिर मुझे इस बात का संतोष भी होता है कि विवाह के पश्चात कोई सीटी मारकर अथवा फब्तियां कसकर मेरी अस्मिता को धूलधूसरित नहीं कर सकेगा. पर मुझे क्या पता था कि हमारे समाज मेँ नारियों – चाहे अविवाहित हों अथवा विवाहित- को कहीं भी जलकुम्भी से मुक्ति नहीं है. मेरा विवाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस कस्बे में हुआ, जहां महाभारत काल से स्त्री एक भोग्या रही है और आज भी नारी कोई मानवी न होकर मात्र एक वस्तु समझी जाती है. मेरे साथ आज सायं बाज़ार से लौटते हुए वही हुआ, जो इस भूमि का धर्म रहा है. जब मै उपयोग के उपरांत सड़क के किनारे फेंक दी गई थी. तो एक दयावान टेम्पो वाले ने मुझे पुलिस चौकी पहुंचा दिया था. पुलिस वालोँ ने रस ले ले कर मेरी कहानी सुनी परंतु यह कहकर मेरी रिपोर्ट नहीं लिखी,

‘जाओ, पहले अपने घरवालों से तो पूछ लो. फिर किसी घरवाले को साथ लेकर आओ.’

मैँ गिरते-पड़ते किसी भांति घर पहुंच अपनी सास के कंधे का सहारा लेकर सिसकती हुई आपबीती बताने लगी थी, तभी सास ने मुझे खींचकर इस कमरे मेँ बंद कर दिया.’

मैँ अपने दुपट्टे को पंखे में फंसाकर उसमें लटकने का प्रयास कर रही थी, तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और मेरे पति अंदर आ गये. उन्हेँ देखकर अपनी उस निपट निरीहता की स्थिति में भी मेरे मन में एक आशा का उदय होता है. पर यह क्या? वह मुझसे बिदक कर ऐसे दूर खड़े हो गये, जैसे मै कोई घृणित जोंक हूं. फिर भी मैंने रोते हुए उनसे थाने मेँ रिपोर्ट लिखाने हेतु चलने को कहा. वह कुछ देर मुझे घूरकर देखते रहे, फिर बमक पड़े,

‘अपनी इज़्ज़त तो लुटा ही आई है. अब घर भर की इज़्ज़त भी लुटानी है?’

उनकी बात सुनकर मुझे ऐसा आघात लगता है जो अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति मेरी विद्रोह की भावना को झकझोर कर खड़ा कर देता है. मैं पति की ओर हेय दृष्टि से देखती हुई अनायास चिल्ला पड़ी, “भाड़ मेँ जाय तुम्हारे घर की इज़्ज़त और भाड़ में जाओ तुम”.

यह कहते हुए मैं घर से बाहर निकल आई और अपने साथ हुए अपराध एवं पुलिस द्वारा रिपोर्ट न लिखने की शिकायत पुलिस अधीक्षक से करने हेतु बस स्टेंड की ओर चल पड़ी.

***

2 - निशिथा

Dr Sapeksh Gautam

उसे ख़ामोशी पसंद नहीं थी, बिलकुल भी नही| अपार ऊर्जा से भरी, बेहद आकर्षक व्यक्ति की स्वामिनी थी निशिथा| गेहूँए रंग की सुगढ़ कद-काठी में ढली अल्हड लड़की| जो भी उसे देखता, बस देखता रह जाता| नैन नक्ष भी एकदम तीखे-तराशे हुए, चंचल आँखे ढेरो सवाल लिए| सवाल तो जैसे हमेशा उसके होठों पर ही रहते थे| उसका ज्ञान भी असीमित था| इसलिए सवाल भी बौद्धिक एवं रोचक होते थे| वैसे बेवकूफी भरे सवालों की भी कमी नही थी उसके पास| यही वजह थी कि वो अजनबी माहौल में भी आसानी से ढल जाती थी|

मैं उससे पहली बार अपनी दीदी की शादी में मिला था और वो पागल लड़की पहली ही मुलाकात में मुझसे उलझ पड़ी थी| उस समय मैं जयपुर रहकर डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था| पढाई का दबाव ज्यादा होने की वजह से मैं अपनी दीदी की शादी में भी मंडप के दिन पहुँच पाया था|

सभी लोग अपने-अपने कामो में व्यस्त थे | काम की अधिकता के चलते माँ ने मुझे भी काम पर लगा दिया और वो भी निशिथा के साथ| जब तक मैं गाँव में रहा, मुझे घर के सारे काम आते थे पर अब लग रहा था मानो मुझे जंग लग गया है| ऊपर से उस पागल लड़की की मजाकिया हरकतें....मैं फिर भी अनमने मन से आटा छानने में लगा रहा| माँ ने आटे की पूरी बोरी मुझे सौंप दी थी ...छानने के लिए| मैं साल भर शहर में रहकर शहरी रंग में रंग-सा गया था| मुझे काम करता देख उसकी हँसी नहीं रुक रही थी|

“तू तो शहर जाकर बिलकुल हीरो बन गया रे” उसने मुझे छेड़ते हुए कह| “पहले तो तू बिल्कुल गाँवडेल था”

“तुमको काम करना है या नही“ मैंने बिगड़ते हुए कहा|

“नहीं करना“

“नहीं करना तो चल! रास्ता नाप अपना| परेशान मत कर मुझे“

“नही जाती! तू क्या कर लेगा“

“ठीक है! मत जाओ| पर मुझे अपना काम करने दो“ कहकर मैं फिर से अपने काम में लग गया|

“क्या-क्या होता है वहां तेरे शहर में“ उसने मुझे फिर से उकसाते हुए कहा|

“होने-वोने का तो मुझे पता नही..... मैं वहां सिर्फ पढाई करने गया हूँ और पढाई ही करता हूँ“

“लड़कियां भी पढती होंगी न तेरे साथ“??

“तू मुझे काम करने देगी या नहीं“??

“नहीं करने दूंगी......पहले मेरी बात का जवाब दे“ उसने अकड़ते हुए कहा|

“नहीं बता रहा” मैंने भी उसी के लहजे में उसे जवाब दिया|

“ठीक है मत बता| वो उठकर मटकती हुई वहां से चली गई और जाते-जाते आटे से भरी छलनी मेरे सिर पर डाल गई|

मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था पर उसकी चुहलबाजियाँ भी मन को भा रही थी| सो मैंने उसे कुछ नहीं कहा....| मैं चुपचाप आटा छानने में लगा रहा| आधे घंटे में पूरा आटा छन चुका था पर मेरी हालत भूत से भी बदतर हो चुकी थी| उसका गिराया हुआ आटा अब भी मेरे बालों से झड रहा था|

सो मैंने पहले नहाने का फैसला किया और टावल लेने भाभी के पास चला गया| निशिथा पहले से ही वहां गप्पे हांक रही थी| मेरे जाते ही वह फिर से शुरू हो गई|

“दीदी! इन जनाब को ताक में बिठाकर अगरबत्ती लगा दो| कोई भी काम तो ढंग से करना नहीं आता इनको| मण भर आटा छानते-छानते मेरी तो कामर ही टूट गई ” वो कामर के हाथ लगाकर ऐसे अभिनय कर रही थी मानो पूरा आटा उसी ने छाना हो| भाभी भी उसकी बातों पर मुस्कुरा रही थी|

“अब तू यहाँ खड़ा-खड़ा हमारी शक्ल क्या देख रहा है.... जा दो गिलास शरबत बना ला हमारे लिए| देखा नही कितना काम किया है मैंने

“हाँ देखा है| बहुत काम करती है तू” मैं भी उसे छेड़कर शरबत बनाने चला गया|

थोड़ी देर में मैं हम तीनो के लिए शरबत बना लाया|

“अरे वाह! तू तो बहुत अच्छा शरबत बनता है| तेरी वो तो बहुत खुश रहेगी तेरे साथ” कहकर वो फिर से खिलखिलाकर हँस पड़ी|

“तू मार खाएगी क्या मेरे हाथों से” मैंने चिढ़ते हुए कहा|

“क्यों अपने हाथों को कष्ट देते हो साब...बात नहीं करनी तो मत करो...हम तो चले” फिर वो हँसती हँसती बाहर चली गई| “कौन है भाभी ये लड़की”? मैंने भाभी से पूछा|

“ये! ये मेरी चचेरी बहन है| आज पहली बार अपने घर आई है|”

“छोरी तो बहुत तीखी है भाभी ये”

“हाँ! तीखी तो है...पर दिल की बहुत साफ़ है”

“वो तो मैं देख ही रहा हूँ...धेले का काम किया नहीं और छलनी भर आटा सिर पर और डाल आई मेरे|”

मेरी बात सुनकर भाभी भी हँस पड़ी| फिर मैं नहाने चला गया| घर के कामो में पूरा दिन कब निकल गया, मुझे पता भी नही चला|

शाम को खाली बैठा देख निशिथा फिर से मुझे छेड़ने चली आई|

“ओ हीरो! मेहँदी लगा देगा मेरे हाथों में”

“मुझे नहीं आता मेहँदी लगाना”

“अरे लगा दे ना! भाव क्यू खा रहा है| दीदी कह रही थी कि बहुत अच्छी मेहंदी लगता है तू”

“ठीक है! लगा दूंगा पर पहले प्रॉमिस कर कि आगे से इतनी मजाक नहीं करेगी”

“ओके प्रॉमिस एंड सॉरी...अब लगा दे” उसने मेहँदी लगवाने के लिए अपने हाथ मेरे आगे कर दिए|

“अपने हाथो की लकीरें एक जैसी हैं ना”

मैंने उसके हाथों की तुलना अपने हाथ की लकीरों से करते हुए कहा|

“हम्म.... हैं तो एक जैसी ही| पर और भी कई लकीरें है जो तुम्हे नहीं दिख रही|

“और कौनसी लकीरें है”?

“वो लकीरें हैं..… समाज की...… रसूख की...वक्त की” उसने मेरे बालो में अंगुलियाँ फिराते हुए कहा| उसकी बाते मेरे सर के ऊपर से जा रही थी|

“अरे! मैंने तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं

“मेरा नाम! मेरा नाम है...निशिथा....और तुम्हारा”

“मेरा नाम.… पागल.… सब इसी नाम से बुलाते हैं मुझे” मैंने मुंह पिचकाते हुए कहा|

“सच में पागल हो तुम तो| ओ हीरो! नाम बदल ले अपना वरना कुंवारा ही रह जायेगा” वो फिर से शुरू हो गई|

“मैंने मना किया था ना मजाक के लिए”

“सॉरी....अब जल्दी से मेहँदी लगा दे...सूखने में भी टाइम लगेगा|

फिर कुछ सोचकर-

“मैं ढूँढूँगी! एक अच्छा सा नाम तुम्हारे लिए” उसने बड़ी रुमानियत से कहा|

उसके एक हाथ में मेहंदी लग चुकी थी |

“ठीक है पागल! अब मैं चलती हूँ|”

“अरे रूक तो सही” मैंने जबरजस्ती उसका दूसरा हाथ पकड़कर अपने बाजू में बिठा लिया| उसने भी अपना हाथ छुड़ाने की कोई कोशिश नहीं की|

“ऐ निशि! ब्याह करेगी मुझसे? मैंने थोडा रूमानी होते हुए उससे पूछा|

मेरे इस सवाल से वो और भी ज्यादा संजीदा हो गई| वो काफी देर तक मेरे चेहरे की ओर देखती रही| फिर एकदम से - ”कभी आइने में शकल देखी है अपनी...पढने-लिखने का तो कोई काम है नहीं, जनाब चले ब्याह रचाने” और बडबडाते-बडबडाते वहां से उठकर चली गई|

निशिथा बाहर से जितनी मजाकिया थी, अंदर से उतनी ही गंभीर....उसका जीवन एक खुली किताब था| उसके बारे में सब को सबकुछ पता रहता था, मगर मुझे वो हमेशा ही रहस्यमय लगती| मैं हमेशा उससे कहता था कि निशि! मैं तुम्हे कभी समझ नहीं पाउँगा और वो कहती...”क्या हासिल कर लोगे मुझे समझकर....मैं एक रेत की नदी हूँ...सिवा रेत के कुछ भी तो नहीं है मुझमे...जितना मुझे पाने की कोशिश करोगे, उतनी ही मैं तुम्हांरे हाथ से फिसलती जाऊँगी|” मैं जब भी उसे समझने की कोशिश करता, वो उतना ही मुझे और उलझा देती! मुझसे उम्र में तीन साल छोटी थी वो पर मुझसे कहीं ज्यादा समझ थी उसे|

कभी-कभी तो लगता था निशिथा एक मृगमरीचिका है, जिसे मैं जब भी देखता हूँ, दीवाना हुआ जाता हूँ| कभी-कभी लगता कि वो सिर्फ एक भ्रम है, तभी उसकी चुहलबाजियाँ मुझे अपने खयालो से वापस खींच लाती और उसे मैं एकदम अपने करीब पाता|

उस रात उसने मुझसे बात भी नहीं की| मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मैंने मजाक करके उसे नाराज कर दिया पर शायद नाराज होना तो उसने सीखा ही नही था|

अगली सुबह वो अपने गीले बालों को झड़कारती हुई मेरे पास आई|

“ओ पागल! तेरे किये एक नाम सोचा है मैंने...और वो नाम हैं निशिथ”

“निशिथ! ये कैसा नाम है? तुम्हे मतलब भी पता है निशिथ का?” मैंने सवालिया लहजे में पूंछा|

“हाँ! पता है| ये नाम मेरी किस्मत है...और आज से तुम मेरी किस्मत के साझेदार हुए”

“ठीक है! मै निशिथ और तुम मेरी निशिथा”

ओ हीरो! इतना आगे की मत सोच अभी| तुम्हे पता भी है कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे मुझे पाने के लिए”

“बेल लूँगा, अगर तूने साथ दिया तो”

ओ हीरो! ये आशिकी बाद में झाड़ना...पहले मेरे साथ खेत पर चल...दीदी ने एक काम बताया है और वो मुझे खींचकर अपने साथ ले गई|

रास्ते भर वो बस अपनी ही गाती रही फिर एकदम से संजीदा होकर –

“निशिथ! चाहती तो मैं भी यही हूँ कि हमेशा तुम्हारी बनकर रहूँ पर तुम मेरी किस्मत में हो ही नहीं.....तुम डॉक्टर बनोगे.....किसी डॉक्टरनी से ब्याह करोगे.....और मैं....वह कहते-कहते फिर से चुप हो गई |

“काश मैं चिड़िया होती.....मेरे भी पंख होते.....जहाँ जी करता.....स्वच्छंद उड़ती| यहाँ....वहां| उस पेड़ की डाली पर हरी टहनियों के झुरमुट में मेरा घोंसला होता.....न कोई लाग-लपेट होती.....न ही कोई बंदिश.....बस होती तो सिर्फ “ मैं ”|

“अरे! तुमने वो गाना सुना है क्या? “मैं और मेरी आवारगी”

“नहीं तो” मैंने जवाब दिया

“ओ हीरो! कभी किताबों की दुनिया से बाहर निकलकर भी देखा कर”...और फिर वो वही गाना गुनगुनाने लग गई|

मुझे कभी-कभी लगता कि निशि मानसिकरूप से बीमार है| नॉर्मल तो है ही नही| हमेशा अपने नाम को कोसती रहती.....संगीत तो जैसे उसके रोम-रोम में बसा था| हमेशा कोई ना कोई गाना उसके होठों पर रहता था| मेरे लिए एक अनबूझ पहेली थी निशिथा|

“पहाड़ पर वो सुर्ख लाल पलाश देख रहे हो, वो कोई और नहीं मेरी ही परछाई है। इसकी ही तरह मुझे भी कभी बहारें नसीब नहीं होंगी| काश! मैं खुशबू होती....तितलियों के संग खेलती....फूलों के घर में रहती....जो भी मेरे संपर्क में आता....बस मुझमे ही खो जाता....कितना अच्छा होता ना”

“ओ पागल छोरी! अब सपनो की दुनिया से बाहर निकल| भाभी का बताया काम भी निपटाना है ....देर हो गई तो माँ डांटेगी....बहुत मेहमान है घर पर”

“माँ मुझे क्यों डांटेगी....मैं तो खुद मेहमान हूँ....मेहमानों से भी कोई काम करवाता है भला” वो मुझे सब्जी तोड़ने के काम में लगाकर फिर से शुरू हो गई|

कितना बोलती थी वो| थकती भी नहीं थी पर उसकी यही बात मुझे सबसे ज्यादा पसंद थी|

“निशि! तू भी तुडवा न सब्जी” मैंने थोडा रिक्वेस्ट करते हुए कहा|

“तुम्हे अपने सवाल का जवाब चाहिए ना”

“हाँ चाहिए! तो!”

“तो फिर सब्जी तू ही तोड़ेगा, तभी मैं तेरे सवाल का जवाब दूँगी|”

कितना ब्लैकमेल करती थी वो| मुझे काम पर लगाकर पता नही वो खुद कहाँ गायब हो गई| मैं अब सब्जी तोड़ चुका था| काम पूरा होते ही वो मेरे पास आई और मुझे पास वाले नीम के पेड़ के नीचे ले गई| उसने अपना दुपट्टा मेरी आँखों पर बाँध दिया था|

पेड़ के पास ले जाकर उसने मेंरी आँखों से दुपट्टा हटा लिया| उसने पेड़ के तने पर किसी नुकीली चीज से “निशि” लिखा था|

“ये क्या है”??

“ये हमारा नाम है....हम दोनों का....ना निशिथा, ना निशिथ....सिर्फ “निशि”

“कभी तुम जब बड़े डॉक्टर बनकर यहाँ आओगे....तब याद तो करोगे....कोई पागल “निशि” भी थी”| उसकी आँखों में आंसू थे|

“तुम हमेशा ऐसी नीरस बाते ही क्यों करती हो| मैं तो नहीं चाहता तुमसे दूर होना”

“लेकिन मेरे हीरो! मुझे पाने के लिए तुम्हे पहले डॉक्टर बनना पड़ेगा”

“तो कर तो रहा हूँ पढाई”

“ऐसे नहीं! वादा करना पड़ेगा....अगर डॉक्टर नहीं बन सके तो भूल जाना निशि को”

“हाँ निशि! मैं बनूँगा डॉक्टर...तुम्हारे लिए....कहते-कहते मेरी आँखे भर आई| थोड़ी देर बाद हम वापस घर लौट आये|

दीदी की शादी हो गई| सारे मेहमान विदा हो चुके थे पर निशिथा कुछ दिनों के लिए हमारे घर पर रूक गई| मेरे कहने पर| उसकी चुहलबाजियों के बीच वो सप्ताह कैसे बीत गया, मुझे पता ही नहीं चला|

उस दिन दादाजी ने आहते में अलाव जला रखी थी| निशि मेरी कजिन की साईकिल मांग लायी थी....चलाने के लिए|

“ओ हीरो! मुझे साईकिल चलाना सिखा ना”

“नहीं! रहने दे....गिर जाएगी”

“तू है ना मुझे सँभालने के लिए” उसने फिर से मुझे छेड़ दिया| मैंने उसकी साईकिल का हैंडल पकड़ रखा था और वो पैडल मार रही थी| एक हाथ से उसने मेरा कन्धा पकड़ रखा था और वो आहते में गोल-गोल घूम रही थी|

“ले हीरो! अपना ब्याह भी हो गया अब”

“ब्याह”??

“और नहीं तो क्या?? अग्नि के पूरे सात फेरे जो लिए हैं....वो भी साईकिल पर”.....और वो फिर से हंसने लग गई|

“तो मैडम अब मैं आपकी माँग भी भर दूँ”??

“उसके लिए तो डॉक्टर बनना पड़ेगा” कहकर वो भाभी के पास भाग गई|

सही तो कहा था उसने...वो साईकिल पर अलाव के चारों ओर गोल-गोल ही तो घूम रही थी| अनजाने में ही सही....उस दिन हमने सात फेरे भी लिए थे|

उसके साथ हंसते-खेलते दो सप्ताह से भी ज्यादा समय बीत गया था| अब मुझे वापस जयपुर आना था| वापस जयपुर आने से पहले मैं उसके लिए एक माला लेकर आया था| उसने भी माला मेरे हाथों से पहनी थी|

“ये लो अब मंगलसूत्र भी पहना दिया तुमने”

माला पहनते समय भी उसने अपना जुमला मार दिया|

“तुम कभी सीरियस भी होती हो क्या”? मैंने खीजकर पुछा|

“सीरियस ही तो हूँ....कह रही हूँ ना.....डॉक्टर बन जाओ बस”....कहकर वो वहां से चली गई|

मैं फिर से जयपुर आकर अपनी पढाई में व्यस्त हो गया| निशिथा एवं उसकी बातों पर वक्त की गर्द जम गई| सब कुछ फिर से पहले की तरह सामान्य हो गया| पढाई-पढाई में वो साल भी बीत गया|

अब मुझे आगे की पढाई के लिए कोटा जाना था| उस दिन भी निशिथा का फोन आया था| उस दिन भी उसने डॉक्टर बनने की याद दिलाकर फोन रख दिया| कोटा जाने के बाद भी मुझे निशिथा से किया वादा हर वक्त घूमता रहता| मैंने सालभर जमकर पढाई की| उस साल मेरा डॉक्टरी में चार-चार जगह नंबर पड़ा....पर मैंने घर के नजदीक “सम्राट पृथ्वीराज चौहान मेडिकल कोलेज, हयात शहर“ चुना|

मेरे हयात शहर आने से पहले निशिथा मुझसे मिलने हमारे घर आई थी| शायद हमारी ज़िन्दगी की वो आखिरी मुलाकात थी|

“मुझे पूरा यकीन था तुम अपना वादा ज़रूर पूरा करोगे”

“नहीं निशि! तुम्हांरे बिना मैं ये सब नही कर पाता”

“अब भी इरादा है मुझसे ब्याह करने का”

निशि ने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर पुछा| उसकी आवाज में अजीब सा ठहराव था|

“हाँ निशि!”

“भूल जाओ इन बातों को....ये मुमकिन नही है”| कितना बदल चुकी थी वो अब तक....वो अल्हड़पन, चुहलबाजियाँ पता नहीं कहाँ खो गई थी| बिल्कुल संजीदा हो चुकी थी अब|

उसने दो पल के लिए मेरी आँखों में देखा| वही जाने-पहचाने भाव, जिन्हें मैं कभी पढ नहीं सका था....फिर वो वहां से चली गई और जाते-जाते एक कागज का टुकड़ा मेरे हाथों में थमा गई|

मैं बुत सा वहीँ खड़ा रहा| पहली मुलाकात से लेकर अब तक का हर लम्हा मेरी आँखों के सामने तैर रहा था|

“मेरे लिए शरबत नहीं बनाओगे क्या डॉक्टर साब”?? उसने विदा लेने से पहले अपनी आखिरी फरमाइश की| उसकी आवाज में पहले जैसी चुहलबाजी नहीं थी.... बस था तो एक डर....एक दर्द ....एक ठहराव| उसके बाद निशिथा चली गई....मेरी ज़िन्दगी से...हमेशा-हमेशा के लिए|

उसका वह ख़त...मेरे उन सभी सवालों का जवाब था जिनकी वजह से निशिथा मुझे हुमेशा एक पहेली लगती थी|

निशिथ,

मुझे पूरा यकीन था...तुम अपना वादा जरुर पूरा करोगे....मैं भी यही चाहती थी कि तुम डॉक्टर बनो....अपने लिए....अपने घर वालो के लिए....तुम्हारी डॉक्टरी मेरे प्यार का तोहफा है| मैं कहती थी न कि मेरा नाम मेरी किस्मत है| निशिथ...... मतलब......मध्यरात्रि का वह संक्रमण काल जब एक तिथि दूसरी तिथि में बदलती है....पर मेरे लिए यह संक्रमण काल दो जन्मों का है| पता नहीं किसने ये समाज बनाया.… धर्म बनाया.… जातियां बनायीं.… इससे भी जी नहीं भरा तो गोत्र बना दिए....जिनके हिसाब से हम एक दुसरे के कभी नही हो सकते..... कम से कम इस जन्म तो नहीं.....तुम्हारी वो माला हमेशा मेरे गले में मंगलसूत्र बनकर रहेगी....हमने अग्नि के सात फेरे लिए हैं....कहने में यह मजाक लगे....पर मेरे लिए तो सिर्फ वही सच है| यह जन्म तो मेरे लिए एक अभिशाप....एक बोझ है...जिसे मुझे ढोना ही पड़ेगा|

सुनो! तुम अगले जन्म में मेरे निशिथ ही बनना....और मैं बनूँगी.… तुम्हारी.… सिर्फ तुम्हारी.… मैं इंतजार करुँगी तुम्हारा.… तुम आओगे ना.… मेरी मांग भरने.… मैं राह देखूंगी तुम्हारी|

हर जन्म में निशिथा ही बनूँ, इतनी भी बदनसीब नहीं हूँ मैं|

***

3 - प्रलय और प्यास

डॉ. कविता त्यागी

16 जून 2013 की शाम 7:30 बजे थे । केदारनाथ मंदिर के प्रांगण में आस्था में सराबोर सभी भक्त महाशिव का जयघोष करते हुए भजन गा-गाकर भक्ति-सागर में डुबकी लगा रहे थे । उसी समय उत्तरकाशी में बादल फटने और तेज बारिश होने से विनाशकारी भूस्खलन हुआ । पानी के साथ मिट्टी और पत्थरों का तीव्र प्रवाह अनेकानेक भक्तों को अपने साथ बहाकर ले गया। किसी को पलक झपकने का भी समय नहीं मिल सका । जिन्हें तैरना आता था, वे भी स्वयं को बाढ़ के प्रकोप से नहीं बचा सके । मिट्टी-पत्थर और पानी का प्रवाह इतना तीव्र था कि न तो भक्तों को तैरकर प्राण बचाने का अवसर मिला और न ही शक्ति । क्षण-भर में ही अनेक भक्त उस पथरीली बाढ़ के बहाने अदृश्य में विलीन हो गए । उनका चिन्ह-मात्र भी शेष न बचा ।

मनोहर और उसके साथियों ने यह भयावह दृश्य प्रत्यक्षतः देखा था । उन्होंने देखा, काल के अदृश्य जाल से बचे हुए भक्त अपनी रक्षा के लिए भगवान को पुकारते हुए संभावित संकट से बचने का उपाय खोज ही रहे थे कि कुछ क्षणोपरांत पुनः बाढ़ का पहले से भी तीव्र बहाव आया । पलक झपकने से पहले ही अनेक भक्त उस प्रवाह में गुम हो गए । मनोहर की माँ भी उस बहाव की चपेट में थी । माँ को बचाया जा सके, इस आशा से कुछ ऊँचे स्थान पर स्थिर होकर मनोहर और उसकी पत्नी ने दृढ़तापूर्वक माँ का हाथ थामकर उन्हें खींचने का प्रयास किया । उसी क्षण मनोहर और उसकी पत्नी ने सुना-देखा कि एक स्त्री जो कुछ क्षण पूर्व अपने पति के असमय चिर-वियोग पर विलाप कर रही थी, अब स्वयं प्रवाह में पड़ी विवशतापूर्वक अपने आठ-दस वर्षीय बच्चे की सहायता के लिए क्रदन कर रही थी । मनोहर की पत्नी ने माँ को बचाने का दायित्व-भार अपने कंधों पर लेते हुए चिल्लाकर पति से मात्र इतना कहा -

"उसका बच्चा ...!"

मनोहर को अपनी पत्नी की शक्ति और मातृभक्ति पर पूर्ण विश्वास था । वह जानता था, उसकी पत्नी माँ को पथरीले गंदले पानी के प्रलय-प्रवाह से अवश्य बचा लेगी । अतः पत्नी का सांकेतिक आग्रह स्वीकारते हुए मनोहर ने अविलम्ब बच्चे की ओर मुड़कर उसे दृढ़तापूर्वक थाम लिया । बच्चा अपनी माँ का हाथ पकड़कर उसे बचाने का असफल प्रयास कर रहा था । किंतु..., उसी क्षण पुनः मिट्टी-पत्थर और पानी का एक और अत्यंत तीव्र प्रवाह आया, जिसमें कई अन्य भक्तों के साथ-साथ मनोहर की माँ, उसकी पत्नी और उस बच्चे की माँ काल का ग्रास बन गयी । वह बच्चा और मनोहर देखते ही रह गये । बच्चे को दृढ़तापूर्वक थामे हुए मनोहर के कान में उस क्षण उस प्रलय-प्रवाह में से क्रंदन-निमज्जित बस एक ही अधूरा-सा वाक्य गूँजा था और फिर गूंजता ही रहा -

"भैया ! मेरा बच्चा ...!"

बाढ़ का प्रभाव कुछ धीमा होने पर मनोहर ने बच्चे का नाम पूछा । बच्चे ने उत्तर दिया -

"आनंद !"

"महाशिव तुम्हारे जीवन को आनंदमय रखे !"

मनोहर ने बच्चे को शुभाशीष दिया और बड़बड़ाते हुए स्वगत कहा -

"जिसके माता-पिता बचपन में ही काल का ग्रास बन गए हों, उसका बचपन का आनन्द तो प्रभु ने छीन ही लिया है !" कहते हुए मनोहर बच्चे का हाथ पकड़कर किसी सुरक्षित स्थान की खोज में चल दिया । उस समय मनोहर के हृदय में एक ओर माँ तथा पत्नी के चिर-वियोग की पीड़ा का ज्वार उठ रहा था, तो दूसरी ओर उस बच्चे की सुरक्षा का गुरु-भार अनुभव हो रहा था।

अगले दिन मनोहर आठ-दस वर्षीय बच्चे आनंद का हाथ पकड़कर धीमे-धीमे कदमों से चला जा रहा था । कहाँ जाना है ? कुछ ज्ञात नहीं, फिर भी उसके चरण यंत्रवत् अपना कार्य कर रहे थे । बच्चा कई बार पानी के लिए निवेदन कर चुका था -

"अंकल बहुत प्यास लगी है !"

"थोड़ा-सा आगे चलकर तुम्हें पानी पिलाएँगे !"

"अंकल, अब नहीं चला जाता ! प्यास से मेरे प्राण निकल रहे हैं !"

"बस बेटा, थोड़ी-सी दूर और...!"

"अंकल थोड़ी दूर कहते-कहते आप मुझे बहुत दूर ले आए हैं ! अब मैं और नहीं चल सकता !" यह कहकर बच्चा धम्म से धरती पर बैठ गया ।

"नहीं-नहीं ! ऐसा नहीं कहते !" बच्चे के होठों पर उंगली रखते हुए मनोहर ने कहा और फफक-फफककर रोने लगे । मनोहर को रोते हुए देखकर बच्चा मायूस होकर बोला -

"अंकल, आपको भी प्यास लगी है ? मम्मी कहती हैं, अच्छे बच्चे रोते नहीं हैं ! इसलिए मैं बहुत प्यास लगने पर भी नहीं रोया । आपको भी नहीं होना चाहिए !" मनोहर ने अपने आँसू पोंछ लिये और कृत्रिम स्मिति की मुद्रा धारण करके बोले -

"हूँ-ऊँ ! ठीक है, अब नहीं रोऊँगा !"

मनोहर ने बच्चे को तो वचन दे दिया था, किंतु वह समझ नहीं पा रहा था, कैसे अपने आँसुओं पर नियंत्रण रख सकेगा । उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि चार धाम की यात्रा करने की इच्छुक उसकी पत्नी और मां शिव के धाम में आकर शिव की भेंट चढ़ जाएँगी । वह बार-बार बस एक ही बात सोच रहा था कि बच्चों को क्या उत्तर दूँगा, जब वह पूछेंगे - "पापा, माँ को कहाँ छोड़ आये ? दादी कहाँ है ?"

प्यास से बेहाल आनंद पानी की जरूरत-चाहत लिए हुए मनोहर का हाथ थामे चल रहा था और मनोहर अपने सद्यः अतीत की स्मृति में खोया हुआ था । उसका सद्यः अतीत जीवंत होकर चलचित्र की भाँति उसकी आँखों में तैर रहा था और कदम यंत्रवत आगे बढ़ रहे थे । अतीत की स्मृतियों में विचरित मनोहर की तन्मयता तब भंग हुई, जब उसके कानों में आनंद का दयनीय स्वर पड़ा -

"अंकल ! वह देखो, उन लोगों के पास पानी है । वे मुझे थोड़ा-सा पानी देंगे, तो ...! आप उनसे कहिए ना !"

कुछ ही दूरी पर बैठे हुए दो भक्तों के हाथ में पानी की बोतल देखकर मनोहर तेज कदमों से वहाँ पहुँचा और प्यास से बेहाल आनंद की दशा का वर्णन करते हुए पानी के लिए निवेदन किया । किंतु, पानी न मिल सका । उन भक्तों ने बताया कि कुछ क्षण पूर्व आते, तो बच्चे की प्यास बुझाने के लिए अवश्य ही पर्याप्त मात्रा में पेय जल मिल जाता । अब उनका पानी समाप्त हो चुका है । निराश होकर मनोहर और आनंद आगे बढ़ गये। उस समय उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य पेय जल की खोज करना रह गया है । शायद अब पानी की आशा में ही उनके प्राण शरीर में अटके हैं ।

चलते-चलते कुछ ही दूरी तय की थी, बच्चे को पुनः किसी भक्त के पास पानी की बोतल दिखाई पड़ी । पानी देखते ही बच्चे की आँखों में चमक आ गयी । वह प्रसन्नता से चिल्ला उठा -

"अंकल, पानी ! वहाँ देखिए !"

मनोहर ने देखा, एक युग्म लगभग दस वर्षीय बच्चे को लिये हुए बैठा था, शायद वे भी केदारधाम में शिव के दर्शनार्थ आये थे। मनोहर ने स्वगत संभाषण किया -

"यही भक्त महाशिव के सच्चे कृपापात्र हैं ! उसकी असीम कृपा से यह परिवार न केवल प्रलय के प्रकोप से बच गया है, बल्कि इस विषम परिस्थिति में इनके पास जीवन के पर्याय पेय जल भी उपलब्ध है !" मनोहर बच्चे को लेकर उनके निकट गये और विनम्र भाव से पानी के लिए प्रार्थना की -

"भाई साहब, पिछले कई घंटे से यह बच्चा प्यास से व्याकुल है । कृपया अपने पानी में से दो घूँट पानी इस बच्चे को पिला दीजिए !"

मनोहर की प्रार्थना सुनकर पुरुष ने स्त्री की ओर देखा । पुरुष की भंगिमा से स्पष्ट हो रहा था कि वह स्त्री से पानी देने की अनुमति माँग रहा था । प्रत्युत्तर में स्त्री ने भौंहें सिकोड़कर संवेदनाहीन मुखमुद्रा बनाते हुए कठोर शब्दों में कहा-

"नहीं ! न जाने कब तक हमें यहाँ रहना पड़े, अपना पानी इसे देकर हम प्यासे रहेंगे !"

मनोहर ने पुनः याचना की -

"बहन जी, इस बच्चे के माता-पिता को पथरीली बाढ़ लील गयी । कई घंटे से यह प्यास से तड़प रहा है । इसको पानी नहीं मिला, तो यह दम तोड़ देगा !"

"तोड़ देगा, तो हम क्या करें ! इसके लिए हम अपना पानी देकर अपने बच्चे को और स्वयं को संकट में तो नहीं डाल सकते !" इस बार पुरुष ने अपनी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए कहा । मनोहर ने पुनः उन्हें समझाने का प्रयत्न किया-

"आपके ऊपर ईश्वर की कृपा रही है कि आप प्रलय का रूप धरकर आयी बाढ़ से बच गये ! उसकी दया दृष्टि आप पर सदैव बनी रहे ! आपको और आपके बच्चे को ईश्वर लम्बी आयु दे ! कृपा करके दो घूँट पानी आप इस बच्चे को भी दे दीजिए ! आपकी दया से इस बच्चे के प्राण भी बच जाएँगे ! आपको पुण्य प्राप्त होगा !"

"हमें पुण्य नहीं कमाना है ! आप जाइए ! हमारा पीछा छोड़कर कहीं और जाकर पुण्य बाँटिए !" स्त्री ने कहा । पुरुष ने अपनी पत्नी का समर्थन किया -

"ठीक कह रही हैं यह ! आप जाइए यहाँ से, हमें मत सिखाइए !" दंपत्ति के निर्ममतापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध मनोहर ने निराश दृष्टि से बच्चे की ओर देखा, जो अब तक प्यास के कारण अचेत हो चुका था । बच्चे की दयनीय दशा देखकर मनोहर के मुख से मात्र ये शब्द निसृत हुए-

"भगवान जैसे स्वयं पत्थर का है, वैसे ही पाषाण हृदयी मनुष्यों पर उसकी कृपा बरसती है !" यह कहते हुए मनोहर किंकर्तव्यविमूढ़-सा सिर पकड़कर बच्चे के निकट ही धरती पर बैठ गया । उसे समझ में नहीं आ रहा था, क्या करे ? क्या न करे ? उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली थी । उससे कुछ ही दूरी पर बैठा एक युवक इस घटना का अविरल भाव से अवलोकन कर रहा था और उनकी सारी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहा था । मनोहर की निराशा को भाँपकर वह उठा, उसके निकट आया और उसको झिंझोड़ते हुए बोला -

"भगवान पत्थर का नहीं है । वह तो सर्वव्यापी है । किंतु, स्वयं को भक्त कहने वाले कुछ पाषाण-हृदय लोग अपनी संकुचित सोच के कारण भगवान को पत्थर में तो देखते हैं, उसीके बनाए हुए जीते-जागते मनुष्य में वे उसके दर्शन नहीं कर पाते । आप उठो और इस बच्चे की माँ को दिए हुए अपने वचन का निर्वाह करो !"

युवक का वाक्य सुनकर मनोहर की आँखें विस्मय से फैल गयी । वह प्रश्नात्मक दृष्टि से युवक की ओर निर्निमेष देखने लगा। मनोहर की जिज्ञासा को शान्त करते हुए युवक ने पुनः कहा -

"मुझे इस प्रकार मत देखो ! मैं कोई अंतर्यामी सिद्ध पुरुष नहीं हूँ । जिस समय आप इस बच्चे को उस रेले में बहने से बचा रहे थे, उसी समय मैं भी अपनी मृत्यु से संघर्ष कर रहा था । इसकी माँ की आर्द्र पुकार अब भी मेरे कानों में गूँज रही है ।"

"मैं जानता हूँ, इस बच्चे के प्राण बचाना हमारा कर्तव्य है ! लेकिन इस विषम क्षण में कैसे ...?" मनोहर ने उदास स्वर में कहा ।

"आप चिंता मत कीजिए ! बच्चे के प्राण हम नहीं, वही सर्वव्यापी बचाएगा, जिसने इसको बाढ़ में बहने से बचाया है ! वही विधाता अब भी इसकी रक्षा करेगा ! अंतर बस इतना है, तब आप निमित्त थे ! अब शायद मैं ...!" यह कहते हुए युवक उस परिवार की ओर बढ़ा, जो पेयजल की एकाधिक बोतले रखते हुए भी बच्चे को दो घूँट पानी पिलाने की मनोहर की प्रार्थना को अस्वीकार कर चुका था । उनके निकट पहुँचकर युवक उनसे बिना पूछे उनकी पानी की बोतल उठाने लगा । स्त्री ने उसका विरोध किया, तो युवक ने अत्यंत विनम्र शैली में कहा -

"बच्चा प्यास के कारण अचेत हो गया है ! उसके प्राण बचाने के लिए आपको पानी देना ही होगा !" युवक का आदेशात्मक स्वर सुनकर स्त्री के पति ने कड़क स्वर में कहा -

"आप कौन होते हैं, हमसे जबरदस्ती पानी लेने वाले ! हमारी मर्जी है, हम अपना पानी किसी को दें या न दें !"

"नहीं ! न पानी आपका है, न पानी देने में आपकी मर्जी चलेगी ! कभी-कभी जब परमात्मा अपनी शक्तियों का साधनभूत किसी अपात्र को बना देता है, तब अपने निर्णय में यथाशीघ्र परिवर्तन करके वह उन शक्तियों को किसी सुपात्र को हस्तांतरित कर देता है, ताकि धरती से परोपकार की भावना पूर्णरूपेण नष्ट न हो जाए और सज्जनों की उसके प्रति आस्था बनी रह ! संभवतः वह सुपात्र मैं हूँ !" यह कहकर युवक ने पुनः पानी की बोतल उठाने का प्रयास किया । इस बार स्त्री ने अपनी वाणी द्वारा युवक का विरोध किया, तो पुरुष ने शारीरिक बल का प्रयोग करके युवक को पानी की बोतल लेने से रोकने का प्रयास किया । युवक ने एक बार घूरकर पुरुष की ओर इस आशा से देखा की पानी की बोतल लेने दें, अन्यथा ...! पुरुष पर उस मूक चेतावनी का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता देख युवक ने बाएं हाथ से बोतल पकड़े रखी और दाएँ हाथ से पुरुष के गाल पर एक के बाद एक कई जोरदार थप्पड़ जड़ दिए । गाल का पर थप्पड़ पड़ते ही बोतल पर पुरुष की पकड़ ढीली पड़ गयी और स्त्री की जुबान जड़ हो गयी ।

युवक पानी की बोतल लेकर ज्यों ही मनोहर तथा अचेतावस्था में पड़े बच्चे आनंद की ओर मुड़ा, उस दंपत्ति के बच्चे ने युवक.की ओर पानी की एक और बोतल बढ़ाते हुए कहा -

"अंकल यह भी ले जाइए ! आपको भी प्यास लगी होगी, पी लेना ! हमारे पास हमारे लिए अभी दो बोतल पानी और रखा है ।" युवक ने अपने हाथ में पकडी हुई पानी की बोतल मनोहर के हाथ में थमा दी । तत्पश्चात् बच्चे की संवेदनशीलता को प्रोत्साहित करते हुए उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर कहा -

"बेटा, अपने इस मनुष्य रूप को सदैव निर्मल बनाए रखना ! इस समाज का अस्तित्व इसी मानवता पर टिका है और इसकी नींव आप जैसे संवेदनशील मनुष्य ही बनते हैं, मानव शरीरधारी राक्षस प्रवृत्ति के लोग नही । सदैव प्रसन्न रहो !"

***

4 - बिना खंजर के हत्यारे!

जाह्नवी सुमन

दिल्ली की एक आलिशान न सही लेकिन एक अच्छी या फिर यूँ कहूँ कि ,थोड़ी सी महँगी कॉलोनी में है, मेरा मकान।

यहाँ मकान का किराया झेलना हर किसी के बस की बात नही। इसलिए कुछ नवयुवक जो दिल्ली शहर में नौकरी तलाशते यहाँ आ पहुँचते हैं, वह अक्सर छत पर बनी बरसाती ही किराये पर ले लेते है।ऐसे ही पड़ोस में गुप्ता जी की चौथी मंजिल पर फैली छत औऱ उसके एक कोने में दुबकी हुई छोटी सी बरसाती में झांसी से सौरभ नामक नवयुवक आ बसा।

सौरभ के माता पिता खेती बाड़ी संभालते थे और उसी की कमाई से बच्चों की पढ़ाई लिखाई व लालन पालन कर रहे थे। बीते वर्ष फसल अच्छी नही हुई सो घर में रुपये पैसे की तंगी हो गई उस पर बूढ़ी दादी की दवा दारू ने सौरभ को पढ़ाई छोड़ कर शहर आ कर नौकरी करने पर मजबूर कर दिया ।सौरभ होनहार लड़का था, उसे एक प्राइवेट कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर की नौकरी जल्दी ही मिल गई।लेकिन इस को उस का दुर्भाग्य कहूँ या जल्दबाज़ी मे लिया गया निर्णय? उस कंपनी की वित्तीय हालात काफी ख़राब थी, कई महीनों से अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया था कुछ तो नौकरी छोड़ कर चले गए थे और कुछ मालिक के झूठे आश्वासन पर टिके थे।

सौरभ भी बस फँस गया था उस भवँर में एक के बाद दो और दो के बाद तीन महीने बीतते चले गए ,वह उँगलियों पर गिनता रहा कि अब उसको कितना वेतन मिलेगा और अपनों के लिए गॉव में पैसे भिजवायेगा।

शहरी ज़िंदगियाँ आमतौर पर घरों में ही कैद हो जाती है दूसरोँ के घरों में ताँक झांक करना असभ्यता का सूचक लगता है।

मम्मी इसके विपरीत थी ,वो अक्सर सौरभ के हाल चाल पूछ लेती थी । शाम की चाय के लिए बुला लेना और फिर रात को उसके लिए खाना पहुँचा देना मम्मी की आदत बन चुका था। मम्मी ने उसके बदले उस से कभी कुछ अपेक्षा नही की।

वह भी मम्मी को अपना सच्चा हम दर्द समझ बैठा था, अब तो वह बीच बीच में बस के लिए किराया भी माँगने लगा था, जिसका मम्मी ने कभी हिसाब भी नही रखा था।

पहली बार सौरभ के कारण मम्मी पापा की बहस उस दिन छिड़ गई जब पापा ऑफिस से घर आये तो मम्मी घर पर नहीं मिलीं ।मम्मी सौरभ को दवा दिलवाने गई थी ,सौरभ कुछ दिनों से बीमार चल रहा था।

पाप ने मम्मी को डपटते हुए कहा था, "सारी दुनिया का ठेका तुम ही ने ले रखा है क्या?" मम्मी रसोई में सुबक रही थी और बड़ बड़ा रही थीं, "किसी की थोड़ी मदद कर दो तो क्या हर्ज है।"हम भाई बहिन बुरी तरह से सहम गए थे। कभी मम्मी सही दिखाई देती थीं तो कभी पापा।मम्मी ने सौरभ की मदद करना छोड़ा नहीं था। हाँ,जब पापा घर में होते थे तब उन्हें ,सौरभ की मदद करने में थोड़ी हिचकिचाहट रहती थी।

धीरे धीरे हम भाई बहन भी पापा के ही रंग में रंग गए। हम को ऐसा लगता था कि मम्मी हम से अधिक ध्यान सौरभ का रखती है।

हमें सौरभ से ईर्ष्या होने लगी थी। जब भाई के कुछ पुराने कपड़े मम्मी ने भाई को बिना बताए सौरभ को दे दिए और उसका अंदाजा हम भाई बहिनो को लग गया तब तो बस मम्मी के विरुद्ध गुप् चुप हम भाई बहिनों की पंचायत बैठने लगी। क्या हो गया है ,मम्मी को ? गैर के लिए कोई इतना करता है क्या?

एक दिन रसोई घर से बेसन भुनने की खुशबू आ रही थी, मैंने मम्मी से पूछा, “क्या बन रहा है?” मम्मी ने जवाब दिया, “अरे उस बिचारे के लिए दो लड्डू बना रहीं हूँ। “

बेचारा कौन, वो सौरभ ? बोलते हुए एक अगन सी मेरे शरीर में दौड़ गई।

मम्मी ने कहा, “ हाँ अपनी माँ को बहुत याद कर रहा था।”

“तो गॉंव क्यों नही लौट जाता?” मेरा स्वर बिल्कुल रूखा हो गया था।”

लेकिन मम्मी के आगे हमारी कहाँ चलती थी।

मम्मी ने लड्डू का बर्तन सौरभ को पहुंचाने को दे दिया।

मैंने भाई को आवाज लगाई,,’चलो भैया सौरभ महाराज को लड्डू देने चलते हैं। “

एक शाम मम्मी पेड़ पौधों में पानी डाल रही थीं, पिछली गली की मिसिज़ मल्होत्रा से मम्मी की दुआ सलाम हुई और फिर सौरभ के बारे में बात छिड़ गई।

मिसिज़ मल्होत्रा ने भी मम्मी की ऐसी मदद पर आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने तो मम्मी को पूरी तरह से उससे दूर रहने के लिए कहा कि अकेला लड़का है।घर बार का पता नही औऱ तुम्हारे घर में लड़कियाँ हैं। उससे मेल मिलाप रखना सही नही।

मम्मी उनकी बातों को ठुकराते हुए बोलीं ,” मैंने भी दुनिया देखी है। अच्छा बुरा पहचानती हूँ।”

लेकिन चारों ओर से विरोधी स्वर उठने लगे तो मम्मी टूट गई और एक दिन सुबकते हुए बोलीं ,”सबको बुरा लगता है तो नहीं करूँगी उसकी मदद।

क्या स्वार्थी ज़माना आ गया किसी को किसी की मदद करने पर भी ईर्ष्या होतो है।’

अब मम्मी सौरभ के सामने पड़ने से कतराने लगीं। शाम को जिस समय उसे चाय पिलाती थी, अब उस समय बाज़ार में सब्जी लेने निकल जाती थी।

रविवार के दाल भात उसके घर पहुचाने बंद हो चुके थे। बचे हुए खाने को देख मम्मी बडबडाती अवश्य थी।

“इतना खाना रोज़ बचता है, फैकने में जाता है,किसी ग़रीब को मिल जाये तो क्या बुराई है।’’

सौरभ हमारे घर के सामने से निकलता तो उसकी निगाहें मम्मी को तलाशती रहती थीं।

एक दिन वह मम्मी से मिलने घर पर आया। पापा भी घर पर थे ।उसने पूछा, ‘आजकल आंटी दिखाई नहीं देती?”

मम्मी ने जवाब में कहा, “ हाँ बेटा! आजकल मेरी तबियत ठीक नही रहती है।”

सौरभ स्वाभिमानी था, वह शायद समझ गया था कि तीन महीने से रोज शाम की चाय , किराया माँगना, खाना पीना हमें खलने लगा है। उस दिन मम्मी ने उसे चाय पिलाने के लिए बहुत रोकना चाहा , पर वह नहीं रुका।

अब सौरभ कम ही नज़र आता था। कब ऑफिस जाता कब वापिस आता पता ही नहीं चलता था।

शहर की ज़िंदगी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही।

शहर के एक कोने में पड़ी हुई सिसक रहीं थीं, गाँव से शहर पहुँची कुछ आशाएँ औऱ उम्मीदें। गाँव में ग़रीबी है लेकिन मानवता अभी ज़िंदा है।

शहर में लगता है केवल ज़िंदा लाशें दौड़ रही है।

कुछ दिन सौरभ का घर बंद रहा । एक दिन मालिक मकान ने किराया वसूलने के लिए दरवाजा खटखटाया तो कोई जवाब नही मिला। दरवाजा तुड़वाया गया।

अंदर का नजारा देख सब की आंखें फटी की फटी रह गई। सौरभ फर्श पर गिरा हुआ था और उसके सिर से खून बहकर फर्श पर सूख भी चुका था।

पुलिस पोस्मार्टम के लिए सौरभ को ले गई।

कंपनी से मिले मोबाइल को पड़ताल के लिए ले जाया गया।

अपने दोस्तों के साथ पिछले दिनों जो सौरभ ने चैट की थी उसे पढ़कर सब सन्न रह गए।

सौरभ को चार महीने से वेतन नहीं मिला था , वह पिछले दस दिनों से केवल दो बिस्किट प्रतिदिन खाकर जी रहा था।ऑफिस का बॉस उससे जमकर काम करवा रहा था।

इस जवाब में किसी दोस्त ने दुखी चेहरा बना कर भेजा था तो किसी ने यह कह कर मजाक उड़ा रखा था,”चलो अच्छा है डा’इटिंग हो जाएगी।’

किसी ने ‘सो सेड’ का इमोजी लगा कर अपनी ज़िम्मेदारी समाप्त कर दी थी।

किसी ने हँसी का इमोजी लगाकर लिखा था, ‘मंदिर के बाहर कटोरा लेकर बैठ जा।’

किसी दोस्त ने नोट की गड्डी का चित्र भेजा, जिस पर लिखा, ‘ले मौज कर ले।’

किसी दोस्त ने करोड़ रुपए का नकली चेक चित्र रूप में भेजा था। ‘ले यार मैंने तुझे करोड़पति बना दिया।”

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि सौरभ शारीरिक कमजोरी के कारण चक्कर खा कर गिर गया था।

मम्मी बिलख कर रो रहीं थीं। हम बहन भाई एक कोने में अपराधी की भांति खड़े थे। हम हत्यारे हैं सौरभ के।

हम ने बिना खंजर हाथ में उठाये हत्या कर दी थी ,उस नवयुवक की।

मन में निरंतर चिंतन बना रहा। बिना खंजर के हत्यारों की सूची में औऱ नाम जुड़ते चले गए।

क्या शहर के पढ़े लिखे लोग , उसके फर्म के मालिक से मिल कर उसका वेतन भुगतान करने का दबाव नही डाल सकते थे?

किसी भी दोस्त ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। फिर ऐसी दोस्तों की भीड़ भाड़ रखने से क्या फायदा।

समाज का वो वर्ग जो मंदिरों में तो चढ़ावा बड़ी शान से चढ़ाता है, लेकिन उन्हें इंसानों के बीच छिपा ईश्वर दिखाई नहीं देता।

सबसे बड़े हत्यारें है लड़कियों पर बुरी दृष्टि रखने वाले जिनके के कारण हर नवयुवक संदेह के घेरे में खड़ा हो जाता है।

मम्मी ने सौरभ की मदद करना तभी बन्द किया जब मिसिज़ मल्होत्रा ने उनको यह कह दिया था, ‘आप के घर में लड़कियां है और सौरभ का क्या भरोसा।’

सौरभ के बारे में सोच कर मन बहुत दुःखी था। गॉंव में उसके माँ बाप को केवल इतना कहकर बुलाया गया कि सौरभ बीमार है।

अगली सुबह एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति हमारा घर खोजता हुआ आ पहुंचा, उसने अपने सिर से उतारकर एक पोटली हमारे आंगन में रख दी जिसमें कुछ किलो चावल और गुड़ की भेलियाँ थी। हम ने अंदाज़ा लगाया कि वह शायद सौरभ के पिता है। हमारा अनुमान सही था।

वह हॅंसते हुए बोले, ’सौरभ ने कहा था जब शहर आओ तो शर्मा आंटी के लिए कुछ ले आना, वो बहुत अच्छी महिला हैं। माँ की तरह मेरी देख भाल करती हैं। अरे, सौरभ बीमार पड़ गया तो क्या हुआ ,आप सब हैं तो सही उसकी देख भाल के लिए, ठीक हो जाएगा।

मम्मी फ़ूट फूट कर रो पड़ीं।

हम सब की निगाहें शर्म से झुक गईं।

ऐसा लग रहा था कोई हमें चीख चीख कर कह रहा है, ‘बिना, खंजर के हत्यारे।’

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