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आसपास चोपास - 1 ( True Story Series Hindi)

आसपास चोपास

(सत्य घटना पर आधारित कथाएं)

( 1 )

अनुक्रमणिका

1 - एक थी माया ....!!! - विजय कुमार

2 - एक रात - सोनु कसाना

3 - छोटी लड़की की सीख - Abhishek Hada

4 - जाने वाले ज़रा होशियार - डा. मुसाफिर बैठा

***

1 - एक थी माया ....!!!

विजय कुमार

:::: १९८० ::::

::: १ :::

मैं सर झुका कर उस वक़्त बिक्री का हिसाब लिख रहा था कि उसकी धीमी आवाज सुनाई दी, "अभय, खाना खा लो",मैंने सर उठा कर उसकी तरफ देखा, मैंने उससे कहा," माया, मै आज डिब्बा नहीं लाया हूं ।" दरअसल सच तो यही था कि मेरे घर में उस दिन खाना नहीं बना था । गरीबी का वो ऐसा दौर था कि बस कुछ पूछो मत । जो मेरे पढने का वक़्त था, उसमे मैं उस मेडिकल शॉप में सेल्समेन का काम करता था ।

वो सामने खड़ी थी । मैंने उसे गहरी नज़र से देखा । वो एक साधारण सी साड़ी पहने हुई थी । जिस पर नीले रंग के फूल बने हुए थे। पता नहीं उस साड़ी को कितनी बार धोया जा चूका था, उन नीले फूलो का रंग भी उतर सा गया था । उसने मुस्करा कर कहा " मेरे डिब्बे में थोडा सा खाना तुम्हारे लिए भी है । चलो खाना खा लो, लंच का समय है"। मैंने हंसकर कहा, " अच्छा ये बताओ कि, तुम्हारे डिब्बे में मेरे लिए कब से खाना आने लगा ।"

उसने कुछ नहीं कहा, बस मुस्करा कर अन्दर के कमरे में चली गयी । मैंने भी हिसाब किताब बंद किया और उस कमरे में चल दिया जहाँ उस मेडिकल शॉप के दुसरे बन्दे भी बैठकर दोपहर का खाना खा रहे रहे थे। उसने डब्बा खोला । कुल मिलाकर उसमे चार रोटी, आलू प्याज की सब्जी, और एक अचार का टुकड़ा था । उसने डब्बे के कवर में मुझे तीन रोटी और कुछ सब्जी दी, खुद एक रोटी, सब्जी और अचार के साथ खाने लगी ।

मैंने कहा, " ये क्या माया, एक रोटी से क्या होंगा," उसने कहा, "मैं बहुत कम खाती हूँ, अभय" मैंने ध्यान से उसे देखा । उसके चेहरे में कोई आकर्षण नहीं था, पर वो अच्छी दिखती थी या हो सकता है कि उस दौर में या उस वक़्त में, ये सिर्फ उस उम्र का आकर्षण था, पर कुछ भी हो उसमे कुछ अच्छा लगता था मुझे । डब्बे का खाना खत्म हो गया था और दूकान मालिक की आवाज आ रही थी, चलो सब काम पर लगो, ग्राहक आ रहे है ।

::: २ :::

मेरा नाम अभय है और उस वक़्त, मेरी उम्र करीब २२ साल थी। मैं कामर्स विषय में डिग्री की पढाई कर रहा था, साथ में ये नौकरी भी । घर के हालात कुछ अच्छे नहीं थे । इसलिए नौकरी करना जरुरी था । सो सुबह कॉलेज जाता था और दोपहर में कॉलेज से सीधा इस दूकान में आ जाता था, जिसमे मैं सेल्समन की नौकरी करता था। करीब रात के ८ बजे तक यहाँ नौकरी करता था और फिर नए सपनो की उम्मीद में मैं अपने घर चला जाता था। माया को हमारी दूकान में आये करीब १ महीना हो गया था । वो यहाँ पर अकाउंटेंट का काम करती थी । उसकी उम्र मुझसे ज्यादा ही थी । रोज वो साइकिल से आती और चुपचाप अपना काम करती और चली जाती, कभी भी किसी से कोई ज्यादा बात नहीं करती थी, दुकान मालिक ने जो कहा उसे सुन लिया। वो एक दुबली पतली सी लड़की थी और उसके रख - रखाव से जाहिर था कि वो भी गरीब थी । वो भी का मतलब ये था कि मैं भी गरीब ही था । मैं स्लीपर पहनता था । सिर्फ दो पेंट थी । और चार शर्ट, बस उसी से गुजारा चलता था। इस मेडिकल शॉप में मैं सेल्समेन था । मन में कल के लिए सपने थे लेकिन राह नज़र नहीं आती थी । यूँ ही ज़िन्दगी गुजर रही थी । उन दिनों मुझ जैसे गरीब आदमी के सपने और ख्वाइशे भी छोटी ही होती थी ।

::: ३ :::

धीरे धीरे माया से मेरी दोस्ती हो गयी । और बीतते हुए समय के साथ ये दोस्ती और गहरी होती चली गयी । उसको मुझमे कुछ अच्छा लगने लगा और मुझे उसमे कुछ । मुझे लगा कि ये प्यार ही था । उस वक़्त प्यार शब्द भी अच्छा लगता था और उसका अहसास भी । खैर,ज़िन्दगी कट रही थी । दोपहर से शाम तक काम और सिर्फ काम, दुनियादारी की दूसरी बातो के लिए समय नहीं मिलता था । कभी कभी काम के इन्ही मुश्किल और न ख़त्म होने वाले पलो में हम एक दुसरे की ओर देख कर मुस्करा लिया करते थे। हाँ वो ज्यादा मुस्कराती नहीं थी । पर मुझे अच्छी लगती थी ।

हम अक्सर बाते कर लेते थे । उसने मुझे बताया कि वो अपने पिता और दो छोटे भाई बहन के साथ रहती थी । कॉमर्स में उसने ग्रेजुएशन किया था और पढाई के तुरंत बाद ही नौकरी करने लगी थी, क्योंकि उसके पिता के पास कोई रोजगार नहीं था और अब सारे परिवार की जिम्मेदारी उस पर ही थी । बस नौकरी और घर, इन दोनों के सिवा उसकी ज़िन्दगी का कोई ओर मकसद नहीं था । पर उसकी ज़िन्दगी में शायद अब मैं भी था ।

गुजरते दिनों के साथ मैं उसके और करीब आने लगा था, मुझे वो अब और ज्यादा अच्छी लगने लगी थी । उसकी मेहनत, उसका भोलापन, उसकी ज़िन्दगी को जीने की जुस्तुजू और अपने परिवार के लिए उसकी अपनी खुशियों का गला घोंट देना मुझे बहुत अपना सा लगने लगा था। क्या ये प्यार था? आज सोचता हूँ तो उन अहसासों के कई नाम थे, पर मुझे लगता है कि उस वक़्त वो सिर्फ प्यार ही था।

::: ४ :::

दूकान के मालिक ने दिवाली की ख़ुशी में सबको उपहार दिए। मैंने धीरे से अपना उपहार भी उसके बैग में डाल दिया, उसने ये देखकर मुझसे कहा, “देखो ऐसा न करो, मेरी अपनी खुद्धारी है, सिर्फ वो ही अब मेरे पास बची रह गयी है, उसे तो न छीनो।“ मैंने उससे कहा “ऐसी कोई बात नहीं है, बस इस उपहार का मैं क्या करूँगा? हाँ, अगर ये तुम्हारे काम आया तो मुझे अच्छा लगेंगा। देखो, मना मत करो, इसे रख लो।“ उसने बहुत मना किया, पर मैं भी नहीं माना और उसे अपना भी उपहार दे दिया । उपहार लेते समय उसकी आँखे भर आई । उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा । सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा ।

::: ५ :::

समय बीतता रहा, मेरी तनख्वाह बढ़ी । जब नयी तनख्वाह मिली तो मैंने माया से कहा कि उसे मैं पार्टी देना चाहता हूँ । वो हंस दी । उसने कहा कि उसने मेरे लिए एक शर्ट खरीदी है । क्योंकि मेरा जन्मदिन नजदीक आ रहा था, तो दोनों बातो को एक साथ ही सेलिब्रेट करे। मैंने भी कहा, हां ये ठीक है । और हंसकर अपनी अपनी साइकिल से वापस घर की ओर चल दिये।

माया मेरे मोहल्ले से करीब किलोमीटर दूर रहती थी । हमारे घरो को अलग अलग करने वाला एक मोड़ था । उस पर आकर हम रुकते थे और अपनी अपनी राह पर चल पडते थे, दुसरे दिन फिर से मिलने के लिये। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ । हम रुके, माया से मैंने कहा कि कल मिलते है । और कल दोपहर का खाना कहीं बाहर खा लेंगे, तुम डब्बा नहीं लाना । माया ने मुस्करा कर हां कहा । मुझे पता नहीं पर क्यों उसकी भोली सी मुस्कराहट बहुत अच्छी लगती थी ।

दुसरे दिन माया नहीं आई । मैं पहली बार परेशान हुआ । कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । उन दिनों फ़ोन की सुविधा भी ज्यादा नहीं थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आई? जैसे तमाम सवाल मन में उमडने लगे। शाम को मैं जल्दी ही निकल पड़ा और अपनी साइकिल से उसके घर तक गया, उसने मुझे एक बार अपने घर का पता बताया था। घर पहुंचा, वो एक छोटा सा घर था, शायद सिर्फ दो कमरों का ।

मैंने दरवाजे की सांकल खड़खड़ायी, दरवाज खुद माया ने ही खोला मुझे देख कर चौंक सी गयी । मैंने पुछा क्या हुआ, दूकान क्यों नहीं आई । उसका चेहरा उदास था उसने कुछ नहीं कहा, बस अन्दर आने का इशारा किया । घर के भीतर गया तो देखा कि एक चटाई है और उसपर उसके पिताजी और दोनों भाई बहन बैठे हुए है, सभी उदास। उसके पिताजी मुझे जानते थे, वो एक दो बार दूकान पर भी आये हुए थे, तब मुलाक़ात हुई थी । मैंने उन्हें नमस्ते की और बच्चो से उनकी पढाई के बारे में पूछा

फिर माया से पूछा कि वो दूकान पर क्यों नहीं आई तो पता चला कि कल जो तनख्वाह माया को मिली थी वो रास्ते में साइकिल से उसके बैग सहित गिर गयी, जब तक वो उतर कर वापस जाती वो बैग ही गायब हो चूका था। उसने शाम को पूरे तीन चक्कर लगाए घर से ऑफिस और ऑफिस से घर, पर बैग को न मिलना था और वो न मिला । मेरी जेब में कल की मिली हुई तनख्वाह का करीब आधा हिस्सा बचा था। वो मैंने निकाल कर उसके हाथ में रख दिया । उसने आँखे भर कर मुझे देखा । मैंने कहा, " कुछ न कहो, बस ले लो । मुझे अच्छा लगेंगा । " उसके पिताजी ने मुझे देखकर हाथ जोड़ दिए । मैंने उनके हाथो को अपने हाथो में ले लिया और दोनों बच्चो के सर पर हाथ फेरकर बाहर निकल गया । उस दिन मुझे फिर से बहुत अच्छा लगा । सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा ।

::: ६ :::

हम अक्सर यूँ ही मिलते रहे। ऑफिस में, राह में, बस यूँ ही । कभी कुछ भी कहा नहीं एक दुसरे से, बस मिलते रहे । और एक दुसरे को देखते रहे। कई बार बहुत कुछ कहने को हुआ, पर कह नहीं पाए । वो मुझे देखती और मैं उसे देखता । बस दिन यूँ ही गुजर जाते । बीच में उसका एक जन्मदिन आया ।, मैंने उसे एक छोटा सा लॉकेट दिया । जिसमे चांदी से अंग्रेजी में "A" बना हुआ था । उसने मुझे कहा कि वो ये लॉकेट हमेशा अपने पास रखेंगी । ज़िन्दगी के दिन बीतते गए । मुझे मेरे दोस्त दुसरे शहर में अक्सर बुलाते रहे, ताकि मैं एक बेहतर नौकरी कर सकू ; लेकिन मैं कभी नहीं गया, एक तो मुझे दुसरे शहर में जाकर बसना, इस बात से ही डर लगता था और दूसरा मुझे माया से अलग नहीं रहना था।

::: ७ :::

उस दिन शिवरात्री थी । वो शिव की पूजा करती थी । कुछ ज्यादा ही पूजा करती थी । मैंने उससे पूछा, "क्यों इतनी ज्यादा पूजा करती हो शिव की ", उसने कहा, "शिव भगवान की पूजा करने से अच्छा पति मिलता है । बिलकुल तुम्हारे जैसा ।" ये कहकर वो शर्मा गयी । मैं भी शर्मा गया । उसने कहा,"आज मैं डिब्बे में साबुदाने की खिचड़ी लायी हूँ । आओ, खाना खा लो । " हमने लंच में साबुदाने की खिचडी खाई, फिर उसने कहा कि वो शिव मंदिर जा रही है । मुझे भी साथ आने को कहा । मैं भी चल पड़ा, मैं बहुत ज्यादा भगवान को नहीं मानता था, पर ठीक है चलो... मंदिर चलो ।

शिव मंदिर में भीड़ थी । वो मंदिर शहर के एक पुराने तालाब के किनारे बना हुआ था। उसने पूजा की और हम दोनों तालाब के किनारे जाकर बैठ गए। शाम गहरी होती जा रही थी । कुछ देर में अँधेरा छा गया । अब कुछ इक्का दुक्का लोग ही रह गए थे, वो मुझसे टिक कर बैठी थी । हम चुपचाप थे। पता नहीं क्या हुआ, मैंने उसका हाथ पकड़ा। उसने कुछ नहीं कहा। मुझे कुछ होने लगा । फिर मैंने उसका चेहरा थामा अपने हाथो में और धीरे से उसके होंठो को छुआ । वो ठन्डे से थे। मैंने तुरंत उसका चेहरा देखा, वो मेरी ओर ही देख रही थी । मैंने कहा कि मुझे शायद उससे प्रेम हो गया है । उसने धीरे से कहा कि वो मुझसे प्रेम करती है । मैंने फिर उसका चेहरा छुआ । वो फिर से ठंडा ही लगा । मैंने सकपका कर पुछा, "माया तुम्हे कुछ नहीं होता" उसने सर उठा कर पुछा, "मतलब ?" मैंने पूछा कि तुम कुछ रियेक्ट ही नहीं कर रही है । "तुम ऐसी क्यों हो?" उसने सर झुका लिया, उसकी आँखे गीली हो गयी । उसने धीरे से कहा, "अभय, मैं ऐसी ही हो गयी हूँ। मेरा जीवन, मेरी गरीबी और मेरे घर के हालात, सबने मिलकर मुझे ऐसा बना दिया है । मेरे मन में किसी के लिए कोई भावना नहीं उमड़ती है "। मैंने कुछ नहीं कहा । बस चुप रह गया । बहुत देर तक हम दोनों में ख़ामोशी रही । फिर पुजारी ने आकर कहा कि मंदिर बंद हो रहा है, अब हम जाए । हम दोनों चुपचाप बाहर की ओर निकले और अपनी अपनी साइकिल उठायी और चल दिए मैंने उसे उसके घर तक छोड़ा, हम दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा ।

::: ८ :::

दुसरे दिन माया ने मुझसे कहा, "आज तुमसे कुछ बाते करनी है ।" मैंने कहा,"हाँ कहो न ।" उसने कहा, "वहीं उसी मंदिर में चलो।" हम दोनों फिर उसी मंदिर में उसी जगह जाकर बैठ गए । उसने मेरा हाथ पकड़ा। शाम हो रही थी। सूरज डूब रहा था, तालाब के उस किनारे और हम दोनों बैठे थे इस किनारे।

उसने कहा, " देखो अभय । आज मैं तुमसे जो कहने जा रही हूँ सुनकर तुम्हे अच्छा नहीं लगेंगा, पर यही सच है और यही हम दोनों के लिए अच्छा होंगा ।" मैं चुप था। उसने कहा, "मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करते हो और मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ," ये कहकर उसने मेरा हाथ दबाया । मैं थोडा सा आश्वस्त सा हुआ। फिर उसने कहा," लेकिन हम शादी के लिए नहीं बने है ।" मुझे एकदम से सदमा सा लगा। माया ने कहा, "देखो, तुम्हे अगर लगता है कि हम दोनों बहुत अच्छे पति -पत्नी साबित होंगे तो ये तुम्हारी ग़लतफ़हमी है । शादी के कुछ दिनों या महीनो के बाद तुम अपने प्रेम को खो दोंगे और यही से तुम और मैं अलग अलग होते चले जायेंगे ।" मैंने एकदम से कहा, "ये तुम क्या कह रही हो माया और कैसे कह सकती हो ; ये सच नहीं है ।" माया ने कहा, मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है अभय तुम बहुत अच्छे इंसान हो अभय और मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे भीतर का ये इंसान जीते जी ही मर जाए ।" मैंने कहा, "नहीं माया ऐसा कुछ नहीं होंगा । बस कुछ दिनों की ही बात और है, फिर एक नयी नौकरी के साथ ही सब कुछ ठीक हो जायेंगा । हम शादी कर लेंगे ।"

माया ने कहा, "तुम समझ नहीं रहे हो, मैं अपने पिताजी और छोटे भाई बहन को नहीं छोड़ सकती हूँ । मेरा जीवन उन्ही के लिए है ।" मैंने कुछ रुकते हुए कहा, "मैं कुछ दिन इन्तजार कर लूँगा ।" माया ने मेरा चेहरा हाथ में लेकर कहा कि "नहीं अभय, तुम इस इन्तजार को नहीं सह पावोगे और अगर हमने जल्दबाजी में शादी कर भी ली तो, सब कुछ थोडे ही दिनों में ख़त्म हो जायेंगा। मैं तुम्हे और तुम्हारी अच्छाई को ख़त्म होते नही देख सकती।"

मेरी आँखे भीग गयी । माया ने कहा, "देखो हम दोनों हमेशा ही अच्छे दोस्त रहेंगे और प्रेम तो है ही, तुम्हे प्रेम में, मेरा ये शरीर भी चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है । लेकिन मैं तुम्हे कभी भी ख़त्म होते नहीं देख सकती हूँ और अगर हमने शादी की तो दुनिया की दुनियादारी तुम्हारे प्रेम को ख़त्म कर देंगी, मैं ये जानती हूँ । "

मैंने एक अनजानी सी आवाज में पुछा, " तुम बहुत देर से मेरे प्रेम और मेरे ही बारे में बात कर रही हो, क्या तुम्हारा प्रेम कभी ख़त्म नहीं होंगा?

माया ने मुस्कराकर कहा,"नहीं मेरे अभय, मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कभी भी खत्म नहीं होंगा । तुम देख लेना । मैं खुद को भी जानती हूँ और तुम्हे भी ।"

मैंने गुस्से में कहा, "तुमने ये बात कैसे कह दी कि मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए?" माया ने कहा,"मैं जानती हूँ कि तुम्हे नहीं चाहिए पर अगर तुम्हारे भीतर मौजूद पुरुष को चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है। मैंने सिर्फ हम दोनों के बीच में मौजूद प्रेम की बात की है। "

मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, मुझे कुछ समझ भी नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करूँ कि कहीं कोई समस्या न रहे । पर गरीबी अपने आप में बहुत बड़ी समस्या होती है ये मुझे उस दिन ही पता चला । मुझे अपने आप पर, अपनी गरीबी पर उस दिन पहली बार गुस्सा आया और बहुत ज्यादा आया और मैं भीतर तक टूट गया । मेरी ज़िन्दगी का पहला सपना ही बिखर रहा था ।

मैं गुस्से में चिल्ला बैठा, " मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, न तुम, न तुम्हारा प्रेम और न ही तुम्हारा शरीर ।" और मैं उसे छोड़कर चल दिया, वो मुझे पुकारती ही रह गयी । और मैं चला गया ।

उस दिन मैंने पहली बार शराब पी, घर में चिल्लाता हुआ घुसा । माँ से कहा, अब मैं शहर चला जाऊँगा, यहाँ नहीं रहना है मुझे, दुनिया ख़राब है, ये ऐसा है, वो वैसा है, पता नहीं क्या क्या बकते हुए मैं नींद के आगोश में चला गया ।

दुसरे दिन मैं दूकान नहीं गया । मैंने बहुत सोचा, मुझे कोई समाधान नहीं मिला । गरीबी का कोई तुरंत समाधान नहीं होता, ये बात भी मुझे उसी वक़्त पता चली। मैं तीन दिन दूकान नहीं गया, माया भी नहीं मिलने आई। मैं तीसरे दिन दूकान पहुंचा तो पता चला कि माया ने नौकरी छोड़ दी है। इस बात से मुझे बड़ा धक्का लगा। मैं शाम को उसके घर पहुंचा । वो घर पर नहीं थी मैंने उसका इन्तजार करता रहा। उसके पिताजी ने कहा कि उसे कोई दूसरी नौकरी मिल गयी है। ये सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। थोड़ी ही देर में माया आ गई। मुझे देखकर उसने ख़ुशी से कहा, “चलो अच्छा हुआ तुम आ गए, तुम्हे एक खबर सुनानी थी।“ मैंने गुस्से में कहा, “मुझे मालूम है। मैं चलता हूँ।“ माया ने कहा, “ अरे बाबा, रुको तो, तुम तो हमेशा ही गुस्से में रहते हो थोडा शांत भी हो जावो, अच्छा बैठो।” फिर उसने मुझे चिवडा खिलाया और फिर मुझे साथ लेकर बाहर आ गयी। उसने बड़े गंभीर स्वर में कहा, “देखो अभय अगर मैं वहां रहती तो न तुम काम कर पाते और न ही मैं । हम दोनों का जीवन ही खराब हो जायेंगा इसलिए मैंने दूसरी जगह नौकरी कर ली है । हम अब हफ्ते में एक बार मिलेंगे दोनों का मन ठीक रहेंगा और हम दोनों की दोस्ती और प्रेम भी जिंदा रहेंगा ।” मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा, कुछ नहीं कह पाया. मेरी आँखों में आंसू आ रहे थे । थोड़ी देर तक मैं उसका हाथ थामे बैठा रहा, कुछ देर बाद मैं चुपचाप चला आया !

::: ९ :::

मैं करीब एक हफ्ते दूकान पर नहीं गया बहुत सोचा, फिर लगा कि माया की सोच ठीक है । हमें अभी जीवन को और सुदृढ, कल को और अधिक मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी, नौकरी भी चलने लगी, हफ्ते में एक दिन माया से मिलता,बहुत सी बाते करता और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते हुए देखता रहा।

लेकिन, जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं होंगा, जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे, वो बार बार बुला रहे थे, माँ भी कह रही थी कि दुसरे शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में मैं भटक रहा था, अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था । माया भी अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते, वो बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी

वो मेरे कॉलेज का आखरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी नौकरी मिल जायेंगी रिजल्ट निकला, मैं पास हो गया था अब कुछ नया करने का समय आ गया था

::: १० :::

उस दिन शिवरात्रि थी । मुझे मालुम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएँगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएँगी। मैंने कहा, " मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा ।" दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ मैं उसे मिलता था । आज भीड़ थी, मैं मंदिर के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया । धीरे धीरे शाम हो रही थी । अचानक माया की आवाज आई, "लो तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हे सारे मंदिर में ढूंढ रही हूँ ।" मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा "अरे बाबा, यही तो अपनी जगह है ।" वो पास आकर बैठ गयी । उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे नमस्ते की मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया । माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा । मैंने मुस्करा कर कहा, "तुम जानती हो, मैं भगवान को नहीं मानता । तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ ।" उसने कहा, "देखना, एक दिन तुम, इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोंगे ।" मैं मुस्करा दिया थोड़ी देर बाद वो आई और मेरे पास बैठ गयी । उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा," इसमें तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडा है ।" मैंने हंसकर कहा "अरे तुम कब तक मेरे लिए डब्बा लाती रहोंगी?"

माया ने कहा, "जब तक मैं जिंदा हूँ, तब तक तुम्हारे लिए हर शिवरात्री को मैं ये डब्बा लाऊंगी ये वादा रहा ।" मेरी आँखे भीग गयी । मैंने कुछ नहीं कहा और डब्बे में रखा खाना बच्चो के साथ बांट कर खाने लगा।

माया ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ कर कहा, "अभय एक खबर है तुम्हे बताना है ।" मैंने कहा "बताओ ।"

माया ने बच्चो को वहां से हटाने की गर्ज से उन्हें खेलने भेज दिया और उसने मेरा हाथ पकड़ा, बहुत कसकर पकड़ा, मानो उसे छूट जाने का डर हो, फिर उसने मेरी ओर बहुत प्यार से, बहुत गहरी नज़र से देखते हुये कहा,"अभय मेरी शादी तय हो गयी आज ।"

मैं अवाक रह गया जैसे मुझ पर बिजली आ गिरी हो। मैं अजीब सी आँखों से माया को देखने लगा। माया ने कहा देखो, " हमने सोचा था कि हम एक दुसरे से शादी नहीं करेंगे ताकि हमारा प्रेम बचा रहे । और मुझे ये शादी करनी पड़ी। मैं शादी नहीं करनी चाहती थी, कभी भी नहीं और किसी से भी नहीं, ये बात तुम जानते हो। लेकिन मुझे परिवार के लिए ये शादी करनी पड़ेंगी।" मैं चुपचाप था। बहुत अजीब सा अहसास हो रहा था। दिमाग और दिल दोनों हवा में तैर से रहे थे। जो हमने तय किया था ये ठीक भी था कि हम दोनों एक दुसरे से शादी नहीं करेंगे ताकि हमारा प्रेम बचा रहे हमेशा ही, लेकिन माया की शादी किसी और से, ये मैं सहन नहीं कर पा रहा था। मैंने माया से गुस्से में पुछा, "ये क्या बात हुई, जब शादी ही करनी थी तो मुझसे कर लेती, मैं तो तैयार ही था?" माया ने शांत स्वर में कहा, "अभय, तुम समझ नहीं रहे हो, हम दोनों की सामाजिक परिस्थिति अलग अलग है । मैं तो खुश हो जाती तुमसे शादी करके, लेकिन तुम कभी भी खुश नहीं हो पाते ।"

मैं भड़क कर बोला "और तुम अब जो शादी कर रही हो, उससे तुम खुश हो ?" माया ने बहुत शांत स्वर में मेरा हाथ पकड़ कर कहा," अभय, मेरे लिए तुमसे बेहतर कोई और पुरुष नहीं । भगवान शिव की कसम । मैं ये शादी अपनी ख़ुशी के लिए नहीं कर रही हूँ, मैं ये शादी सिर्फ अपने परिवार के लिए कर रही हूँ, जिनकी जिम्मेदारी मुझ पर ही है । तुम मेरे साथ कभी भी खुश नहीं रह सकते थे। थोड़ी देर की ख़ुशी रहती और फिर ज़िन्दगी भर का चिडचिडापन ! तुम्हारे लिए हमारा प्रेम सिर्फ बोझ बनकर रह जाता । और हर बीतते हुए वक़्त के साथ तुम ख़त्म होते जाते। और मैं ये नहीं चाहती थी । मैं चाहती हूँ कि तुम जिंदा रहो, न कि सिर्फ शरीर में बल्कि, ज़िन्दगी के विचारों में, तुम बहुत अच्छे इंसान हो । इस दुनिया को, और बहुत सी माया और दुसरे इंसानों को तुम्हारी जरुरत है । मैं तुम्हे जीते हुए देखना चाहती हूँ । "

पता नहीं माया कि बातो में क्या था, मैं शांत होते गया । मैंने धीरे से कहा, "पर माया, हमारा प्यार उसका क्या ?" माया ने कहा, "प्यार कभी नहीं मरता अभय । वो तो हमेशा ही जिंदा रहेंगा । और हमारा प्यार तो कभी भी ख़त्म नहीं होंगा "

मैंने धीरे से पुछा, "तुम्हारे होने वाले पति के बारे में तो बताओ?" माया ने कहा,"तुम्हे उनके बारे में जानकार बहुत अच्छा नहीं लगेंगा, लेकिन जैसा कि मैंने कहा है ये शादी मैं सिर्फ अपने परिवार के लिए कर रही हूँ, तुम वादा करो कि तुम मुझे रोकोंगे नहीं ।" मैंने शक से उसे देखते हुए कहा, "क्या बात है माया, अगर तुम खुश न हो तो, क्यों कर रही हो ये शादी?" माया ने कहा, "मैंने बहुत पहले ही तुमसे कहा था अभय कि मैं अब मेरी ख़ुशी के लिए नहीं जीती हूँ । मेरे लिए मेरी ज़िन्दगी कि सबसे बड़ी ख़ुशी सिर्फ और सिर्फ तुम ही हो। तुम ही मेरे शिव का सबसे बड़ा प्रसाद हो । लेकिन मेरी किस्मत में तुम होकर भी नहीं हो ।" फिर माया चुप हो गयी । इतने में बच्चे आ गए । वो घर चलने की जिद करने लगे। माया धीरे से उठी, उठते समय मेरे हाथ से उसका हाथ नहीं छूट रहा था ।

मैं उसके साथ बाहर तक आया । मंदिर के बाहर आकर उसने मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में आंसू थे। उसने कहा, "अभय तुम मेरी शादी में मत आना। तुम सह नहीं पावोगे ।" पता नहीं मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । उसने मेरी तरफ देखा । मेरे होंठो को माया ने अपने दायें हाथ से छुआ और उस हाथ को अपने माथे पर, अपने सर पर, अपने दिल पर और अंत में अपने होंठो पर लगा दिया । उसने कहा, "अभय, हमेशा ही ऐसे अच्छे इंसान बनकर रहना । सोचना कि कोई माया थी जिसने तुम्हे ये कहा था ।" मेरी आँखे फिर भीग गयी । मैंने कहा,माया, मैं तुम्हे कभी भी भूला नहीं पाऊंगा ।”

उसने एक रिक्शा वाले को हाथ दिखाया । रिक्शा पास आकर रुका । रिक्शे में उसने बच्चो को बिठाया और मुझे देखा जी भर कर देखा । उसका दिल उसकी आँखों में साफ़ नजर आ रहा था। फिर उसने धीरे से कहा,"मेरे होने वाले पति विधुर है । उन्होंने वादा किया है कि वो मेरे पूरे परिवार की देखभाल करेंगे, जब तक सभी है, उन सभी का ख्याल रखेंगे । दोनों भाई बहनों को पढ़ाएंगे, उनका जीवन बनायेंगे, कभी भी कोई कमी नहीं होने देंगे । सबने पिताजी से और मुझसे कहा कि ये रिश्ता स्वंय भगवान ने भेजा है । वरना कौन आजकल किसी के परिवार को पालने की बात करता है? मैं भी मान गयी अभय, क्या करु । मेरा जीवन अभिशप्त सा जो है । पर मेरे लिए ये भी भगवान का ही प्रसाद है । मैं चलती हूँ, कल से ऑफिस नहीं जाउंगी, अगले हफ्ते शादी है । तुम शादी में न आना ।" कहकर वो रोने लगी ।

मैं पत्थर का बन गया था, उसके कहे हुए शब्द पारे की तरह मेरे कानो में बरस रहे थे । मेरी आँखों से आंसू बह रहे थे। वो रिक्शे में बैठने के लिए मुड़ी, फिर पता नहीं क्या हुआ, मुझसे लिपट गयी, झुक कर मेरे पैर छुए, पैरो की मिट्टी अपने सर पर लगाई और अपनी रुलाई को दबाते हुए रिक्शे में बैठ गयी और फिर चली गयी। मुझे लगा कि मेरा जीवन ही जा रहा है। मैं पागल सा हो रहा था । बहुत देर तक मैं वहीं खड़ा उसको रिक्शे में जाते हुये देखता रहा ।

कुछ देर में मंदिर की घंटियाँ बजने लगी, ये मंदिर के बंद होने का संकेत थी। मैं भीतर गया और भगवान को जी भर कर कोसा, मैंने कहा "इसीलिए मैं तेरी पूजा नहीं करता हूँ। तू है ही नहीं, तू इस दुनिया में अगर होता तो क्या ये होने देता?

इसी तरह का अनर्गल प्रलाप करते हुए और पता नहीं क्या क्या बोलते हुए मैं मंदिर में चिल्लाने लगा। पुजारी ने मुझे मंदिर के बाहर निकाल दिया।

मैं रोते कलपते हुए घर आ गया, मां से कहा, मैं ये शहर छोड़कर जा रहा हूँ, दूसरी नौकरी ढूंढता हूँ और फिर तुझे भी ले जाता हूँ, मैंने उसी रात वो शहर छोड़ दिया ।

:::: १९९२ ::

::: १ :::

बहुत बरस बीत गए । मैं अपने शहर को छोड़कर दुसरे शहर में नौकरी करने आगया और वहीं बस भी गया। बीतते समय के साथ मेरा भी एक छोटा सा परिवार बन गया । लेकिन फिर भी कभी कभी मुझे, माया की बहुत याद आ जाती, वो कैसी होंगी? उसका जीवन कैसा होंगा? लेकिन मुझे ये तृप्ति थी मन में कि जब मैं उससे अलग हुआ तो वो ज़िन्दगी में बस गयी थी, उसका परिवार बस गया था। मैं अक्सर सोचता था कि क्या वो मेरे लिए एक बेहतर जीवन संगिनी साबित होती? और भी कुछ इसी तरह की अनेकों बाते... जिनका अब कोई मतलब नहीं था ।

::: २ :::

फिर अचानक किसी काम के सिलसिले में मुझे अपने शहर जाना पड़ा। वहां पहुंच कर मेरे मन में सबसे पहली याद सिर्फ और सिर्फ माया की ही आयी थी। संयोगवश उस दिन शिवरात्री भी थी। जिस काम के सिलसिले में मुझे जाना पडा था, उसे पूरा करते करते मुझे शाम हो गयी थी, रात की गाडी थी वापसी के लिए और मैं एक बार माया से जरूर मिलना चाह रहा था। मेरे कदम खुद ब खुद उसके घर की तरफ मुड गये, अब वहां पर काफी कुछ बदल चूका था उसके घर की जगह अब वहां कोई और बिल्डिंग सी बनी हुई थी । मैंने वहां पर पूछा तो पता चला कि माया के पिताजी गुजर चुके हैं, उनके गुजरने के बाद माया और उसका पति, माया के दोनों भाई बहन के साथ कहीं और रहने चले गए हैं। कहाँ गए किसी को मालुम नहीं था मैं निराश होकर वापस लौट आया, रास्ते में मुझे तालाब के किनारे वाला वही मंदिर दिखाई दिया, आँखों में बहुत सी बाते तैर गयी । मेरे पास कुछ समय था, सो मैंने सोचा कि उसी मंदिर में बैठकर समय बिता लिया जाए

मैं मंदिर में गया और उसी कोने पर जाकर बैठ गया जहां कभी माया के साथ बैठा करता था। कुछ भीड़ थी, पर मैं वहीं जगह बनाकर बैठ गया और माया के साथ इस जगह बिताये हुये लम्हों को याद करने लगा । थोड़ी देर बाद मंदिर लगभग खाली सा हो गया मेरे दिमाग में बस यही चलता रहा कि माया कैसी होंगी? कहाँ होंगी?... कि तभी एक आवाज आई.... "मुझे मालुम था, तुम एक दिन यही मिलोंगे । " मैं चौंक कर पलटा और देखा तो, माया खड़ी थी । मैं बहुत चकित हुआ और प्रभु की लीला पर खुश भी [ शायद पहली बार प्रभु की महता को स्वीकारा था ]

मैंने माया को गौर से देखा । वो और भी उम्र दराज लग रही थी । उसके साथ उसके छोटे भाई और बहन भी थे, जो कि अब काफी बड़े हो गए थे, साथ में एक छोटा सा लड़का भी था । मैंने मुस्कराकर कहा, "आओ बैठो, तुम्हारी ही जगह है, तुम्हारा ही इन्तजार कर रही है ।" वो पास आकर बैठ गई । मैंने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया, उसने मेरा हाथ थामा और मेरी तरफ देखने लगी । मैंने कहा," कैसी हो माया " उसने कहा, "मैं ठीक हूँ और तुम ?"

"मैं भी ठीक हूँ ।" मैंने कहा । मैंने फिर उसके भाई बहन की तरफ इशारा करके पुछा, "ये दोनों ठीक है ? " उसने कहा, "हां अब तो अच्छी स्कूल में पढ़ते है ।" मैं चुप हो गया । फिर उसने उस छोटे लड़के की ओर इशारा करके कहा "ये मेरा बेटा है ।" मेरे मन में एक कसक सी उठी, फिर भी मैंने उसके बेटे की तरफ मुस्कराकर हाथ हिलाया ।

उसने पूछा, "तुम कैसे हो । शादी कर ली ?" मैंने कहा "हां, कर तो ली, पर सच कहूँ तो कभी कभी तुम्हारी बहुत याद आती है । और आज यहाँ इस शहर में आना हुआ तो तुम्हारे घर गया, तुम नहीं मिली तो इस मंदिर में आ गया । और देखो तुम मिल भी गयी । यह तो बस भगवान का करिश्मा ही है "

माया ने कहा," अच्छा तो अब तुम भगवान् को भी मानने लग गए हो?" मैंने कहा, " ऐसी कोई बात नहीं है बस ऐसे ही कह दिया, लेकिन तुमको यहाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई, सच मैं सबसे पहले तुम्हारे घर गया था लेकिन वहां तुम नही थी। वैसे आजकल रहती कहाँ हो?"

माया ने मुस्कराकर कहा, “सब बताती हूँ, बाबा, पहले भगवान के दर्शन तो कर लूं, नहीं तो मंदिर बंद हो जायेंगा " मैंने कहा जरूर, पहले दर्शन कर आओ ।

मैंने उसे देखा, वो बच्चो के साथ भीतर की ओर चली गयी और मैं तालाब के पानी को देखता रहा और माया के बारे में सोचते रहा ।

बस इसी सोच में था कि उसकी आवाज आई । "लो प्रसाद खा लो, और हाँ...कहते हुये उसने बैठते हुये अपने झोले से एक डब्बा निकाला, " कुछ लड्डू और चिवडा है तुम्हे पसंद था न? ये लो, खा लो ।" मैंने आश्चर्य चकित होकर पुछा, "तुम्हे पता था कि मैं आज मिलूँगा?” उसने कहा, मैं हर शिवरात्रि को तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडे का डब्बा लेकर यहां जरूर आती हूँ, यही सोचकर कि कभी तो तुम मिलोंगे... और देख लो....आज तुम मिल भी गए । "

मेरे गले में कुछ अटकने लगा। मेरी आँखे भी भर आई । माया ने मेरे आंसू पोंछते हुए कहा "अरे पागल अब भी रोते हो?" मैंने थोड़ी देर बाद पूछा, "तुम अपने बारे में बताओ, कैसी हो? कहाँ हो?" माया ने बच्चे को प्रसाद खिलाते हुए कहा, " शादी के कुछ दिन बाद ही बाबूजी नहीं रहे । मैं अपने भाई और बहन को लेकर अपनी ससुराल चली आई । कुछ दिनों बाद, मेरा बेटा हुआ । और फिर दो साल पहले ही वो गुजर गए, उन्हें दिल की बिमारी थी । जो कि बाद में पता चली ।" मेरी आँखों से फिर आंसू बहने लगे, हे भगवान इसे और कितने दुःख देंगा? माया कह रही थी," पर उन्होंने कुछ पैसा मेरे लिए रख छोड़ा था, मैंने उसी पैसे से एक किराने की दूकान खोल ली है और लोगो को डब्बा पार्सल भी बना कर देती हूँ । कुल मिलाकर, अब ज़िन्दगी की गाडी ठीक चल रही है । घर भी है, दूकान भी है, डब्बे का काम भी अच्छा चल रहा है, दोनों भाई बहन भी अच्छे से पढ़ रहे है । शिव भगवान की कृपा है ।" फिर वो चुप हो गयी । मैं भी चुप था, पता नहीं क्या सोच रहा था, मन में विचारों का अजीब सा झंझावात चल रहा था।

हम बहुत देर तक चुप रहे । रात गहरी हो गयी थी । पुजारी ने आकर कहा कि मंदिर बंद होने वाला है। माया ने कहा, "अच्छा अब चलती हूँ, अगली शिवरात्री को मिलना " मैं भी उठ खड़ा हुआ। मैंने यूँ ही पुछा,"माया मेरी याद नहीं आती क्या?" माया ने मुस्कराकर मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि, "ऐसा कोई दिन नहीं जब मैं तुम्हे याद नहीं करती हूँ पर तुम नहीं होकर भी मेरे पास ही रहते हो ।"

मैंने उसकी ओर गहरी नज़र से देखा, उसने कहा,"मैंने अपने बेटे का नाम अभय ही रखा है । इसलिए, हमेशा, घर में अभय के नाम की गूँज उठती रहती है ......."

मैं अवाक रह गया वो कहने लगी, "बेटा अभय, इनके पैर छुओ ।" और जब वो छोटा अभय झुका तो उसके गले में से बाहर की ओर एक लॉकेट लटक गया . मैंने उसे पहचान लिया . वो मेरा माया को दिया हुआ लॉकेट था जिसमे "A" लिखा हुआ था; मेरी आँखे आंसुओ से भर गयी, धुंधला गयी और उसी धुंध में माया एक बार फिर चली गयी ।

::: ३ :::

मेरी आँखों में आंसू थे । पुजारी फिर मेरे पास आया । वही पुराना पुजारी था, जिसने हमारे प्रेम की शुरुवात और अलग होना देखा था ; उसने मुझे और मैंने उसे पहचान लिया था । उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा । मैं अकेला ही था, मैंने मंदिर को देखा और फिर धीरे धीरे मेरे कदम भगवान शिव की मूर्ती की ओर बडे। और मैंने पहली बार भगवान को हाथ जोडे। मेरी आँखों में आंसू थे और मैं भगवान को पूज रहा था और कह रहा था कि वो जो भी करता है अच्छा ही करता है । और हाँ भगवान है

मैं भागते हुए मंदिर के बाहर आया और दूर अँधेरे में माया को खोजने की नाकाम कोशिश की ...पर वक़्त और माया दोनों ही रेत की तरह हाथ से निकल गए थे .....!

मैं वापस चल पड़ा.

आज भी ज़िन्दगी में जब उदास और अकेला सा महसूस करता हूँ तो बस यही सोचता हूँ कि माया है कहीं ...... और मैं एक आह भरकर अपने आप से कहता हूँ एक थी माया ......!!!

***

2 - एक रात

सोनु कसाना

हम सब की जिंदगी में कभी ना कभी कई ऐसी घटनाएं होती हैं जो हमारी स्मृति पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं । ऐसी ही एक घटना ।

घर पर बच्चों (जुड़वा) के जन्मदिन की पार्टी की तैयारीयां चल रही थीं । खूब चहल पहल थी । मैं महमानो की आवभगत में लगा हुआ था । सारा काम अच्छे से चल रहा था । महमान आ रहे थे कुछ जरुरी काम होने के चलते वापस भी जा रहे थे । कुछ केक के लिए रुके हुए थे । हम सब ने मिल कर केक काटा । सब ने खाया । चारों और खुशी का माहौल था । जो चंद महमान खाना खाए बिन रह गये थे उन्हे भी खाना खिला दिया गया । अब घर वालें ही रह गये थे । घर वाले खाने लगे तो ये देखा जाने लगा कि कौन - कौन खा चुके कौन - कौन रह गये । हमारा संयुक्त परिवार काफी बड़ा है। तभी हमे याद आया कि अभी सैलेन्द्र भी रह रहा है। सैलेन्द्र हमारा डोमैस्टिक हैल्प है। चारों और सैलेन्द्र की खौज शुरु हुई लेकिन वह नही मिला । अब हमें परेशानी होनी शुरु हो गई । अब खेतों आदि पर खौज शुरु हुई लेकिन वह नही मिला। उसके पास फोन न होने का आज बड़ा कष्ट हुआ। घर वालों के विचार शुरु हो गये,

कोई कहे कंही भाग गया होगा,

किसी ने ज्यादा पैसों का लालच दे दिया हो,

किसी ईंख के खेत में सो न गया हो.

सबका गुस्सा था बनावटी .... वो भी किसी अनहोनी के ड़र से। ...

सैलेन्द्र हमारा डोमैस्टिक हैल्प जरुर है लेकिन है परिवार का सदस्य । हालाकि उसे हमारे साथ जुड़े ज्यादा समय नही हुआ पर फिर भी उसके साथ एक रिस्ता सा जुड़ गया । मेरे हिसाब से भी रिस्ता जुड़ने के लिए बहुत लम्बे समय की जरुरत नही होती क्योंकि घर में जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो हम उसके साथ बंध जाते हैं,

क्योंकि सैलेन्द्र भी बच्चे जैसा निश्छल था तो उससे भी संबंध जुड़ गया था ।

लेकिन अब हमारे सामने समस्या ये थी कि उसे कहां ढूंढें । उससे संबंधित कुछ फोन न. थे जिन पर सम्पर्क किया गया । लेकिन कोई पता नही चला,

जैसे – जैसे समय बीत रहा था समस्या उतनी गहराती जा रही थी,

रात के लग भग 10 बजे बड़े भईया बाईक उठा कर सैलेन्द्र के घर के लिए निकले,.

कभी अभी रास्ते में हो... और उनसे मिल कर कुछ और जानकारी भी मिल सकती थी ।

लेकिन सैलेन्द्र न रास्ते में मिला न घर पर...

सैलेन्द्र के घर पर उसका बड़ा भाई रहता है अपने बेटे के साथ। उसकी पत्नी व बेटा उसके सुसराल में रहते हैं । सैलेन्द्र के बड़े भाई ने बताया कि सैलेन्द्र ऐसे तो कहीं नहीं जा सकता । तो भाई ने कहा कि तो फिर हमें एफ आई आर दर्ज करवानी चाहिए...

सैलेन्द्र के बड़े भाई ने कहा कि अभी तो रात बहुत हो गई है शुबह तक इंतजार कर लेते हैं क्या पता कोई खबर लग जाय।

बड़े भाई ने कहा – ठीक है । शुबह तक इंतजार कर लेते हैं। और वे वापस घर आ गये ।

आ कर हमें सारी बात बताई । सब परेशान थे । शुबह के इंतजार में सब सो गये ।

शुबह हुई तो सैलेन्द्र को सामने पा कर किसी को अपनी आँखों पर यकीन नही हुआ ।

सब उससे अपने – अपने सवाल पुछना चाहते थे ।

कि वह कहां था ?...

क्यों गया था ? ....

किसके साथ गया था ?

और वापस क्यों आया ?

उसने कहा मैं सब बताऊंगा पर पहले मुझे भूख लगी है मैं खाना खाऊंगा ।

उसे पहले चाय फिर खाना दिया गया । उसने खाना खा कर अपना किस्सा सुनाया ।

हम सब बड़े उत्सुक थे जानने को ।

उसने कहा – मैं कल जल्दी काम निपटा कर घर आने के लिए चला कि घर पर आज महमान हैं । लेकिन जैसे ही सड़क पर आया तो एक कार मेरे पास आकर रुकी ।

जिसमें 2 – 3 लड़के सवार थे । उनमें से एक ने कहा – भाई माचिस है क्या ?

मैंने कहा – जी नही मेरे पास नही है । मैं बीड़ी नही पीता...

उनमें से एक दुसरे ने कहा – तुम तो प्रधान जी के नौकर हो ना ?

( हालाकी हम में से कोई प्रधान नही है पर उसने इस शब्द को सम्मान सूचक शब्द की दृष्टि से लिया )

मैंने हां में जवाब दिया तो उन्होने कहा – तो आऔ बैठो हम भी घर ही चल रहे हैं ।

तो मैने कहा – नही मैं चला जाऊंगा ।

तो उन्होने जिद की ।

तो मैने कहा – लेकिन घर तो पीछे है।

वे बोले - कि बैठो ,,, कार अभी घुमा कर घर चलते हैं । तो मैं बैठ गया । मेरे बैठते ही कार तेजी से चल पड़ी । कुछ दूर चलते ही मैंने पूछा – कि घर तो पीछे है। कहां जा रहे हो ?

तो उन्होने धमकी दी – चुप चाप बैठे रहो वरना...

मैंने चुप रहने में ही भलाई जानी।

काफी देर चलने के बाद एक जगह कार रुकी । मुझे धमकी देने के बाद अपने साथ 2 बोतलें लेकर वे तीनो नीचे उतर गये ।

उनके जाने के 2 मिनट बाद ही मैने उतरने का प्रयास किया । एक खिड़की खुल गई । मैं उतर कर पास के एक खेत मे घुस गया । और धीरे – धीरे पीछे के बजाय आगे की और भागा । काफी देर बाद एक सड़क पर पहुंचा । वंहा सामने ही एक चौक्की ( पुलिश चौकी ) थी । मैने सारी बात उन्हे बताई। तो उन्होने कहा कि जंहा तुम इशारा कर रहे हो वंहा तो बहुत बड़ा जंगल है । हम कल शुबह देखेंगे । और मुझे 50 रू देकर एक ट्रक वाले से पता करके मुझे बैठा दिया ।

ट्रक वाले ने मुझे पास के कस्बे में छोड़ा ।

वंहा से मैं पैदल घर आया हूं।

हम सब ने एक साथ कहा – 50 रू दिखाओ। उसने दिखा दिए ।

घटना नाटकीय पर दिलचस्प थी ।

***

3 - छोटी लड़की की सीख

Abhishek Hada

सभी की जिन्दगी में बचपन की यादें अच्छी नही होती है। कुछ लोगो का बचपन संघर्ष तनाव और मुसीबतों से भरा होता है। जो उन्हे वक्त से पहले ही बचपन से निकाल कर भ्रमपूर्ण यौवन में पहुँचा देता है।

ऐसे ही एक बच्चे पर मेरी नजर उस वक्त पड़ी जब मैं अपने शहर कोटा के सब्जीमंडी क्षेत्र में से गुजर रहा था। वहाँ बड़े-बड़े भवनों के एक तरफ भिखारियों के टेंटनुमा निवासस्थान है।

वे सर्दियों के दिन थे। मैं सब्जीमंडी से सब्जी खरीद कर नयापुरा जाने के लिए सिटीबस के आने का इंतजार कर रहा था। जब से स्मार्टफोन आए है किसी भी व्यक्ति को समय काटने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? इसलिए मैं भी अपना स्मार्टफोन चलाने में व्यस्त था। पर अचानक एक गंदे कपड़े और काले मटमेले रंग वाली एक 7-8 वर्षीय लड़की मेरे पास आई। उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि उसने कई दिनों से स्नान नही किया है। एक फटी सी फ्रोक पर उसने पुराना स्वेटर पहन रखा था। पैरो में एक टूटी चप्पल भी नही थी। वो बार बार हाथ पसार कर मुझसे पैसे और खाने को कुछ माँगने लगी। मैंने उसकी तरफ ध्यान नही दिया। पर जब उसने मुझे हाथ लगाकर माँगने की कोशिश की तो मैंने गुस्से से आँखे बड़ी कर उसे देखा और दुत्कार कर दूर कर दिया। और चुपचाप अपने मोबाइल में लगा हुआ वहाँ से चल दिया। तभी कुछ देर बाद मैने देखा कि एक कुत्ता मुंह में कुछ सूखी रोटियाँ दबाए ले जा रहा है। एक कोने में जाकर उसने उन रोटियों को जमीन पर रखा ही था कि वो लड़की जो मुझसे कुछ समय पहले पैसे माँग रही थी, वहाँ आई और उस कुत्ते के पास से एक रोटी उठाने लगी। कुत्ता उस पर भौंका और उसे काटने की कोशिश करने लगा। पर वो समझदार थी कुत्ता उसे काटता इससे पहले ही उसने एक पत्थर उसकी तरफ मारा। जिससे वो बेचारा भी डर गया। और वहीं रूक गया।

लड़की ने जो रोटी हाथ में ली थी उसे लेकर भागी। मैं जो अब तक मोबाइल की आभासी दुनिया में खोया हुआ था। इस घटना का आगे का भाग भी देखना चाहता था। उत्सुकतावश धीरे धीरे लड़की के पीछे चल दिया। देखूँ तो सही कि ये किस के लिए काम करती है ? क्योंकि मैने अक्सर देखा है कि ऐसे बच्चों के माँ बाप अच्छे खासे तंदरूस्त होते है लेकिन आलस और नाकारेपन की वजह से अपने बच्चों से भीख मँगवाने का काम करते है। पर मेरा अनुमान गलत साबित हुआ। वो लड़की अपने भाई के पास गई थी, जो लगभग 4-5 साल का होगा। उसने पास ही के एक नल से टूटी कटोरी में पानी भरा और रोटी गीली कर के उसको खिलाने लगी। जिन आँखों ने गुस्से से घूरकर उसे देखा था उन आँखों में अब उसी के लिए आँसू थे।

इस घटना ने मुझ पर जैसे सम्मोहन कर दिया हो। जाने किस प्रेरणा से बिना एक पल गंवायें मैने मेरे बैग में से अपने बच्चों के लिए जो बिस्कुट, टोस्ट और चॉकलेट के पैकेट्स खरीदे थे। वो उस लड़की को बुलाकर उसे सौंप दिए। वो लड़की बहुत खुश हो गई। उसे धन्यवाद करना नही आता था पर उस के सजल नेत्र मुझे मौन धन्यवाद दे रहे थे। उस छोटी लड़की में सबके साथ और प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी थी। इसीलिए इस बार भी उसने अपनी खुशी को खुद तक सीमित नही रखा। जोर जोर से अपने साथी बच्चों को आवाज दी और मिल बाँट कर उनके साथ खाने लगी। क्या ये समय पूर्व परिपक्वता नही थी ?

वहाँ से विदा होकर मैं पुनः बाजार में गया और जो चीजे उनको दी थी, दुबारा से अपने बच्चों के लिए खरीदी। घर पर पहुँचा तो मेरे दोनो बेटे अजय और विजय आपस में एक चॉकलेट के लिए लड़ रहे थे। अजय की उम्र 14 वर्ष और विजय की 11 वर्ष है। दोनो ही कोटा के बहुत ही जाने माने अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पढ़ते है जहाँ स्कूली शिक्षा के साथ साथ शिक्षा और संस्कार भी दिए जाते है। मेरी धर्मपत्नी उन दोनो समझाने का प्रयत्न कर रही थी। पर शायद वो उस विवाद को सुलझाने में असमर्थ थी।

अपने पापा को देखते ही दोनो चुप हो गए। मैने पूछा - क्या बात हो गई ?

दोनो ने अपना अपना पक्ष रखकर ये साबित करने की कोशिश की कि ये चॉकलेट उसे मिलनी चाहिए। मैने उन दोनो से कहा मेरे पास इस समस्या का एक बहुत ही आसान सा हल है। और ये कहते हुए मैने उस चॉकलेट को हाथ में लिया और दो टुकडे़ कर के दोनो को देना चाहा तो दोनो ही गुस्सा हो गए और बोले हमें नही खाना ये आधी चॉकलेट। हमें तो पूरी चॉकलेट चाहिए। और वो भी नई। ये आप ही खा लो।

तब बैग में से चॉकलेट निकाल कर मैंने कहा - ठीक है ये वाली पापा खा लेते है और ये वाली भी। तब दोनो जल्दी से मेरे पास दौड़कर आए और चॉकलेट हाथ में से लेकर खुश हो गए।

पापा और क्या लाए मेरे लिए - मेरे छोटे बेटे विजय ने पूछा।

तुम्हारे लिए ये टॉय कार - मैंने विजय को देते हुए कहा ।

और पापा मेरे लिए ?? - बड़े बेटे अजय ने उत्सुकतावश पूछा।

मैंने बैग मे हाथ डाला लेकिन अचानक मुझे याद आया कि अजय के लिए खरीदी हुई टॉय कार मैंने उस लड़की के भाई को दे दी थी। जिसे में दुबारा खरीदना भूल गए।

मैंने कहा - पापा अभी तुम्हारे लिए कुछ नही लाए। क्योंकि तुम्हारे लायक कोई कार बाजार में नही थी। तुम दोनो बारी बारी से इसी कार से खेल लेना। अगली बार जब बाजार जाऊँगा तो एक और टॉय कार ले आऊँगा।

और ये कह कर मैं अपने काम में लग गया।

कुछ समय बाद जब मैं उनके कमरे में गया तो देखा कि ददोनो ने एक दूसरे के बाल पकड़ कर एक दूसरे से लड़ने में लगे थे। दोनो जानी दुश्मनों की तरह से एक दूसरे से लड़ रहे थे और एक दूसरे को मार रहे थे। टॉय कार टूटी हुई पड़ी थी और साथ ही कमरे का सारा सामान बिखरा पड़ा था।

मैंने दोनो को डाँटा तो दोनो अलग हुए और डर कर चुपचाप बैठ गए। दोनो से विवाद का कारण पूछा तो दोनो को ही अपनी अपनी कार चाहिए थी। उन्होंने कह दिया कि एक कार से मिलकर कैसे खेल सकते है ? मुझसे कुछ कहा नही गया। उनसे आगे से ऐसी हरकत दुबारा न करने और सॉरी माँगने की कहा। दोनां ने एक दूसरे को सॉरी कहा। जाते जाते मैंने उनसे रूम को ठीक करने को कहा।

रूम से जाने लगा तो टूटी हुई टॉय कार से पैर टकरा गया। मैंने उसे उठाया और वो दृश्य याद आ गया जहाँ वो गरीबों के बच्चे बारी बारी से उस टॉय कार से खेल रहे थे। मेरे जाते ही दोनो में फिर जुबानी जंग छिड़ गई।

मैं सोचने लगा - शहर के महँगे और प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ कर ये दोनो वो ना सीख सके जो वो भीख माँगने वाली लड़की बिना स्कूली शिक्षा के सीख गई। वो छोटी लड़की सच में मुझे बहुत बड़ी सीख दे गई।

***

4 - जाने वाले ज़रा होशियार

डा. मुसाफिर बैठा

राजधानी के एक (कु)ख्यात छात्रावास का उसके ‘कैचमेंट एरिया’ में ख़ास तांडवकारी प्रभाव था. इस प्राइवेट छात्रावास में एक ही जाति के छात्रों एवं निकट में पूर्व हुए छात्रों का वास था. जात की छात्र राजनीति का ख़ास अड्डा था यह सो, भूतपूर्व छात्रों का भी राज-मक्का था यह! प्रदेश का शासन चाहे जिस भी जात-प्रेमी दल का हो, जात को प्रश्रय देने वाले दल का हो, इस छात्रावास के छात्रों का जलवा कम न होता था. सभी दल के वे नेता जो इस जात से आते थे, इस ख़ास जात के छात्र अड्डे को महत्व और मान देने को मजबूर थे. वस्तुतः जात-नेताओं की जननी था यह छात्रावास. छात्र राजनीति करते कितने ही नेता जो देश और प्रदेश के राजनीतिक पटल पर छाये, स्वर्ग तक में जा समाये, इस पुरातन छात्रावास में रह चुके थे. और, जब प्रदेश का मुखिया ही इस छात्रावास से निकला छात्र बना तब इस हॉस्टल के भाव बढ़ने, आसमान चढ़ने के क्या कहने!

किस्सा-कोताह यह कि हर साल की तरह इस बार भी मौका सरस्वती पूजा का था। ख़ास बात यह थी कि इस बार चूँकि प्रदेश का मुखिया ही जात-नाते का था, इस छात्रावास से गुजरकर राज्य के सर्वश्रेष्ठ ओहदे तक पहुंचा था, इसलिए मौका सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का – को जीने का भी भरपूर था. इस समय तक करणी सेना का तांडव भी प्रदेश देख चुका था, सेना का शासन-प्रशासन कुछ न बिगाड़ पाया था. बल्कि बिगाड़ने से अन्यमनस्क रहा था! जब आन जात की, ऊंची जात की जात-सेना भी पिछड़ी जात के मुखिया वाले शासन में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बता कर राजधानी में पद्मावत फिल्म न चलने देने में सफल रही थी तो अपने मुखिया से ऊंच-नीच ढा कर भी सुरक्षाकवच पाने की उम्मीद क्यों नहीं की जा सकती थी!

होस्टल के इलाके में स्थानीय बाशिंदों एवं दुकानदारों द्वारा तक इस हॉस्टल के अन्तेवासी छात्रों से पंगा लेना आसान न था. थर्राता था सकल आसपास का इलाका इस छात्रावास के प्रताप को भांपकर! खासकर, पूजा-त्योहारों के मौकों पर दुकानदारों पर मनमाना चंदा थोपा जाता था और जबरन वसूली की जाती थी. जिस दूकानदार ने चंदा देने में आनाकानी की अथवा रौब दाब दिखाया, वह हॉस्टल के निशाने पर आ जाता था. उससे देर सबेर बदला लिया जाना तय था. बदला लेने के लिए पर्व-त्यौहार एवं देवी देवता के त्यौहार वाले मौके मुफीद माने जाते थे. हर बड़ा पूजा-त्यौहार को मनाना इस होस्टल का नैतिक दायित्व था जैसे! जब मनाने से कई कई हित बड़ी आसानी से मजे में साधते हैं तो ऐसी निष्ठाएं लाभुक व्यापार की तरह वरेण्य हो जाती हैं! नित नित नये देवी-देवता, भक्त और पुजारी यूँ नहीं उग रहे हैं! माया-मोह छोड़े बाबा लोग यूं ही जींस-व्यापारी नहीं हुए जा रहे हैं!

खुराफाती सुनामी लाने के छोटे बड़े कई कई इतिहास रच चुके इस छात्रवास के सैकड़ों छात्र इस बार सरस्वती की मूर्ति को गंगा में विसर्जित करने जब सड़कों पर उतरे तो भव्य और भयावह नजारा था. करीब दो सौ छात्र जुलूस में शिरकत कर रहे थे और उतनी ही संख्या में पुलिस दल संभावित उत्पात और गड़बड़ी को नियंत्रित करने हेतु तैनात हुआ साथ साथ लगा चल रहा था. शहर के करीब आधा दर्जन मशहूर बैंड बाजा पार्टी खिदमत में लगाए गए थे. अलग बैंड पार्टी के लोगों की अलग वेशभूषा, सौ से कम की संख्या में न रहे होंगे. नयनाभिराम दृश्य! मगर जहाँ-जहाँ से जुलूस गुजर रहा है, सड़क किनारे बने दुकानों एवं घरों के दरवाजे-शटर धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं. आ बैल मुझे मार- कौन न्योते! जो दूकानदार कमाने के लोभ में दूकान खुली रख गया उसकी कोई न कोई हानि हुई समझो, सामत आई समझो. हुआ भी, एक चाय दूकानदार के चूल्हे एवं केतली को जुलूस के एक मतवाले छात्रवेशी गुंडे ने उलट दिया, जिससे खौलती चाय दूकानदार के खुले पैर पर गिर गया और वह दर्द से बिलबिला उठा. जबकि घटना को अंजाम देने वाला सरस्वती भक्ति की वर्दी वाला वह छात्र-गुंडा खिलखिला उठा और वापिस जुलूस में समा गया. इस तोड़फोड़ के प्रभाव में हत्भागी दूकानदार का एक डब्बे में रखा करीब पांच किलो दूध मन्दिर में बहते दूध की गति प्राप्त कर गया था सो अलग. एक किताब दूकान खुली मिली जिसने चंदा देने से मना कर दिया था वह भी जुलूस का शिकार बना. सरस्वती पुत्रों ने उसकी किताबें रैक और अलमारी से नीचे बिखेर दीं और अलमारी के शीशे तोड़ डाले. दुकान के आगे सड़क किनारे खड़ी एक मोटरसाइकिल के एक टायर की हवा निकाल दी और कार के शीशे पर हॉकी स्टिक दे मारा. झन की आवाज के साथ शीशे जमीन पर बिखर गये. राजनीतिक पार्टियों द्वारा जो बंद और हड़ताल का आह्वान होता है वह इसी तरीके से सफल बनाया जाता है. यहाँ देवी भक्त गुंडे हुए, वहां राजनीतिक कार्यकर्ता को यह रोल निभाना पड़ता है. हाँ, ऐसे भक्त छात्र राजनीतिक कार्यकर्ता में तब्दील हुए देखे जाते हैं.

जुलूस की गाथा को आगे बढ़ाते हैं तो हम पाते हैं कि इसके आगे-पीछे सैकड़ों मजबूर देखनहार भी हैं. वे होशियार हैं, सो उनका बहुत बिगड़ा नहीं है! बिगड़ा इतना भर है कि जबतक जुलूस मुख्य मार्ग को छोड़ गंगा नदी के भसान स्थल यानी गंतव्य को जाने वाली शाखा सड़क की ओर मुड़ नहीं जाती, उन्हें पीछे पीछे भक्त की तरह चलना है. इस वक्त कण कण में बसे छत्तीस कोटि देवता अथवा कोई ईश्वर उनकी मदद को आगे नहीं आ सकता, उन्हें जुलूस को लंघवा कर उससे आगे नहीं बढ़ा सकता. कोई रोगी राहगीर रिक्शा-ऑटो-रिक्शा पर है मगर अस्पताल पहुँचने की जल्दी में, तो कोई साईकिल-मोटरसाईकिल पर सवार जल्द ही अपनी मंजिल पर पहुंचना चाहता है, तो कोई कार में और सिटी बस में सवार होकर भी चैन में नहीं है, जुलूस से पिंड छुड़ाने की फ़िराक में है मगर सबके सब हैं अवश. कुल जमा स्थिति यह है कि कछुआ चाल से आगे बढ़ती जुलूस के पीछे पीछे अपने अपने जरूरी काम पर निकले लोग लाचार, अटके और किंचित भय में हुए चल रहे हैं. मकानों की छत पर भी दर्शक बड़ी संख्या में हैं, सच पूछिए तो वे ही सबसे सुरक्षित और सहज दूर-दर्शन-सुख पा रहे हैं!

बदगुमान से नाचते-गाते-डगमगाते आस्था को अपनी अश्लीलता एवं बदमाशी की हद से नापते ये छात्र और छात्रनुमा युवक बाक़ी दुनिया से बेपरवाह हैं. गुंडा और छात्र की स्पष्ट दूरी को इन्होने इस समय साफ़ पाट रखा है! वे निर्द्वंद्व एवं स्वच्छंद मस्ती के आलम में हैं. प्रदेश में शराब-दारू बैन है, मगर सरस्वती का मूक वरदहस्त पने ऊपर मान आज के अवसर के लिए इन्होने सामान जुटा लिया है! कोई युवती या युवा लड़की सड़क किनारे अथवा छत पर दिखती है तो ये सरस्वती-भक्त फ़्लाइंग-किस भी उड़ा रहे हैं.

जुलूस से एक राही के रूप में जिस मोड़ पर मेरा सबका होता है, जुलूस में शामिल एक बैंड बाजा से 1964 में बनी 'राजकुमार' फिल्म का बज रहा एक गाना मेरे कानों से बेसाख्ता टकरा रहा है- ‘जाने वाले ज़रा होशियार, यहाँ के हम हैं राजकुमार. ओय होय, आगे पीछे हमारी सरकार, यहाँ के हम हैं राजकुमार!’

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