स्वयं पर नज़र: जीवन को समझने का असली मार्ग - 2 Sweta Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वयं पर नज़र: जीवन को समझने का असली मार्ग - 2

            हमारी मूल प्रवृत्ति क्या है? यही सबसे बड़ा प्रश्न है। इसी के आधार पर हमारे व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। बड़ी से बड़ी व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करके अच्छे से अच्छे सामाजिक पदों पर आसीन हो जाने से या श्रेष्ठ सामाजिक मान्यता प्राप्त कर लेने के बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि व्यक्ति वास्तव में उतना ही श्रेष्ठ है जितना दिखाई देता है अथवा नहीं। हमारी मूल प्रवृत्ति हमारी शिक्षा या सामाजिक पर्यावरण पर आश्रित नहीं होती वह तो हमारा व्यक्तिगत गुण है, हमारी सबसे बड़ी विशिष्टता है जो हमें अस्तित्व प्रदान करती है। यह गीत कि “दो फूल एक साथ खिले, किस्मत जुदा-जुदा है। इक शीश पे सजा है, इक धूल में पड़ा है…।” इस बात को स्पष्ट करता है कि समान परिस्थिति और वातावरण में रहकर भी दो चीजें एक-दूसरे से पृथक होती हैं। न केवल जीव अपितु प्रत्येक भावना, प्रत्येक शब्द अपना अलग महत्व रखते हैं। यदि हम शब्दों की भी बात करें, तो भी समान अर्थों वाले पर्यायवाची शब्द भी अलग-अलग भाव के वाक्यों में प्रयोग किए जाते हैं। एक ही अर्थ के अलग-अलग शब्दों का अस्तित्व ही इसीलिये होता है ताकि वे अलग-अलग प्रकार के वाक्यों में प्रयुक्त हो सकें। इस प्रकार वे सभी अपना पृथक अस्तित्व स्वयं ही सिद्ध करते हैं। ऐसा ही हमारे साथ भी है, हमें अपनी इस विशिष्टता को पहचानते हुए स्वयं के अस्तित्व के महत्व को स्वीकारने तथा इसे सम्मान देने की आवश्यकता है। अपनी मूल प्रवृत्ति को जानने की आवश्यकता है। और स्वयं को एक शब्द की भाँति पहचान कर सही वाक्य रूपी कर्म-पथ पर पँहुचाने की आवश्यकता है। स्वयं को पहचानने का यही अर्थ है।

            हम अपनी विशिष्टताओं को दूसरों की नज़रों के आइने से देखते हैं और उसी के आधार पर स्वयं का आकलन करते रहते हैं। परंतु जिस प्रकार हम दूसरों को उनके अपने प्रति व्यवहार के आधार पर आँकते हैं उसी प्रकार दूसरे भी हमें हमारे उनके प्रति व्यवहार तथा उसमें उनके व्यक्तिगत हित के प्रति अनुकूलता या प्रतिकूलता के आकलन के आधार पर हमारी विशिष्टताओं को सही या गलत की श्रेणी में रखते हैं। यदि हम इस तरह के मूल्यांकन के आधार पर अपने अस्तित्व का निर्धारण करेंगे तो हम स्वयं के साथ अन्याय करेंगे तथा अपने अस्तित्व का अनादर भी करेंगे। अतः यह आवश्यक है कि जीवन को स्वयं के नज़रिए से देखा जाए तथा स्वयं को भी स्वयं की मानसिकता के आधार पर आँका जाए, पूर्ण निष्पक्षता के साथ। यदि हम स्वयं का आकलन स्वयं की समझ के लिए कर रहे हैं न कि किसी सामाजिक व्यवस्था के लिए, जिसका निष्कर्ष दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करना हो, तो हमें पूर्ण निष्पक्षता बनाए रखना चाहिए यह सरल भी है और श्रेष्ठ भी। इस तरह से आप अपने व्यक्तित्व, अपने व्यवहार और क्षमताओं को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। उसके सकारात्मक तथा नकारात्मक पक्ष को भी स्वीकार कर सकते हैं। और उनमें सुधार भी कर सकते हैं। हाँ, यदि सुधार न करना चाहें तो भी आपको यह तो ज्ञात रहेगा ही कि आप क्या कर रहे हैं और क्यूँ कर रहे हैं। इतना पर्याप्त है।