एक रात :एक किशोर की खामोश चीख RAMESH SOLANKI द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक रात :एक किशोर की खामोश चीख

# वो रात: एक किशोर की खामोश चीख

**एक साहित्यिक संस्मरण**


## प्रथम अध्याय: रात्रि का कोलाहल

रात के साढ़े तीन बजे थे।

गाँव की काली मिट्टी से उठती ओस की ठंडक धीरे-धीरे हवा में घुल रही थी। कुत्तों के भौंकने की आवाजें मीलों दूर के अँधेरे को हल्का-हल्का चीरती, एक अनजाने तनाव की परत छोड़ रही थीं। चारों ओर सन्नाटा था, मगर यह सन्नाटा शांति का नहीं, बल्कि किसी आने वाले तूफ़ान की पूर्व सूचना जैसा था।

यह वही रात थी जब समाज के दिए घाव किसी चाकू से ज़्यादा गहरे लगते हैं। जब अपनों की ज़बान पर चढ़े शब्द किसी जहर से ज़्यादा असर करते हैं।

पर इन आवाज़ों से अधिक बेचैन करने वाली चीज़ आरव के भीतर की हलचल थी। वह करवटें बदल रहा था। नींद उससे रुठकर कहीं दूर बैठ गई थी, जबकि अगले दिन उसकी दसवीं बोर्ड परीक्षा थी—जीवन का पहला बड़ा मोड़। उसकी आँखें किताबों के पन्नों पर टिकी थीं, मगर दिमाग कहीं और भटक रहा था। हर सूत्र, हर शब्द, हर वाक्य धुंधला होता जा रहा था।

यह वही लड़का था जिसे समाज ने कभी पूरा इंसान नहीं माना। जिसकी लंगड़ाहट देखकर लोग या तो दया की नज़र से देखते या फिर मज़ाक उड़ाते। जैसे इंसान की परिभाषा में केवल सीधे चलते पैर ही शामिल हों, और टूटे सपनों वाला दिल कुछ मायने ही न रखता हो।

मगर उसके कमरे की दीवारों के पार एक अलग ही दुनिया जाग उठी थी—उन्माद से भरी, अराजक, और शराब की गंध में डूबती-डूबती बेहिसाब।

वह था उसका मामा। दालान में दरी बिछाकर, लड़खड़ाती देह और लाल आँखों के साथ, हाथ में दोलक बजाते हुए—जैसे किसी टूटते हुए सपने पर कोई जानबूझकर हथौड़ा मार रहा हो। दोलक की ढम-ढम-ढम खिड़की की झिरी से कमरे में घुसती, आरव की किताबों के पन्नों को कंपाती, और उसके भीतर छुपी आशा पर एक भारी चोट की तरह उतरती।

रसोई के पास खड़ी उसकी माँ सारे दृश्य को चुपचाप देख रही थीं। चेहरा चिंता से भरा हुआ—"ये लड़का कैसे पढ़ पाएगा? कल पेपर है… और ये नशे में धुत इंसान…" 

मगर वे यह भी जानती थीं—इस घर में संघर्ष कभी अतिथि नहीं रहा, वह तो स्थायी सदस्य था। एक ऐसा सदस्य जो बिन बुलाए आता, बिन माँगे रहता, और बिना इजाज़त हर चीज़ पर अपना हक़ जताता। समाज ने गरीबों के लिए जो नियति लिखी है, यह उसका एक अध्याय भर था।

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## द्वितीय अध्याय: पिता के बाद का घर—एक ऐसा आशियाना जिसकी छत है पर आसमान नहीं

पिता की मृत्यु ने घर का संतुलन वैसे ही तोड़ दिया था जैसे आँधी किसी नाजुक पेड़ को दो हिस्सों में बाँट दे। उनकी मौत के साथ ही घर से बहुत कुछ चला गया था—सुरक्षा की भावना, भविष्य का भरोसा, और उस मजबूत आवाज़ की गूँज जो कहती थी, "सब ठीक हो जाएगा।"

मगर समाज को क्या फर्क पड़ता है? उसकी निगाहों में तो गरीब का दुःख एक आम बात है, जैसे मौसम का बदलना। कोई पूछने नहीं आता कि विधवा कैसे जी रही है, कि बच्चों के पेट में कुछ गया या नहीं। मगर उपदेश देने सब आ जाते हैं—"बच्चों को संभाल कर रखना," "बेटे को ठीक से पढ़ाना," "बेटियों की शादी का ध्यान रखना।" जैसे जिम्मेदारी की सलाह देना उनका धर्म हो, और साथ देना पाप।

माँ की मजदूरी, बहनों की छोटी-मोटी कमाई, और चार लोगों की जिंदगी किसी तरह एक धागे से बंधी चल रही थी। यह धागा इतना कमज़ोर था कि किसी भी पल टूट सकता था, फिर भी वह टिका हुआ था—शायद सिर्फ़ इसलिए कि उसे टूटने की इजाज़त नहीं थी।

आरव स्कूल से लौटते ही बस्ता एक कोने में टाँग देता और पढ़ाई में डूब जाता। क्योंकि वही उसका सहारा था, वही उसके कमजोर पैरों की लाठी, वही उसकी उड़ान की एकमात्र संभावना। पोलियो की वजह से भीड़ में चलते समय उसके पैरों में अदृश्य भय समाया रहता। कभी कहीं बस में गिर न जाए, कहीं कोई धक्का न दे दे।

कई बार बच्चे चिढ़ाते—"संभलकर चलो रे… गिर जाओगे!" कुछ धक्का भी दे देते—किसी मज़ाक में या बस यूँ ही मन बहलाने के लिए। हर धक्का उसके शरीर से ज़्यादा उसकी आत्मा को लगता था। हर हँसी उसके कानों में चुभती थी। हर नज़र उसे याद दिलाती थी कि समाज की निगाहों में वह "अलग" है।

और यह "अलग" शब्द कितना क्रूर होता है! यह शब्द तुम्हें इंसानियत की परिधि से बाहर धकेल देता है। तुम वही खाते हो, वही पीते हो, वही सोचते-समझते हो—मगर तुम्हारे चलने का तरीका अगर अलग है, तो बस! तुम अछूत हो। तुम मज़ाक हो। तुम "वो लंगड़ा लड़का" हो—कोई नाम नहीं, कोई पहचान नहीं, बस एक शारीरिक कमी जो तुम्हारी पूरी हस्ती को निगल लेती है।

फिर भी वह हर सुबह उठता, जूतों में अपना साहस भरता और स्कूल के रास्ते पर चल पड़ता। स्कूल कभी खुला मिलता, कभी बंद। शिक्षक कभी आते, कभी बिना बताए लौट जाते। लेकिन आरव की पढ़ाई के प्रति ईमानदारी किसान की अपने बीजों के प्रति आस्था जैसी थी—अडिग, सच्ची और लगातार।

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## तृतीय अध्याय: मामा—एक ऐसा आदमी जो जीवन से नहीं, खुद से भागता रहा

मामा सगे थे, लेकिन व्यवहार में पराए। उनके जीवन में जिम्मेदारी जैसे कोई भूला हुआ अध्याय थी। नाना जी ने उन्हें ज़मींदार के यहाँ मजदूरी में लगा दिया था—पर दो ही दिनों में भाग आए। शादी हुई, बच्चे हुए, झगड़े हुए, और फिर अंत में उनके कदम वापस इसी घर पर टिक गए।

उनकी पत्नी मजदूरी करती, दो छोटे बच्चे थे, और धीरे-धीरे उनका पूरा परिवार आरव के घर में ही बस गया। घर पहले से ही तंग था, साधन सीमित थे, फिर भी किसी तरह सबका गुज़ारा चल रहा था। 

मगर समाज का एक नियम है—गरीब का घर कभी उसका नहीं होता। वह सबकी शरणस्थली होती है। कोई भी आ जाए, टिक जाए, बोझ बन जाए—और तुम्हें चुपचाप सहना होता है। क्योंकि "अपने हैं ना!" इस एक वाक्य में गरीब की सारी मजबूरियाँ समा जाती हैं।

फिर एक दिन जैसे भाग्य ने करवट बदलकर सब कुछ उलट दिया—मामाजी की पत्नी की अचानक मृत्यु।

उस दिन के बाद वह भीतर से पूरी तरह बिखर गए। शराब उनकी भाषा बन गई, शराब उनका धर्म, शराब ही उनका अंतिम सहारा। दुःख को दबाने के लिए वे नशे में डूबते गए, मगर दुःख कभी डूबता नहीं—वह तैरता रहता है, सतह पर आता रहता है। और जब दुःख नशे में होकर बाहर आता है, तो वह सबसे ज़्यादा उन्हें चोट पहुँचाता है जो पहले से ही टूटे हुए होते हैं।

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## चतुर्थ अध्याय: वह भयावह रात—दोलक की आवाज़, और टूटते सपनों की ध्वनि

उस रात मामा हद से ज्यादा नशे में थे। दोलक की ताल किसी विकृत लय में बदलती जा रही थी—जिसमें ना संगीत था, ना रस, ना अर्थ—सिर्फ उन्माद और पीड़ा। हर थाप एक आघात थी, हर सुर एक चीख।

आरव ने पढ़ते-पढ़ते थकी हुई आवाज़ में कहा—"मामा जी… कल मेरा पेपर है… कृपया सो जाइए।" उसकी आवाज़ में विनती थी, याचना थी, मगर कोई गुस्सा नहीं था। एक लड़का जो अपने ही घर में भीख माँग रहा था—शांति की भीख, सम्मान की भीख, अपने सपनों को जीने की भीख।

पर शराब ने बुद्धि, विवेक, और संवेदना—तीनों को निगल लिया था। मामा तमतमाए, लड़खड़ाते हुए हँसे, और बोले—

"तू पढ़-लिखकर क्या कर लेगा? कलेक्टर बनेगा? अरे तेरे बस का कुछ नहीं! दुनिया तुझे भी धक्का देगी, जैसे बच्चे देते हैं!"

उनके शब्द शराब से भी अधिक जहरीले थे। वे वही संकीर्ण अपशब्द बोलने लगे जो समाज अक्सर दिव्यांग बच्चों पर फेंकता है—अपमान, तिरस्कार और उपहास की तेजाब भरी धार।

यह समाज की असली सच्चाई थी। जब तुम कमज़ोर हो, तो तुम्हारे अपने भी तुम पर हमला करने लगते हैं। जैसे तुम्हारी कमज़ोरी उन्हें तुम्हें तोड़ने का अधिकार दे देती है। जैसे तुम्हारा दिव्यांग होना तुम्हारी योग्यता को नकार देता है। जैसे पैरों की लंगड़ाहट दिमाग की काबिलियत से ज़्यादा मायने रखती है।

आरव की आँखें भर आईं। किताबें सामने खुली थीं पर अक्षर धुँधले होकर तैरने लगे। कानों में बस वही वाक्य गूंज रहा था—"तेरे बस का कुछ नहीं है…"

यह वाक्य किसी गोली से कम खतरनाक नहीं था। यह सीधे उसके आत्मविश्वास की जड़ों पर वार कर रहा था। यह उसके अस्तित्व को सवालों के घेरे में खड़ा कर रहा था। और सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि यह वार उसके अपने मामा की ओर से था—जिसे उसने अपना समझा था।

वह रात उसके दिल पर ऐसे चिपकी जैसे किसी लोहे पर जमी जंग—जिसे पानी भी नहीं हटा सकता।

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## पंचम अध्याय: नई सुबह—आँसू से नहीं, संकल्प की आग से जन्मी

सूरज निकला। दोलक की ताल थमी। मामा किसी कोने में सो गए। लेकिन आरव के भीतर एक नई आग जन्म ले चुकी थी—अपमान की नहीं, संकल्प की आग।

उसने उस रात तय कर लिया था—वह हारेगा नहीं। नहीं इसलिए कि उसे किसी को कुछ साबित करना है, बल्कि इसलिए कि उसे खुद को जीतना है। उसे यह साबित करना है कि इंसान की काबिलियत उसके पैरों में नहीं, उसके इरादों में होती है।

वह जानता था—समाज उसे माफ़ नहीं करेगा। उसकी हर सफलता पर लोग कहेंगे, "अरे वो तो किस्मत थी," "शायद किसी ने मदद कर दी होगी," या फिर, "अरे इतनी मेहनत तो कोई भी कर ले।" मगर उसकी एक गलती पर पूरा समाज एक स्वर में बोलेगा—"देखा! हमने पहले ही कहा था ना, इसके बस का नहीं है!"

यही समाज का न्याय है। दिव्यांगों के लिए सफलता एक संयोग है, मगर असफलता एक प्रमाण। उनकी मेहनत कभी गिनी नहीं जाती, मगर उनकी कमियाँ हर जगह गिनाई जाती हैं।

परीक्षा के कागज़ पर उसने अपनी पूरी ताकत उड़ेल दी। हर उत्तर में उसका संघर्ष था, हर शब्द में उसका दर्द, हर वाक्य में उसका सपना। वह कलेक्टर नहीं बन पाया—क्योंकि साधन, मार्गदर्शन, और परिस्थितियाँ उसके पक्ष में कभी नहीं थीं। 

समाज अमीरों के लिए सीढ़ियाँ बनाता है और गरीबों के लिए दीवारें। और जब वह गरीब दिव्यांग भी हो, तो उन दीवारों पर काँटे भी लगा दिए जाते हैं।

पर वह शिक्षक बन गया। एक ऐसा शिक्षक जो बच्चों की आँखों में सपनों की लौ जलाता है, जो संघर्ष से जूझते बच्चों का हाथ पकड़कर उन्हें आगे बढ़ना सिखाता है, क्योंकि वह जानता है—घावों से गुज़रकर चलने वालों के पाँव सबसे मजबूत होते हैं।

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## षष्ठ अध्याय: आज का आरव—खड़ा है, और मजबूती से खड़ा है

आज भी कभी-कभी समाज की संकीर्ण सोच उससे टकराती है। कभी ताना, कभी सवाल, कभी कोई अनचाहा कटाक्ष। कभी कोई कहता है, "अरे सरकारी नौकरी तो आरक्षण से मिल गई होगी," जैसे उसकी मेहनत का कोई मूल्य ही न हो। कभी कोई कहता है, "शिक्षक बनना कौन सी बड़ी बात है," जैसे हर सपना उतना ही बड़ा होना चाहिए जितना दूसरों को दिखे।

लेकिन अब वह टूटता नहीं। क्योंकि अब उसे पता है—दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति वही होता है जिसने सबसे गहरे घाव सहे हों।

आज वह अपने विद्यार्थियों को पढ़ाता है, उन्हें समझाता है कि जीवन में परिस्थितियाँ नहीं, इरादे मायने रखते हैं। वह उन्हें बताता है कि शारीरिक कमजोरी कभी मानसिक कमजोरी नहीं बन सकती, जब तक आप खुद उसे ऐसा बनने न दें।

वह अब उन बच्चों की आवाज़ बन गया है जो उस रात वाले आरव की तरह अकेले हैं, डरे हुए हैं, और सपने देखते हैं। वह उन्हें सिखाता है कि समाज तुम्हें परिभाषित नहीं करता, तुम्हारे कर्म तुम्हें परिभाषित करते हैं।

मगर यह सवाल आज भी उसके मन में उठता है—क्यों? क्यों समाज किसी की शारीरिक कमी को उसकी पूरी पहचान बना देता है? क्यों किसी गरीब के सपने देखने पर लोग हँसते हैं? क्यों दिव्यांगों को हर कदम पर यह साबित करना पड़ता है कि वे भी इंसान हैं?

और सबसे बड़ा सवाल—क्यों हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ संवेदनहीनता एक आम बात बन गई है और संवेदना एक कमज़ोरी?

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## समापन: समाज से कुछ प्रश्न

**कब तक तुम  
कमज़ोर पैरों को देखकर  
सपनों की ऊँचाइयाँ नापोगे?**

**कब तक तुम  
दिव्यांगता को कमी समझकर  
इंसान की कीमत आँकोगे?**

जवाब दो—  
जब तुम्हारे बच्चे स्कूल में किसी दिव्यांग बच्चे को धक्का देकर हँसते हैं,  
तो क्या तुम उन्हें रोकते हो?  
या फिर यह सोचकर मुस्कुरा देते हो कि "बच्चे हैं, मज़ाक कर रहे हैं"?

जवाब दो—  
जब तुम किसी दिव्यांग व्यक्ति को देखते हो,  
तो तुम्हारी पहली सोच क्या होती है—  
"बेचारा" या "काबिल इंसान"?

**कब तक तुम  
तानों की धार से  
किसी की उड़ान काटने की कोशिश करोगे?**

**कब तक तुम  
मजदूर हाथों को छोटा समझकर  
उनकी इज़्ज़त छीनते रहोगे?**

क्या तुमने कभी सोचा है—  
जो हाथ तुम्हारे घर बनाते हैं,  
जो हाथ तुम्हारी सड़कें बिछाते हैं,  
जो हाथ तुम्हारे खेतों में अन्न उगाते हैं,  
उन हाथों को तुम "छोटा" कैसे कह सकते हो?

क्या शिक्षा तुम्हें यही सिखाती है—  
कि इंसान की कीमत उसकी कमाई से आँकी जाए?  
कि गरीबी एक अपराध है और अमीरी एक सम्मान?

**कब तक तुम  
किसी के हिस्से के आसमान पर  
अपनी छत फैलाए बैठोगे?**

पूछता हूँ तुमसे—**कब तक?**

क्योंकि जिस दिन जिन्हें तुमने धक्का दिया,  
वे अपनी हिम्मत के सहारे उठकर चल पड़े—  
उस दिन तुम धूल में छूट जाओगे।

उस दिन तुम्हें समझ आएगा—  
कि इंसान की ताकत उसके पैरों में नहीं,  
उसके इरादों में होती है।

उस दिन तुम्हें समझ आएगा—  
कि जिन्हें तुमने "अपाहिज" कहा,  
वे तुमसे कहीं ज़्यादा सक्षम थे।

उस दिन तुम्हें समझ आएगा—  
कि असली अपंगता शरीर की नहीं,  
सोच की होती है।

**और उस दिन शायद बहुत देर हो चुकी होगी।**

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**समर्पण:**  
उन सभी आरव को, जो आज भी लड़ रहे हैं—  
अपनी परिस्थितियों से, समाज की संकीर्णता से,  
और सबसे बढ़कर, खुद के भीतर के डर से।

उन माताओं को, जो अपने हाथों में मजदूरी की थकान लिए  
अपने बच्चों के सपनों को सींचती हैं।

उन बच्चों को, जिन्हें स्कूल जाते हुए धक्के खाने पड़ते हैं,  
मगर फिर भी हर सुबह उठकर चल पड़ते हैं।

उन शिक्षकों को, जो सिर्फ किताबें नहीं,  
बल्कि जीवन का सबक सिखाते हैं।

और उन सभी को, जिन्होंने यह माना कि—  
**जिंदगी एक संघर्ष नहीं, एक युद्ध है।  
और इस युद्ध में हारने का विकल्प नहीं है।**

तुम हारोगे नहीं। तुम हार सकते नहीं।  
क्योंकि तुम्हारी जीत में एक पूरी पीढ़ी का भविष्य छुपा है।

**और याद रखना—**  
समाज की परिभाषाएँ बदलती रहेंगी,  
मगर तुम्हारा संघर्ष तुम्हें अमर बना देगा।

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**एक अंतिम संदेश:**

यह कहानी केवल आरव की नहीं है।  
यह उन लाखों बच्चों की कहानी है—  
जो गरीबी में जन्मे, दिव्यांगता के साथ जीए,  
और समाज की क्रूरता का सामना किए।

यह कहानी उन सभी की है—  
जिन्हें "तुम्हारे बस का नहीं है" सुनना पड़ा,  
मगर जिन्होंने तय किया कि  
**हम अपनी सीमाएँ खुद तय करेंगे।**

और अगर यह कहानी पढ़कर  
तुम्हारे मन में ज़रा सी भी संवेदना जगी है,
तो एक काम ज़रूर करना—
अगली बार जब तुम किसी दिव्यांग व्यक्ति को देखो,
तो उसे "बेचारा" मत समझना।
उसे एक योद्धा समझना।
अगली बार जब कोई मजदूर तुम्हारे घर का काम करे,
तो उसे सम्मान से बुलाना।
उसकी मेहनत को पहचानना।
अगली बार जब कोई गरीब बच्चा पढ़ने की बात करे,
तो उसे हतोत्साहित मत करना।
उसका साथ देना।
क्योंकि बदलाव हम सबसे शुरू होता है।
और अगर हम नहीं बदले,
तो यह समाज कभी नहीं बदलेगा।
तो चलो, आज से शुरू करें—
एक ऐसे समाज का निर्माण,
जहाँ हर आरव को अपने सपने जीने का अधिकार हो।