वो इश्क जो अधूरा था - भाग 13 Ashish Dalal द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 13

कमरे में गूंजती थी अभी कुछ देर पहले तक वीणा की साज़िशी आवाज़, रुखसाना की परछाई, और वो तहख़ाना...
लेकिन अब सबकुछ शांत था।
सुबह का उजाला हवेली के पुराने झरोखों से भीतर फैलने लगा।
दीवारें, जहाँ अभी कुछ देर पहले रुखसाना की परछाई लहरा रही थी—अब खाली थीं।
 वो पुराना तहखाना… मानो कभी था ही नहीं।
 वीणा भी उसी तरह शांत पडी थी, जैसे किसी ने उसे सदियों से छुआ ही न हो।
 अन्वेषा ने काँपती आवाज़ में कहा,
 “देखा?”
 “मैं कह रही थी… ये सब… ये सब सही नहीं है, अपूर्व। ये हवेली हमें निगल जाएगी। प्लीज़… हमें यहाँ से चले जाना चाहिए।”
अपूर्व खामोश रहा, जैसे वो अभी भी किसी गूंज में खोया हो।
अन्वेषा फिर बोली - “तुमने वो सब देखा... महसूस किया... और अब भी तुम्हें लगता है कि हम यहाँ सुरक्षित हैं?”
इस बार अपूर्व बोला - “यह विरासत है, अन्वेषा।”
 अपूर्व की आवाज़ शांत थी, मगर ठोस।
 “मेरे दादाजी की हवेली… एक परिवार का इतिहास… मैं ऐसे ही नहीं छोड़ सकता इसे।”
अन्वेषा चीखी - “इतिहास... या अपराध?”
 उसकी आँखें भर आईं।
 अपूर्व उसे कहने लगा - “वो रुखसाना .. वो दर्द... उसकी चीख़ें... तुम्हें सच में लगता है ये सब सिर्फ यादें हैं?”
और फिर उसने धीरे से अन्वेषा का हाथ थाम लिया।
 “मैं जानता हूँ कि तुम डर रही हो। मैं भी डरा हुआ हूँ। लेकिन भागने से सच बदलता नहीं। अगर यहाँ कुछ छिपा है, तो हमें उसे सामने लाना ही होगा। तभी ये हवेली... और शायद हम भी... आज़ाद होंगे।”
ये सुनकर अन्वेषा पीछे हट गई और बोली - 
 “मैं नहीं चाहती कि तुम खुद को खो दो इस हवेली में। ये तुम्हारा अतीत नहीं है, अपूर्व... ये तुम्हारा वर्तमान खा जाएगा।”
वहां सन्नाटा छा गया।
सिर्फ परिंदों की हल्की चहचहाहट और हवेली के बाहर बहती हवा की सरसराहट बाकी थी।
हवेली के पुराने दालान में धूप की हल्की किरणें फर्श पर फैली थीं, लेकिन दोनों के बीच पसरा सन्नाटा कहीं और गहराता जा रहा था।
अन्वेषा चुप थी, पर उसकी आँखों में तूफ़ान पल रहा था।
 अपूर्व खिड़की से बाहर देख रहा था—जैसे हवेली की दीवारों से कुछ सुनने की कोशिश कर रहा हो।
"तो ये तुम्हारा फ़ैसला है?"
 अन्वेषा की आवाज़ थरथरा उठी।
 "तुम वाक़ई इस हवेली को छोडने के लिए तैयार नहीं हो?"
अपूर्व ने कहा - "ये मेरा घर है, अन्वेषा।"
 लेकिन उसकी आवाज़ में थकान भी थी और जिद भी।
 "मैं इसे ऐसे ही छोड दूँ? बिना जाने कि इसमें क्या छिपा है? बिना यह समझे कि मुझे इससे इतना क्यों खिंचाव है?"
अन्वेषा ने उसे घूरा।
 "या शायद... तुम आगाज़ हो। और ये हवेली तुम्हारे अतीत की पुकार है।"
"अगर मैं आगाज़ हूँ भी... तो क्या मैं उस सज़ा का हक़दार हूँ जो किसी और जन्म में दिए गए अपराधों की है?"
 अपूर्व की आँखें झलक रही थीं—विवशता से।
"पिछले जन्म का बोझ इस जन्म में खींच लाना ही इस हवेली की श्राप है!"
 अन्वेषा चीख़ उठी ।
 "तुम नहीं समझ रहे अपूर्व... ये हवेली जिंदा है। यहाँ दीवारें सुनती हैं, छतें गिरफ़्तार करती हैं, और अतीत साँस लेता है। तुम इसमें डूबते जा रहे हो... और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती।"
अपूर्व ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।
 "मैं वादा करता हूँ, तुम्हें कुछ नहीं होगा। मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा।"
"तुम वादा करते हो—पर तुम्हारी वफ़ा इस हवेली से ज़्यादा है या मुझसे?"
अपूर्व एक पल को खामोश रह गया।
उस खामोशी में बहुत कुछ टूट गया।
अन्वेषा ने अपना हाथ धीरे से छुडा लिया।
 "अगर तुम नहीं जाओगे, तो शायद मुझे जाना होगा..."
वह मुडकर अपने कमरे में चली गई, बिना कुछ और कहे।
 उसके आँचल की झिलमिलाहट जैसे हवेली की हवा को भी थमा गई।
……सारे दिन की खामोशी के बाद रात एक अजीब-सी बेचैनी के साथ उतरी।
अपूर्व अपने स्टडी रूम में था, दीवारों पर टंगी कुछ पेंटिंग्स को टटोलता हुआ।
 हर तस्वीर, हर चाबी, हर अलमारी—उसे जैसे किसी पुराने राज़ तक ले जाना चाहती थी।
अन्वेषा अपने कमरे में नहीं थी।
पहले वह समझा कि शायद गुस्से में बगीचे में चली गई हो।
फिर—किचन, लाइब्रेरी, लॉन—हर जगह देखा... अन्वेषा कहीं नहीं थी।
"अन्वेषा...?"
 उसने पुकारा, आवाज़ में बेचैनी थी।
 "प्लीज़... गुस्सा मत हो... देखो, बात करते हैं।"
कोई जवाब नहीं।
हवेली की दीवारें अब फिर से सजीव लगने लगीं।
"अन्वेषा?"
 अब उसकी आवाज़ काँप रही थी।
 "ये मज़ाक मत करो... अन्वेषा!"
वो दौड़ पड़ा , हर कोना खोजता गया।
 लेकिन जैसे हवेली ने उसे निगल लिया हो।
अन्वेषा... गायब थी।
हवेली की घडी की टिक-टिक अब और साफ़ सुनाई दे रही थी। हर मिनट के साथ जैसे हवेली की दीवारें किसी बड़े खुलासे के लिए सांसें रोक रही थीं।
अपूर्व को अन्वेषा की चिंता अब बेचैनी में बदल चुकी थी। उसने हवेली का चप्पा-चप्पा छान मारा था, लेकिन अन्वेषा का कोई सुराग नहीं मिला। फिर उसकी नज़र ऊपर की ओर गई—उस मंज़िल की ओर, जहाँ जाने की अब तक इजाज़त नहीं थी।
वो हिस्सा हवेली में सबसे पुराना था, दीमकों से खाए हुए लकड़ी के खंभों और धूल से भरे गलियारों वाला। वर्षों से बंद पड़ा एक भारी, लोहे की पट्टियों से जड़ा दरवाज़ा... जिसे अब तक किसी ने नहीं छुआ था।
लेकिन आज... वो खुद ही थोडा खुला था।
चर्र...
अपूर्व ने दरवाज़े को और धकेला। एक बदबूदार, सीली हुई हवा का झोंका आया—जैसे किसी दफ़न इतिहास की साँस।
"अन्वेषा?"
 उसने पुकारा, पर जवाब में सिर्फ सन्नाटा।
वो आगे बढा । सीढिया संकरी थीं, और हर क़दम पर वो पुराने लकड़ी के तख्ते कराह उठते। दीवारों पर धूल से ढकी तस्वीरें थीं—कुछ धुंधली शक्लें, जिनके चेहरे समय की रेखाओं में खो चुके थे।
तभी...
एक पेंटिंग के नीचे फर्श पर कुछ गिरा—अन्वेषा की चूड़ियों का टूटा हुआ टुकडा ।
"अन्वेषा... तुम यहीं थीं!"
अब अपूर्व को यक़ीन हो गया कि वो सही जगह पर है।
वो दरवाज़ा जिसके पीछे कोई सीडी नीचे जाती थीं, कुछ अजीब-सा महसूस हो रहा था उसे वहाँ। जैसे ज़मीन के नीचे कुछ हलचल है। वो झुका, दरवाज़ा खोला।
अंधकार... और वो भी ऐसा कि टॉर्च की रोशनी भी उसमें डूब जाए।
"मुझे जाना होगा..."
अपूर्व सीढियों से नीचे उतरने लगा। हर सीढी के साथ हवेली की साँसे और भारी होती गईं। जैसे वो उसे रोकना चाहती हो। जैसे कोई ताक़त कह रही हो—"वापस मुड़ जा..."
पर तभी...
एक हल्की सी गूंज आई।
"अपूर्व..."
वो अन्वेषा की आवाज़ थी—धीमी, टूटी हुई, जैसे कहीं बहुत गहराई में से आ रही हो।
"मैं... यहाँ... हूँ..."
अपूर्व पागलों की तरह सीढियां उतरने लगा। नीचे एक लंबा गलियारा था, जिसके दोनों ओर पुराने दरवाज़े बंद थे। वो दौड पडा ।
पर फिर...
धप्प!
 एक दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया उसके पीछे।
 फिर दूसरा... फिर तीसरा...
 हर दरवाज़ा अपने-आप बंद होता गया, और अपूर्व बीच में फँस गया।
अचानक सामने की दीवार पर एक प्रोजेक्शन जैसा कुछ उभरा। जैसे कोई छाया चित्र।
वहाँ दिखा—
रुखसाना का चेहरा।