Family of Shadows - Part 5 Sagar Joshi द्वारा जासूसी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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Family of Shadows - Part 5


Chapter 5 — “तहख़ाने का दरवाज़ा”

सविता की आवाज़ जैसे दीवारों में अटक गई थी।
अर्जुन मेहरा कुछ सेकंड तक कुछ बोल ही नहीं पाया।
कमरे की हवा भारी थी, जैसे किसी ने अचानक ऑक्सीजन खींच ली हो।

> अर्जुन (धीरे से): “तहख़ाने में… ज़िंदा?”



सविता की आँखें दूर कहीं अतीत में खो गईं।

“रघुनाथ ने कहा था कि वो भागने की कोशिश कर रही थी…
कि वो किसी से मिलने वाली थी…
और कि वो इस घर, इस परिवार को बर्बाद कर देगी।”

अर्जुन ने एक कदम पीछे लिया।
“और आपने उस पर यक़ीन कर लिया?”

सविता कुछ बोल न सकीं।
बस काँपते हुए एक पुरानी चाभी की ओर इशारा किया —
काली, जंग लगी हुई, जैसे सालों से किसी ने छुई न हो।

“तहख़ाने का यही दरवाज़ा है।”
उनकी आवाज़ एक फुसफुसाहट बन गई।

अर्जुन ने चाभी हाथ में ली — धातु ठंडी थी, अस्वाभाविक रूप से ठंडी।
जैसे किसी के छूते ही चेहरा पढ़ लेती हो।


हवेली बाहर से शांत थी, लेकिन अंदर कुछ जाग रहा था — साफ़ महसूस होता था।

अर्जुन और सावंत ने टॉर्चें जलाईं।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हवा में वही परफ्यूम तैर रहा था — देवयानी का।

> सावंत (धीरे से): “सर… आपको भी ये महक आ रही है?”



> अर्जुन: “इस बार महक नहीं… ये चेतावनी है।”



वे हवेली के पिछले हिस्से की ओर बढ़े, जहाँ दीवारों पर काई चिपकी थी और एक पुराना पत्थर का दरवाज़ा आधा धँसा हुआ था।

धूल हटाते ही दरवाज़े पर उकेरे शब्द दिखाई दिए—

“जो भीतर जाएगा… वही लौटाएगा न्याय।”

सावंत हड़बड़ा गया।
“सर, ये किसने लिखा होगा?”

अर्जुन बस एक बात जानता था —
ये ताज़ा लिखा नहीं था।
ये बहुत पुराना था।

तहख़ाना — पहली सीढ़ी

दरवाज़ा खोलते ही अंदर से ठंडी हवा का झोंका नहीं… बल्कि किसी के हल्के रोने जैसी आवाज़ आई।
बहुत धीमी, जैसे कोई दीवारों में फँसा हो।

सावंत ने टॉर्च उस तरफ़ घुमाई।
नीचे जाती सीढ़ियों का अंधेरा खड्डे जैसा लग रहा था।

> अर्जुन (दृढ़ स्वर में): “चलते हैं।”



पहला कदम रखते ही दीवारें नम महसूस हुईं — जैसे उनमें से पानी रिस रहा हो…
या शायद कुछ और।

नीचे उतरते-उतरते हवा भारी और बासी हो गयी।
मिट्टी, नमी और किसी पुराने इत्र की गंध आपस में घुली थी।

और तभी—

ठक… ठक… ठक…

किसी के नंगे पैरों की आवाज़ सीढ़ियों के नीचे से आई।

सावंत ने अर्जुन का बाजू कसकर पकड़ा।
“सर… कोई नीचे है!”

> अर्जुन: “या कुछ…”




आख़िर में एक लोहे का बंद दरवाज़ा मिला।
सालों पुराना, ऊपर जले हुए मोमबत्तियों के निशान, और दरवाज़े पर हथेली की धुँधली छापें।

अर्जुन की टॉर्च झपकी।
एक पल के लिए लगा — दरवाज़े के पीछे कोई खड़ा है।

सावंत ने काँपते हुए पूछा,
“सर… ये आवाज़ें… असली हैं?”

अर्जुन ने जवाब नहीं दिया।
उसने चाभी ताले में डाली।
धातु ने एक अजीब चीख़ जैसी आवाज़ की — कर्र्ररर…
मानो कोई अंदर से नाख़ुश हो।

दरवाज़ा खुला।


कमरे के भीतर बस दो चीजें थीं—

1. एक टूटे आईने का फ्रेम


2. और ज़मीन में एक छोटा, ढका हुआ गड्ढा



अर्जुन आईने के पास गया।
शायद कभी यहाँ एक बड़ा शीशा रहा होगा।
फ्रेम के पीछे उकेरा था—

“D — मरने से पहले मैं सच नहीं कह सकी।”

अर्जुन ने गड्ढे की ओर देखा—
मिट्टी नई-नई हटाई हुई लग रही थी…
जैसे हाल ही में किसी ने उसे छुआ हो।

> अर्जुन (धीमी आवाज़): “राजेश यहीं आया था…”



तभी दीवार के उस पार से आवाज़ आई—

“किसी ने मुझे कभी सुना नहीं…”

एक औरत की आवाज़।
धीमी।
थकी हुई।
ठंडी।

सावंत की टॉर्च उसके हाथ से गिर गई।
“सर… ये क्या—”

अर्जुन ने उसे चुप कराया।
वो दीवार के करीब गया।
हाथ दीवार पर रखा।

दीवार पीछे से गुनगुनाने लगी।
वही धुन— वही ग्रामोफोन वाली धुन…
जो राजेश के कमरे में बज रही थी।

अर्जुन की आँखें फैल गईं।

दीवार के दूसरी तरफ़ कोई था।

या था कभी।

और तभी—

गड्ढा खुद-ब-खुद थोड़ा धँसने लगा।
जैसे उसके नीचे कोई साँस ले रहा हो।

सावंत चीख पड़ा—
“सर, ये जगह… ये जगह जिंदा है!”

अर्जुन ने फुसफुसाया—
“नहीं…
ये जगह ज़िंदा नहीं है।
कोई और अब भी यहीं है।”

अचानक गड्ढे के किनारे से महिलाओं के कंगन की आवाज़ आई—
छन… छन…

और वही खुशबू — वही परफ्यूम — पूरे कमरे में फैल गया।

अर्जुन को समझ आ गया।

देवयानी यहाँ दफनाई गई थी।
और राजेश ने उसकी कब्र ढूँढ ली थी।

कमरा अचानक अँधेरे से भर गया।
टॉर्चें बुझ गईं।

और darkness में एक फुसफुसाहट गूँजी—

“मैं अभी पूरी नहीं हुई…”