अधूरे सपनों की चादर - 6 Umabhatia UmaRoshnika द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अधूरे सपनों की चादर - 6

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अध्याय ६

सुबह का समय था। सूरज की हल्की-हल्की रोशनी गाँव की कच्ची गलियों में फैल चुकी थी।बाबूजी की ड्यूटी का समय सुबह सात बजे तय था। वे सरकारी दफ़्तर में काम करते थे और रोज़ सुबह अपने पुराने लेकिन मज़बूत साइकिल पर दफ़्तर जाते।

तनु को बाबूजी की साइकिल की सवारी बहुत प्रिय थी।साइकिल के आगे के हैंडल पर वह बैठ जाती और रास्ते भर खुशी से गुनगुनाती रहती।गाँव की तंग गलियों से गुज़रते हुए उसकी हँसी और साइकिल की घंटी एक साथ गूँजतीं।

बाबूजी जब दफ़्तर के रास्ते निकलते तो तनु को हमेशा बाबा जी के घर के आगे उतार देते।वहीं से पतली गली पकड़कर तनु अपने छोटे-से स्कूल पहुँचती।बसता कक्षा में रखकर वह चुपचाप पास के मंदिर चली जाती और भगवान के दर्शन करके मन ही मन प्रार्थना करती।उसके लिए दिन की सबसे सुंदर शुरुआत यही होती।

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तख्ती और दवात की दुनिया

उस ज़माने में कॉपियाँ आम नहीं थीं।बच्चों के लिए पढ़ाई का आधार था – तख्ती, मुल्तानी मिट्टी और दवात की स्याही।

सुबह-सुबह घर से निकलते हुए बच्चे अपनी-अपनी तख्ती पर मुल्तानी मिट्टी का लेप लगाते और उसे धूप में सुखाते।फिर लकड़ी की कलम को स्याही में डुबोकर सुंदर-सुंदर अक्षर तख्ती पर लिखते।

तनु भी यही सब करती।रास्ते भर तख्ती को हाथ में लेकर गुनगुनाती रहती –

“सुख जा मेरी तख्ती… सुख जा मेरी तख्ती…”

जैसे तख्ती उसका कोई साथी हो।कक्षा में पहुँचते ही मास्टर जी कहते –

“चलो, आज का सुंदर लेख लिखो।”

और सारी कक्षा तख्ती पर झुककर अक्षरों की दुनिया गढ़ने लगती।स्याही की खुशबू, बच्चों की धीमी बातचीत और तख्ती पर चलती कलम की खटर-पटर – मानो यह सब मिलकर स्कूल का संगीत बनाते थे।

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तनु और रोनी की दोस्ती

तनु की कोई खास सहेली नहीं थी।वह अक्सर अकेली ही खेलती या किताब में खोई रहती।

पर उसी गली में एक सिख परिवार रहता था।उनका छोटा लड़का था – रोनी।

धीरे-धीरे तनु और रोनी की गहरी दोस्ती हो गई।वे दोनों दिनभर साथ खेलते, बातें करते और एक-दूसरे की छोटी-छोटी खुशियाँ बाँटते।

तनु को लगता जैसे उसकी तन्हाई अब कम हो गई है।पढ़ाई से फुर्सत मिलते ही वह रोनी के साथ खेलों की नई योजनाएँ बनाने लगती।

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संतरे की गोली का सपना

एक दिन स्कूल की छुट्टी के बाद दोनों बातें करते-करते गाँव की गली में टहल रहे थे।रोनी ने कहा –

“तनु, चल न… उस चौपाल वाली दुकान से संतरे की गोली लेते हैं।”

तनु की आँखें चमक उठीं।वह छोटी-सी गोलियाँ जैसे उसके लिए किसी खज़ाने से कम नहीं थीं।

दोनों हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलते रहे।गाँव की गलियों को पार करते-करते वे अनजाने ही बहुत दूर निकल गए।

गाँव की सीमा के बाहर हवा और खुली हो गई थी।पेड़ों के नीचे चरते मवेशी, खेतों की हरियाली और दूर तक फैली पगडंडियाँ… सब कुछ नया-नया लग रहा था।

तनु को लगा जैसे वह कोई रोमांचक यात्रा पर निकली हो।

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अचानक हुआ तूफ़ान

तभी पीछे से साइकिल की घंटी बजी।चाचा जी साइकिल पर दफ़्तर से लौट रहे थे।

उन्होंने पास आते ही देखा –“अरे! ये तो हमारे ही घर के बच्चे हैं। ये यहाँ इतने दूर क्या कर रहे हैं?”

उनकी आँखों में चिंता और नाराज़गी दोनों झलक रही थीं।

बच्चों को डाँटने का समय नहीं था।उन्होंने झटपट दोनों को साइकिल पर बिठाया और तेज़ी से घर की ओर लौट पड़े।

गाँव की सीमा पार करते ही खबर फैल गई –“तनु और रोनी ग़ायब हो गए थे… अब मिल गए हैं।”

घर पहुँचते ही मानो तूफ़ान मच गया।परिवार वाले बेचैन थे, मोहल्ले के लोग इकट्ठा थे।सबके चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं।

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घर की राहत

तनु के घर पहुँचते ही माँ दौड़कर आईं।उन्होंने अपनी नन्हीं बिटिया को सीने से लगा लिया।

आँखों से आँसू बह रहे थे, पर होंठों पर राहत की मुस्कान थी।माँ ने जल्दी से रसोई से एक छोटी-सी पीतल की गिलासी निकाली और उसमें गरम-गरम दूध डालकर तनु को पिलाया।

“लो बिटिया… अब डर मत।”

घर का सारा तनाव जैसे उस गिलासी दूध के साथ धीरे-धीरे पिघल गया।पड़ोस के लोग भी मुस्कुरा दिए।गाँव वालों की आँखों में अपनापन था – जैसे सब एक ही परिवार हों।

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तनु का एहसास

उस रात तनु चुपचाप चारपाई पर लेटी रही।उसे समझ आ रहा था कि उसके मासूम खेल ने घर में कितना बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया।

पर उसके मन में एक अजीब-सा गर्व भी था –“मैं अकेली नहीं हूँ… पूरा गाँव मेरी फिक्र करता है।”

उसने तय किया –अब से वह और सतर्क रहेगी, पर सपनों और रोमांच की दुनिया से दूर नहीं होगी।

क्योंकि उसे एहसास हो चुका था –ज़िंदगी छोटी-छोटी घटनाओं से ही बड़े सबक सिखाती है।