कवि कंगाल कलम धनवान Abhishek Mishra द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कवि कंगाल कलम धनवान

एक भूखे पेट की अमर वाणी, एक अनदेखे कवि की अमूल्य कहानी

यह कविता उस भाव की पुकार है —

जिसमें शब्द भले निर्धन हों,

पर आत्मा से समृद्ध हों।

"कविता उसके लिए नहीं, जो ताली दे —

कविता उसके लिए है, जो रो उठे बिना आवाज़ दिए।"

 

"कवि कंगाल कलम धनवान"

 

कवि बैठा चुप कोने में, भीड़ करे उसे तिरस्कार,  

जिसने शब्दों से जिया, उसी को मिला धिक्कार।

 

मंच मिला ना माइक को, ना मिला पुरस्कार,  

पर उसकी लेखनी लिख दे, युगों का संसार।

 

धूप सहा, छाँव न देखी, गीत रचे दिन-रैन,  

पेट भरे ना चार ग्रास, मन में अग्नि सहेन।

 

न स्याही बची, न शब्द बचे, बस बचा अभाव,

फिर भी गाया उसने जग में, प्रेम-पीर का भाव।

 

कभी लिखा माँ के आँचल पर, कभी टूटे स्वप्नों पर,  

कभी किसान की व्यथा कहे, कभी बेटियों के सपनों पर।

 

बोला कभी वो युद्ध में, सैनिक बन कर गीत,  

कभी लिखा वो छाँव में, आँसू की जीत।

 

परिचय ना छपा कहीं, ना ही नाम मशहूर,  

फिर भी उसके लफ़्ज़ों में, चमके चाँद और सूर।

 

लोग कहें, "कविता से क्या?" "रोटी ना मिले",  

पर कौन समझे, कविता से आत्मा को सिला मिले।

 

दुनिया देखे बड़ी नजर से, कहे ये फिजूल का काम,  

जिसे कवि ने दिल दिया, वही बुझा दिया शाम।

 

सम्मान न मिला कभी, बस तिरस्कार की छाँव,  

कविता का ये दस्तूर है, इस पर न कोई सवाल।

 

कवि जब भी मचा ज़ोर से, उसे चुप कर दिया गया,  

जो दिल की आवाज़ बनी, उसे दबा दिया गया।

 

कलम से जो जले थे, वो आज भी जल रहे हैं,  

नज़रों में नहीं जगह, पर दिल में पल रहे हैं।

 

"अभिषेक" कहे ये कविता, न टूटे हौंसले का पथ,  

भूखे रहो पर सच लिखो, यही है कवि की रीत।

 

ना कोई माया, ना कोई पैसा, बस दिल का सच्चा दर्द,  

जो भी पढ़े, वो कहे — ‘कवि है ये मेरे अंदर का हर दर्द’।

 

छीन लिया सब दुनिया ने, पर छीन न पाए स्वाभिमान,

कंगाल था जिस्म से भले, पर कलम थी उसकी सुलतान।

 

✍️ रचयिता: अभिषेक मिश्रा 'बलिया'

 

"सम्मान नहीं मांगा, बस समझदारी की नज़र मांगी।

कलम की कीमत पूछने वालों से, संवेदना की भीख मांगी।"

 

यह कविता उन अनसुने कवियों की मौन पुकार है, जिनकी आवाज़ समाज के शोर में खो जाती है।

जब कोई युवा अपने सपनों में कविता लिखने की सोचता है, तो उसे सुनाई देती है दुनिया की कटु आवाज़—

"कवि क्या करेगा? इससे तो कुछ नहीं होगा।"

यह सवाल कब तक यूं ही दबा रहेगा? क्या सचमुच कविता, साहित्य और लेखन को समाज में वह सम्मान कभी नहीं मिलेगा, जिसका वे हकदार हैं?

कवि को भूखा रखा जाता है, लेकिन उसकी लेखनी में सत्य और प्रेम का अमूल्य खजाना छिपा होता है।

यह कविता एक जागरण की आवाज़ है —

जो हर उस दिल को झकझोरती है जो अपने सपनों को तिरस्कार की दीवारों में फंसा हुआ पाता है।

👉क्यों हम अपने कवियों को, लेखकों को, कलाकारों को “अल्पजीवी” समझकर कमतर आंकते हैं?

👉क्या यह सचमुच ठीक है? क्या कविता और साहित्य को केवल भुखमरी और तिरस्कार का पात्र बनाना चाहिए?

👉क्या वे शब्द, जो समाज को जोड़े और जगाए, बस एक बेकार का शौक हैं?

इस कविता में वह दर्द छिपा है, जो हर कवि के दिल में जला रहता है।

जो भूखा रहता है, पर कलम उसकी अमीर होती है।

जो तिरस्कार सहता है, पर मन का सच्चा सूरज कभी बुझता नहीं।

यह कविता हर उस युवा की आवाज़ है, जिसे रुकने और थमने को कहा गया, लेकिन वो फिर भी अपने शब्दों से दुनिया को बदलने का सपना देखता है।

👉क्या हम कभी समझेंगे कि कविता सिर्फ शब्द नहीं, यह जीवन की धड़कन है, समाज की चेतना है?

यह कविता हर उस युवा को प्रेरित करती है, जो दिल में लिखने का जज़्बा रखता है,

और उसे कहती है — "रुको मत, डरो मत, लिखते रहो। तुम्हारा कलम तुम्हारा धन है।"

 

सोचिए:

👉क्या हम अपने कवियों को वो सम्मान दे पा रहे हैं, जो वे हकदार हैं?

👉क्या रोटी और पैसे से परे, उनका दर्द और संघर्ष भी हमारी समझ में आएगा?

👉क्या आज भी हम कविता को केवल फिजूल समझकर उसे अनसुना कर देते हैं?

👉क्या सिर्फ व्यावसायिक सफलता से ही व्यक्ति की कदर होनी चाहिए?

 

अगर जवाब नहीं है, तो फिर कब तक चलेगा यह अंधेरा?

 

क्यों न हम सभी मिलकर कहें —

“कवि कंगाल सही, पर कलम धनवान है। और उसकी आवाज़ को दबाना अब बंद करो।”

 

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