मुक्त - भाग 12 Neeraj Sharma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मुक्त - भाग 12

 (    मुक्त ) ---- (12) वा उपन्यास का धारावीक है, कौन ऐसी कहानी पढ़ता है। जो दोजख के सफर का और जनत के फासले के करीब जाती जाती रुक गयी हो।
                       ये एक दवन्द युद्ध है, ऐसा फैसला कभी जो खत्म न होने वाला हो। इस लिए लेखक ने दानिश के बापू के हाथ से पिस्टल चला दी, जो सीधी दानिश की  माँ के सिर से टच होके युसफ के सीने को चीरती हुई निकल गयी। दानिश काँप गया। पहले को उसे समझ ही ना आ रहा था... कि एकाएक हुआ कया। आज जयादा पी लीं थी,  माँ  पे क्रोध फूटा, और गोली चल गयी। एक मोके पे दम तोड़ गया, और दूसरी माँ लहू वगने से बेहोश... आखिर बापू ने ऐसा कयो किया था। 
                       बंद कमरे से आजादी... खूब पी, और कोई आज रोकने वाला भी नहीं था... घर के लोगों ने नौकरो ने जैसे तैसे बापू को पकड़ा... सगळ डाला... मेटली अपसेट...
                      कया हो सकता था... एम्बुलेंस... का हारन... चीखती हुई गाड़ी... सड़क पे... बस जो होना था हो गया।
                      नेक इंसान इतनी जल्दी चला गया। और दानिश शायद कभी माफ़ नहीं कर सकेगा आपने आपको.... पुलिस , डॉ कि टीम... सब चुप... सनाटा दर्द, प्रहार का, दानिश कह रहा था... "ये मेरे लग जाती -" कितना कहर बरपा था.... नेक इंसान पे। 
                         भाई दोनों को अथाह पैसा दे दिया गया, मगर पकीजा को.... उसका सब जैसे लूट गया हो। वो मुर्गी के मीट का हलाल कहता रहा.... ख़ुशी के मोके पर, पर खुद ऐसी मौत मरा.... कार साज बे अंत कैसे कर देता है कभी कभी.... उसकी लिखत मे ऐसा कैसे हो गया... सोचता है... यहां पे आ कर केवल लेखक और साथ दानिश.... इस लिए कभी कभी विश्वास उठ जाता है परवरदिगार से.... जो कराहत करता था, हलाल करने को, बेगुनाह मुर्गी के कटने को, वो ऐसी मौत मारा गया... ना हलाल की न हराम की....
                         खुदा उसकी आत्मा को शन्ति दे... अलविदा कह गया था... दानिश अब बाग देता है... उसकी बड़ी बड़ी दाढ़ी मुशे और चेहरे पे रगत है। जो आया है, वो जायेगा....
                     अलविदा कब कोई कह जाये, सासो का भरमजाल कब टूट जाये.. कौन जानता है... कोई नहीं.... लेखक की आँखो मे पानी था... ऐसी मौत का दुख इस लिए था, जो असमय ही हो गयी थी.. सासो का चलना ही बस जिंदगी है, चाये वो बंदगी मे, तो चाये ऐश शबाब और शराब मे हो।
            समय का चक्र चलता गया। अब जो मर्जी हो, मेरा अजीज इस दुनिया मे नहीं... ये भ्र्म जाल निकलते एक उम्र लगेगी।
                   समय बीत जाता है, वही सुबह वही शाम। वही रात के चार पहर..... लोग आये... चले गए....
                     मगर कुछ कहानियाँ छोड़ जाता है, दानिश किसी से बोलता नहीं था। एक दफा पकीजा वही मस्जिद मे आयी थी... अकेली....
                  " मेरा युसफ लुटा दो, दानिश... " आँखो मे जलजला था।
                 " दानिश जबाब दो। " पकीजा ने चिल्ला कर बहुत उच्ची आवाज़ मे कहा।
दानिश चुप बस चुप... मौन था... जैसे जुबा नहीं है... आखें है वो भी ऊपर को देख कर हस रहा था।
" दानिश ----बोलो, बोलते नहीं.... दोजख मिलेगा तुम्हे.. " वोह बहुत उच्ची उच्ची बोलती रही।
पर दानिश मौन था। चुप था, खमोश था। ऊपर बात करता रहा नीली छत को देख..... एक जगह ही बैठा बस। लेखक की सुने अब.... कुछ शायद वो पता लगे तो मुझे जरुरु बता देना.... इस उपन्यास कड़ी का यही और ऐसा ही अंत था। सच मे।
                      ( समाप्ति )      नीरज शर्मा 
                                        शाहकोट, ज़िला जालंधर।