मुक्त - भाग 1 Neeraj Sharma द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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मुक्त - भाग 1

       -------- मुक्त  ( भूमिका ) 

कही से भी शुरू कर लीजिये आप को समझ पड़ जायेगी। ये कोई भी नकल के आधारत नहीं है, मै जिम्मेदारी लेता हुँ कि ये उपन्यास कुछ हट के है, जज्बात और भाबुक से बढ़ के कुछ जो रब करता है, हम हमेशा ही उसको खुश करने मे समाजिक रिश्तों को कयो भूल जाते है..... बस यही कहने का प्रयास किया है। इस मे और है एक तिलमिला ते जज्बात बस।

शुरू होता है कुछ इस  ढंग मे.....

युसफ खान का एक छोटा सा घर शुरू होता  है.... एक बड़े से कस्बे मे... उस  मे छते है एक दूसरे घरो से जुडी हुई... कुछ खुली गलिया है, चौक है... मस्जिद है.. सोच रहे हो, किसी भी घरके चुबारे नहीं है... सोच रहे होंगे कयो नहीं है, मुझे मालूम नहीं है... एक छत पे कुछ लडके पतंग उड़ा रहे है... काफ़ी डोरे है.. कितने पतंग है... नीले आसमान मे उड़ रहे... हल्ला गुला है, चीखे है, कोई भाग रहा है.... कोई सोच रहा है.... कोई लूटने कि फ़ितरत मे उड़ते पतंग को पकड़ रहा है.... कोई पतंग कट रहा है, दूर से खडे लडके इशारे चीख रहे है। 

                          ये घरो की छतो का सुहाना नजारा  देखने मे मस्जिद से आता था। जैसे सारे घर एक ही हो... जुड़े हुए से... दीवारे तो जैसे किसी की ना  हो। 

                             उच्च कुर्सी का घर बस एक युसफ खान का ही था। साथ वाले घरों के आधे पचादे घरो के मर्द काम को निकल जाते थे... जो पच्ची और बीस के दरमयन लडके थे वो फालतू की भागदौड़ मे लगे रहते थे।

उपन्यास की कहानी के पात्र कुछ इस तरा से जोड़ने पड़े गे जैसे किसी गाड़ी के पहिये नट बोल्ट.... नहीं तो कहानी और उपन्यास कुछ का कुछ बन जायेगा। सोचने वाली बात ये है कि गलत अभिप्राय ना बन जाए... पढ़ने वाले ये ना कहे... ये युसफ खान  ही कयो, और कयो नहीं... भाई मुस्लिम धर्म मे प्रथा है एक जो बुजर्ग काम जो करते रहे जैसे एक बड़ा भाई मस्जिद की देख रेख करे तो दूसरा जरूरी नहीं.. तीसरा जरूरी नहीं... चौथा हाँ बाप कहे तुम अब कुंवारे हो चाभी संभाल लो, तो वो संभाल लेगा... कारण वो दुनिया दारी से दूर हो.... कुछ इस तरा से इस कहानी का तात प्रयास है... भगती मे  रस कब मिलेगा... ज़ब तुम अपनेआप को खाक सार समझो गे। बनावटी पन इस मे चलता नहीं है। न चलेगा। याद रखो हमेशा, जीवन टूटने की तगार पे खड़ा रहे और तुम कुछ भी करो.... कुछ लिखत होती है, जो बदली नहीं जाती।  

                  हैरान मत हो...खोस्त पूर्बी आफिगान स्थान का शहर है... साथ मे है एक गांव... उबड़ खेबड़ रास्ते... उचाई इतनी, लम्बी सडके बहुत ही टूटी पथरो से बनी हुई। साथ मे पथरो के कारीगर ने इतनी सुंदर क्लाकृति की हुई थी... बीस घर  थे... जिनकी छतो पे पतंग उड़ रहे थे... खोल नुमा पथरो के घर, जो हैरान करने वाले थे.... उसके बीच मे युसफ का घर था। ये उपन्यास की भूमिका बाधी गयी है। कितनी भावक प्रकिति है। एक पथर से ही बनी हुई सीढिया.... जो ऊपर तक जाती थी। और ऊपर थी मस्जिद की शानदार प्रकिति... वाह कया कुदरत का माहौल कितना भावक था....

(चलदा )-------- दूसरी किश्त जल्दी निशुल्क आपके सामने... एक सत्य घटना की सुंदर लेखनी से स्पर्श किया हुआ उपन्यास।