रक्षण Deepak sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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रक्षण

मेरी नींद नए आए यात्रियों ने तोड़ी। 

“देखो तो यह सवारी कैसे मुंह ढांप कर सो रही है।”

“जब कि अभी शाम के आठ ही तो बजे हैं।”

दोनों पुरुष स्वर थे।

निष्ठुर और कर्ण कटु।

“वह मेरे साथ है,” मुझे बाबूजी की आवाज़ साफ़ सुनाई दी।

बाबूजी? बाबूजी?

चौंक कर गाड़ी से मिला कंबल मैं ने अपने चेहरे से हटा लिया ।

हां,सामने बाबू जी ही थे। हल्के भूरे रंग की ज़मीन पर काले रंग के महीन चार खानों वाले उसी कोट में जो हम दोनों ने एक साथ चुना था । मां की मृत्यु के पश्चात अपने कपड़ों की खरीदारी अब वह मेरी संगति में किया करते ।

“ कहां से आ रहे हैं?” नवांगुतकों में जैकेट वाले ने पूछा । दूसरा कोट पहने था । पैंतीस और चालीस के बीच उन दोनों की उम्र कुछ भी हो सकती थी । उन के सामान में दोनों बड़े सूटकेस खाली-खाली लग रहे थे और दोनों छोटे भरे-भरे।

“ पिछले स्टेशन से ,” बाबू जी बोले ।

मतलब वह भी मेरे साथ हरदोई से चढ़े थे?

मेरी और मेरे पति की द्रष्टि बचा कर? 

मेरे लिए, अकेली, रेलयात्रा करने का वह पहला अवसर था ।

मेरे पति तो कहे भी रहे,’ इतनी लंबी रेलयात्रा करने का मतलब है,खतरे को अपने पास बुलाना’।

 किंतु मैं ने उनकी एक न सुनी थी,’ कैसा खतरा? इधर आप ने मुुझे रिज़र्व ए.सी. में बिठला देना है,और उधर अंबाला से मेरी सहेली ने मुुझे अपनी निजी गाड़ी से अपने कस्बापुर ले जाना है ।’

दो दिन बाद मेरी सहेली की शादी पड़ रही थी जिस में सम्मिलित मुुझे होना ही होना था ।

“इधर  शाहजहांपुर में हमारी साझे की दुकान है । उधर लुधियाने में ऊनी सामान सस्ता है । इसीलिए हम ये सूटकेस खाली ले जा रहे हैं ।”

“आप कहां जाएंगे?” जैकेट वाले ने पूछा।

“अंबाला,” बाबू जी ने मेरी सामने वाली सीट पर लेटने का उपक्रम किया,” आप दोनों की सीटें ऊपर की हैं। आप वहीं चले जाइए…..”

“ इतनी जल्दी? अभी तो हमें खाना खाना है……” जैकेट वाला हंसा।

“ और खाने से पहले ताश खेलनी है,” कोट वाला बोला,“ और ताश के साथ सर्दी भगाने के लिए इस का सेवन भी करना है।”

 वातानुकूलित चार सीटों वाले उस कोच के विभाजन के पर्दे खींच कर अपने सामान में से उस ने ताश और कोई एक बोतल उठा ली।

“हां,हां,” जैकेट वाले ने उत्साह दिखाया और कोच की मेज़ पर रखी थरमस में से दो प्लास्टिक के गिलास निकाले और उन में पानी उंडेलने लगा।

“तुम अपना सो लो,” बाबू जी ने मेरी तरफ़ देखते हुए उन के बैठने की जगह बनाई। 

बाबू जी से बात करने का लोभ टालना मेरे लिए अनिवार्य हो गया। अपिरिचितों तथा बेगानों के बीच हम अपनी बातचीत अल्पतम ही रखा करते।

 

सहसा वे सभी प्रसंग मेरे सामने चले आए जब-जब बाबू जी मुझे मेरी मौज की लहर के दौरान अचानक कहीं भी दिखाई दे जाते। किसी रेस्तरां में सहेलियों के साथ खाना खाते हुए मैं अकस्मात देखती वह भी उसी रेस्तंरा में उपस्थित हैं । चाय या काफ़ी के अपने प्याले के साथ। अपने साथ वह सदैव अल्पव्ययी रहे।

या फिर मैं कहीं पिकनिक मना रही होती और बिना किसी चेतावनी के वह मेरे सामने प्रकट हो लेते।

वह बस का सफ़र तो मुझे भुलाए नहीं भूलता जब अपनी दो साथिनियों के साथ एक वाद विवाद में भाग लेने मैं अपने कालेज की ओर से अंबाला से चंडीगढ़ जा रही थी और हम तीनों लड़कियां गलत बस में सवार हो ली थीं। हमारी खरीदी टिकटें दूसरी बस की रहीं। मगर ‘वह बस पीछे आ रही है,’ कह कर उस बस कंडक्टर ने जब हमें बस से नीचे उतारना चाहा था तो तत्काल बाबू जी ने उठ कर उसे रोक दिया था,’ लड़कियों को यहीं बैठे रहने दो और तीन नए टिकट काट दो’। बाद में लड़कियों ने मुझे लज्जित भी किया था,’तुम्हारे बाबू जी तुम्हारे मार्ग- दर्शन के लिए ही जानबूझ कर इस बस में सवार हुए हैं।’

लेकिन मेरे पूछे जाने पर बाबू जी यही कहते रहे,’मात्र संयोग से मुझे भी उसी दिन उसी समय चंडीगढ जाना पड़ गया था….’

 

गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी।

‘उन्नीस नंबर यही है,’ पर्दा हटा कर किसी नए कुली ने नए यात्री का सामान बाबू जी की सीट पर ला जमाया ।

“आइए,आप बैठ जाइए । मैं नीचे जा रहा हूं…”

क्या बाबू जी मुझे छोड़े जा रहे थे?

हड़बड़ा कर मैं उठ बैठी ।

ऊपर की बरथों से खुर्राटों की आवाज़ नियमित रूप से आ रही थी । वही कोट और वही जैकेट अपनी अपनी खूंटों पर टंगे थे ।

लेकिन बाबू जी कहां गए थे?

जहां अपनी नींद में जाने से पहले मैं ने उन्हें स्पष्ट देखा था ?

हल्के भूरे रंग की ज़मीन पर काले रंग के महीन चारखानों वाले उसी कोट में जो हम दोनों ने एक साथ चुना था?

“कौन सा स्टेशन है?” मैं ने नवांगुतिका से पूछा ।

“नजीबाबाद,” वह पचास- पचपन की रही होगी। मुझ से बीस-पच्चीस साल बड़ी। 

“आपकी यह सीट आरक्षित है क्या?” मैं ने दूसरा सवाल किया ।

“ नहीं क्या?” खुरखुरे लहजे में स्त्री बोली, “दस दिन पहले की कराई हुई है। मखौल है कोई? जो रात के एक बजे हम यों गाड़ी में चढ़ आएंगी?”

“आप ने किसी को इस स्टेशन पर इस डिब्बे से उतरते हुए देखा क्या?” मैं ने तीसरा सवाल दागा ।

“ मुझे अपने सामान की फ़िक्र रखनी थी या इधर-उधर की सवारियों के चढ़ने- उतरने की?”

 

जभी मुझे कंपकंपी छूट गई। 

मानो मुझ पर कोई भूकंप, कोई बवंडर छितरा हो…..

कोई तूफ़ान, कोई प्रभंजन उबला हो……..

कोई झंझा,कोई झक्कड़ टूटा हो…..

 

दूसरी बार। 

पिछले साल जैसा…..

जब मेरे मोबाइल पर भाई ने मुझे सूचना दी थी,’ बाबू जी आज चल बसे।’