८: स्वर्ग-नरक
एक दिन झेनगुरू ओैर ईश्वर में ज्ञानचर्चा चल रही थी। झेनगुरूं ने ईश्वर से पुछा “ भगवन, मुझे स्वर्ग-नरक कैसे दिखते है यह जानने की बडी उत्सुकता है।”
ईश्वर झेनमास्टरजी को लेकर, जहाँ स्वर्ग-नरक के दो दरवाजे थे वहाँ पहुँच गए। जब पहला दरवाजा खुल गया तब मास्टरजी ने देखा, एक बडे से कमरे में, बहुत ही बडा टेबल रखा हुआ है। उस टेबल पर दुनियाभर के स्वादिष्ट व्यंजन रखे हुए थे। रुचिपुर्ण व्यंजन देखकर मास्टरजी के मन में भी वह पदार्थ चखने की तीव्र लालसा उत्पन्न हुई, लेकिन फिर उनके नजर में यह भी आ गया की वहाँ बैठे लोग बहुत ही निस्तेज, रोगी लग रहे है। ऐसा लग रहा था मानो कितने दिनों से उन्हे पेटभर खाना ना मिला हो। सबके हाथ में बडे ओैर दो-दो फिट लंबे चम्मच थे। लंबाई की वजह से खाना खाने में उन्हे तकलीफ हो रही थी। झेन मास्टरजी को उन सब पर बडी दया आ गई। ईश्वर ने बताया आपने नरक देख लिया अब स्वर्ग के तरफ चलते है।
फिर वह दोनों दुसरे दरवाजे की ओर बढे। मास्टरजी ने देखा यह कमरा भी काफी बडा है ओैर बडे से टेबल पर यहाँ भी स्वादिष्ट व्यंजन रखे हुए है। वहाँ बैठे हुए लोगों के हाथ में भी लंबे ओैर बडे चम्मच दिखायी दिए, लेकिन वहाँ बैठे सब लोग बहुत ही खुश थे। स्वास्थपूर्ण जीवन से निरामय दिख रहे थे। विनोदपूर्ण चर्चा की रंगत से माहोल रंगीन बन गया था। यह सब देखकर मास्टरजी ने भगवान से पुछा “ प्रभू, मैं इस बात का मतलब नही समझ पा रहा हूँ।”
ईश्वर ने कहा “ वत्स सीधी सी बात है, स्वर्ग में लोग बडे ओैर लंबे चम्मच से एक-दुसरे को खिलाते है। इस वजह से हर कोई स्वादिष्ट भोजन का लाभ प्राप्त कर लेता है ओैर स्वस्थ रहता है। तो दुसरी ओर नरक में लालच से भरे लोग यही सोचते है की स्वादिष्टता से भरपुर भोजन मुझे ही प्राप्त हो जाए ओैर किसी को नही। इस वजह से कोई कुछ नही खा सकता।”
मतितार्थ, जब समाज में केवल स्वार्थतापूर्ण विचार बहने लगते है तब समाज की अधोगती निश्चित है। ऐसा कोई भी कर्म नही है जो अकेले कर सके ओैर उसकी फलप्राप्ती भी अकेले पा सके, इसीलिए खुद की उन्नती के साथ जो दुसरों का भी भला चाहता है, वही लोग खुशहाल ओैर उन्नत जीवन के भागी होते है। उनसे दुसरों को भी लाभ मिलता है ओैर सकारात्मक जीवन वह खुद भी जीते है। जो लोग लोभी, लालच से भरे होते है, कोई भी आदमी मुझसे आगे ना जाए इसी भावना में जीते है, उनके लिए तो सारा जीवन ही वेदनापूर्ण हो जाता है। ऐसी मानसिक अवस्था में वह दुसरों से भी अपमानजनक, दुःखतापूर्ण व्यवहार करते है। ऐसे व्यक्ति के संपर्क में अच्छे आदमी को घुटन महसुस होती है। हम सृष्टी के कोई भी अंश हो, जहाँ बिना कारण से आनंद आता है वही स्वर्ग है, ओैर जहाँ उदासी, चिडचिडापन महसुस होता है वही नरक है। सच्चा आदमी जीवन में प्रेरणा देकर जाता है, तो झुठा, बुरे विचार का आदमी दुःख ही देता है। मराठी संत वामनराव पै कहते है ‘ तुम ही तुम्हारे जीवन के शिल्पकार हो’ व्यक्ती अपना व्यक्तिमत्व खुद बनाता है। भला या बुरा वह उसीके हाथ में है।
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९ : प्रश्न
एक दिन झेनमास्टर ओैर मनोचिकित्सक बगीचे में चर्चा करते बैठे थे। मनोचिकित्सक बहुत दिन से एक प्रश्न झेन मास्टरजी को पुछना चाह रहे थे तो उन्होने पुछा “ महात्मन, आप लोगों की सहायता कैसे करते हो?”
मास्टरजी ने जबाब दिया “ मैं लोगो को ऐसी जगह ले जाता हूँ, जहाँ किसी को कोई सवाल ही नही पुछना पडे।”
मतितार्थ, ध्यान यह एक ऐसी प्रक्रिया है की उस शांती में प्रवेश करते ही व्यक्ती के मन में कोई सवाल आते ही नही। कोई प्रश्न का निर्माण शांती में नही होता। अशांती हजारों सवालों का बवंडर मचाती है। कोई भी प्राप्ती की अपेक्षा किए बिना ध्यान में प्रवेश व्यक्ती करती है, तो किसी के प्रति कोई भावना उत्पन्न ही नही होती। विकार रहित अवस्था में जो आनंद है वह वर्णनातीत है। जब हमे किसी चीज की प्राप्ती करनी हो, तब मानसिक स्तर पर तरंगों की लहरे उत्पन्न हो जाती है। कहाँ? कैसे? परिणाम के विचार, दुष्परिणाम की चिंता सताने लगती है। कभी-कभी भावनाओं का अतिरेक महसुस होता है। जो चीज प्राप्त करनी है उसके आसक्ती के प्रती जो बाधाए उत्पन्न होती है उससे त्रस्त होकर व्यक्ती संकट निवारण की जो चेष्टा करता है उससे मन ओैर भी अशांती महसुस करता है, इसीलिए बेहतर है जो हासिल करना है उसके लिए सिर्फ मेहनत करो फल की अपेक्षा मत करो। इससे अशांती फैलती रहती है।
व्यक्ती जब नैसर्गिकता में एकरूप हो जाता है, तब एक तरह का सुकून का अहसास उसे मिलने लगता है। सृष्टी निखारते वक्त हवाओं के लहरों का अनुभव करना, फुलों के रंग, गंध महसुस करना, पंछीयों की उडान, डालियों के झोंके यह सब देखते-देखते किसी के भी मन में कोई सवाल उत्पन्न नही हो सकते। जीवन के समस्याओं से उस क्षण तुम दुर रहते हो। यही शांती के अनोखे पल है। यही पलों को तुम कितने देर तक महसुस करते हो उसी में साधना समायी रहती है। जितना वर्तमान में रहने का अभ्यास बढाओगे उतनी साधना गहरी होती जाएगी। सवाल हमेशा भूतकाल ओैर भविष्यकाल के बारे में सोचने से निकल आते है। वर्तमान के क्षण कब भूतकाल बन जाते है वह हम देख भी नही पाते। इसके लिए सजगता जरूरी है। हर पल के हम साक्षी हो ऐसी सजगता आनी चाहिये। अशांती से परेशान होकर ही व्यक्ती अपने मूल स्वरूप को जानने की इच्छा रखता है। निर्भेळ, निरामय, आशा-अपेक्षा रहित जगत के प्रती लगाव बढाने लगता है। यही पर शुरुवात होती है ध्यान-साधना की। जग जैसा है वैसा देखने की। जीवन में अपेक्षारहित शांती प्राप्ती के मार्ग चलने के लिए गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है तब गुरु अवश्य सहायता करते है। जहाँ कोई सवाल ही ना हो ऐसी स्थिती के ओर गुरु ले जाते है।
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