स्पंदन - 5 Madhavi Marathe द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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स्पंदन - 5

 

                                                                                        १०: ध्येय

            

           एक बार झेन मास्टरजीने सोचा की अब अपने शिष्यों का इम्तहान ले लेते है। अमावस के रात उन्होंने सब शिष्यों को इकठ्ठा किया ओैर एक विशालकाय परबत के पास पहुँच गए। रात को ठीक से रास्ता दिख जाए इसलिए सब शिष्यों के हाथ में उन्होंने एक लालटेन देके रखी थी। परबत की ओर देखते शिष्यों को आदेश दिया की आज रात यह परबत चढकर सुरज उगने से पहले उपर पहुँचना है।

          सब शिष्य आश्चर्य में डूब गए। उनके मन में विचार आ रहे थे की इतने छोटे लालटेन के प्रकाश में यह विशाल परबत कैसे चढ सकेंगे? कोई शिष्य परबत चढने के लिए सामने नही आ रहा था। अभूतपूर्व सन्नाटा वहाँ फैल गया। इतने में एक शिष्य साहसपुर्ण आत्मविश्वास से अपने गुरु के सामने आया ओैर बोला “ मास्टरजी मैं यह परबत चढने के लिए तैयार हूँ.”

          मास्टरजी ने सोचा की इसका साहस दिखाऊ तो नही है? परख करने के लिए उन्होंने एक-एक सवाल पुछना शुरू किया।

          “ बेटे यहाँ का अँधेरा तुम्हारे ध्येय में बाधा तो नही बन जाएगा? एक छोटे लालटेन के आलोक में यह विशाल परबत का दुर्गम मार्ग पार कर सकोगे? तुम रास्ता देख पाओगे?”

          शिष्य ने बडी विनम्रता से जबाब दिया की “ रातभर यह परबत चढने का मेरा मानस है। दिन में भी इस विशालकाय परबत को एकसाथ नही देख सकते, फिर भी यह चुनौती मुझे स्विकार है। लालटेन उपर रखकर जितनी दूर तक उजाला फैलता जाएगा उतना मार्ग मैं चलता रहूँगा। उस प्रकाश का ध्येय बिन्दू बनाकर मार्ग पर डटा रहूँगा। इसी प्रकार से  रातभर चलकर सुबह सुर्योदय से पहले चोटी पर पहुँच जाऊँगा।” 

          मतितार्थ, कोई भी बडा काम जब करना हो, तब पहले उस काम का आरेखन, नियोजन, विभाजन करना बहुत जरूरी है। छोटे- छोटे काम करते-करते एक बडा काम पुर्ण हो जाता है। बडा ध्येय हासिल कर सकते है। पहले अपने मन में बडे काम के प्रती आत्मविश्वास लाना जरूरी है। वह आत्मविश्वास भी केवल बढावा, दिखावा नही होना चाहिये, तो उस काम के प्रती लगाव, निष्ठा होनी भी बहुत जरूरी है। छोटे-छोटे संकल्प लेकर सातत्यता से परिश्रम करते हुए अपने ध्येय की ओर अग्रेसर होना है। योग्य तरीके से किए परिश्रम कभी व्यर्थ नही जाते। इस मार्ग में कभी बाधा ही नही आएगी, यह तो हो ही नही सकता। उस कारण भले ही कभी मार्ग बदलना पडे लेकिन ध्येय पर अटल रहना है। एकाग्रता सफलता की कुंजी है। नियम ओैर सिद्धांत का पालन यह सफलता के अनिवार्य पैलू है। यशप्राप्ती का आनंद तो मिलता ही है, लेकिन ध्येय मार्ग पर चलने की खुशी, परिश्रम का आनंद इनका मोल व्यक्ती स्वयं ही महसुस कर सकता है।

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                                                                                                 ११: समझना

   

           एक दिन च्वांग-त्जू अपने मित्र के साथ रमणीय तालाब के किनारे बैठे गपशप कर रहे थे। च्वांग-त्जू ने अपने मित्र को कहा “ पानी में तैरते हुए रँग-बिरँगी मछलियों को देखकर कितना अच्छा लगता है। अपने ही आनंद में वह तैर रही है।”

           मित्र ने कहा “ तू तो मछली नही है, तो तुम कैसे समझ पाओगे मछली अपने आनंद में तैर रही है या नही?”

            च्वांग-त्जू हँसकर बोले “ तुम मतलब मैं नही हूँ। तो मुझे यह कैसे पुछ सकते हो की मछलीयों का आनंद कैसे समझ सकते हो?”

            मतितार्थ, दुसरे लोग क्या सोच रहे है? विचार कर रहे है? यह बात हम नही जान सकते। उसकी बात सही या गलत यह भी हम नही तय कर सकते, क्युं कि हर एक की विचारधारा अपनी-अपनी होती है। उसके विचार प्रक्रिया पर या तुम्हारे विचार ऐसे-कैसे इस तरह की बात दुसरे को नही कह सकते। हर एक के विचार परिस्थितिजन्य, मानसिकता, पुर्वकर्म के नुसार रहते है। कोई बात किसी के मन को छु जाती होगी तो उस बात के सौंदर्य प्रती उस व्यक्ती की मनोवृत्ती अनुकूल होती है। अनुकूल मनोवृत्ती सौंदर्य, सुख, आनंद, सकारात्मकता दिखाती है, अनुकूलता-प्रतिकूलता यह लहरों का लेन-देन जब हो जाता है तब एकरूपता महसुस हो जाती है। वही एखाद बात किसी को बुरी लगी तो वहाँ भी लहरों का लेन-देन प्रतिकूल होने के कारण असुंदरता दिखायी देती है। एकरूपता वहाँ साध्य नही होती। इसीलिए जगत में हजारो धर्म, पंथ का निर्माण हो जाता है। जिसको जो पसंद है वही व्यक्ती करने के लिए आतुर हो जाता है, आत्मसात करता है। नवविचार निर्माण हो जाते है। हर एक की पसंद अलग-अलग है इसीलिए यह जगत नानाविध चिजों से, विचारों से, ज्ञान से भरा पडा है। नही तो एकसूरी जगत में जीना कितना मुश्किल हो जाता। एक रोबोट की तरह हमारी जिंदगी हो जाती। अपने मन को जो भाता है, वह व्यक्ती को खुद निर्धारित करते हुए मनपसंत जीवन जीना है लेकिन यह बात भी ध्यान में रखनी है की हर एक की पसंद अलग है तो उसे भी अपना जीवन जीने का पुरा-पुरा अधिकार है। अपना जीवन खुद जीए ओैर दुसरों को भी जीने दे।

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                                                                                     १२: शराब पीनेवाला शिष्य

 

         एक झेन मास्टरजी के शेकडो अनुयायी थे। वह सब नियमों का पालन बडे अच्छे  तरह से करते। पुजा-अर्चा, ध्यानादी विधीयों का विशेष रुप से वहाँ पालन किया जाता था। उन सब शिष्यों में एक शिष्य शराबी था। वह कभी नियमों का पालन ठीक तरह से नही करता ओैर पुजा-पाठ की भी कोई विधी ठीक से नही अपनता था।

         झेनगुरू वयोवृद्ध थे, उनके पश्चात आश्रम का भार किसको दिया जाएगा? उत्तराधिकारी किसे नियुक्त किया जाएगा? इसी बात की चर्चा चारों ओर चल रही थी। उनके जो प्रिय शिष्य है, उनके ही नाम सब के होठों पर थे। मृत्यु समीप आने पर उन्होंने शराबी शिष्य को अपने पास बुलाया ओैर साधना विधी के गुढ रहस्य का ज्ञान उसे देकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

         यह बात तो किसी को नही जँची। सब नाराज हो गए। जल्दी ही शिष्यों ने इस बात का विरोध करना शुरू किया। इकठ्ठा हुए शिष्य में से एक शिष्य क्रोधपूर्णता से बोला “ कितनी निंदनीय बात है। एक गलत झेनगुरू के हाथों हमने अपना जीवन सोंप दिया। कितना समय बरबाद हो गया। हमारे जैसे कितने गुणवान शिष्य यहाँ मोजुद है फिर भी गुरूं ने  शराबी शिष्य का चयन करते हुए उसे आश्रम का उत्तराधिकारी घोषित किया।”

         सब का कहना सुनने के बाद मास्टरजी ने कहा “ बच्चों, मेरे साधना विधी का रहस्य केवल ऐसे व्यक्ती को बता सकता था जो खुद को ठीक से पहचनता हो। मैं उसे ठीक से जानता हो। तुम सब शिष्य तो बहुत गुणवान हो, लेकिन हर एक व्यक्ती में कोई ना कोई कमी तो रहती ही है। तुम सब ने मेरे सामने केवल अपनी अच्छाई रखी, तुम्हारा कोई अवगुण मेरे सामने ना आने दिया। यह बात बहुत ही गंभीर है। इसके पिछे व्यक्ती का अहंकार, असहिष्णुता छिपी रहती है। इसीलिए मैंने ऐसे शिष्य का चयन किया जो खुद के अवगुण जानता हो ओैर मेरे सामने भी पारदर्शी हो। ऐसा ही शिष्य मुझे चाहिये था।”

          मतितार्थ, लोग हमेशा मैं सही हूँ, अच्छा इन्सान हूँ, इसी भ्रम में अपना व्यक्तित्व दिखाते है ओैर उसी में जीना चाहते है। कही किसी ने कुछ गलत बात उसके संदर्भ में कह दी तो दुनिया बुरी है, मुझे वह समझ नही सकते, मैं कितना अच्छा आदमी हूँ, मेरी तो कदर ही नही ऐसे भाव में दुनिया से ही झगडा मोल लेते है। सर्वसामान्य लोग समाज में निरंतर अपनी अच्छाई सामने रखते है लेकिन प्रसंगावश हर एक की कोई ना कोई बुराई सामने आ ही जाती है। एक-दुसरे की विचारधारा आपस में छेदकर पर्यवसान कलह में परिवर्तीत हो जाता है। जब कोई व्यक्ती दुसरे व्यक्ती को जानता हो, तो वह व्यक्ती के अच्छे गुणों का उपयोग करते हुए दुर्गुणों को दुर्लक्षित करते हुए अपना कार्यभाग साध लेगा। फिर वहाँ वैमनस्य उत्पन्न नही होता है। वह आदमी ऐसा ही है यह स्वीकार बाद में होनेवाले धोखे से बचाता है। कोई भी आदमी अच्छा ही ओैर बुरा ही नही होता दोनों का मिलाप व्यक्ती में रहता ही है। जो आदमी खुद को अच्छा दिखाने कई कोशिश में लगा रहता है वह वास्तव में बहुत बुरा हो सकता है। जो आदमी पारदर्शी रहता है, किसी को कुछ अपने बारे में दिखाने की कोशिश नही करता वह असल में एक उत्तम व्यक्तिमत्व की पहचान है। मास्टरजी ने शराबी शिष्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया क्युँ की वह पारदर्शी था। अपने अवगुणों की उसे पहचान थी, उसे सुधारने की कोशिश वह करता था। जिनको अपने अवगुण पता है, वही अपने आप में सुधार ला सकते है। दिखावे की दुनिया में व्यक्ती अपने आप को सुधारने की कोशिश भी नही करता उल्टा अपने लिए एक भ्रम पाल लेता है। इसीलिए अध्यात्ममार्ग में प्रगती करनी है तो अपने गुणों को बढाकर अवगुणों के प्रती सचेत होते हुए उनको दूर करना यही साधना की सब से बडी कुँजी है।  

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                                                                                          १३: मजाक कैसा ?

 

           एक धनवान व्यक्ती ने झेनगुरू सेनगाई से बिनती की “ कृपा कर के मुझे कुछ जीवन विषयक ज्ञान के बारें में ऐसा संदेश दिजिए की वह मुझे ओैर मेरे परिवार को पिढी दर पिढी समृद्धता प्रदान करे।”

           सेनगाई ने एक बडे कागज पर लिख दिया की ‘ पिताजी का देहांत होता है, बेटे की मृत्यु होती है, पोते का भी स्वर्गवास होता है।’

           वह पढने के बाद वह धनवान आदमी बहुत क्रोधित हो गया ओैर बोला “ मैंने आपको परिवार की खुशहाली के लिए संदेश माँगा था ओैर आपने तो मेरे साथ बडा अजीब मजाक किया।”

            सेनगाई ने कहा “ मैंने तुम्हारे साथ कोई मजाक नही किया। जीवन के सत्यता के बारे में तुम्हे आगा किया है। किसी भी व्यक्ती के सामने अपना बेटा मर गया तो वह बडी दुखदायक घटना होगी। वैसे ही पोता अपने सामने मर गया तो अपने बेटे ओैर अपने लिए भी बडी दर्दनाक घटना होगी। इसीलिए मैंने जो बात कागज पर लिखी है वैसे ही तुम्हारे परिवार में होता रहा तो किसी को अति दुख का भागी नही होना पडेगा। मृत्यु तो सबको आनी ही है, लेकिन कुदरती तरीके, प्राकृतिक नियम से सब हो जाए तो जीवन समृद्ध भी रहता है ओैर खुशहाल भी।”

            मतितार्थ, जो प्रकृति का नियम है उसी हिसाब से घटनाए होती रहती है तो सब के लिए वह मंगलकारक रहता है। उदाहरणार्थ अगर पेड की शाखा से कोई पुराना पत्ता ही नही गिरा तो नए पत्ते कैसे आएंगे? इसीलिए आदमी जब बुढा हो जाता है तब संसार से विदा होना जरूरी है। पुराने पत्ते गिरने से पेड को दुःख होगा फिर भी नए आनेवाले पत्तों के बारे में भी उसे सोचना होगा। वैसे ही अगर शाखा ही टुट गई तो संसार की समृद्धता कैसे बढेगी? प्रजोत्पादन करनेवाला बेटा ही चला गया तो पेड पर किस प्रकार का दुःख सहन करना पडेगा? वृद्ध पत्ते वह देखकर, उनकी याद में आखरी दम तक दुःख से थरथराते रहेंगे। शाखों की खाली जगह, अवकाश पोकली उसे बार-बार सताती रहेगी। समृद्धी का क्षय होता जाएगा। इन सब में अगर पोता मतलब नई शाखा ओैर उसपर खिले नए अंकुर ही नष्ट हो गए तो उस वृद्ध पेड पर क्या गुजरेगी? पुनरुत्पादन, ओैर समृद्धी दोनों का नाश हो जाएगा। वारसा अंश ही नष्ट हो गया, तो काल की चपेट में सहमा हुआ वृक्ष दुःख की जराजर्जरता से टुट जाएगा, इसीलिए सेनगाई ने धनवान व्यक्ती को यह संदेश लिखकर दिया की योग्य समय योग्य घटनाए सबके लिए मंगलकारक है। इस में सृष्टीचक्र ने मानव के साथ कोई भी चेष्टा नही की है। पुराने जब जाएंगे तभी नए का निर्माण होगा, ओैर नवनिर्माण को शिक्षित करना, अपनी संस्कृती की धरोहर नए पिढी के हाथ सोंप कर अपना कार्यभार संपन्न करने से ही कालगती शुरू रहेगी। यही प्राकृतिक नियम है।

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                                                                                         १४: सदगुणों का संतुलन

 

          एक बार धनवान व्यापारी ने लाओ-त्जूं जी से पुछा “ मास्टरजी, आपका शिष्य येन कैसा विद्यार्थी है?”

          लाओ-त्जूं ने कहा “ उदारता में वह मुझसे भी श्रेष्ठ है।”

          “ आपका कुंग विद्यार्थी कैसा है?” व्यापारी ने फिरसे पुछा

          “ मेरे वाणी में इतना माधुर्य नही जितना उसके वाणी में है।” लाओ-त्जूं ने कहा।

           व्यापारी फिर बोला “ आपका चांग शिष्य कैसा है?”

          “ मैं उसके जैसा साहसी नही हूं।” शांती से लाओ-त्जूं बोले।

          ऐसे जबाब सुनकर व्यापारी चकित होकर बोला “ महोदय, आपके शिष्य आपसे श्रेष्ठ है तो आप उनके गुरु कैसे हो गए?”

          लाओ-त्जूं ने हँसते हुए कहा “ यह सब मेरे शिष्य है क्युं की उन्होंने मुझे गुरु रुप में स्वीकार किया है। उन्हे यह बात पता है की केवल गुणों से श्रेष्ठ होना मतलब ज्ञानी होना ऐसी बात नही है।”

           अब व्यापारी का मन उत्सुक हो गया “ तो फिर ऐसा ज्ञानी कौन है?”

           “ ऐसा व्यक्ती जिसने अपने सब गुणों का संतुलन किया है, वही ज्ञानी कहलाता है।” इतना कहकर लाओ-त्जूं ध्यान मैं लीन हो गए।

           मतितार्थ, हर एक व्यक्ती में अछे-बुरे दोनों गुणों का मिश्रण होता है। जिसको गुणों की पहचान होती है वही अपने ओैर दुसरों के भी गुण-अवगुणों से परिचित होता है। कितने लोगों को यह पता ही नही रहता की अपने अंदर क्या समाया हुआ है। केवल दुसरों ने दिखाए मार्ग पर वह चलते रहते है। अनुकरण, अनुसरण करते रहते है। सामनेवाले व्यक्ती के गुण अपने अंदर लाने के लिए मेहनत करते रहते है। खुद के गुण-अवगुण पहचनने का सामर्थ्य भी ऐसे लोगों में नही रहता। खुद का सामर्थ्य जानकर मार्ग पर चलते रहने का खयाल भी इन लोगों में नही आता। वह सिर्फ भक्त कहलाते है। जो व्यक्ती स्वयं को जानकर गुण-अवगुणों का संतुलन करता है वही गुरु कहलाता है। शिष्य भक्ती जरूर करे लेकिन अपने अंदर की क्षमताओं को पहचान कर अपना मार्ग खुद चले। यही असली साधना है।

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        लाओ-त्जूं मास्टरजी ने एकबार तय किया की चलो आज मछली पकडते है। मछली पकडने के लिए लंबी डंडी का फाँसा तयार किया ओैर उसमें आमिष लगाकर नदी किनारे जा बैठे। कुछ देर शांती से बैठने के बाद उन्होने महसुस किया कि एक बडी मछली जाल में फँसी है। लाओ-त्जूं बडे उत्साह से अपनी पूरी ताकद लगाकर उस फास को खिंचने लगे, ओैर उधर जाल में फँसी मछली अपनी पुरी ताकद लगाकर जाल से निकलने का प्रयास करने लगी। दोनों के खिंचा-तानी में मछली जाल तोडकर भागने में कामयाब हो गई।

        लाओ-त्जूं ने फिर से नया फासा बनाया ओैर नदी किनारे जा बैठे। कुछ देर बाद अटकी हुई एक बडी मछली उन्होने महसुस की। इस बार उतावलापन न दिखाते हुए धीरे-धीरे उस जाल को समेटना शुरू किया। ऐसी मंद प्रक्रिया में उस मछलीने जाल को जोर से धक्का दिया ओैर टुटे हुए जाल से वह भाग निकली।

         अब लाओ-त्जूं ने फिरसे नया फासा बनाया ओैर नदी किनारे जा बैठे। कुछ भी हो जाय आज तो उनको मछली पकडनी ही थी। इस बार भी एक बडी मछली फँस गई। अब लाओ-त्जूं ने इतना ही तनाव रखा जितना वह मछली नीचे खिंच रही थी। दोनों की ताकद समान रुप से चल रही थी। जब मछली जाल को खिंचते-खिंचते थक गई तब लाओ-त्जूं ने उसे आराम से बाहर निकाला।

          उस शाम अपने शिष्यों से बात करते वक्त लाओ-त्जू ने कहा “ संसार में कैसा व्यवहार करना चाहिये इस बात का नया पाठ आज मैने सीखा है। ‘समान बल प्रयोग सिद्धांत’। जब संसार तुम्हे अलग दिशा में खिंच रहा होगा तब तुम भी उतनी ही ताकद लगाकर उलटी दिशा की ओर चले जाना। सामनेवाले पर ओैर जादा ताकद लगाने का प्रयास तुम्हे नष्ट कर सकता है, ओैर क्षीण बल का उपयोग किया तो संसार तुम्हे नष्ट करेगा।

         मतितार्थ, जगत में तीन तरह के लोग रहते है। वर्चस्व दिखानेवाले, गुलामी का जीवन जीनेवाले, प्रसंगानुरूप अपनी चाल को बदलनेवाले, इन सब में योग्य मार्ग यही है की समय के अनुसार अपने आप में बदलाव करना। तुम्हारे उपर अगर कोई वर्चस्व दिखाने की कोशिश करे तो उससे दुर रहने में ही भलाई है। नही तो अपना व्यक्तिमत्व मिटने की संभावना रहती है। गुलामी का जीवन व्यक्ती का सत्व ही नष्ट कर देता है। यह एक तरह का मानसिक अनारोग्य है। अब इस में यह सवाल पैदा होगा की हम जहाँ पैदा हुए है उसी तरीके से हमे जीना पडेगा। फिर वह राजा हो या गुलाम। यह बात तो सच है लेकिन स्थिती  में भी हम खुद का पथ, मार्ग तयार कर सकते है। हमेशा दुसरा व्यक्ती तुम्हे पहले अजमाता है। उसे डरकर उसका वर्चस्व मान्य किया तो वह हमेशा तुम्हे दबता ही रहेगा। वही उसकी तरह हम भी अपनी ताकद दिखाने में कामयाब हुए तो लोग अपना योग्य सन्मान करने लगते है। अपना सन्मान्य जीवन अपने ही हाथ में है।

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            एक दिन एक व्यक्ती च्वांग-त्जूं के पास आया ओैर कहने लगा “ गुरुदेव, मेरे आँगन में एक बहुत बडा पेड है, लेकिन वह कुछ काम का नही है। उसकी शाखाए इतनी कठीण है की लकडहारा भी उसे काट नही सकते। उसकी टहनिया एक-दुसरे में ऐसी फँसी है की उससे कोई अवजार भी नही बन पाते। ऐसे वृक्ष का घर में होना ना होना क्या काम का?”

            च्वांग-त्जूं ने कहा “ बेटे, आपने कभी नदी में कुदने-खेलनेवाली मछलीया देखी है क्या? पानी पर तैरनेवाले किडे-मकोडे, छोटे बेडूक वह मछलिया खा जाती है। लेकिन ऐसी मछलिया भी जादा दिन जिंदा नही रह पाती। एक तो वह किसी के जाल में फँस जाती है या बडी मछलियों का शिकार बन जाती है। दुसरी तरफ देखा जाय तो कछुवा कुछ काम नही कर सकता फिर भी उसकी उम्र सौ-देड सौ साल की होती है। ऐसे ही तुम्हारा वृक्ष भी किसी काम का नही इसीलिए वहाँ खडा रह पाया है अन्यथा तुम उसका उपयोग करके अब तक खतम कर चुके होते। अब इसी वृक्ष के नीचे बैठकर तुम ध्यान करना। उसकी महानता तुम्हे समझ आयेगी।”

             मतितार्थ, मानव जिस चीज का उपयोग करता है वह कभी ना कभी तो खत्म हो ही जाएगी। निसर्ग का वह कानून है। ‘जीवो जीवस्य जीवनम’ यही शृंखला है। यह हमेशा कार्यरत रहती है। जिसको दुर्लक्षित किया जाता है उसी के पास ज्ञान का भंडार होता है। व्यक्ती के स्वभाव लहरों के अनुसार जो लोग अपने आप को नही बदलते, अपने निष्ठा पर कायम रहते है, अपने विचार, कर्म अबाधित रखते है, वही सही मायने में जीवन के प्रती गंभीर रहते है। पानी में खेलनेवाली मछलियों की तरह उनके विचार चंचल नही रहते। जीवन चक्र के नुसार उनके मन में भी विचारधारा चलती रहती है लेकिन वह हवा आयी ओैर बह गई इतनी अलिप्तता से उसे देखते है। अनवट वृक्ष के समान, मौन का साथ उन्हे मिल जाता है तब वह स्थिर अवस्था में लीन हो जाते है। जो व्यक्ती खुद शांती महसुस करता हो वही दुसरों को शांती प्रदान कर सकता है। इसीलिए च्वांग-त्जूं मास्टरजी ने उस व्यक्ती को शांती से भरे अपने-आप में जिनेवाले वृक्ष को आदर्श मानकर उसी के छाया के नीचे ध्यान-साधना करने की सलाह दी।

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