"प्यार कहां किसी का पूरा होता है प्यार का तो पहला अक्षर ही अधूरा होता है..."
आज से पांच साल पहले मैं इस तरह की ट्रक-छाप शायरी से कितना चिढ़ती थी। पर आज....
मैंने डायरी बंद की। चुपके से दो आंसू लुढ़ककर तकिए में समा गए।
मैं मीरा देसाई, हमेशा, हर जगह, हर फील्ड में, हर हाल में टॉपर हूं। जीतना, अव्वल आना मेरी फ़ितरत है। कभी किसी से हारना सीखा ही नहीं।
घर में मुझे कॉम्पिटिशन देने वाला कोई था ही नहीं। इकलौती औलाद जो हूं। कहने को एक कज़िन है, इरा। लेकिन उससे कभी बनी नहीं।
इरा अनाथ होने के बावजूद दबी-कुचली बेचारी सी लड़की नहीं रही कभी। उसके पेरेंट्स, मतलब मेरे चाचा-चाची उसके लिये काफ़ी कुछ छोड़ गए थे और मेरे मम्मी-पापा भी उसे बहुत प्यार से पाल रहे थे। वह बहुत ही सेल्फ कॉन्फिडेंट, हिम्मती और इंटेलिजेंट रही है। फिर भी हमेशा टॉप मैं ही करती थी और वह सेकंड पोज़िशन पर आकर भी खुश ही रहती थी।
लेकिन उसके शौक़ सारे लड़कों वाले हैं। क्रिकेट, फुटबॉल, बॉलीवॉल से लेकर हाइकिंग, पैराग्लाइडिंग, ट्रैकिंग, डाइविंग तक तमाम एडवेंचर। उसका एड्रेनलिन हमेशा हाई रहता है। हॉकी में तो उसकी एक्सपर्टाइज़ है। बॉब कट बाल और जीन्स, ट्राउज़र या शॉर्ट्स डाले वह लड़कों के साथ ही घूमती रहती थी हमेशा। गोरा रंग धूप में टैन ही रहता, एथलीट बॉडी, स्लिम लेकिन मज़बूत ।
कभी-कभी मम्मी को चिंता होती थी कि लोग क्या कहेंगे, बिन मां-बाप की बच्ची है तो ध्यान नहीं दिया। लेकिन बचपन में उसे पापा की शह रही और कॉलेज में आते ही उसने ऐलान कर दिया कि उसकी शादी वगैरह के पीछे हलकान न हुआ जाए न उसे किसी के कैरेक्टर सर्टिफिकेट की परवाह है। अपना भला-बुरा वह समझ लेगी, बालिग है। इस तरह से मेरी मम्मी पूरी तरह ही उससे कट सी गईं।
रही मेरी बात, तो समाज कितना ही आगे निकल जाए, अभी भी लड़कियों की आज़ादी और उनके लिए बनाए क्राइटेरिया में फिट न होने वालियों को अच्छी नज़रों से नहीं देखता है। यह बात मुझे बहुत जल्द ही समझ आ गई थी। यहां तक कि विदेश में रहने वाले एनआरआई भी अपने बेटों की शादी के लिये संस्कारी देशी बहू ही चाहते हैं। जब हिप्पोक्रिसी इस समाज की रग-रग में बसी है तो मैं भी फ़ायदा उठाने से क्यों पीछे रहती। नौकरीपेशा महिलाओं की ज़िंदगी मेरे सामने थी। घर में भी खटती रहो और ऑफिस में भी। न सिर्फ़ रोटी पकाने की चिंता बल्कि रोटी कमाकर लाने की भी। इसलिए मेरा पहले से तय था कि परफेक्ट एनआरआई एलिजिबल बहू मटीरियल बनना है मुझे।
उसके लिए ख़ासी मशक़्क़त भी की थी। फ़्लूएंट इंग्लिश और एटिकेट्स, हाई सोसाइटी में मूव करने के मैनर्स और ग्रूमिंग पर बहुत मेहनत की थी। फैशन का अच्छा सेंस था। कमर तक लहराते लम्बे घने बाल, दूधिया रंगत, सुतवां नाक, छरहरा, लम्बा कद और हमेशा स्टाइलिश लेकिन भारतीय परिधान। घर पर भी सलवार सूट। बाहर बिन दुपट्टे के न निकलना।
जिसे देखो, यही कहता, देसाई जी की बेटी कितनी संस्कारी है। पढ़ाई में होशियार है, दस देशों के खाने बना लेती है। फरर्राटदार अंग्रेज़ी बोलती है, पढ़ाई में टॉपर है। कितनी विनम्र है। इससे अच्छी लड़की आज के दौर में कहां मिलेगी।
और इस कारण इरा की 'बुराइयां' और उभरकर सामने आतीं। लड़कों जैसी रहती है, लड़कों के साथ रहती है। आवारा, मुंहफट है एक नम्बर की। पैसों का नशा है इसलिए बेचारी मीरा को कुछ नहीं समझती। ऐसी तेज़- तर्रार लड़कियां कभी हंसती-बसती नहीं रह सकतीं। जब जवानी का जोश ठंडा होगा, बुढ़ापे में पछताएगी।
जबकि हक़ीक़त में इरा एक सीधी-सादी, मिलनसार, सच्ची, मददगार, नर्मदिल लड़की है। बस उसे बातें बनाना, मक्खन लगाना, अपना काम निकालना नहीं आता था। लेकिन उस समय तो मुझे यह सब बातें दिखती ही नहीं थीं। बस अपनी जीत पर ख़ुशी होती थी। एक अघोषित मुकाबला था, जो उसके और मेरे बीच चलता था, जि
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