शर्त बस सी थी कि दोनों जब कुछ बन जाएंगे तभी घरवालों से शादी की बात की जाएगी। उन दिनों यूनिवर्सिटी के लड़के लडकियां भी बहुत निसंकोच होकर एक दूसरे से नहीं मिल पाते थे। कम से कम अपने बारे में तो ऐसा कह ही सकता हूं मैं। मेरी मित्र मंडली के लड़के भी साथ की लड़कियों से बात करने में घबराते थे।
यूनिवर्सिटी में जब भी खाली समय मिलता हम एक जगह इकठ्ठा होते या कभी कभी क्लासेज ख़त्म हो जाने के बाद भी। कुछ कविताएं पढ़ी जातीं, कुछ कहानियां गढ़ी जातीं। कुछ गीत, कुछ गजलें, सभी कुछ समय के उस छोटे टुकड़े में सम्पन्न होता। उन खुशनुमा दिनों के बीच एक डर हम सभी के मन में चोर सरीखा छिपा रहता-अनदेखे भविष्य का डर। पढ़ाई खत्म हो जाने के बाद क्या होगा? नौकरी नहीं मिली तो क्या करेंगे? कविता, कहानी या गाने बजाने से रोज़ी रोटी नहीं कमाई जा सकती है- ये एक कड़वा सच था
।लड़कियां इस चिंता से मुक्त थीं क्योंकि पढ़ाई के दौरान या पढ़ाई ख़त्म हो जाने के बाद किसी भी कमाऊ लड़के के साथ उनका ब्याह हो जाना तय था। लेकिन वो बाक़ी लड़कियों से अलग थी। वो यानि शालिनी। शालिनी के पिता ब्यूरोक्रेट थे। वो शोफ़र ड्रिवेन सरकारी कार से यूनिवर्सिटी आया करती थी।
काफी अच्छी अंग्रेज़ी बोलती। कविताएं लिखती- लेकिन अंग्रेज़ी में। गिटार विटार भी बजा लेती थी। और हां- पेंटिंग भी किया करती थी क्योंकि अक्सर क्लास में आ कर वो अपना कैनवास दीवार से टिका कर रख देती जिसमें कोई अधूरी पेंटिंग बनी होती। उसकी उंगलियों के पोरों पर रंग लगे होते थे। शालिनी की चुप्पी, उसका गाम्भीर्य और अभिजात्य उसे सबसे अलग दीखता था।
एम.ए. के पूरे बैच में शालिनी ने टॉप किया था और दूसरा नंबर मेरा था। शालिनी ने मुझे बधाई दी और यहीं से हमारी दोस्ती की शुरुआत हुई। वो धीरे धीरे मुझसे खुलने लगी थी। अक्सर नोट्स बनाते समय वो मेरे पास आ कर बैठ जाती। हमारी दोस्ती मेरी मित्र मंडली के बीच ईर्ष्या का विषय थी।
शालिनी एक करियर ओरिएंटेड लड़की थी। उसे एम.ए. के बाद शादी करके घर नहीं बैठ जाना था। वो जब भी मिलती प्यार मुहब्बत की बातें करने के बजाय मुझे करियर पर फोकस करने की सलाह देती जबकि मैं उसके साथ हमेशा ही रोमानी हो जाया करता। करियर पर मुझे भी फोकस करना था लेकिन मैं बहुत महत्वाकांक्षी नहीं था। परिणाम ये रहा कि वो मुझसे उखड़ी उखड़ी रहने लगी। हमारे बीच दूरी आने लगी। फिर एम.ए. के बाद तो हम बिल्कुल ही अलग हो गए। आज मुझे लगता है कि वो मुझे सफल होते देखना चाहती थी। खुद से भी ज़्यादा सफल ताकि मैं अधिकार
और अभिमान से उसके पिता से उसका हाथ मांग सकूं।
कुछ सालों बाद सुना कि शालिनी कॉम्पिटिशन पास करके कहीं डिप्टी कलक्टर बन गई थी और मैं एक छोटे से शहर के छोटे से महाविद्यालय में पढ़ा रहा था। इसे समय कहें या संयोग शालिनी की पोस्टिंग मेरे उसी छोटे से शहर में हो गई। ज्वॉइन करते ही उसने मुझसे सम्पर्क किया.
खुशबुओं से भरी वो एक खूबसूरत शाम थी जब मैं उसकी पसंद के रजनीगंधा के फूल लेकर उससे मिलने पहुंचा था। शहर में एक नया रेस्टोरेन्ट खुला था। वो अकेली ही अपनी कार खुद चलाकर आई थी। सरकारी अमला साथ नहीं था उसके।
"कैसी हो शालू
?"
"बिल्कुल ठीक।" वो मुस्कराई। फिर एक मौन बीच में पसर गया। मैं कुछ असहज हो रहा था। पहले कौन बोले? क्या ऐसी कोई अपेक्षा, प्रतीक्षा बीच में थी? मैं उसे गौर से देख रहा था। कॉन्फिडेंट और खूबसूरत। जीन्स टॉप की जगह आज साड़ी ब्लाउज का पहनावा था। रेशमी बालों की कुछ लटें बिखर कर कंधे और गालों पर झूल रही थीं। अभिजात्य और सौन्दर्य का सम्मिश्रण। वो अफसर कम बॉलीवुड एक्ट्रेस अधिक दिख रही थी। उसे पा लेने को छटपटा उठा था मैं। प्रकट में संतुलित रहा। हां, एक बात ज़रूर अजीब सी लगी। उसकी नाजुक उंगलियों में एक सिगरेट दबी हुई थी जिसका कश वो बार बार ले रही थी। लेकिन अपनी अनिच्छा किस अधिकार से ज़ाहिर करता।