काश.... लेकिन कितने????.. 2 pooja द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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काश.... लेकिन कितने????.. 2

उसके व्यवहार में गहरी आत्मीयता थी, स्वाभाविकता थी जिससे मैं सहज होने लगा। बातें उसने ही शुरू कीं। अकादमी की, ट्रेनिंग की, अनुभवों की, स्टाफ की। कुछ देर तक हम लोग पुरानी यादों में डूबते उतराते रहे। आखिरकार मैंने कह ही दिया-"ये सिगरेट कब से पीना शुरू कर दिया तुमने?"


"तुम कहते हो तो नहीं पीती... लो फेंक दी," वो मुस्कराई मानो उसने मेरा मन पढ़ लिया हो। वापसी में उसने मुझे घर छोड़ने का प्रस्ताव दिया जिसे मैंने टाल दिया


इसके बाद हम लोग लगातार चार पांच बार मिले। हफ्ते दस दिन के अंतराल पर, छोटे शहर की छोटी छोटी छोटी जगहों पर। एक शाम वो कहने लगी - "आज तुम्हारे साथ पैदल चलने को जी चाहता है, कृष्णा।" मेरे मन में बीते बरसों की रोमानियत जाग उठी। गुलमुहर के पेड़ों से घिरी शांत सड़क पर हम साथ चलने लगे। धीरे धीरे बतियाते हुए। मौसम, हवाएं, गुलमुहर, रास्ते सभी कुछ आज मेरे लिए अर्थवान हो गए थे क्योंकि वो साथ थी, सबसे अलग सी, कोमल सी, मनस्पर्शी।


अंधेरा घिर आया था।


"तुम मुझे गेस्ट हाउस तक छोड़ने चलोगे ?" उसके आग्रह में ढेर सारा प्यार था, "वैसे मैं अकेले भी जा सकती हूं लेकिन साथ चलोगे तो थोड़ी देर का साथ और हो जाएगा

वी.आई.पी. गेस्ट हाउस में पहुंच कर शालिनी ने दो गिलासों में ड्रिंक्स बनाई तो मुझे इनकार करना पड़ा। उसने इसरार भी नहीं किया। दो ड्रिंक्स के बाद जब उसने तीसरा ड्रिंक लिया तब वो खुलने लगी- "दिन भर तो दफ्तर में कट जाता है लेकिन शाम को काफी अकेली पड़ जाती हूं। एक बात कहूं...?"


मैंने उसे आंखें गड़ा कर देखा और देखता ही रह गया। कितनी मासूम, कितनी सुंदर दिख रही थी वो। कलक्टर जैसी तो बिल्कुल भी नहीं।


"जब तक मैं इस शहर में हूं, क्या तुम रोज़ मुझसे मिल सकते हो? रोज़ शाम को... यहीं।"


उसके इस प्रस्ताव से मैं एकाएक हड़बड़ा गया- "ये छोटा सा शहर है, शालिनी। कई तरह की बातें, कई तरह की अफवाहें उड़ जाएंगी हमारे बारे में।

"उंह, शहर की अफवाह, आलोचना, कौन परवाह करता है?" उसने कंधे उचकाए। उसकी आंखों के मादक लाल डोरे देख कर मुझे अजीब सा लगा। इस समय वो मुझे अजनबियत की हद तक पराई लगी।


एक धीमा सा मौन।


।"


"मुझसे शादी करोगे, कृष्णा ?" उसने पूछा तो मुझे लगा मेरे भीतर कुछ पिघल सा रहा है। मुझे अपनी कनपटियों पर कसाव महसूस होने लगा।


"मैं तुम्हें पसंद करती हूं, बहुत ज़्यादा। शायद प्यार भी

करती हूं आज तक।" उसके लड़खड़ाते स्वर में नशा

घुल रहा था। डगमगाती हुई वो उठी और मुझसे बिल्कुल

सट कर बैठ गई। हाथ की सिगरेट फेंक दी थी उसने।

मेरा हाथ बड़े दुलार से अपने हाथों में थाम लिया था

उसने। उसकी हथेली काफी गर्म थी-"मेरी ज़िन्दगी में

भयानक अकेलापन है कृष्णा, कितनी घुटन... तुम नहीं

समझ सकते। बहुत धोखे दिए हैं मुझे जिंदगी ने," नमी

उतर आई थी शालिनी की आंखों में। मैंने सुना था कि

नशे में धुत इंसान आसानी से रो सकता है। मुझे लगा

शालिनी किसी भी पल रो सकती थी बस उसे मेरा कंधा

चाहिए था। लेकिन मैंने अपना हाथ उसके हाथों के बीच

से खींच लिया। अब हमारे बीच एक मर्यादित दूरी थी।

फिर एकाएक मैं उठ खड़ा हुआ-"काफी देर हो चुकी है। मुझे अब चलना चाहिए। घर पर मेरी पत्नी.... "कहते कहते मैं रुक गया। शालिनी की आंखों के मादक लाल डोरे एक तरफ हो गए थे और वहां अनगिनत सवाल उग आए - "कभी बताया नहीं तुमने कि तुम शादीशुदा हो।" उसके चेहरे की रंगत बदल गई थी। एक शुष्क कड़ापन था उसके बोलने के अन्दाज़ में।


"हां... नहीं... मेरा मतलब है..., "मैं हकलाने लगा था।


वो भड़क उठी - "निकल जाओ यहां से, अभी के अभी। मेरा समय बर्बाद मत करो।"


इतना मुखर अपमान और वो भी बिना किसी अधिकार के। मेरे शरीर में कांटे उग आए थे। शर्म और अपमान से कांप उठा था मैं। इसके बाद बिना रुके, बिना कुछ कहे मैं उसके कमरे से बाहर निकल आया। रात के अंधेरे में अपने घर का रास्ता पहचानते हुए मैं लौट रहा था। मेरा घर जहां बस मैं और मेरी मां रहा करते हैं। मेरी मां जो रात दिन एक सपना बुनती रहती है। सजी सजाई, ढकी ढकाई लाजवंती बहू का सपना। उसके सपनों के खांचे में शालिनी तो कतई फिट नहीं बैठती थी। ... और शायद अब मेरे सपनों के खांचे में भी नहीं।


मेरा मन उदास था, खूब उदास। बहुत से काश मन पर बार बार चोट कर रहे थे। काश वो मेरे शहर में नहीं आई होती। काश हम लोग दोबारा नहीं मिले होते। काश हम इतने परिपक्व न हुए होते। ऐसे कितने ही काश मेरे मन में लगातार गड्डु मड्डु होते रहे।